वैश्विक परिदृश्य में रामराज की पुनर्स्थापना

राम नेतृत्व क्षमता और प्रबंधन का अनमोल उद्वारण हैं। वह 'इन्सट्रक्शन' (निर्देश) और गाइडलाइन' (मार्गदर्शन) के अंतर को स्पष्ट रखते हैं।

Mar 4, 2024 - 18:49
Mar 4, 2024 - 19:04
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वैश्विक परिदृश्य में रामराज की पुनर्स्थापना

श्रीराम का चरित्र  और व्यक्तित्व स्तंभकार


जितना दिव्य और व्यापक है उतना ही विश्वव्यापी है। सिर्फ वर्तमान भारत की सीमाओं तक यह सीमित नहीं है बल्कि चारों दिशाओं में प्रभु राम के नाम का प्रतापअलग अलग अंदाज से दिखाई देता है। हिन्दी में रामचरितमानस, संस्कृत सहित कई भाषाओं में रामकी कथाएँ हैं। तुलसीदास ने हिन्दी, बाल्मीकी, कालीदास ने संस्कृत में राम का चरित्र चित्रण किया तो कन्नड में ऋषि कंबन द्वारा रचित 'कंब रामायण' में राम के चरित्र का विवरण मिलता है। भारत के बाहर चीन के 'लियो ताउत्स चिंग' का कथानक वाल्मीकि रामायण से संबन्धित है। चीन के उपन्यासकार उचेंग की कथा 'द मंकी हसी ऊंचि' राम भक्त हनुमान की चीनी कथा है। इसके साथ साथ थाईलैंड में 'रामकियेन', इन्डोनेशिया में 'ककविन रामायण', लाओस में 'फलाम' एवं 'पोमचाक' है तो तमिल में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की 'तिरुमगन रामायण'। इतना ही नहीं दक्षिण एशिया के देशों मलेशिया, कंबोडिया, श्रीलंका एवम फिलीपींस तक राम के चरित्र की व्यापकता फैली हुयी है। सिर्फ विदेशों में ही नहीं बल्कि भारत के अंदर भी कई मुस्लिम लेखकों और विचारकों ने प्रभु राम के चरित्र पर उल्लेखनीय काम किया है। अल्लामा ' इकबाल राम के लिए कहते हैं कि 'है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं उनको इमामें हिंद'। सागर निजामी कहते हैं कि 'साहिल ए सरयू यहाँ गंगा यहाँ जमुना यहाँ, कृष्ण और

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राधा यहाँ, राम यहाँ सीता यहाँ। हिंदीओ के दिल में बाकी है मुहब्बत राम की, मिट नही सकती कयामत तक, हुकूमत राम की'।
राम की हुकूमत सदियों तक इसलिए बाकी है क्योंकि राम ने अपने स्वार्थ के लिए विजय प्राप्त नहीं की। बालि और रावण का वध किया तो सुग्रीव और विभीषण को वहाँ का राजा बनाया। लक्ष्मण से संवाद में राम कहते हैं कि 'अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मणः रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'। इसका अर्थ है कि 'हे लक्ष्मण सोने की लंका भी मुझे अच्छी नही लगती है। माता और मातृभूमि मुझे स्वर्ग से भी बढ़कर है। इसी तरह कबीर भी परमार्थ को जीवन का दर्शन बताते हैं। राम का जीवन भी परमार्थ का जीवन ही रहा। रामराज में अपने लिए नहीं दूसरे के लिए जीवन जीने का वास्तविक चिंतन है। कबीर कहते हैं। 'मरूँ पर माँगू नहीं, अपने तन के काज। परमारथ के कारने, मोहिं न आवै लाज। इसका अर्थ है कि मैं मर जाऊँगा परन्तु अपने शरीर के स्वार्थ के लिए नहीं माँगूँगा। परन्तु परमार्थ के लिए माँगने में मुझे लज्जा नहीं लगती। इसी परमार्थ से रामराज का आधारभूत सिद्धान्त प्राप्त होता है। जिज्ञासा, विचार और धैर्य जिसमे सफलता की कुंजी है। राम का जीवन धैर्य का प्रतीक है। जो न खुशी में ज्यादा खुश है और न दुख में दुखी है। राम के धैर्य ने उन्हे श्रीराम से मर्यादा पुरषोत्तम राम बनाया। सीता का हरण होने पर उन्होने राजाओं का साथ नहीं लिया बल्कि वंचितों और शोषितों के साथ सेना तैयार की और रावण जैसे बौद्धिक का भी वध किया।

