कार्तिक पूर्णिमा: जब त्रिपुरासुर का अंत कर त्रिपुरारी कहलाए महादेव

हमारे सनातन हिंदू धर्मग्रंथों में कार्तिक मास की पूर्णिमा का भारी महिमागान मिलता है। तमाम पौराणिक और आध्यात्मिक प्रसंग कार्तिक पूर्णिमा की महत्ता को उजागर करते हैं पर कम ही लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि महाशिवरात्रि के बाद कार्तिक मास की पूर्णिमा को देवाधिदेव महादेव की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त करने की दूसरी […]

Nov 15, 2024 - 13:53
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कार्तिक पूर्णिमा: जब त्रिपुरासुर का अंत कर त्रिपुरारी कहलाए महादेव

हमारे सनातन हिंदू धर्मग्रंथों में कार्तिक मास की पूर्णिमा का भारी महिमागान मिलता है। तमाम पौराणिक और आध्यात्मिक प्रसंग कार्तिक पूर्णिमा की महत्ता को उजागर करते हैं पर कम ही लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि महाशिवरात्रि के बाद कार्तिक मास की पूर्णिमा को देवाधिदेव महादेव की प्रसन्नता और कृपा प्राप्त करने की दूसरी सबसे फलदायी तिथि माना जाता है। इसीलिए हिन्दू धर्मावलम्बी; खासतौर पर शैव मत के अनुयायी कार्तिक पूर्णिमा को ‘त्रिपुरारी पूर्णिमा’ के रूप में अत्यन्त श्रद्धा -भक्ति के साथ मानते हैं।

महाभारत के ‘कर्ण पर्व’ में इस पर्व की महिमा तथा त्रिपुरासुर की वध की कथा विस्तार से वर्णित है। इस कथा के अनुसार शिव पुत्र कार्तिकेय द्वारा महाअसुर तारकासुर के वध से क्षुब्ध उसके तीनों पुत्रों (तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली ने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए घोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर ऐसा विलक्षण वरदान प्राप्त कर लिया था जिससे उन्हें जीतना असंभव हो गया था। उस वरदान के मुताबिक मय दानव ने तारकासुर के तीनों पुत्रों के लिए अंतरिक्ष में तीन जादुई नगरियों ‘स्वर्णपुरी’, ‘रजतपुरी’ और ‘लौहपुरी’ का निर्माण किया था।

इन असुरों को ब्रह्मा जी से यह वर मिला था कि अंतरिक्ष में स्वतंत्र रूप से भ्रमण करने वाली ये तीनों पुरियां जब अभिजित नक्षत्र में एक सीधी रेखा आयें और उस वक्त यदि कोई क्रोधजित योगी पूर्ण शांत अवस्था में असंभव रथ पर सवार होकर असंभव बाण का संधान करे तो ही उनकी मृत्यु हो सकेगी। इस अद्भुत वरदान के कारण वे तीनों दानव अजेय हो गये और उन्होंने चहुंओर अपना आतंक फैलाकर देवशक्तियों का जीना दूभर कर दिया। तब देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने उन तीनों असुरों का अंत करने के लिए अनूठी माया रची।

महादेव की इस माया में सहभागी बनते हुए पृथ्वी उनका रथ बनी, सूर्य व चन्द्रमा उस रथ के पहिये, ब्रह्मा जी सारथी, विष्णु जी बाण तथा मेरु पर्वत धनुष और नागराज वासुकी उस धनुष की प्रत्यंचा। फिर कार्तिक पूर्णिमा की पावन तिथि को काशी की पुण्यभूमि पर अभिजित नक्षत्र में ज्यों ही तीनों पुरियां एक सीध में आयीं त्यों ही महादेव ने एक ही बाण से तीनों पुरियों को नष्ट कर उनमें मौजूद तीनों महादैत्यों का अंत कर डाला। तब उन तीनों महाअसुरों के आतंक से मुक्त होने पर हर्षित देवताओं ने महाआरती कर महादेव शिव को ‘त्रिपुरारी’ और ‘त्रिपुरांतक’ की संज्ञाओं से विभूषित किया। कहते हैं कि तभी से यह तिथि त्रिपुरारी पूर्णिमा के नाम से विख्यात हो गयी। मान्यता है कि वह शिव नगरी की प्रथम देव दीपावली थी।

गायत्री महाविद्या के महासाधक पंडित श्री राम शर्मा आचार्य के अनुसार यदि हम सब त्रिपुरासुरों और त्रिपुरारी शिव के इस कथानक के पीछे निहित आध्यात्मिक तत्वदर्शन को हृदयंगम कर सकें तो वर्तमान की तमाम समस्याओं से निजात पा सकते हैं। वे लिखते हैं कि वैदिक मनीषियों ने मानव के तीन शरीरों को परिभाषित किया है। ये तीन शरीर हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। यह विभेद अब वैज्ञानिक रूप से भी प्रमाणित हो चुका है।

