Why Not Me? A feeling of millions Chapter 1 कुछ यूं थी जिंदगी
Why Not Me? A feeling of millions (Hinglish Version) A DEBUT NOVEL BY ANUBHAV AGRAWAL
कुछ यूं थी जिंदगी
जिंदगी! एक सही अल्फाज है अपने बचपन के दिनों को बयां करने के लिए। चार दोस्त हुआ करते थे, बेख़ौफ़ घुमा फिरा करते थे और घर के सामने ग्राउंड में, सारा सारा दिन खेलते थे। कभी लुक्का छुपी, कभी बर्फ पानी, कभी लोहा लक्कड़, तो कभी क्रिकेट। बस, यहीं तो थी जिंदगी, इसके बाद जो उमर आती है, वो जिंदगी नहीं, सिर्फ लड़ी हो जाती है, दुनिया से, दुनिया के लोगो से, वक्त से और दौर से।
घर में पापा, मम्मी, मैं और दो भाई हैं। पापा सरकारी अधिकारी हैं, मम्मी हाउस मेकर हैं, बीच वाले भाई बरेली से बीबीए पढ़ रहे हैं और बड़े वाले भाई शेयर मार्केट में ब्रोकर हैं। आप मानो या ना मानो, घर का सबसे छोटा बच्चा होने के कई फायदे होते हैं। गलती किसी की भी हो, डांट हमेंशा बड़े भाइयों की पड़ती है।
मेरी जिंदगी में कुछ इस तरह बीत रही थी, 8वीं कक्षा तक बहुत अच्छा था पढ़ाई में, लेकिन उसके बाद 10वीं कक्षा आती थी, सारा ध्यान इसी चीज पर रहता था, क्या ऑर्कुट पर किसी का स्क्रैप आया नहीं? पढाई से हट के सारा ध्यान इंटरनेट पर जा रहा था।
वो वक्त ऑर्कुट का ही था, हम वक्त ऑर्कुट जवान हुआ करते थे और हमारी रागो में बस एक ही चीज दौड़ती थी, कि नये नये दोस्त बना लें, उनसे बातें करें, भटकें।
हालांकी, इतनी हिम्मत कभी थी नहीं, किसी लड़की को सामने से जाके, 'हाय' भी बोल दूं, लेकिन सोशल मीडिया पर सब अपने दोस्त होने चाहिए। खैर! हमारी उम्र में, रोज़ का वही रूटीन होता था,
सुबह 6 बजे उठ जाना,
नहाना, जो बहुत ही मुश्किल काम होता था, फिर वो चाहे सर्दी हो या बरसात गरमी।
“क्या यार, नहाना ज़रूरी है क्या? डियोडरेंट से काम नहीं चलाया जा सकता क्या? चाहे ठंड हो या गर्मी, ये सुबह-सुबह पानी ठंडा ही होता है यार।”
मैं अपने ख्यालों में खोया हुआ था, तभी पीछे से माँ की आवाज़ आयी,
“आज मैंने तेरे पसंदीदा सूखे आलू रखे हैं, खा ज़रूर लेना, तू डेली के डेली दोस्तों को खिला देता है, इस बार ऐसा नहीं होना चाहिए, ब्रेक होते ही खा लेना।” माँ ने दांत ते हुए समझा।
तो तुम हो मेरी माँ, प्यारी हो ना? हमेंशा मेरी चीज़ों का ख़याल रखती हैं, ख़ास इस बात का, मैं भूखा ना रह जाउ स्कूल में। जो कि मैं अक्सर रह जाता था। वजह? मेरा लंच चुराया जाता था रोजाना।
“अरे यार मम्मी मैं क्या करू? ये लोग मानते ही नहीं हैं, हमेंशा ब्रेक होने से पहले ही चुरा लेते हैं मेरा लंच। आज मेरे पसंदीदा आलू हैं, इनके मुख्य व्याख्यान के बीच में ही निपट दूंगा।” मैने जल्दबाजी किये कहा.
माँ ने मेरा बैग तय कर लिया, और मैं घर से बस स्टॉप के लिए निकल गया, बस स्टॉप जाते जाते कुछ ख्वाबो ख्यालो में डूब गया, ख्याल ऐसे की
“मां इतना प्यार क्यों करती हैं मुझे? प्यार क्या है? क्या अपनी जिंदगी में भी कभी प्यार आएगा?”
मतलब अजीब-ओ-गरीब बातें जो मेरी उम्र को शोभा भी नहीं देती थी। सोचते सोचते बस स्टॉप पहौंचा, वाह मेरा दोस्त, अंकित खड़ा था और आर्यन हमेशा की तरह आज भी देर हो गई थी, मुझे पता था ये फुद्दू लड़का आज भी बस के पीछे भाग कर बस पकड़ेगा, हमेंशा की तरह!
अब मेरी और अंकित की निगाहें सिर्फ एक ही जगह टिकी थी, आर्यन के घर का गेट खुला या नहीं? भाई साहब, बस आ गई लेकिन इस बंदे के घर का गेट नहीं खुला। हम लोग सब बस में चढ़ने लगे और अपनी अपनी
सीट पर जा कर बैठ गए. इतने में ही बस वाले अंकल ने बस स्टार्ट कर दी, और फिर देखा आर्यन डोर से भागता हुआ आ रहा था, चिल्लाता हुआ 'रुको रुको!!'
अब हम सारे के सारे चिल्लाने लगे। पहले तो हमने उसे थोड़ा दौड़ाया, उसकी सजा की तरफ, फिर हमने चिल्लाना शुरू किया,
“रोक लो बस भैया, वरना ये लड़का बस के पीछे भागते भागते अपनी जान देगा।”
हाहाहा क्या सही सीन था. बस रुकी, आर्यन बस में चढ़ा। जैसा ही वो पीछे आया, मैंने उसे समझा की भाई,
“जान है तो जहान है, भाग कर बस मत पकड़ा कर, बाल्की 5 मिनट पहले निकल जया कर, ताकि भागने की ज़रूरत ही न पड़े।”
बहुत माफिया मंगवाई मैने उससे। आज उसका मौका था विंडो सीट पर बैठने की, बेचारे ने अपना मौका भी गवा दिया।
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