नोबेल पुरस्कार रवींद्रनाथ टैगोर को गीतांजलि की अनकही कहानी

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May 7, 2024 - 10:58
Aug 14, 2024 - 05:33
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नोबेल पुरस्कार रवींद्रनाथ टैगोर को गीतांजलि की अनकही कहानी

रवींद्रनाथ टैगोर कि  शिक्षा रवींद्रनाथ टैगोर जी का जीवन परिचय


रवींद्रनाथ टैगोर की स्कूली शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया, लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रवींद्रनाथ टैगोर को बचपन से ही कविताएँ और कहानियाँ लिखने का शौक था। उनके पिता देवेंद्रनाथ टैगोर एक जाने-माने समाज-सुधारक थे। वे चाहते थे कि रवींद्र बड़े होकर बैरिस्टर बनें। उन्होंने रवींद्र को कानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा, लेकिन रवींद्र का मन साहित्य में ही रमता था। उन्हें अपने मन के भावों को कागज पर उतारना पसंद था। आखिरकार, उनके पिता ने पढ़ाई के बीच में ही उन्हें वापस भारत बुला लिया और उन पर घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ डाल दीं। रवींद्रनाथ टैगोर को प्रकृति से बहुत प्यार था। वे गुरुदेव के नाम से लोकप्रिय थे। भारत आकर उन्होंने फिर से लिखने का काम शुरू किया।

  • रचनाएँ
    रवींद्रनाथ टैगोर को 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। टैगोर ने बाँगला साहित्य में नए गद्य और छंद तथा लोकभाषा के उपयोग की शुरुआत की और इस प्रकार शास्त्रीय संस्कृत पर आधारित पारंपरिक स्वरूपों प्रारूपों से उसे मुक्ति दिलाई। उन्होंने कम आयु में काव्य-लेखन आरंभ कर दिया था। 1890 के दशक में उन्होंने कविताओं की अनेक पुस्तकें प्रकाशित कीं।
    विलक्षण प्रतिभा
    दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवींद्रनाथ टैगोर पारंपरिक ढाँचे के लेखक नहीं थे। वे एकमात्र कवि हैं, जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। भारत का राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' और बांगलादेश का राष्ट्र गान

  1. 'आमार
  2. सोनार बाँगला' उनकी ही रचनाएँ हैं। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्म समाजी होने के बावजूद उनका दर्शन मानवता के प्रति समर्पित रहा। वे एक ऐसे कवि थे, जिनका केंद्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था। वे मनुष्य मात्र के स्पंदन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनकी रगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके नाटकों में मनुष्य की गहरी जिजीविषा है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आसपास से कथानक चुनता है, बुनता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा की आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत करे, बल्कि उस कथालोक में वह मनुष्य के अंतिम गंतव्य की तलाश करता है।
    रचना कर्म
    शिलाइदह और शहजादपुर स्थित अपनी खानदानी जायदाद के प्रबंधन के लिए रवींद्र 10 वर्षों तक पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगलादेश) में रहे। वहाँ वे अकसर पद्मा नदी (गंगा नदी) पर एक हाउस बोट में ग्रामीणों के निकट संपर्क में रहते थे। उन ग्रामीणों की निर्धनता व पिछड़ेपन के प्रति उनकी संवेदना उनकी बाद की रचनाओं का मूल स्वर बनी। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ जिनमें दीन-हीनों का जीवन और उनके दैनंदिन जीवन की पीड़ा वर्णित है, 1890 के बाद की हैं। उनकी मार्मिकता में हल्का सा विडंबना का पुट है, जो टैगोर की निजी विशेषता है तथा जिसे सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे अपनी बाद की फिल्मों में कुशलतापूर्वक पकड़ पाए हैं।


