संस्कृत साहित्य की परम्परा में भाष्य की परिभाषा ऋग्वेदभाष्यम् सुबोध भाष्य

संस्कृत-हिन्दी ऋग्वेदभाष्यम् सुबोध भाष्य

Feb 28, 2024 - 18:39
Feb 28, 2024 - 21:44
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संस्कृत साहित्य की परम्परा में भाष्य की परिभाषा ऋग्वेदभाष्यम् सुबोध भाष्य

संस्कृत साहित्य की परम्परा में भाष्य की परिभाषा

          वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिन्दी कोश में भाष्य का अर्थ, व्याख्या, वृत्ति, टीका जैसा कि 'वेदभाष्य' में लिखा गया है। संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ व्याख्या के योग्य) कहते हैं, जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ कर बृहद् व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते है। मुख्य रूप से सूत्र ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गए है। पाणिनि के अष्टायायी पर पतंजलि का व्याकरण महाभाष्य और ब्रह्मसूत्रों पर शांकर भाष्य आदि कुछ प्रसिद्ध भाष्य है।

पराशर पुराण में भाष्यकार के पांच कार्य गिनाये गये है-

पदच्छेद: पदार्थोग्तिर्विग्रहो वाक्ययोजना।

आक्षेपेषु समाधानं व्याख्यानं पंचलक्षणम्॥

          अर्थात् मन्त्रों या श्लोकों का पदपाठ और विग्रह आदि करके उनको संस्कृत या अन्य भाषा में वाक्य के रूप में प्रस्तुत करना होता है। उनकी व्याख्या करके विषय को स्पष्ट किया जाता है और यदि कोई शंका हो तो उसका समाधान किया जाना चाहिए। भाष्य के ये पाँच लक्षण बताये गये हैं।

भाष्य कई प्रकार के होते हैं- प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक। जो भाष्य मूल ग्रन्थों की टीका करते हैं, उन्हें प्राथमिक भाष्य कहते हैं। किसी ग्रन्थ का भाष्य लिखना एक विद्वतापूर्ण कार्य माना जाता है। अपेक्षित छोटी टीकाओं को वाक्य या वृत्ति कहते हैं। जो रचनायें भाष्यों का अर्थ स्पष्ट करने के लिये रची गयीं हों, उन्हें वार्तिक कहते हैं।

          भाष्यः- वेदों का सर्वप्रथम भाष्य ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है जिनमें वेद मंत्रों की व्याख्या मूलतः यज्ञ संबंधी विभिन्न विधियों को लक्ष्य में रखकर की गई है। इनके साथ-साथ, यास्क के कथनानुसार वेद मंत्रों की व्याख्या निम्नोक्त नौ पद्धतियों से होती रही है: (1) नैरक्त, (2) वैयाकरण, (3) ऐतिहासिक, (4) परिव्राजक, (5) नैदान, (6) पूर्वयाजिक, (7) याज्ञिक, (8) आत्मप्रवाद (अधिदैवत पद्धति) तथा (9) अध्यात्म-पद्धति।

           यास्क के पश्चात् सातवीं शती तक न जाने कितने भाष्यकारों ने वेदों का भाष्य किया होगा, किंतु ये भाष्य आज उपलब्ध नहीं हैं। सातवीं शती में स्कन्दस्वामी, नारायण और उद्गीथ ने, इनके बाद माधव भट्ट, वेंकटमाधव, धानुष्कयज्वा, आन्दतीर्थ, आत्मानन्द आदि ने ऋग्वेद का संपूर्णतः अथवा अंशतः भाष्य किया। इन सबके पश्चात ऋग्वेद के प्रसिद्ध व्याख्याता सायणाचार्य का नाम उल्लेख्य है, जो कि चौदहवीं शती में विद्यमान थे। मुद्गल ने सायणाचार्य के वेदभाष्य पर वृत्ति प्रस्तुत की है। आधुनिक युग में वेद के व्याख्याकारों में श्रीमद्दयानंद सरस्वती (19वीं शती) का नाम विशेषतः उल्लेख्य है, जिन्होंने वेद मंत्रों की अपनी व्याख्या में पदों का अर्थ प्राचीन पद्धति के अनुसार निरुक्तियों के माध्यम से किया। श्री अरविन्द, पण्डित जयदेव शर्मा, पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर और आचार्य श्रीराम शर्मा आदि  वेद के अन्य  भाष्यकार हैं।

          वेद का अर्थ समझने के लिये वैदिक वाङ्मय में अर्थबोध की पद्धतियों पर विचार करना आवश्यक है।

          वेदों में भाषा-चिन्तन के साथ अर्थ के सम्बन्ध में भी विविध रूप में पर्याप्त चिन्तन हुआ है, जिस प्रकार समस्त भाषा चिन्तन का मूल आधार तत्त्व वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है उसी प्रकार अर्थ चिन्तन के भी मूलसिद्धान्त वैदिक साहित्य में प्राप्त होते हैं। वास्तव में अर्थविचार की विशाल परम्परा ऋग्वेद काल से ही प्रारम्भ होकर अन्य संहिताओं ब्राह्मण, ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों और वेदांगों से अत्यन्त विकसित हुई है, इन ग्रन्थों में अर्थपरक कई विषयों पर यत्र-तत्र संकेतों के रूप में अथवा स्पष्ट रूप में प्रकाश डाला गया है। इससे वैदिक अर्थचिन्तन का स्वरूप भी स्पष्ट होता है। अर्थबोध की कई पद्धतियों का निर्देश वैदिक वाङ्मय में संकेतत: अथवा स्पष्ट प्राप्त होता है। बाद में वे ही पद्धतियाँ भारतीय अर्थविज्ञान के अन्तर्गत अर्थबोध की विविध विधियों के रूप में क्रमबद्ध और अधिक वैज्ञानिक रूप में विकसित हुई है।