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राम नेतृत्व क्षमता और प्रबंधन का अनमोल उद्वारण हैं। वह 'इन्सट्रक्शन' (निर्देश) और गाइडलाइन' (मार्गदर्शन) के अंतर को स्पष्ट रखते हैं। आज जहां हमारी प्रशासनिक व्यवस्था निर्देशों पर आधारित है वही रामराज में मार्गदर्शन का तत्व महत्वपूर्ण था। राम को हनुमान पर विश्वास था इसलिए सिर्फउनसे लंका जाकर सीता का पता लगाने का कहा। उन्हें कोई निर्देश नहीं दिये गए कि काम कैसे करना है। हनुमान लंका गये। वही जाकर निर्णय लिये। लंका का दहन किया और राम की शक्ति का प्रारम्भिक एहसास रावण को करा आए। इसी तरह नलनील से समुद्र पर सेतु का निर्माण का कहा गया। उन्होने अपने हिसाब से संसाधन

जुटाये और सेतु का निर्माण किया। एक ऐसा सेतु जो बतौर नासा आज भी हिन्द महासागर में विद्यमान है। अब इसको आज के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। आज जब शिक्षा और व्यवस्था चरित्र निर्माण पर जोर नहीं देती है वहाँ क्या अपने मातहतों पर ऐसा विश्वास किया जा रहा है या किया जा सकता है? धन को सफलता का मापदंड मानने वाली व्यवस्था में आज के 'नल-नील ' (इंजीनियर) संसाधन जुटाना तो दूर की बात है, जो संसाधन उन्हे दिये जाते हैं उसमे भी हेरफेर करते हैं? सत्ता में बैठे शासक वर्ग के लोग उनसे अपने हिस्से की मांग के बिना टेंडर पास नहीं करते हैं ? व्यवस्थाओं की इन्ही अव्यवस्थाओं से परेशान लोग श्रीराम मंदिर

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निर्माण को एक महत्वपूर्ण पड़ाव मानते हुये के  रामराज की स्थापना की आस देख रहे हैं। क्या वर्तमान में रामराज संभव है ?: वर्तमान समय में सबसे महत्वपूर्ण विषय यह है कि क्या रामराज संभव है? क्या आज की परिस्थितियों में रामराज की अवधारणा जमीन पर लायी जा सकती हैं। तो इस प्रश्न का उत्तर है कि बिलकुल लायी जा सकती है। सबसे पहले इसके लिए शिक्षा व्यवस्था में बड़ा बदलाव आवश्यक है। भारतीय छात्रों को उनकी क्षमता आधारित शिक्षा की जरूरत है। अँग्रेजी के जानकार को ज्ञानवान एवं क्षेत्रीय भाषा के जानकार को हीन मानने की परंपरा बंद करनी होगी। और यह तब संभव है जब नैतिकता को धन के ऊपर प्राथमिकता मिलेगी। वर्तमान में धन को सफलता का मापदंड मान लिया गया है। और गलत साधन से धन कमाने के कारण उसके इर्द गिर्द अन्य बुराइयाँ पनपने लगती हैं। जिस वजह से सेवाभाव समाप्त

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होता जा रहा है। अब न डाक्टर सेवाभाव रखते हैं और न ही शिक्षक। न वकील चाहते हैं लोगों के झगड़े समाप्त हों और न राजनीतिक व्यवस्था। आपसी मनमुटाव और खींचतान में शासन, प्रशासन अपने ऐब छुपाता रहता है। चूंकि धन सफलता का मापदंड है इसलिए भ्रष्टाचार अब शिष्टाचार की जगह ले चुका है। रामराज के लिए आवश्यक है कि सब अपने अपने कार्यों को नैतिकता के आधार पर ध्यान देकर करें। इन सबसे ऊपर रामराज के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व है कि स्वयं से ईमानदारी आवश्यक है ईमानदारी का आवरण नहीं।