'गल्पगुच्छ' की तीन जिल्दों में उनकी सभी चौरासी कहानियाँ संगृहीत हैं, जिनमें से केवल दस प्रतिनिधि कहानियाँ चुनना टेढ़ी खीर है। 1891 से 1895 के बीच का पाँच वर्षों का समय रवींद्रनाथ की साहित्य साधना का महान् काल था। उनकी कहानियों में वर्षा, नदियाँ और नदी किनारे के सरकंडे, वर्षा ऋतु का आकाश, छायादार गाँव, वर्षा से भरे अनाज के लहलहाते खेत मिलते हैं। उनके साधारण पात्र कहानी खत्म होते-होते असाधारण मनुष्यों में बदल जाते हैं और महानता की पराकाष्ठा छू लेते हैं। उनकी कराहती पीड़ा की मूक करुणा हमारे हृदय को अभिभूत कर देती है।
उनकी कहानी 'पोस्टमास्टर' इस बात का सजीव उदाहरण है कि एक सच्चा कलाकार साधारण उपकरणों से कैसी अद्भुत सृष्टि कर सकता है। कहानी में केवल दो सजीव साधारण से पात्र हैं। बहुत कम घटनाओं से भी वे अपनी कहानी का महल खड़ा कर देते हैं। एक छोटी लड़की कैसे बड़े-बड़े इनसानों को अपने स्नेह पाश में बाँध देती है, 'काबुलीवाला' इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। रवींद्रनाथ ने पहली बार अपनी कहानियों में साधारण सी महिला का बखान किया।


रवींद्रनाथ की 'काबुलीवाला', 'मास्टर साहब' और 'पोस्टमास्टर' कहानियाँ आज भी लोकप्रिय हैं। उनकी कहानियाँ सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी लोकप्रिय हैं और लोकप्रिय होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ हैं।अपनी कल्पना के पात्रों के साथ रवींद्रनाथ की अद्भुत सहानुभूतिपूर्ण एकात्मकता और उसके चित्रण का अतीव सौंदर्य उनकी कहानी को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं, जिसे पढ़कर द्रवित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। उनकी कहानियाँ फौलाद को मोम बनाने की क्षमता रखती हैं।


'अतिथि' कहानी का तारापद रवींद्रनाथ के अविस्मरणीय पात्रों में से एक है। इसका नायक कहीं बँधकर नाहीं रह पाता। आजीवन 'अतिथि' ही रहता है, 'सुधित पाषाण' कहानी में कलाकार की कल्पना अपने सुंदरतम रूप में व्यक्त हुई है। यहाँ अतीत वर्तमान के साथ वार्तालाप करता है-रंगीन प्रभामय अतीत के साथ नीरस वर्तमान। समाज में महिलाओं का स्थान तथा नारी जीवन की विशेषताएँ उनके लिए गंभीर विषय थे और इस विषय में भी उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है।
राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के रचयिता टैगोर को बंगाल के ग्राम्यांचल से प्रेम था और इनमें भी प‌द्मा नदी उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी- जिसकी छवि उनकी कविताओं में बार-बार उभरती है। उन वर्षों में उनके कई कविता संग्रह और नाटक आए, जिनमें काव्य रचना 'सोनार तरी' (सुनहरी नाव), 1894 तथा नाटिका चित्रांगदा, 1891 उल्लेखनीय हैं।

चित्रकला
साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवि व्यक्तित्व का विस्तार था। हालाँकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, फिर भी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोश का विकास कर लिया था। टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं पारंपरिक कला जैसी दृश्य-कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी। एक अवचेतन प्रक्रिया के आरंभिक रूप में टैगोर की पांडुलिपियों में उभरती और मिटती रेखाएँ खास स्वरूप लेने लगीं। धीरे-धीरे टैगोर ने कई चित्रों को उकेरा, जिनमें कई बेहद काल्पनिक एवं विचित्र जानवरों, मुखौटों, रहस्यमय मानवीय चेहरों, गूढ़ भू-परिदृश्यों, चिड़ियों एवं फूलों के चित्र थे।
उनकी कृतियों में फंतासी, लयात्मकता एवं जीवंतता का अद्भुत संगम दिखता है। कल्पना की शक्ति ने उनकी कला को जो विचित्रता प्रदान की, उसकी व्याख्या शब्दों में संभव नहीं है। तकनीकी रूप से टैगोर ने सृजनात्मक स्वतंत्रता का आनंद लिया। उनके पास कई उद्वेलित करने वाले विषय थे। रोशनाई से बने उनके चित्रों में एक स्वच्छंदता दिखती है, जिसके तहत कूची, कपड़ा, रुई के फाहों और यहाँ तक कि उँगलियों का बखूबी इस्तेमाल किया गया है। टैगोर के लिए कला मनुष्य को दुनिया से जोड़ने का माध्यम है। आधुनिकतावादी होने के नाते टैगोर विशेषकर कला के क्षेत्र में पूरी तरह समकालीन थे।