          भाषा की आत्मा अर्थ है। शब्द का प्रयोग अर्थ के लिए ही किया जाता है। अर्थात् अर्थ के अभाव में भाषा का कोई महत्त्व नहीं है। शब्द तो अर्थ की अभिव्यक्ति का ही माध्यम है। अर्थ की प्रतीति कराने के लिए ही व्यवहार में शब्द का प्रयोग किया जाता है।' अथवा यह कह सकते हैं कि भाषा का शब्द शरीर है तो अर्थ उसकी आत्मा। जिस प्रकार शरीर की सहायता से ही आत्मा का प्रत्यक्षीकरण होता है, उसी प्रकार शब्द की सहायता से अर्थ का बोध होता है। भाषा के द्वारा प्रकाशित अर्थ के महत्त्व के विषय में मानव प्राचीन काल से ही विचार करता चला आ रहा है। वेदों में भाषा-चिन्तन के साथ अर्थ के सम्बन्ध में भी विविध रूप में पर्याप्त चिन्तन हुआ है, जिस प्रकार समस्त भाषा चिन्तन का मूल आधार तत्त्व वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है उसी प्रकार अर्थ चिन्तन के भी मूलसिद्धान्त वैदिक साहित्य में प्राप्त होते हैं। वास्तव में अर्थविचार की विशाल परम्परा ऋग्वेद काल से ही प्रारम्भ होकर अन्य संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों और वेदांगों से होकर अत्यन्त विकसित हुई है, इन ग्रन्थों में अर्थपरक कई विषयों पर यत्र-तत्र संकेतों के रूप में अथवा स्पष्ट रूप में प्रकाश डाला गया है। अर्थ सम्बन्धी इन विचारों के आलोचनात्मक विवेचन द्वारा एक ओर भारतीय अर्थ चिन्तन का प्रारम्भिक और मूल रूप प्रकाश में आता है तो दूसरी ओर इससे वैदिक अर्थचिन्तन का स्वरूप भी स्पष्ट होता है। इस सन्दर्भ में यास्क रचित निरुक्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यास्क ने शब्दार्थ के क्रमबद्ध चिन्तन की प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत किया है। निरुक्त में अर्थातिशय, अर्थविकास, अर्थभेद, पदार्थ, वाक्यार्थ, नामार्थ, आख्यातार्थ, अर्थबोध आदि विषयों पर विस्तृत विचार किया गया है। अर्थ एक गम्भीर तत्त्व है क्योंकि इसका सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क से है क्योंकि अर्थतत्त्व का अभिप्राय भाषा के उन अंशों से है जो अर्थ अथवा विचार का बोध कराते हैं। शब्द का प्रतीकात्मक मूल्य अर्थ है जो सर्वध मानसिक बिम्ब के रूप में ही होता है। कोई भी शब्द जिस बोध के प्रयोजन से उच्चारित किया जाता है वही उसक अर्थ होता है। वैदिक वाङ्मय में शब्द की अपेक्षा अर्थ को अधिक महत्त्व दिया गया है।

          ऋग्वेद के दशम मण्डल के 71वें सूक्त में भाषा-तत्त्व और अर्थ-तत्त्व का महत्त्वपूर्ण विवेचन प्राप्त होता है। इस सूक्त में शब्द के अन्तर्निहित तत्त्व अर्थ, उनके जानने वालों की प्रशंसा तथा न जानने वालों की हीनता प्रतिपादित है। इसके दो मन्त्रों को महर्षि पतंजलि ने भी अपने महाभाष्य में उद्धृत किया है। ऋग्वेद के ही प्रथम मण्डल में यह मन्त्र वाणी के सम्बन्ध में कहा गया है-

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।

गुहा त्रीणि निहिता नेंगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥'

          उपर्युक्त श्लोक को पतंजलि ने वाक्तत्त्व के विषय में महाभाष्य में उद्धृत किया है तथा नागेशभट्ट जैसे वैयाकरणों ने उसको व्याख्या करते हुए वाणी की चार अवस्थाओं परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी पर प्रकाश डाला है। अर्थ तत्त्व का जैसा सूक्ष्म विवेचन इन मन्त्रों में प्राप्त होता है, उससे यह तथ्य प्रकट होता है कि ऋग्वैदिक काल में भी भारतीय अर्थचिन्तन कितना विकसित था।

          शब्दों के अनेकार्थक होने से वेद का अर्थबोध हमेशा ही कठिन रहा है। वेद के किस मन्त्र या किस शब्द से क्या अर्थ मूलतः अभिप्रेत रहा है, यह कहना आज भी सरल नहीं है। जब हम वेदों में प्राप्त अर्थविषयक चिन्तन की समीक्षा करते हैं तो हम देखते हैं कि वेद में अपने अर्थ के स्पष्टीकरण के लिए कुछ विधियों का यथास्थान ग्रहण किया गया है। अर्थबोध की कई पद्धतियों का निर्देश वैदिक वाङ्मय में संकेत रूप में अथवा स्पष्ट प्राप्त होता है। यही तो वेद की विशेषता है कि वह केवल अर्थज्ञान की उपयोगिता का ही विचार नहीं करता अपितु वेदार्थ के स्पष्टीकरण में भी योगदान देता है बाद में वे ही पद्धतियाँ भारतीय अर्थविज्ञान के अन्तर्गत अर्थबोध की विविध विधियों के रूप में क्रमबद्ध और अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक रूप में विकसित हुई है।