उपरोक्त कथा में अलंकारिक भाषा में इन्हीं तीन शरीर को तीन पुरियों की संज्ञा दी गयी है। हमारे व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास के लिए इन तीनों शरीरों का आपसी संतुलन अनिवार्य है। यूं तो शारीरिक विकास व मानसिक परिष्कार के लिए अनेक योग साधनाएं हमारे मनीषियों ने बतायी हैं। फिर शिव को तो आदियोगी माना गया है। हमारी स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के शत्रुओं के जागरण के लिए साधना के तीन आधार बनाये- जप, ध्यान और प्राणायाम। योग विशेषज्ञ इन्हीं त्रिविध आधारों के भेद-उपभेद के द्वारा आत्म परिष्कार के स्वरूप निर्मित करते हैं। हमारे दैहिक, दैविक व भौतिक तीनों स्वरूपों के अज्ञान जनित दुर्गुणों का नाश करने में सिर्फ महायोगी शिव ही सक्षम हैं। इसलिए वे ‘त्रिपुरांतक’ या ‘त्रिपुरारी’ कहलाते हैं। भोलेनाथ की नगरी काशी में इस देव दीपावली की रौनक देखते ही बनती है। कार्तिक पूर्णिमा की संध्या वेला में कल-कल बहती सदानीरा गंगा के तट पर बसी शिव नगरी के घाटों पर जब वैदिक मंत्रों के बीच शास्त्रोक्त विधि से प्रज्ज्वलित लाखों दीपों की साक्षी में महाआरती का अनुष्ठान किया जाता है तो चहुंओर दिव्य आभामंडल की सृष्टि हो जाती है।

जानना दिलचस्प हो कि कार्तिक पूर्णिमा के गंगा स्नान की भारी मान्यता है। इसे शीत ऋतु से पहले का अंतिम गंगा स्नान माना गया है। इस मौके पर हरिद्वार, प्रयाग, काशी व उज्जैन से लेकर उत्तराखंड के गढ़ मुक्तेश्वर तथा राजस्थान के पुष्कर तीर्थ में विशेष स्नान पर्वों का आयोजन होता है। इस पावन तिथि से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण प्रसंगों की बात करें तो जगत पालक भगवान विष्णु ने प्रलयकाल में सृष्टि को बचाने के लिए इसी दिन अपना पहला मत्स्य अवतार लिया था। पुष्कर तीर्थ में ब्रह्मसरोवर का प्रादुर्भाव भी इसी दिन हुआ था। पांडवों ने भी महाभारत युद्ध में दिवंगत परिजनों की पावन स्मृति में कार्तिक पूर्णिमा को गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ में गंगा स्नान कर संध्या बेला में दीपदान किया था।

सिख धर्म में तो कार्तिक पूर्णिमा की तिथि सर्वाधिक शुभ मानी जाती है। सिख समुदाय के लोग इसे गुरुपर्व के रूप में भारी धूमधाम से मनाते हैं। महान संत और सिख धर्म के प्र्वतक गुरु नानक की जन्म तिथि होने के कारण सिख समाज में इस दिवस की भारी मान्यता है। सिखधर्मी इस पर्व को प्रकाशोत्सव के रूप में मनाते हैं। इस दिन गुरुद्वारों में गुरु पाठ और कीर्तन का आयोजन होता है तथा सुबह से शाम तक लंगर छकने के लिए भारी भीड़ उमड़ती है।

अब इस पर्व से जुड़े लौकिक पक्ष की बात करें तो ज्योतिषीय गणना के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के दिन चंद्रमा ठीक 180 डिग्री के कोण पर होता है। इस दिन चंद्रमा से निकलने वाली किरणों का दिव्य विकिरण मन-मस्तिष्क में सकारात्मक भावों का संचार करता है। ऋतु परिवर्तन के इस खास बिंदु की सूचक कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यह अंतिम तिथि मौसम में शीत की ठिठुरन बढ़ने का संकेत देती है। देह विज्ञानियों के मुताबिक वाह्य मौसम का यह बदलाव हमारी दैहिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। गर्मी जाने के साथ पित्त शांत हो जाता है। आयुर्वेद के अनुसार शीत ऋतु में जठराग्नि प्रबल होती है। खाया हुआ आसानी से पच जाता है। इसलिए इस अवधि में शरीर को बलिष्ठ व ऊर्जावान रखने के लिए दूध,गुड़, घी, तिल, खजूर, मुनक्का, सूखे मेवे और आंवला तथा ज्वार,बाजरा,मंडुआ और मक्का और उरद जैसे अन्न और बथुआ,चौलाई,पालक, जिमीकंद,सिंघाड़ा जैसे ऊष्ण प्रवृति के आहार के सेवन की परंपरा हमारी वैदिक मनीषा ने बनायी थी।

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