टैगोर की कविताओं की पांडुलिपि को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था और वे इतने मुग्ध हो गए कि उन्होंने अंग्रेजी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी जगत् के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने ही इंडिया सोसाइटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गईं, जिनमें से सिर्फ 250 प्रतियाँ  बिक्री के लिए थीं। बाद में मार्च 1913 में मैकमिलन एंड कंपनी, लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर, 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर के अंग्रेजी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें टैगोर के पास भेजा और लिखा- "हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नजर आ रही है।"


यीट्स ने ही बाद में अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका लिखी। उन्होंने लिखा कि कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिये मैं रेलों, बसों और रेस्तराँओं में घूमा हूँ और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस डर से पढ़ना बंद करना पड़ा है कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए देख न ले। अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं, जिनमें शायद एक भी पन्ना ऐसा आनंद नहीं देता है। बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रेंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ और टैगोर की ख्याति दुनिया के कोने-कोने में फैल गई।


शांति-निकेतन
1901 में टैगोर ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांति- निकेतन में एक प्रायोगिक विद्यालय की स्थापना की, जहाँ उन्होंने भारत और पश्चिमी परंपराओं के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों को मिलाने का प्रयास किया। वे विद्यालय में ही स्थायी रूप से रहने लगे। यही प्रायोगिक विद्यालय 1921 में विश्वभारती विश्वविद्यालय बन गया। 1902 तथा 1907 के बीच उनकी पत्नी और दो बच्चों की मृत्यु से उपजा गहरा दुःख उनकी बाद की कविताओं में परिलक्षित होता है, जो पश्चिमी जगत् में गीतांजलि, सॉन्ग ऑफ रिंग्स (1912) के रूप में पहुँचा।
शांति निकेतन में उनका जो सम्मान समारोह हुआ था, उसका सचित्र समाचार भी कुछ ब्रिटिश समाचार पत्रों में छपा था। 1908 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन के सभापति और बाद में ब्रिटेन के प्रथम लेबर प्रधानमंत्री रेम्जे मेक्डोनाल्ड 1914 में एक दिन के लिए शांति निकेतन गए थे। उन्होंने शांति निकेतन के संबंध में पार्लियामेंट के एक लेबर सदस्य के रूप में जो कुछ कहा, वह भी ब्रिटिश समाचार पत्रों में छपा। उन्होंने शांति निकेतन के संबंध में सरकारी नीति की भर्त्सना करते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि शांति निकेतन को सरकारी सहायता मिलनी बंद हो गई है।

ब्रिटेन में गुरुदेव
टैगोर 1878 से लेकर 1930 के बीच सात बार इंग्लैंड गए। 1878 और 1890 उनकी पहली दो यात्राओं के संबंध में ब्रिटेन के समाचार पत्रों में कुछ भी नहीं छपा, क्योंकि तब तक उन्हें वह ख्याति नहीं मिली थी कि उनकी ओर किसी विदेशी समाचार-पत्र का ध्यान जाता। उस समय तो वे एक विद्यार्थी ही थे।जब वे तीसरी बार 1912 में लंदन गए, तब तक उनकी कविताओं की पहली पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हो चुका था। अतः उनकी ओर ब्रिटेन के समाचार-पत्रों का ध्यान गया। उनकी यह तीसरी ब्रिटेन यात्रा वस्तुतः उनके प्रशंसक एवं मित्र बृजेंद्रनाथ शील के सुझाव एवं अनुरोध पर की गई थी। इस यात्रा के आधार पर पहली बार वहाँ के प्रमुख समाचार पत्र 'द टाइम्स' में उनके सम्मान में दी गई एक पार्टी का समाचार छपा। इसमें ब्रिटेन के कई प्रमुख साहित्यकार यथा डब्ल्यू.पी. यीट्स, एच.जी. वेल्स, जे.डी. एंडरसन और डब्ल्यू. रोथनस्टाइन आदि उपस्थित थे।