          वैदिक संहिताओं में अधिकतर अर्थ-चिन्तन में तीन प्रकार मिलते हैं- 1. व्याकृति, अर्थात् निरुक्ति द्वारा शब्दों के धातुगत अर्थ का सहज संकेत। 2. कोश 3. पर्याय योजना अर्थात् एक ही अर्थ के लिए अनेक पर्यायों का प्रयोग। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसके अतिरिक्त गुण कथन और उपमा को भी अर्थबोध के लिए अपनाया गया है, उपनिषदों में विशेषरूप से अर्थचिन्तनार्थक उपमा, निषेध और प्रतीकों का प्रयोग किया गया है, वेदांग ग्रन्थों में अर्थबोध के आधार के रूप में कोश और व्युत्पत्ति का प्रधानतया निर्देश है, इनमें से कोष का संकेत ब्राह्मणों में ही दिखाई दे जाता है। व्युत्पत्ति का सूत्रपात संहिताओं में सर्वप्रथम दिखाई देता है तथा बाद में विस्तार के साथ अन्य वैदिक ग्रन्थ तथा वेदांगों में दिखाई देता है।

          व्युत्पत्ति-अर्थ-निर्देश का प्रारम्भ प्राचीनतम ग्रंथ' ऋग्वेद' से ही दिखाई देता है। यह सत्य है कि वैदिक मंत्रों का मूल उद्देश्य व्युत्पत्ति देना नहीं है, तथापि प्रकारान्तर से जो भी व्युत्पत्तियाँ आ गयी हैं, वे व्याकरण का मूल रूप वेदों में है सिद्ध कर देती है। युधिष्ठिर मीमांसक ने इस विषय में चिंतन करते हुए कतिपय ऐसे मंत्रों को उद्धृत किया हैं, जिनमें व्युत्पत्ति या निरुक्ति का ही निर्देश ध्वनित होता है-

1. यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः।" ('यज्ञ' की निरुक्ति यज् धातु से है)

2. ये सहांसि सहसा सहन्ते।” ('सहस्' की निरुक्ति सह धातु से है)

इस प्रकार सभी संहिताओं के पदों की व्युत्पत्ति की जा सकती है।

          महर्षि दयानन्द सरस्वतीकृत वेद भाष्य की विशेषताएँ- महर्षि द्वारा सम्पूर्ण यजुर्वेद, ऋग्वेद के 7 वें मणडल के 62 वें सूक्त  के  द्वितीय मन्त्र तक और अपने अन्य म्रन्थों, जैसे ऋग्वेदादिभाष्भूमिका, संस्कारविधि, पञ्चमहायज्ञविधि, आर्य्याभिविनय आदि में वेद के विभिन्न मन्त्रों का भाष्य किया गया है। आर्यजगत् के प्रसिद्ध वेदविद्वान् स्मृतिशेष पं॰ रामनाथ वेदालङ्कार द्वारा अपने पुस्तक आर्ष-ज्योति के वेद-व्याख्या के प्रयास (पृष्ठ 33 से 39) शीर्षक लेख के अनुसार महर्षि दयानन्द सरस्वतीकृत वेद भाष्य की विशेषताएँ संक्षिप्त रूप से इस प्रकार हैं-

स्वामी दयानन्द के वेदभाष्य की विशेषताएँ-

          महर्षि दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य पूर्ववर्ती भाष्यों की अपेक्षा अनेक नवीन विशेषताएं रखता है, जिनमें से कुछ का यहां दिग्दर्शन यहाँ किया जा रहा है।

१. वैदिक देवों का अर्थानुसन्धान-

          वेदों में अग्नि, वायु, इन्द्र, अश्विनौ, मित्र, वरुण, अर्यमा, रुद्र, सविता आदि पुंलिंगी का तथा अदिति, उषस्, सरस्वती, पृथिवी आदि स्त्रीलिंगी देवताओं का पुनः-पुनः वर्णन आता है। उवट, सायण, महीधर आदि पूर्ववर्ती भाष्यकारों ने इन्हें पृथक् स्वतन्त्र देव-देवियां स्वीकार किया था तथा यह माना था कि वेदवर्णित प्रत्येक प्राकृतिक देवता उषा, सूर्य, पृथिवी, आपः, नदी, ओषधि आदि का एक-एक स्वतन्त्र चेतन अभिमानी-देवता है, उसी चेतन देवता की इन नामों से वेद में स्तुति की गयी है। जिन देवताओं का प्राकृतिक स्वरूप निश्चित नहीं है, वे भी स्वतन्त्र देवता हैं। यज्ञों में आवाहन करने पर ये देवता हवि से प्रसन्न होकर यजमान को पुत्र, पौत्र, पशु, धन आदि प्रदान करते हैं। परन्तु स्वामी दयानन्द ने प्रमाणपुरस्सर यह घोषणा की कि वेद अनेकेश्वरवादी नहीं है, अपितु वेदों के विभिन्न पुंलिंगी और स्त्रीलिंगी देवता पिता और माता के रूप में एक परमेश्वर के ही गुणकर्म-बोधक विभिन्न नाम हैं। वेद की वर्णन-शैली की यह अद्भुतता है कि साथ ही वे देवता शरीर में आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण, अपान, उदान, चक्षु, श्रोत्र आदि के; राष्ट्र में राजा, सेनापति, न्यायाधीश, गृहपति, आचार्य आदि के; और भौतिक जगत् में प्रकृति, सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, जल आदि के भी वाचक होते हैं। जहां जैसा प्रकरण हो वहां वैसे अर्थ करने चाहिएं। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर दयानन्दभाष्य में प्रसंग या औचित्य के अनुसार 'अग्नि' के अग्रणी, विज्ञानस्वरूप, सर्वविद्योपदेष्टा, स्वयं प्रकाशमान, प्रकाशक परमेश्वर, विद्वान् अध्यापक, उपदेशक, नायक राजा, वीर सेनापति, यज्ञाग्नि, शिल्प में प्रयोक्तव्य भौतिक अग्नि आदि अर्थ किये गये हैं। 'इन्द्र' को ऐश्वर्यशाली परमेश्वर, शत्रुविदारक राजा, सभाशालासेनान्यायाधीश, विद्यार्थियों की जड़ता का विच्छेदक गुरु, वायु, विद्युत्, सूर्य आदि अर्थों में ग्रहण किया गया है। 'रुद्र' को दुष्टरोदक परमात्मा, जीवात्मा, वैद्य, वायु, प्राण, शत्रुसंहारक सेनापति, ब्रह्मचारी आदि अर्थों में व्याख्यात किया गया है। 'अश्विनी' के राजा अमात्य, प्राण-अपान, जल-अग्नि, वायु-विद्युत्, सूर्य-चन्द्र, अध्यापक उपदेशक, सभेश-सेनेश आदि अर्थ किये गये हैं।