स्वयं से ईमानदारी संवेदनशीलता को जिंदा रखती है और संवेदनशीलता कई बुराइयों से मनुष्य को बचा लेती है। प्रभु श्रीराम में आस्था का प्रश्न अगर रामराज की परिकल्पना में बदलता है तो यह अखंड और विकसित भारत के लिये भी अच्छा है। आस्था में भाव होता है। आस्था मन को आशा और निराशा के दलदल में डोलने पर आशा की तरफले जाती है। रामराज की आशा लिये भारत के जनमानस के लिये 'मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम' एक महानायक हैं। शायद इसलिए ही भारत के पूरे न्यायिक इतिहास में किसी भी न्यायिक निर्णय के इस तरह के इंतजार का दूसरा उद्वारण दिखाई नहीं देता है। उदार और सर्वधर्म सम्भाव में भरोसा रखने वाले हिन्दू समाज ने एक लंबी न्यायिक प्रक्रिया के दौरान पूरे संयम का परिचय दिया। न्यायालय के निर्णय का इंतजार किया। लोकतान्त्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया पर सहमति जताई। जबकि उच्च और उच्चतम न्यायालय तक आते आते उत्सुकता, जिज्ञासा और अपेक्षा की पराकाष्ठा हो चुकी थी। फिर भी संयम और धैर्य का वातावरण बना रहा। शायद यही राम की शिक्षाओं का भारत पर असर है जिसकी वजह से धैर्य का वातावरण स्वतरू भारतवर्ष की हवाओं में घुल जाता है।

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यही धैर्य वैश्विक परिदृश्य में भारत और भारतीयों को एक पहचान देता है। कभी स्वामी विवेकानंद, कभी महात्मा गांधी तो कभी नरेंद्र मोदी भारत के नेतृत्वकर्ता बनाकर भारतीय सभ्यता के ध्वजवाहक बन जाते हैं। और सबसे बड़ी बात है कि यह सभी प्रभु श्रीराम की शिक्षाओं को अपने ज्ञान और भाव का आधार बताते हैं। श्रीराम मंदिर निर्माण के बाद अब हमारी व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता है। जिस देश में स्वाधीनता संग्राम का उद्देश्य ही रामराज की स्थापना रहा हो उस देश में राम को अपने जन्मस्थान के लिये वर्षों तक न्यायालय का इंतजार करना पड़ रहा हो, इतना धैर्य भी सिर्फ राम प्रदान कर सकते हैं। राम जन्मभूमि पर फैसले के द्वारा हिन्दुओ को जमीन देकर किसी से कुछ छीना नहीं गया बल्कि एतेहासिक गलती का सुधार मात्र हुआ है।

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स्वंतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेज भी हिन्दू मुस्लिम के बीच आपसी बैर बढ़ाते रहते थे जिस कारण हिन्दू मुस्लिम टकराव होता रहता था। 1934 में अयोध्या में दंगे हुये। इस दौरान तत्कालीन विवादित ढांचे को नुकसान पहुंचा। उस समय के अँग्रेजी प्रशासन ने उसकी मरम्मत करा दी और उसका पैसा यह कहकर हिन्दू पक्ष से लिया कि यह तोडफोड के अपराध की सजा है। 1934 के 6 साल बाद 1994 की एक घटना को देखिये। उस समय केंद्र में नरसिंह राव की सरकार थी। राव सरकार ने संविधान के अनु-143 (1) के अंतर्गत राष्ट्रपति को मिले विशेषाधिकार का उपयोग करते हुये उच्चतम न्यायालय से पूछा कि 'न्यायालय बताये कि रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद के स्थान पर क्या पहले कभी कोई हिन्दू मंदिर या हिन्दू धार्मिक ढांचा था?' यह जायज सवाल था जो संवैधानिक गरिमा के अंतर्गत पूछा गया था। उस समय उच्चतम न्यायालय की पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से इस सवाल का जवाब देने से मना कर दिया। उच्चतम न्यायालय का कहना था कि इस प्रश्न का जवाब देना एक पक्ष की हिमायत करना होगा जो धर्म निरपेक्षता के लिये खतरा होगा। वह एक पक्ष' हिन्दू पक्ष' था।

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