इसके कुछ दिन बाद 'द टाइम्स' में ही उनके काव्य की प्रशंसा में तीन पैराग्राफ लंबा एक समाचार भी छपा और फिर उनकी मृत्यु के समय तक ब्रिटेन के समाचार पत्रों में उनके जीवन और कृतित्व के संबंध में कुछ-न- कुछ बराबर ही छपता रहा। परंपरागत रूप से भारत विरोधी समाचार-पत्र उनके संबंध में चुप्पी ही लगाए रहे, पर निष्पक्ष और भारत के प्रति सहानुभूति रखनेवाले समाचार-पत्रों ने बड़ी उदारता से उनके संबंध में समाचार, लेख आदि प्रकाशित किए। ब्रिटेन के कट्टर रूढ़िवादी कंजरवेटिव समाचार-पत्र 'डेली टेलीग्राफ' ने उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना तक प्रकाशित करना उचित नहीं समझा। जबकि उस दिन के अन्य सभी समाचार-पत्रों में इस सूचना के साथ ही पुरस्कृत कृति 'गीतांजलि' के संबंध में वहाँ के समीक्षकों की सम्मति भी प्रकाशित हुई।
'गीतांजलि' का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होने के एक सप्ताह के अंदर लंदन से प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध साप्ताहिक 'टाइम्स लिटरेरी', 'सप्लीमेंट' में उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई थी और बाद में आगामी तीन महीने के अंदर तीन समाचार पत्रों में भी उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई। रवींद्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने के संबंध में ब्रिटिश समाचार पत्रों में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई। इस संबंध में 'द टाइम्स' ने लिखा था कि 'स्वीडिश अकादमी' के इस अप्रत्याशित निर्णय पर कुछ समाचार पत्रों में आश्चर्य प्रकट किया गया है, पर इस पत्र के स्टॉकहोम स्थित संवाददाता ने अपने डिस्पैच में लिखा था कि स्वीडन के प्रमुख कवियों और लेखकों ने स्वीडिश कमेटी के सदस्यों की हैसियत से नोबेल कमेटी के इस निर्णय पर पूर्ण संतोष व्यक्त किया है। इस संबंध में ब्रिटेन के प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'मैनचेस्टर गार्जियन' ने लिखा था कि रवींद्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना पर कुछ लोगों को आश्चर्य अवश्य हुआ, पर असंतोष नहीं। टैगोर एक प्रतिभाशाली कवि हैं। बाद में 'द केटसेंट मून' की समीक्षा करते हुए एक समाचार-पत्र ने लिखा था कि इस बंगाली (रवींद्रनाथ टैगोर) का अंग्रेजी भाषा पर जैसा अधिकार है, वैसा बहुत कम अंग्रेजों का होता है।


जलियाँवाला कांड की निंदा
1919 में हुए जलियाँवाला कांड की जब रवींद्रनाथ टैगोर ने निंदा की तो ब्रिटिश समाचार-पत्रों का रुख अचानक बदल गया। टैगोर ने जलियाँवाला कांड के विरोधस्वरूप अपना 'सर' का खिताब लौटाते हुए वायसराय को जो पत्र लिखा, वह भी ब्रिटिश समाचार पत्रों ने छापना उचित नहीं समझा, पर लॉर्ड मांटेग्यू ने पार्लियामेंट में जब घोषणा की कि 'सर रवींद्रनाथ को दिया गया खिताब वापस नहीं लिया गया है' तो यह समाचार ब्रिटिश समाचार पत्रों में अवश्य छपा।' डेली टेलीग्राफ' ने तो व्यंग्यपूर्वक यह भी लिखा कि रवींद्रनाथ टैगोर के अंग्रेजी प्रकाशक मैकमिलन्स उनके नाम के साथ अभी भी 'सर' छाप रहे हैं।नोबेल पुरस्कार टैगोर के 'गीतांजलि' समेत बाँगला काव्य संग्रहों से ली गई कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद के इसी शीर्षक के संकलन की डब्ल्यू.बी. यीट्स और आंद्रे जीद ने प्रशंसा की और इसके लिए टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। मृत्यु इस महान् साहित्यकार की मृत्यु 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में हुई थी।