          वैदिक देवियों को भी स्वामी दयानन्द ने भौतिक जगत् एवं शरीर में घटाने के साथ-साथ समाज में भी घटाया है। तदनुसार उनके भाष्य में 'उषा' का अर्थ प्रभातवेला या सन्ध्या के अतिरिक्त उषा के समान ज्ञान से समस्त रूपों की प्रकाशिका विदुषी स्त्री भी किया गया है। इसी प्रकार 'सरस्वती' का अर्थ वाणी एवं वेगवती नदी के अतिरिक्त विदुषी कन्या, प्रशस्त ज्ञानवती विदुषी स्त्री, प्रशस्तविज्ञानयुक्ता पत्नी, शिक्षिता माता एवं वेदादिशास्त्रविज्ञानयुक्ता अध्यापिका भी किया है।" प्रचुरता के साथ वैदिक देवताओं को सामाजिक या राष्ट्रिय अर्थों में लेकर सम्पूर्ण मन्त्र को सामाजिक या राष्ट्रपरक अर्थ की रंगत देना स्वामी दयानन्द की ही महत्त्वपूर्ण देन है । इससे पूर्व ब्राह्मणग्रन्थों में ऐसे अर्थों के क्वचित् संकेतमात्र दिये गये थे। स्वामी दयानन्द के द्वारा किये गये अर्थ वेदों  ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यक आदि साहित्य से समर्थित हैं।

2-वेदमन्त्रों की अनेकार्थता-

          मन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधियज्ञ आदि अर्थ करने की पहले से ही प्रवृत्ति थी। यास्क ने अपने निरक्त में कई स्थलों पर इस प्रकार की मंत्र व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। स्वामी दयानन्द ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। उन्होंने मन्त्रार्थों को दो भागों में विभक्त किया है पारमार्थिक अर्थ और व्यावहारिक अर्थ।" इन्हीं दो में पूर्व आचार्यों से निर्धारित अध्यात्म, अधिदैवत, अधियज्ञ, अधिभूत आदि सकल अर्थ प्रक्रियाएं समाविष्ट हो जाती हैं। परमेश्वर तथा परमेश्वर-प्राप्ति सम्बन्धी अर्थ पारमार्थिक प्रक्रिया में और शेष सब अर्थ व्यावहारिक प्रक्रिया के अन्तर्गत होते हैं। स्वामी दयानन्द ने अपने वेदभाष्य में वेदमन्त्रों की अनेकार्थक योजना अनेक स्थलों पर की है। ऋग्वेद के प्रथम पांच अग्निदेवताक मन्त्रों की व्याख्या उन्होंने परमेश्वरपरक तथा शिल्पाग्निपरक की है। 'धूरसि धूर्व धूर्वन्तम्' यदु० १.८ में भी अग्नि के अर्थ परमेश्वर तथा शिल्पसाधक अग्नि दोनो लिये हैं। वायुदेवताक ऋ० १.२.१ ३ इन तीनों मन्त्रों की व्याख्या परमेश्वर तथा भौतिक वायु दोनो पक्षों में की है।  इसी प्रकार इन्द्र देवता, सूर्य देवता और सोमासि सत्पति ऋ० १.९१.५ आदि मन्त्र श्लेष से परमेश्वर, शालाध्यक्ष तथा सोम ओषधी तीन पक्षों में व्याख्यात किया गया है।

३. ऐतिहासिक अर्थों की उपेक्षा-

          वेदमन्त्रों में प्रयुक्त नामों को किन्हीं ऐतिहासिक ऋषियों, ऋषिकाओं, राजाओं, रानियों, नदियों, नगरों आदि के नाम मान लेने की प्रवृत्ति वेदभाष्यकारों में पायी जाती है। वेदार्थ का ऐतिहासिक सम्प्रदाय यास्काचार्य (७०० ई० पू०) से भी पहले विद्यमान था, क्योंकि उन्होंने अपने निरुक्त ग्रन्थ में कई प्रसंगों में इस सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। पर अपनी सम्मति उन्होंने इसके विरोध में ही दी है।"  विदेशों के विद्वान् वेदों में लौकिक इतिहास भले ही मानें, पर आश्चर्य तो तब होता है जब वेदों को सृष्टि के आदि में प्रकट हुआ ईश्वरीय ज्ञान मानने वाले स्कन्दस्वामी, उवट, सायण, महीघर आदि भारतीय भाष्यकार भी अनेके स्थलों पर वेदमन्त्रों की इतिहासपरक व्याख्याएं करते हैं। स्वामी दयानन्द ने अपने सुदीर्घ वेदभाष्य में एक स्थल पर भी इतिहास नहीं माना है। ऋ० भा०भू० में वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि वेदमन्त्रों में इतिहास का लेश भी नहीं है, अतः सायणाचार्य आदि ने जहां-कहीं इतिहास का वर्णन किया है वह भ्रममूलक ही है।"

