पुस्तक समीक्षा – भारतीय शिक्षा दर्शन : सिद्धांत, परंपरा एवं व्यवहार

डॉ. कुमुद बंसल भारतीय संस्कृति और दर्शन विश्व की प्राचीनतम और सर्वाधिक समृद्ध परंपराओं में से एक है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि यहां शिक्षा को केवल ज्ञानार्जन या रोज़गार प्राप्ति का साधन नहीं माना गया, बल्कि उसे जीवन का उद्देश्य और आत्मोन्नति का मार्ग समझा गया। प्रस्तुत पुस्तक “भारतीय शिक्षा दर्शन : सिद्धांत, […] The post पुस्तक समीक्षा – भारतीय शिक्षा दर्शन : सिद्धांत, परंपरा एवं व्यवहार appeared first on VSK Bharat.

Oct 7, 2025 - 17:44
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पुस्तक समीक्षा – भारतीय शिक्षा दर्शन : सिद्धांत, परंपरा एवं व्यवहार

डॉ. कुमुद बंसल

भारतीय संस्कृति और दर्शन विश्व की प्राचीनतम और सर्वाधिक समृद्ध परंपराओं में से एक है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि यहां शिक्षा को केवल ज्ञानार्जन या रोज़गार प्राप्ति का साधन नहीं माना गया, बल्कि उसे जीवन का उद्देश्य और आत्मोन्नति का मार्ग समझा गया।

प्रस्तुत पुस्तक “भारतीय शिक्षा दर्शन : सिद्धांत, परंपरा एवं व्यवहार” में इसी दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर लेखों को संकलित किया गया है। यह पुस्तक शिक्षा के भारतीय स्वरूप को उसकी ऐतिहासिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक पृष्ठभूमि सहित प्रस्तुत करती है, साथ ही आधुनिक समय में उसकी प्रासंगिकता को भी उजागर करती है।

पुस्तक की संरचना तीन प्रमुख आयामों पर आधारित है –

सिद्धांत : इसमें भारतीय शिक्षा के मूल दार्शनिक आधारों की चर्चा की गई है। वेद, उपनिषद, गीता, बौद्ध-जैन दर्शन, गुरुकुल परंपरा और नालंदा-तक्षशिला जैसे शिक्षा केंद्रों का उल्लेख मिलता है।

परंपरा : इसमें भारतीय समाज की शैक्षिक परंपराओं – गुरु-शिष्य संबंध, आचार्यकुल की परिपाटी, आश्रम व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म तथा लोक परंपराओं का वर्णन किया गया है।

व्यवहार : इस खंड में यह बताया गया है कि किस प्रकार शिक्षा का अनुप्रयोग जीवन, समाज और राष्ट्र निर्माण में हुआ और आज भी हो सकता है।

पुस्तक को गहराई देने के कई आयाम और आधार हैं।

(क) दार्शनिक आधार

लेखकों ने भारतीय शिक्षा को ‘संपूर्ण जीवन का दर्शन’ बताया है। पश्चिमी शिक्षा जहाँ अधिकतर भौतिक उपलब्धियों और वैज्ञानिक खोजों पर बल देती है, वहीं भारतीय शिक्षा आत्मबोध, सदाचार, नैतिकता और मोक्ष की ओर उन्मुख रहती है। पुस्तक में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि भारतीय शिक्षा केवल ‘कौशल’ नहीं, बल्कि ‘संस्कार’ पर आधारित है।

(ख) ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

पुस्तक में वेदकालीन, बौद्धकालीन और मध्यकालीन शिक्षा की व्यवस्थित व्याख्या की गई है। नालंदा और तक्षशिला के वैभव का चित्रण यह दर्शाता है कि भारत प्राचीन काल से ही वैश्विक शिक्षा का केंद्र रहा है।

(ग) आधुनिक संदर्भ

लेखक बताते हैं कि आज के समय में जब शिक्षा अधिकतर बाज़ार की माँगों और उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से बंध गई है, तब भारतीय शिक्षा दर्शन की ओर लौटना अत्यंत आवश्यक है। यह हमें याद दिलाता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी नहीं, बल्कि एक सजग नागरिक और श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना है।

(घ) भाषा और शैली

पुस्तक की भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण और शोधपरक है। दार्शनिक और ऐतिहासिक तथ्यों को उदाहरणों और प्रसंगों के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिससे पाठक को बौद्धिक संतोष के साथ-साथ भावनात्मक जुड़ाव भी होता है।

यह पुस्तक कई स्तरों पर उपयोगी है –

शिक्षा शास्त्र के विद्यार्थी : जो भारतीय शिक्षा पद्धति को समझना चाहते हैं, उनके लिए यह एक आधारभूत ग्रंथ है।

शोधार्थी और शिक्षक : भारतीय परंपरा पर शोध करने वालों के लिए इसमें प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध है।

नीति-निर्माता और शिक्षा प्रशासक : जो आधुनिक शिक्षा नीतियों को भारतीय दृष्टिकोण से सजाना चाहते हैं, उनके लिए यह मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती है।

सामान्य पाठक : जो भारतीय संस्कृति और परंपरा को गहराई से जानना चाहते हैं, वे भी इस पुस्तक कर सकते हैं।

पुस्तक की सबसे बड़ी ताक़त यह है कि इसमें भारतीय शिक्षा की संपूर्णता को सिद्धांत, परंपरा और व्यवहार – तीनों दृष्टियों से प्रस्तुत किया गया है। इससे पाठक को यह समझने में सहायता मिलती है कि भारतीय शिक्षा दर्शन केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक है।

हालाँकि, पुस्तक में एक कमी यह भी लगती है कि इसमें आधुनिक शिक्षा की चुनौतियों – जैसे डिजिटल युग की शिक्षा, वैश्वीकरण, रोजगारपरकता और नई शिक्षा नीति 2020 – से अधिक गहराई से जुड़ाव हो सकता था। यदि आलेखों के संकलनकर्ता इन विषयों को भी विस्तार से जोड़ते तो पुस्तक और अधिक समकालीन हो जाती।

कुल मिलाकर यह पुस्तक भारतीय शिक्षा दर्शन के व्यापक दृष्टिकोण को सरल और व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करती है। यह अतीत की गौरवशाली परंपराओं को वर्तमान की चुनौतियों से जोड़कर एक सकारात्मक दिशा दिखाती है। शिक्षा को केवल सूचना और तकनीक तक सीमित करने की बजाय उसे आत्मबोध और सामाजिक सद्भाव का साधन मानने का संदेश पुस्तक की सबसे बड़ी देन है।

डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता और रवि कुमार का संपादन भारतीय शिक्षा दर्शन के मर्म को समझने के इच्छुक प्रत्येक पाठक के लिए एक मूल्यवान ग्रंथ है। यह हमें यह स्मरण करवाती है कि शिक्षा का उद्देश्य ‘रोज़गार’ नहीं, बल्कि ‘जीवन का उत्थान’ है। भारतीय शिक्षा का दर्शन आज भी हमें एक संतुलित, नैतिक और समरस समाज की ओर ले जाने की क्षमता रखता है।

दोनों संकलनकर्ताओं को बधाई व मंगलकामनाएं।

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