महान् रचनाकार बीसवीं सदी की अंग्रेजी कविता के सशक्त हस्ताक्षर डब्ल्यू. बी. यीट्स ने रवींद्रनाथ की श्रेष्ठतम गद्यकृति 'जीवन-स्मृति' को माना है। 'जीवन- स्मृति' रवींद्रनाथ के संपूर्ण जीवन को लिपिबद्ध नहीं करती, लेकिन रवींद्रनाथ कवि कैसे बने, जीवन स्मृति को पढ़ने से इसका आभास निश्चित रूप से होता है। हम यीट्स के कथन को और आगे ले चलें। रवींद्रनाथ के संस्मरण से महत्त्वपूर्ण उनका जीवन है। एक आभिजात्य परिवार के उत्तराधिकारी को इतने सारे उतार-चढ़ाव के बीच से होकर गुजरना पड़ता है, रवींद्रनाथ को भी गुजरना पड़ा। चूँकि वे नए सामाजिक मूल्यों को गढ़ने लगे थे, इसलिए हर क्षेत्र-चाहे भाषा हो या संस्कृति, समाज हो या सार्वजनिक आचरण, संगीत  का व्याकरण हो या नाटक प्रस्तुत करने का ढंग, उन्हें यथास्थिति की ताकतों से जूझना पड़ा। यह लड़ाई रवींद्रनाथ ने चाव के साथ लड़ी। जुझारूपन रवींद्रनाथ को अपने परिवार से विरासत में मिला। चाहे स्त्री स्वतंत्रता हो या धार्मिक कठमुल्लापन, रवींद्रनाथ का परिवार हर मोरचे की लड़ाई में सबसे आगे था।


रवींद्रनाथ से पहले भी बंगाल समाज को सुधारने की, उसे पिछड़ेपन से मुक्ति दिलाने की कोशिशें शुरू हुई, लेकिन समाज-सुधारकों का, सुसंस्कृत पुरुषों का बुरा हाल हुआ। सतीदाह प्रथा को रद्द करवाने में राजा राममोहन राय ने अग्रणी भूमिका निभाई। कलकत्ता के ब्राह्मण लंबे समय तक उनके घर के सामने मल-मूत्र से भरे भाँड़ फेंकते रहे। चूँकि उन्होंने विधवाओं की शादी करवाने की हिम्मत दिखाई थी, इसलिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर को कलकत्ता से खदेड़कर करमाटाड़ भेज दिया गया। करमाटाड़ की वादियों में संथालों के बीच आखिरकार उन्हें सुकून मिला। रवींद्रनाथ के पूर्वजों की स्थिति भी यही होती, चूँकि वे धनी, साधनसंपन्न और आत्मनिर्भर थे, इसलिए इस स्थिति में जाने से बच गए। वे बड़े व्यवसायी थे। चाहे जहाजरानी हो या खनन का काम-हर क्षेत्र में अंग्रेजों से प्रतिस्पर्द्धा करना उनकी आदत सी थी।

शायद यहीं से साम्राज्यवाद विरोध रवींद्रनाथ की रगों में आ समाया। जलियाँवाला बाग नरसंहार के विरोध में 'सर' की उपाधि त्याग देना इसकी एक छोटी सी अभिव्यक्ति थी, लेकिन साम्राज्यवाद विरोधी होते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन की खामियाँ उनकी नजरों से ओझल नहीं थीं। सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में तरह-तरह की खामियाँ आ गई थीं। रवींद्रनाथ ने इन खामियों से अपना विरोध सफाई से बयाँ किया। 'चार अध्याय' उपन्यास में प्रेमी युगल एला और यतीन को नेता का विरोध करने के जुर्म में अपनी जान गंवानी पड़ी। उसी तरह 'घरे बाइरे' उपन्यास में स्वदेशी आंदोलन के नाम पर चंदाखोरी करने वालों का बारीक चित्रण किया गया। रवींद्रनाथ की मान्यता थी कि क्रांतिकारी दर्शन कोई दूँठ वृक्ष नहीं है। उसमें जीवन के फूल की पत्तियाँ खिलनी चाहिए, उसमें ईमानदारी की हरियाली होनी चाहिए।