          वेदों में लौकिक इतिहास न होने की स्थापना तो अपने ऋग्वेदभाष्य के उपोद्घात में सायण ने भी की थी," पर वेदभाष्य में वे उसका निर्वाह नहीं कर पाये। किन्तु महर्षि दयानन्द ने अपनी प्रतिज्ञा का अपने वेदभाष्य में सर्वत्र निर्वाह किया है। वे अगस्त्य, अत्रि, अम्बरीष, कुत्स, कुशिक, त्रसदस्यु, दिवोदास, वसिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र, शुनःशेप प्रभृति समस्त ऐतिहासिक प्रतीत होने वाले नामों की नैरुक्त पद्धति से व्याख्या करते हैं। सचमुच वेद में लौकिक इतिहास की कल्पना वेद को जर्जर कर देने वाली है। वेदों में इतिहास न मान कर योगार्थ के बल से जो अर्थ करने की पद्धति है उसी से वेद का रहस्यार्थ हृदयंगम किया जा सकता है।

४. पूर्व विनियोगों से स्वतन्त्र वेदार्थ-

          पूर्वकाल में दर्श, पौर्णमास, वाजपेय, राजसूय, अश्वमेघ, पुरुषमेघ, सोमयाग आदि विविध श्रौत यागों में ब्रह्मयज्ञादि पञ्च यज्ञों में, जातकर्मादि विभिन्न संस्कारों में तथा अन्य अनेक विधि-विधानों में वेदमन्त्रों का विनियोग किया गया था। उन विनियोगों की परीक्षा करने से ज्ञात होता है कि उनमें कुछ विनियोग रूपसमृद्ध अर्थात् मन्त्रार्थ से अनुमोदित हैं और कुछ अरूपसमृद्ध हैं अर्थात् या तो मन्त्रार्थ से विरुद्ध हैं या मन्त्रार्थ से असम्बद्ध हैं। ब्राह्मणग्रन्थकारों ने रूपसमृद्ध विनियोगों से ही यज्ञ की परिपूर्णता मानी थी। " तथापि अरूपसमृद्ध विनियोग भी चलते रहे और उन्हें प्रामाणिक भी माना जाता रहा। स्वामी दयानन्द ने यह स्पष्ट घोषणा की कि पूर्वकृत विनियोगों में जो युक्तिसिद्ध, वेदादि प्रमाणों के अनुकूल और मन्त्रार्थ का अनुसरण करने वाले विनियोग हैं, वे ही ग्राह्य हो सकते हैं।" साथ ही यह भी माना कि वेदव्याख्या के लिए रूपसमृद्ध विनियोगों का भी अनुसरण करना अनिवार्य नहीं है, उन विनियोगों से स्वतन्त्र होकर भी वेद के व्याख्यान किये जा सकते हैं। अतएव उन्होंने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद का अपना भाष्य पूर्व विनियोगों का अनुसरण किये बिना ही लिखा है और भूमिका में यह निर्देश कर दिया है कि मैं तो शब्दार्थतः ही मन्त्रों की व्याख्या करूंगा, जिन्हें अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेघपर्यन्त कर्मकाण्ड का परिचय पाना हो वे ऐतरेय, शतपथ, पूर्वमीमांसा, श्रौतसूत्रादि को देख सकते हैं, किन्तु उनमें जो वेदविरुद्ध विनियोग हैं उन्हें न मानें ।

५. वेदों में विविध विद्याओं का आविष्कार-

          महर्षि से पूर्व के भाष्यकारों में से अधिकांश ने वेदों में कर्मकाण्ड के अतिरिक्त अन्य किसी विद्या का आविष्कार नहीं किया था। परन्तु स्वामी दयानन्द 'वेदों में सब विद्याएं हैं' यह घोषणा करते हैं।" उन्होंने अपने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ में ब्रह्मविद्या, सृष्टिविद्या, पृथिव्यादिलोकभ्रमणविद्या, आकर्षणानुकर्षणविद्या, प्रकाश्यप्रकाशकविद्या, गणितविद्या, उपासनाविद्या, मुक्तिविद्या, नौविमानादि निर्माणचालनविद्या, तारयन्त्रविद्या, वैद्यकविद्या, राजविद्या, यज्ञविद्या, कृषि बिद्या, शिल्पविद्या, वर्णाश्रमविद्या आदि विविध विद्याओं का वैदिक प्रमाणों सहित प्रतिपादन किया है तथा स्वकीय वेदभाष्य में भी इनका प्रकाश किया है।

६. कतिपय अन्य विशेषताएं-

          स्वामी दयानन्द के वेदभाष्य में कुछ अन्य विशेषताएं भी पायी जाती हैं, जो अन्य वेदभाष्यकारों के भाष्यों में उपलब्ध नहीं होतीं । उदाहरणार्थ, कतिपय विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

(1) दयानन्द सरस्वती वेदमन्त्रों के अश्लील, परमात्मा के स्वभाव एवं सृष्टिनियम के विरुद्ध और लोकविद्वेषकारी अर्थ कहीं नहीं करते ।

 (2) वे वेदों में मांसभक्षण, पशुबलि, जड़पूजा, मृतकश्राद्ध, जादू टोना, असंभव चमत्कार आदि नहीं मानते। जिन भाष्यकारों ने इस पक्ष के अर्थ अपने वेदभाष्यों में किये है उन्हें वे भ्रान्त ठहराते हैं।

(3) निर्वचनशास्त्र को भी उनका विशेष योगदान है, यतः अपने वेदभाष्य में तथा उणादिकोष की व्याख्या में उन्होंने अनेक नवीन निर्वाचन प्रस्तुत किये हैं।

(4) वे वैदिक शब्दों को व्यापक अर्थों में लेते हैं। यथा देव शब्द से परमेश्वर, विद्वान्, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, ज्ञानेन्द्रिय आदि का ग्रहण करते है। " यज्ञ में केवल अग्निहोत्र को ही नहीं, प्रत्युत देवपूजा, संगतिकरण, शिल्प, दान आदि को भी संमिलित करते हैं। इसी प्रकार  विभिन्न वैदिक शब्दों की व्याख्या की गई है।

