विश्व कल्याणकारी हिन्दुत्व
हिंदू संस्कृति और उपासना पद्धति
देवत्व स्त्री रूप में भी प्रगट होता है यह मानने वाली हिंदू संस्कृति और उपासना पद्धति है। ईसा पूर्व की सभ्यताओं में देवियाँ पूजित थी। हर नारी में देवत्व का भाव उनमें भी नहीं था। प्रत्येक जीवात्मा में दिव्यत्व ही प्रगट हुआ है यह सर्वसमावेशक विचार केवल हिंदुत्व में ही पाया जाता है। इस कारण हर क्षेत्र में महिला को केवल समानता ही नहीं वरीयता भारतीय परम्परा में आज भी दिखाई देती है।
आक्रमण काल में संघर्षरत समाज में परिष्कार के अभाव से कुछ विकृति अवश्य आयी है, किन्तु ऐसी किसी भी रूढ़ि को शास्त्रीय अथवा धार्मिक आधार ना होने के कारण सुरक्षित, अनुकूल समय आते ही परिवर्तन सहजता से हो गया। शिक्षा के साथ बचाखुचा भेदभाव भी हर पीढ़ी में उत्तरोत्तर पूर्णतः समाप्त हो रहा है। विधर्मी आक्रांताओं से पूर्व भी समय और देश की परिस्थितियों से कुछ अन्यान्य बातें आचरित हुई होंगी किंतु आज धर्माचार्यों सहित सम्पूर्ण हिंदू समाज उसका समर्थन नहीं करता।
विश्व में अन्य सभी मान्यताओं में नारी को अपने अधिकारों के लिए सतत संघर्ष करना पड़ा है और आज भी उन्हें उचित स्थान, सम्मान और आदर प्राप्त नहीं होता। अब्राहमिक पंथों में महिला को शास्त्र ग्रंथों के आधार पर गौण और केवल भोग की वस्तु माना गया है। उसी दृष्टि से उपजे आधुनिक विचार भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं। समानता के नाम पर बनी साम्यवादी व्यवस्था में भी नारी को कोई स्थान अथवा महत्व नहीं है। बाज़ार तो उनका प्रयोग वस्तु के रूप में ही करता है। केवल भारतीय संस्कृति ही स्त्री के दिव्यत्व का उत्सव मनाती है। भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई को भी हमने स्वयं ही धिक्कार कर सुधारना प्रारम्भ कर दिया। एक दशक के भीतर चमत्कारिक परिणाम दिखाई देने लगे हैं। बाकी बचा परिवर्तन भी हिन्दू सहजता से कर लेगा।
सर्वसमावेशक लचीलापन हिन्दुत्व की विशेषता है। एकत्व बोध पर आधारित दर्शन सबके कल्याण हेतु रचनाएँ, परम्परा और तंत्र के निर्माण का सदियों से आधार बना है। किसी भी भेद के आधार पर किसी को भी ना नकारने वाले हिन्दुओं के लिए 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' यह केवल प्रार्थना नहीं, जीवन का आदर्श है जिसे हमने सहस्त्राब्दियों में कई बार देश के अनेक भागों में विविध पद्धतियों से साकार किया है। समृद्ध, सुसंस्कृत और धर्मनिष्ठ समाज और राज्य के नानाविध प्रतिमान हमारे अखण्ड इतिहास में प्राप्य हैं। ऐसी धर्माधारित समाज रचना में बिना किसी बाहरी दण्ड के सभी अपने-अपने स्तर से अग्रिम उन्नति करते हुए सामंजस्य से सहजीवन जीते थे।
यह आदर्श हमने भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं का पालन करते हुए साकार किया है। कहीं गणराज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो कहीं कल्याणकारी सम्राट की छत्रछाया में, कहीं ग्राम स्वावलम्बन से तो कहीं निर्यात और विश्वव्यापार की प्रगत मंडियों से सजे महानगरों से, संयुक्त परिवार के अविभाजित कुनबे से तो किसी कोने में मातृसत्तात्क कुल परम्परा जैसे अनेकविध आत्मनिर्भर रचनाओं के प्रयोग इस राष्ट्र की अनन्त लोकयात्रा में हुए हैं। सबको सम्मिलित कर सर्वसुखकारी जीवन का प्रसाद विश्व को बाँटने का अद्वितीय कार्य हिन्दू समाज निरन्तर करता रहा है।
'नित्य नूतन, चिर पुरातन' यह विशेषण इस काल सुसंगत जीवन पद्धति के लिए अत्यन्त सम्पर्क है। शाश्वत, सनातन, प्राकृतिक, शास्त्रीय मानवी सिद्धान्तों का युगानुकूल और देशानुकूल उपायोजन करने की स्वतन्त्रता ने