शिक्षा, राजनीति, प्रशासन जैसे हर क्षेत्र में रवींद्रनाथ ने जीवंतता को प्रमुख माना, बदलाव को अहमियत दी। शांति निकेतन के माध्यम से रवींद्रनाथ ने शिक्षाशास्त्रियों को यह संदेश दिया कि 'शिक्षा को डरावनी चीज मत बनाओ।' शांति-निकेतन के माध्यम से भारत तथा बंगाल के नवयुवकों को यह संदेश दिया कि 'ग्रामीण उद्योगों की संभावनाओं पर गौर करो।' इसके अलावा कविता, कहानी, उपन्यास और निबंध लिखने केसाथ-साथ उन्होंने ढाई हजार गीत लिखे, उनमें सुर आरोपित किए। इनके द्वारा किए गए इस महान् काम ने बंगाली मानसिकता को बालिग बनाया, बाँगला सौंदर्यशास्त्र को ऐसा विशाल आयतन प्रदान किया, जो कभी संकुचित होने वाला नहीं है।


रवींद्रनाथ आज से करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले पैदा हुए थे। तब से लेकर आज के बीच बहुत बड़ा फासला है। मनुष्य का सोचने का तरीका, उसके काम करने का ढंग सबकुछ बदल गया, लेकिन रवींद्रनाथ की प्रासंगिकता आज भी जस की तस बनी हुई है। शेक्सपीयर और तुलसीदास को छोड़कर यह सौभाग्य किसी और रचनाकार को नहीं प्राप्त हुआ है। रवींद्रनाथ ने सृजनशीलता को जारी रखने के लिए तकलीफें सहीं, कुरबानियाँ दीं। उन्हें हर प्रकार के दुःख झेलने पड़े। माँ, पत्नी, बच्चों का असामयिक निधन - एक बेटा और एक बेटी को छोड़कर सामाजिक प्रताड़ना- अपने मुक्तचिंतन के कारण- इस सबकुछ के बीच उन्होंने अपनी सृजनशीलता को जगाए रखा। उनका यह त्याग, हम सभी पर ऐसा ऋण है, जिससे हम कभी मुक्त नहीं हो सकेंगे।


रवींद्रनाथ के जन्म से पूर्व बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता का प्रभाव, अन्य प्रांतों से पहले ही बड़ी तीव्रता के साथ अपना रंग जमाने लगा था। पाश्चात्य संस्कृति बंगाली मस्तिष्क के संपर्क में आकर नए-नए रचनात्मक रूपों में प्रस्फुटित हो रही थी। धर्म, दर्शन और साहित्य जैसे क्षेत्रों में ब्रिटिश सभ्यता का प्रभाव साफ नजर आने लगा था। एक ओर ईसाई धर्म प्रचारक जीवन की सुविधाओं का प्रलोभन देकर युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे। दूसरी ओर हिंदू कॉलेज के छात्र आंदोलन खड़ा करके शिक्षित समाज को व्यक्ति स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा रहे थे। हिंदू धर्म की विकृतियों के पृष्ठपोषक गण परिवर्तन के सुस्पष्ट लक्षणों के प्रति पूरी तरह उदासीन होकर अपने अंधविश्वासों का ढोल पीट रहे थे। इन परिस्थितियों का बड़ा गहरा प्रभाव कवि के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर पर पड़ा और उन्होंने हिंदू संस्कृति के मूल एवं श्रेष्ठ तत्त्वों के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाकर ब्रह्म समाज की नींव को मजबूत बनाने में अहम् योगदान दिया। उस नींव पर उन्होंने प्रबल प्रयत्नों से जो इमारत खड़ी की, वह केशवचंद्र सेन द्वारा प्रगतिशील ब्रह्म समाज के धक्के से हिलने लगी। इसी धार्मिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल के बीच में रवींद्रनाथ का जन्म हुआ।