(5) उनका वेदभाष्य मानव को अभ्युदय तथा निःश्रेयस दोनों की प्राप्ति के लिये उद्बोधन देता है। लौकिक उत्कर्ष में वे समग्र भूमण्डल के धर्मपूर्ण चक्रवर्ती राज्य तक पहुंचाते हैं, तो दिव्य उत्कर्ष में मोक्ष के परमानन्द तक ले जाते हैं।

          वस्तुतः वेद 'विश्ववारा प्रथमा संस्कृति एवं भारतीय विचारधारा के आधारभूत स्तम्भ हैं। वेदों की रचना-शैली बड़ी अद्भुत है। एक-एक ऋचा अनेक अर्थों का प्रतिपादन करती है। जिस प्रकार उससे आध्यात्मिक रहस्यों का ज्ञान प्राप्त होता है, उसी प्रकार उससे आधिभौतिक तथा आधिदैविक सत्य भी प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदों की इस अद्भुत और अनन्त रत्नगर्भा निधि को उसपर पड़ी हुई धूलि और गर्द-गुबार को झाड़-पोंछकर विशुद्ध रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया। वर्त्तमान काल के सुप्रसिद्ध दाक्षिणात्य विद्वान् और योगी श्री माधव पुण्डलीक पण्डित ने 'Mystic Approach to the Veda and Upanishad' में वेदों के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द के दृष्टिकोण तथा उनके वेदभाष्य के महत्त्व की चर्चा करते हुए लिखा है- 'गत शताब्दी के मध्य में वेदों को पुनः भारत के राष्ट्रिय जीवन में सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रतिष्ठापित करने के लिए भारतीय संस्कृति के प्रवल पोषक स्वामी दयानन्द सरस्वती के रूप में प्राप्त हुए। उन्होंने ज्योतिर्मय वेदों के सम्बन्ध में प्रान्तियों और पक्षपातपूर्ण पाश्चात्य विचारधारा का प्रत्यायन करके प्रत्येक भारतीय को प्रेरणा की कि वह सत्य को सीधा देखने का प्रयत्न करे और इस बात को पहचाने कि वेद वस्तुतः ईश्वरीय ज्ञान है। उसने अकाटप प्रमाणों से इस बात को सिद्ध किया कि वेदों में एक ईश्वर का विचार अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रतिपादित किया गया है। अन्य देव तो उसके गुणों तथा शक्ति के सूचक नाममात्र है।'

          स्वामी दयानन्द के वेदों में विज्ञानविषयक मन्तव्य का विवेचन करते हुए श्री अरविन्द ने अपने निबन्ध 'Dayanand and the Veda' में लिखा है-

          “'दयानन्द की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों की सचाइयां पाई जाती हैं, कोई उपहासास्पद या कल्पनामूलक बात नहीं है। मैं इसके साथ अपनी भी धारणा जोड़ देना चाहता हूँ कि वेदों में विज्ञान की वे सचाइयाँ भी हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। ऐसी अवस्था में स्वामी दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गहराई के सम्बन्ध में अतिशयोक्ति से नहीं, अपितु न्यूनोक्ति से ही काम लिया है। श्री अरविन्द का यह भी कहना है- कि 'वेदों का अन्तिम तथा सम्पूर्ण भाष्य चाहे कुछ भी हो, ऋषि दयानन्द वेदों के यथार्थस्वरूप के प्रथम अन्वेषक के रूप में सदा प्रतिष्ठित रहेंगे। समय ने जिनको बन्द कर रक्खा था, ऐसे द्वारों की चाबी को उन्होंने पा लिया और उनमें बन्द स्रोत की सील (मुहर) को तोड़कर फेंक दिया।“

          इस प्रकार अनेक नवीनताओं एवं विशेषताओं के कारण स्वामी दयानन्द का वेदभाष्य अत्यन्त उपादेय है।

          अब हम अनुवाद शब्द पर विचार करते हैं। डा० नगेन्द्र के अनुसार 'अनुवाद' शब्द से आज अभिप्रेत है- किसी एक भाषा में प्रस्तुत अर्थ को अन्य भाषा में प्रस्तुत करना। यह शब्द अंग्रेजी शब्द 'ट्रान्सलेशन' के लिए रूढ़ हो गया है। 'ट्रान्सलेशन' शब्द एक अन्य अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे किसी के व्यवहार आदि को समझना। आपने अनुवाद का वास्तविक अर्थ कहा है- किसी भाषा के प्रत्येक वाक्य को प्रायः सभी पदों का अर्थ देते हुए अन्य भाषा में प्रस्तुत करना  'अनुवाद' है।

          शब्दकल्पद्रुम कोश में अनुवाद शब्द का एक अर्थ है अवधारित (किसी निश्चित अर्थ) को फिर कहना–चाहे वह उसी भाषा में ही क्यों न हो जिसमें मूल पाठ है। इस दृष्टि से भाष्य तथा टीका को भी 'अनुवाद' कहा जा सकता है। इन दोनों का रूप समान होता है, पर आर्ष ग्रंथों की व्याख्या को 'भाष्य' कहते हैं, और क्लासिकल संस्कृत के ग्रंथों की व्याख्या को टीका। इन दोनों का मूल स्रोत हम पद-पाठ और निरुक्ति-पद्धति को मान सकते हैं। पद-पाठ से तात्पर्य है संहिताबद्ध वेद मंत्रों के पदों को पृथक्-पृथक् करना, जिसके अंतर्गत संधिविच्छेद, उपसर्ग तथा उदात्तादि स्वरों पर भी प्रकाश डाला जाता है। इन पद पाठों का सुपरिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण ग्रंथों में और आगे चलकर निरुक्त-ग्रंथों में शब्दों की निरुक्तियों का एक आधार पद-पाठ भी रहा । उदाहरणार्थ, यास्क के अनुसार 'मित्रः' की यास्क प्रस्तुत निरुक्ति है – मित्रः प्रमीतेस्त्रायते (निरुक्त 10.21.2), (जो मरण से त्राण करता है, अर्थात् सूर्य और इस निरुक्ति का आधार है 'मित्रम्' पद का गार्ग्य प्रस्तुत 'मित्र' पदपाठ ।

