एक संस्कृति, एक आत्मा और एक साझा अनुभूति; यही अपने राष्ट्र की मूल भावना है – मुकुल कानिटकर जी

नागपुर, 07 दिसम्बर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में मोहिते भाग के श्री कच्छ पाटीदार भवन, क्वेटा कॉलोनी में आयोजित प्रमुख जन संगोष्ठी को संबोधित करते हुए चिंतक मुकुल जी कानिटकर ने कहा कि भारत और राष्ट्रीयता हमारे लिए न तो कोई आर्थिक विषय है और न ही राजनीतिक; यह किसी एक […] The post एक संस्कृति, एक आत्मा और एक साझा अनुभूति; यही अपने राष्ट्र की मूल भावना है – मुकुल कानिटकर जी appeared first on VSK Bharat.

Dec 10, 2025 - 08:11
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एक संस्कृति, एक आत्मा और एक साझा अनुभूति; यही अपने राष्ट्र की मूल भावना है – मुकुल कानिटकर जी

नागपुर, 07 दिसम्बर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में मोहिते भाग के श्री कच्छ पाटीदार भवन, क्वेटा कॉलोनी में आयोजित प्रमुख जन संगोष्ठी को संबोधित करते हुए चिंतक मुकुल जी कानिटकर ने कहा कि भारत और राष्ट्रीयता हमारे लिए न तो कोई आर्थिक विषय है और न ही राजनीतिक; यह किसी एक भाषा से निर्मित राष्ट्र भी नहीं है। इस राष्ट्र का वास्तविक आधार हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार और हमारे भीतर की आत्मीयता है। यही भाव तब प्रकट होता है, जब भुज में भूकंप आता है और पूरा देश सहायता के लिए खड़ा हो जाता है, या केदारनाथ में मन्दाकिनी फटती है तो देश के कोने-कोने से लोग पहुँचकर सेवा करते हैं। यही वह भाव है जो चंद्रयान के चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पहुँचने पर पूरे देश को एक साथ उल्लास से भर देता है, और यही भावना क्रिकेट टीम के विश्व कप जीतने पर हर भारतीय के मन में झलकती है। इस अवसर पर मोहिते भाग संघचालक रमेश जी पसारी और सामाजिक कार्यकर्ता रमेश जी पटेल मंच पर उपस्थित थे।

मुकुल जी ने कहा कि भारत की यह एकात्म चेतना नई नहीं है। इसे हम इतिहास में भी देखते हैं – शंकर देव हों या गुरु नानक देव, दोनों ने भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण किया। उन्हें भाषाई बाधाओं ने कभी नहीं रोका। शंकराचार्य जब केरल से निकलकर देश की चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना करते हैं, तब भी भाषा उनके मार्ग में अवरोध नहीं बनती। यही इस राष्ट्र की मूल भावना है – एक संस्कृति, एक आत्मा और एक साझा अनुभूति।

मुकुल जी कानिटकर ने “पंच परिवर्तन” की संकल्पना को विस्तार से समझाया। उन्होंने कहा कि वास्तविक परिवर्तन का आरंभ हमेशा स्वयं से होता है। स्वयं में आए परिवर्तन से परिवार में परिवर्तन आता है, परिवार का परिवर्तन समाज में और समाज का परिवर्तन राष्ट्र में प्रवाहित होता है। राष्ट्र के स्तर पर यह परिवर्तन संपूर्ण सृष्टि को प्रभावित करता है और अंततः यह परिवर्तन परमेष्ठी तक पहुँचता है।

उन्होंने कहा कि कोरोना महामारी में अद्भुत उदाहरण देखने को मिला, जब परिवार के लोग विश्व के अलग-अलग हिस्सों में रहते हुए भी वीडियो कॉल पर एक साथ बैठकर रामरक्षा स्तोत्र का पाठ कर रहे थे। भारतीय समाज ने तकनीक का उपयोग परिवार को जोड़ने के लिए किया है, न कि तोड़ने के लिए। यही कारण है कि अधिकांश परिवारों में पहला व्हाट्सऐप ग्रुप परिवार का ही होता है – ददिहाल, ननिहाल, मायका, ससुराल – हर स्तर पर संबंधों को जोड़ने का प्रयास दिखता है। परिवार को एक बनाए रखने का सबसे बड़ा सूत्र संवाद है। संवाद के अभाव में दूरियाँ बढ़ती हैं और कई सामाजिक समस्याएँ जन्म लेती हैं। संस्कार उपदेश से नहीं, बल्कि आचरण से आते हैं; इसलिए परिवार के वातावरण में संवाद और आदर्श आचरण दोनों आवश्यक हैं।

उन्होंने कहा कि सम्मान ही समरसता का आधार है और पूरे हिन्दू समाज ने “न हिन्दू पतितो भवेत” का संकल्प इसी भावना से लिया है।

उन्होंने कहा कि राष्ट्र निर्माण की शुरुआत छोटी-छोटी बातों से होती है – जैसे सिग्नल न तोड़ना, हेलमेट नियमों के कारण पहनना न कि पुलिस को देखकर। जैसे हमें संविधान से मौलिक अधिकार मिले हैं, वैसे ही भारत माता का भी यह अधिकार है कि हम अपने कर्तव्यों का पालन करें। जो व्यक्ति टैक्स चोरी करता है, कचरा फैलाता है, नियमों का पालन नहीं करता, वह भारत को माता कहने के योग्य नहीं बन पाता।

पर्यावरण संरक्षण को लेकर उन्होंने तीन सरल सूत्र दिए – पेड़ लगाना, पानी बचाना और प्लास्टिक हटाना। इन “तीन प” की संवेदना यदि हर व्यक्ति अपने जीवन में उतार ले, तो पर्यावरण संरक्षण सहज ही संस्कार बन सकता है।

उन्होंने कहा कि “स्व का बोध” जीवन के हर क्षेत्र में – परिवार, पड़ोस, कार्यस्थल और व्यक्तिगत आचरण – सबमें आना चाहिए। यदि हम अपनी भाषा, भूषा, भजन, भवन, भोजन और भ्रमण, इन छह आयामों में स्वदेशी भाव को आचरण में उतार सकें, तो भारत माता अवश्य विश्व गुरु बनेगी। माता को “मम्मी” जैसे शब्दों से न पुकारें, जिनमें आत्मीयता नहीं है; हमारी भाषाओं में “आई, माँ, अम्मा, बाई” जैसे अनगिनत सुंदर और भावपूर्ण संबोधन उपलब्ध हैं। भाषा पर अभिमान अत्यंत आवश्यक है।

दुनिया के गरीब देश विदेशी भाषा में पढ़ाते हैं और सबसे अमीर देश अपनी मातृभाषा में। COEP पुणे की पहली इंजीनियरिंग बैच पूर्णतः मराठी माध्यम से पढ़कर निकली और संपूर्ण बैच सफलतापूर्वक प्लेस भी हुई – यह इस बात का प्रमाण है कि हमारी भाषाएँ सक्षम, समृद्ध और भविष्य के निर्माण में पूर्णत: समर्थ हैं।

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