हिंदू कॉलेज की स्थापना डेविड हेयर नामक एक अंग्रेज द्वारा राजा राममोहन राय की मृत्यु से लगभग दस साल पहले हुई थी। डेविड हेयर एक साधारण घड़ीसाज था, पर शिक्षा के संबंध में उसके विचार बड़े प्रगतिशील थे। इस कॉलेज को एक प्रतिभाशाली अध्यापक प्राप्त हो गया था। इस अध्यापक का नाम हेनरी लुई विवियन डेरोजियो था। वह एक पुर्तगीज व्यापारी का पुत्र था और उसकी माता भारतीय थी। उस पर फ्रांस के क्रांतिकारी लेखकों- विशेषकर वाल्तेयर का गहरा प्रभाव पड़ा था। उसने अपने तरुण भारतीय छात्रों के मस्तिष्क में भी क्रांतिकारी विचारों के बीज बो दिए। उसके विचारों से घबराकर कॉलेज के अधिकारियों ने उसे इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर दिया, पर वह धुन का पक्का था और शांत होकर बैठने वाला नहीं था। उसने 'ईस्ट इंडियन' नामक एक अंग्रेजी दैनिक पत्र निकाला। उसके चारों ओर तरुण छात्रों का एक दल एकत्रित हो गया। उस दल के कई छात्रों ने बाद में सामाजिक तथा सांस्कृतिक आंदोलन के क्षेत्र में बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की। उन छात्रों ने जीवन केप्रत्येक क्षेत्र में स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया। वे धार्मिक कट्टरता, परंपरागत अंधविश्वास तथा सांप्रदायिक भेदभाव के घोर विरोधी थे और कट्टर हिंदुओं की मान्यताओं पर चोट पहुँचाने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे।


हालाँकि डेरोजियो ने इस तरह के आचारण की शिक्षा अपने शिष्यों को नहीं दी थी, फिर भी वैचारिक स्वतंत्रता पर वह निरंतर जोर देता रहा, पर उसके उपदेशों का कुछ दूसरा ही प्रभाव उन शिष्यों पर पड़ने लगा। कट्टर हिंदू परिवार के विधि निषेधों के कठोर नियंत्रण में पले हुए वे युवक एक चरम स्थिति से दूसरी चरम स्थिति को अपनाने लगे। व्यक्ति स्वतंत्रता और वैचारिक स्वतंत्रता का अर्थ उन्होंने उच्छृंखलता समझ लिया। उनमें से कुछ शराब पीकर अराजक आचरण भी करने लगे, पर कुछ ऐसे प्रतिभाशाली छात्र भी उस दल में थे जिन्होंने साहित्यिक, सामाजिक तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य किए। राजा राममोहन राय के बाद इन्हीं लोगों ने बंगाल में नवजागरण का बीड़ा उठाया। एक ओर धार्मिक तथा सांप्रदायिक कट्टरता के विरुद्ध वह अभियान चल रहा था, दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों के प्रचार का प्रभाव भी बहुत से नवशिक्षित युवाओं पर पड़ रहा था।

डॉ. एलेक्जेंडर डफ ने स्कॉटिश चर्चेज कॉलेज की स्थापना करके अपने छात्रों के दिमाग में ईसाई धर्म के सिद्धांतों के बीज बोने शुरू कर दिए। हिंदू समाज की कट्टरता से मुक्ति पाने के लिए कई प्रतिभाशाली छात्र उसके प्रभाव से ईसाई बन गए, जिनमें एक थे लालबिहारी डे और दूसरे थे कालीचरण बनर्जी। कालीचरण बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिष्ठापकों में से एक थे। डेरोजियो के भी बहुत से छात्रों ने अपनी उच्छृंखलता से स्वयं तंग आकर बाद में ईसाई धर्म को अपना लिया। कृष्णमोहन बनर्जी जैसे मशहूर विद्वान् और देशसेवक ने ईसाई धर्म अपना लिया। और तो और, उस युग के श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार माइकेल मधुसूदन दत्त भी किसी विचित्र प्रतिक्रियात्मक प्रेरणा से ईसाई धर्म अपना चुके थे। इस प्रकार बंगाल के धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में एक अजीब सी उथल-पुथल मची हुई थी। ईसाई मत का निरंतर बढ़ता हुआ प्रचार देखकर हिंदू नेता चिंतित हो उठे। देवेंद्रनाथ टैगोर ने इस प्रभाव को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया। उन्होंने 'तत्त्वबोधिनी पत्रिका' में ईसाई मिशनरियों की संकीर्णता के खिलाफ कई लेख लिखे और दूसरों से भी लिखवाए। वे प्रतिदिन सुबह से लेकर शाम तक कलकत्ता के प्रतिष्ठित हिंदू परिवारों में जाते थे और लोगों को समझाते थे कि वे अपने बच्चों को ईसाई मिशनरियों के स्कूलों में शिक्षा न दिलाएँ और स्वयं नए स्कूलों की स्थापना करें। लोग उनके तर्कों से बहुत प्रभावित हुए और धीरे-धीरे ईसाई धर्म का आकर्षण कम होता गया।