          निर्वचन अथवा निरुक्ति से तात्पर्य है किसी शब्द का एक धातु अथवा अनेक धातुओं के साथ संबंध स्थापित करके उसका अर्थ निर्धारित करना । वेदों के मंत्रों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए ब्राह्मण ग्रंथों तथा आरण्यकों में कई स्थलों पर इस प्रक्रिया का आधार ग्रहण किया गया है। निरुक्त ग्रंथों में उपलब्ध और प्रख्यात यास्क प्रणीत निरुक्त में तो इसी प्रक्रिया का सांगोपांग विवेचन करते हुए वेदों के मंत्रों की व्याख्या की गई है, तथा आगे चलकर वेदों के प्रख्यात भाष्यकर्ता स्कन्द, सायण आदि ने भी इसी पद्धति को अपनाया है। इतना ही नहीं, स्वयं ऋग्वेद में निर्वचन पद्धति के संकेत अनेक स्थलों पर मिल जाते हैं। जैसे कि (1) गायन्ति त्वा गायत्रिणो.... । (ऋ० 1. 10. 1) (2) अर्चन्तोऽक मदिरस्य पीतये । (ऋ० 1. 116. 7) । उक्त दोनों स्थलों में व्युत्पत्तिपरक संकेत स्पष्टतः उपलब्ध होते हैं कि 'गायत्रिन्' शब्द गै (गाना, स्तुति करना) से निष्पन्न होता है, और अर्क शब्द अर्च् (पूजा करना) से। इसी प्रकार से अन्य तीनों वेदों के अतिरिक्त ब्राह्मण ग्रंथों में भी निरुक्तियों के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं । इसके बाद मास्क का प्रख्यात ग्रंथ निरुक्त (निर्वाचन शास्त्र अथवा व्युत्पत्तिशास्त्र) का उल्लेख है। परवर्ती और टीकाकारों ने अनेकानेक स्थलों पर निरुक्ति का आधार करते हुए अर्थ-निर्धारण किया है।

          जैसाकि उपरोक्त रूप से वर्णित किया गया है कि अनुवाद का वास्तविक अर्थ कहा है- किसी भाषा के प्रत्येक वाक्य को प्रायः सभी पदों का अर्थ देते हुए अन्य भाषा में प्रस्तुत करना  'अनुवाद' है।

          जब हम इस मापदण्ड के आधार पर महर्षिकृत ऋग्वेद के संस्कृतभाष्य के हिन्दी भाषा में किये गये अनुवाद पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है-

(1)     हिन्दी भाष्य में कोई पद-पाठ नहीं दिया गया है।

(2)     महर्षि ने अपने संस्कृतभाष्य में प्रत्येक मन्त्र का अन्वय लिखा है परन्तु अन्वय के आधार पर अनुवाद नहीं किया गया है, अपितु अनेक पदों का सम्मिलित रूप से सार रूप में अर्थ कर दिया गया है।

(3)     यदि कोई पाठक इस भाषानुवाद के आधार पर मन्त्र में लिखे गये पदों का अर्थ जानना चाहता है तो यह उसके लिये सम्भव प्रतीत नहीं होता है।

(4)     अनेक मन्त्रों के महर्षिकृत संस्कृतभाष्य और उसके हिन्दी में किये गये अनुवाद में भिन्नता पायी जाती है।

(5)     महर्षि ने कुछ मन्त्रों के ही संस्कृत भावार्थ का हिन्दी में अर्थ किया था। अन्य विद्वानों द्वारा किये गये गये अनुवाद में भिन्नता पायी जाती है। अनेक विद्वानों के मत इस विषय पर भिन्न हैं।

          महर्षिकृत संस्कृतभाष्य और उसके हिन्दी में किये गये अनुवाद के विषय में पण्डित युधिष्ठर मीमांसक की पुस्तक ऋषि  दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास के पृष्ठ 155 पर यह अधोलिखित टिप्पणी द्रष्टव्य है-

वेदभाष्यों का भाषानुवाद-

          वेदभाष्य का मूल संस्कृत भाग ही ऋषि दयानन्द विरचित है, भाषानुवाद पण्डितों से कराया हुआ है । इसलिये कई स्थानों में भाषा संस्कृत के अनुकूल नहीं हैं। वेदभाष्य के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द ने अपने पत्रों में इस प्रकार लिखा है-

१ – “जो कहीं पद का छूट जाना है यह भाषा बनाने वाले और शुद्ध लिखने वाले की भूल है ।"....