हिंदुत्व को अनादि अनन्त कालजयी मृत्युञ्जय वरदान प्रदान किया है। इतने भीषण आक्रमणों के पश्चात भी यह राष्ट्र न केवल जीवित है अपितु अपने उन्नत संस्कारों से अभिशप्त विश्व को शिक्षित करने को भी सन्नद्ध है। युगाब्द 5117, विक्रमी 2072 अर्थात् 2015 CE से विश्वभर में स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय योग दिवस तो भारत के पुनः विश्वगुरु बनने का शुभारंभ मात्र है। हिन्दू किसी भी पुरातन का अतिआग्रह नहीं करता। परम्परा के परिवर्तन को सहज स्वीकार करने की वृत्ति भी हिन्दुत्व के अमरत्व का रहस्य है। संघर्ष काल के संक्रमण से कुछ सामाजिक कुरीतियाँ रूढ़ हुई। उनमें से कुछ आज भी समाज में यदा-कदा कहीं-कहीं पर प्रभाव डालती रहती हैं। किन्तु हिन्दू समाज हर बात से ऊपर उठकर एकत्व को अक्षुण्ण रखने को तत्पर है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए सीमित अस्मिता से जगाये जाति, वर्ण जैसे भेद इस अंतर्निहित एकात्मता में बाधा नहीं बन सकते।
4. विविधता का उत्सव भी हिन्दुत्व का स्वाभाविक लक्षण है। उपासना के विविध मार्गों को सत्य स्वीकार करने के कारण मज़हबी आतंक अथवा सांप्रदायिक दुर्भाव का स्थान भारत में कभी नहीं रहा। 'ईश्वर एक, रूप अनेक, नाम अनेक' यह सत्य हमारे समाज के सभी वर्गों को साक्षात् हुआ है। उसी प्रकार 'गंतव्य एक, पंथ अनेक', 'भाषा अनेक, भाव एक' जैसे जोड़ने वाले सिद्धांत हिंदू समाज में सहज आचरित हैं। भारत में वेष, खानपान, कला आदि अभिव्यक्ति की यह विविधता कृत्रिम नहीं है। वास्तव में हम अन्दर से जानते हैं कि एक तत्व ही विविध रूपों में प्रगट हो रहा है। अरुणाचल प्रदेश में एक जनजाति की देवी का नाम दुयूँयाँ है। उनका स्वरूप सिंहवाहिनी, अष्टभुजा ही है, केवल मुखाकृति, परिधान और शस्त्र अरुणाचली हैं। देवी दुर्गा से समानता का उल्लेख किसी कार्यकर्ता द्वारा होने पर उस जनजाति की एक माता जी द्वारा कहा गया, 'जो शक्ति आपके यहाँ दुर्गा के रूप में प्रगट हुई है वही हमारे यहाँ दुर्युयाँ के नाम से प्रगट हुई है। नाम-रूप भिन्न होगा माँ एक ही हैं। प्रचलित उद्घोष 'विविधता में एकता' का उचित रूप 'एकता की विविधता, हिंदू की विशेषता' ऐसा होगा।
स्त्रीत्व की भारतीय संकल्पना में मातृत्व का विशेष स्थान है। अन्य सभी परम्पराओं से यह भिन्न है। कई पंथों में नारी को मादा के रूप में प्रजनन का साधन ही माना जाता है। उसकी केवल यही भूमिका उन मज़हबों में है। इस्लाम और अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर योग करते कनाडावासी ईसाइयों में भी समान मान्यता है। दोनों के मूल ग्रंथों में स्त्री को ऐसे खेत का रूपक दिया है जिसमें पुरुष को बीज बोने का अनिर्बंध अधिकार प्राप्त है। अंग्रेज़ी भाषा में पति के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त शब्द Husband का भी यही अर्थ है। अन्न की खेती को Husbandry और पशुपालन को Animal Husbandry कहते हैं। उसी अर्थ में मनुष्य का प्रजनन करने वाले को Husband कहते हैं। हिन्दुत्व में पत्नी को अर्द्धांगिनी कहा जाता है और पति के साथ धर्मकार्य में उसकी सहभागिता अनिवार्य है, इसीलिए वह धर्मपत्नी है। केवल माता बनना ही उसका जीवन ध्येय नहीं है। मातृत्व के बिना भी स्त्री वंदनीय, पूजनीय है। यही हिन्दुत्व का वास्तविक विचार है।
शांति की प्राप्ति के लिये जहाँ एक ओर विशेष सजगता की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर विनाशकारी शस्त्रों का नियंत्रण भी। एकत्व को ना मानकर सारे विश्व को मानने वाले और ना मानने वाले ऐसे दो भागों में बाँटकर सतत संघर्ष के बाद विनाश की ओर ले जाने वाले विघटनकारी बलों का संहार उनके कपटी और छद्म रूपों के अनुरूप ही विविध विशेषता वाले शस्त्र और अस्त्रों से करना होता है। निकट युद्ध में सटीक वार करने हेतु हस्तचालित शस्त्र और दूरस्थ शत्रु के निःपात हेतु फेंककर मारने वाले अस्त्र भी आवश्यक होते हैं।
वैचारिक संघर्ष में भी दोनों प्रकार के उपकरण प्रयोग करने पड़ते हैं। प्रत्यक्ष वाद-विवाद, जल्प-वितंडा जैसे शस्त्रों के साथ ही सामाजिक और अन्य माध्यमों में सामग्री, शैक्षिक जगत के शोधपत्र और पाठ्यक्रम आदि दूरस्थ अस्त्र भी काम में लेने पड़ते हैं। मोहक रूपों में आकर्षित कर मदनबाण चलाने वाले शत्रुओं को वास्तविक स्वरूप में जानकर भस्म करने के लिए तृतीय नेत्र भी सतत खुला रखना पड़ता है।
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