जब देवेंद्रनाथ ने ब्रह्म-समाज के पुनर्संगठन की ओर अपनी शक्तियों को केंद्रित किया, तब हिंदू धर्म के एक नए और प्रगतिशील रूप के विकास के कारण मिशनरियों द्वारा भटकाए जाने वाले युवाओं को एक नया और मजबूत आधार प्राप्त हुआ। डेरोजियो के विचारों का पालन करने वाले युवा भी धीरे-धीरे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित होने लगे। इस प्रकार केवल धर्म के क्षेत्र में ही नहीं, बौद्धिक क्षेत्र में भी एक नई जागृति देवेंद्रनाथ टैगोर की लगन की वजह से मुमकिन हुई, साथ ही राष्ट्रीय जागरण की लहर भी फैलने लगी। उन्हीं दिनों ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह तथा स्त्रीशिक्षा संबंधी आंदोलन का सूत्रपात कर समाज में तहलका मचा दिया था। हरीशचंद्र मुखर्जी 'हिंदू पेट्रिएट' नामक अंग्रेजी अखबार निकालकर राजनीतिक एवं राष्ट्रीय जागरण के क्षेत्र में अहम् भूमिका निभा रहे थे।


इस संक्रांतिकालीन उथल-पुथल के वातावरण में रवींद्रनाथ का जन्म हुआ। यह उथल-पुथल केवल धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी परिवर्तन आ रहा था। देवेंद्रनाथ द्वारा संचालित 'तत्त्वबोधिनी पत्रिका' प्राचीन भारत के वास्तविक आध्यात्मिक गौरव के प्रचार के जरिए नई अंग्रेजी सभ्यता की चकाचौंध से चकित नव शिक्षित समाज के सामने नवीन आदर्श प्रस्तुत कर रही थी। इस पत्रिका में वेद, उपनिषद्, महाभारत आदि का अनुवाद धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया जाता था। देवेंद्रनाथ के प्रयासों से स्वदेशी भाषा की उन्नति संबंधी आंदोलन भी उन्हीं दिनों विविध उपायों द्वारा जोर-शोर के साथ चलाया जा रहा था। यही वजह थी कि यूरोपीय साहित्य और दर्शन से प्रभावित प्रबुद्ध लेखकगण यूरोपीय ज्ञान को बाँगला भाषा में प्रस्तुत करने में जुट गए थे। इस प्रकार प्राच्य और पाश्चात्य ज्ञान का उन्नततम रूप जन साधारण के समक्ष उजागर हो रहा था।


साहित्यिक जागरण भी बड़ी तीव्र गति से हो रहा था। माइकेल मधुसूदन दत्त अपनी विद्रोही प्रतिभा को साहित्यिक रूप देने के लिए अत्यंत उत्सुक हो उठे थे। प्रारंभ में उन्होंने अपनी इस आकांक्षा की पूर्ति अंग्रेजी माध्यम से करने का निश्चय किया था। 'दि कैप्टिव लेडी' नाम से एक काव्यात्मक आख्यान उन्होंने अंग्रेजी में लिखा भी था, पर बाद में उनके कुछ वरिष्ठ मित्रों ने जब उन्हें यह सुझाव दिया कि विदेशी भाषा में कविता लिखकर वे कभी भी वैसी ख्याति प्राप्त नहीं कर सकते, जैसी अपनी मातृभाषा में लिखकर प्राप्त कर सकते हैं। यह बात माइकेल के दिल में बैठ गई। उन्होंने संस्कृत सीखना शुरू कर दिया, तब तक वह संस्कृत का एक साधारण शब्द भी शुद्ध रूप में लिखना नहीं जानते थे। 'पृथ्वी' को 'प्रथिवी' लिखते थे। उन दिनों ईश्वरचंद्र विद्यासागर की शैली के अनुकरण से संस्कृत गर्भित बाँगला भाषा का प्रचार

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