          समग्र रूप से भाषानुवाद को देखने पर ज्ञात होता है कि ये अनुवाद महर्षिकृत संस्कृतभाष्य का सही-सही रूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में पूर्णरूप से समर्थ नहीं हैं। महर्षिकृत ऋग्वेदभाष्य का मुद्रण सम्भवतः श्रावण संवत् १९३५ में मासिक अंक रूप में प्रारम्भ हुआ था। सम्पूर्ण भाष्य के छपने में लगभग २२ वर्ष लगे । इस प्रकार सम्पूर्ण भाष्य संवत् १९५६ तक प्रकाशित हो चुका था। प्रमाणस्वरूप पण्डित युधिष्ठर मीमांसक की पुस्तक ऋषि  दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास के पृष्ठ १४२  पर यह अधोलिखित टिप्पणी द्रष्टव्य है-

“ऋग्वेदभाष्य के मुद्रण का आरम्भ तथा समाप्ति

          ऋग्वेदभाष्य का मुद्रण सम्भवतः श्रावण संवत् १९३५ में मासिक अंक रूप में प्रारम्भ हुआ था। उनके जीवन काल में इस भाष्य के केवल ५१ अङ्क ही प्रकाशित हुए थे। जिन में प्रथम मण्डल के ८६ वें सूक्त के ५वें मन्त्र तक का भाष्य छपा था' । शेष समस्त भाष्य पूर्ववत् मासिक अङ्कों में सं १९५६ के आषाढ़ कृष्णा ५ तक छपता रहा । अर्थात् सम्पूर्ण भाष्य के छपने में लगभग २२ वर्ष लगे । भाष्य कितने अङ्कों में छपा था, यह हमें ज्ञात नहीं हो सका ।”

          इस प्रकार ऋग्वेदभाष्य संवत् १९५६ तक प्रकाशित हो चुका था। उसके बाद पं॰ जयदेव शर्मा शर्मा विद्यालंकार, पं॰, हरिशरण सिद्धान्तालंकार और पं॰ श्रीपाद दामोदर सातवलेकर आदि ने हिन्दी भाषा में ऋग्वेद के सम्पूर्ण भाष्य किये। वेद का प्रचार और प्रसार करना हम आर्यों का परम कर्त्तव्य हे, परन्तु हम एक सौ दो तेईस (१२३) वर्षों की दीर्घ अवधि व्यतीत होने के बाद भी महर्षिकृत संस्कृतभाष्य, जिस पर हम गर्व करते हैं, को आर्यभाषा में शुद्ध और सही रूप में प्रस्तुत करने में असफल रहे हैं। ऐसे में वैदिक विद्वानों के द्वारा इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद वाँछित शुद्ध भाषानुवाद किये जाने की नितान्त आवश्यकता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती के २०० वें जन्म जयन्ती वर्ष के अवसर पर इस दिशा में कार्य करते हुए ४० सूक्तों का यह प्रथम खण्ड प्रस्तुत है। आशा है इस सम्बन्ध में यह लघु प्रयास पाठकों को पसन्द आयेगा।

इस पुस्तक के लेखन में मेरे पूजनीय गुरुजी डा० यज्ञवीर राणा, आचार्य गुरुकुल पौंधा का अमूल्य योगदान और आशीर्वाद रहा है। आपने मुझे व्याकरण और निरुक्त के जटिल विषयों की न केवल शिक्षा दी, अपितु इस पुस्तक के लेखन के समय आनेवाली व्याकरण और अनुवाद की समस्याओं का निराकण भी किया। साथ ही इस पुस्तक को आद्योपान्त पढ़कर इसमें पायी गई कमियों का भी निराकरण किया है। मैं आपका आजीवन आभारी रहूँगा।

 पूजनीय स्वामी प्रणवानन्द का मेरी अध्ययन यात्रा में विशेष सहयोग और आशीर्वाद रहा है। इसके लिये मैं उनके प्रति हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।

मैं डॉ ज्ञान प्रकाश शास्त्री, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष श्रद्धानन्द वैदिक शोध-संस्थान, गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार का हृदय से आभारी हूँ। आपने समय-समय पर अपना अमूल्य समय देकर अपने विस्तृत अनुभव के आधार पर मुझे सुझाव दिये। आपने इस अनुवाद कार्य के प्रति अपनी सम्मति और शुभकामनाएँ प्रदान की हैं, एतदर्थ मैं उनके प्रति सविनय आभारी हूँ।

इस पुस्तक के प्रकाशक विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नई दिल्ली के स्वामी यशस्वी श्री अजय आर्य ने इस पुस्तक का सारगर्भित प्रकाशकीय लिखा है, एतदर्थ मैं उनके प्रति सविनय आभारी हूँ।

 साथ ही में मैं श्रद्धानन्द अनुसन्धान प्रकाशन केन्द्र, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार और प्रकाशक वैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम, केसरगंज, अजमेर का आभारी हूँ, जिनकी पुस्तकों के आधार पर यह अनुवाद कार्य किया गया है।

इस कार्य के लिये मैं डिजिटल वैदिकस्किरिपचर्स (VedicScriptures) वेबसाइट  के प्रबन्धक श्री वीरेन्द्र अग्रवाल और समस्त दस सदस्यों का भी आभारी हूँ। यदि यह डिजिटल वेबसाइट उपलब्ध न होती तो मुझे 70 प्रतिशत टंकण कार्य अधिक करना पड़ता और मेरे लिये यह कार्य अत्यन्त कठिन हो जाता।

इसी प्रकार मैं पुस्तक के कमप्यूटर-संयोजक अनुज श्री पंकज कण्डवाल भी साधुवाद के पात्र हैं और मैं उनके उत्कृष्ट कार्य के लिये आभारी हूँ।

करुणानिधान परमपिता परमेश्वर की अनुकम्पा से मैं इस कार्य में प्रवृत्त हुआ हूँ। यदि परमेश्वर की कृपा से मुझे स्वस्थ जीवन और पर्याप्त आयु मिलती है तो मैं महर्षिकृत ऋग्वेद भाष्य का हिन्दी और आँग्ल भाषा में अनुवाद कार्य पूर्ण करने में सफल हो सकूँगा।

चैत्र शुक्ल ०१, प्रतिपदा विक्रमी संवत् २०८०

बुधवार, दि० २२. ०३. २०२३

भवतां स्नेहिलाशीर्वादाकांक्षी

डॉ कृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री

इस भाष्य के आधार पर ऋचाओं का विवरण

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