रानी लक्ष्मीबाई जी के बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि नमन

Jun 18, 2024 - 10:29
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रानी लक्ष्मीबाई जी के बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि नमन
शौर्य, साहस व स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति रानी लक्ष्मीबाई जी के बलिदान दिवस पर कोटि-कोटि नमन।
 
सात साल की उम्र में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने और धनुर्विद्या में निपुण हुई। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने मन में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पायु में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई।
 
 
ब्रिटिश गवर्नर जनरल डलहौजी ने 'गोद निषेध' जिसे 'राज्य हड़प नीति' भी कहते हैं, के अन्तर्गत सतारा, नागपुर, सम्भलपुर, झाँसी तथा बरार आदि राज्यों पर जबरन अधिकार कर लिया था, इसी नीति के अंतर्गत झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात उनका कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण डलहौजी ने झाँसी राज्य को अंग्रेजी शासन में शामिल करने का फरमान जारी कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने जैसे ही यह सुना, तो उन्होंने कहा,
"असम्भव, मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी।"
 
 
 
रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में झाँसी, 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और सेना का गठन प्रारम्भ किया। सेना में महिलाओं की भर्ती कर उन्हें भी युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया।
 
 
 
1857 के स्वातंत्र्य समर में 17 जून 1858 को रानी ने अपने विश्वासपात्र रामचन्द्र राव से कहा, "आज युद्ध का अन्तिम दिन दिखाई पड़ रहा है। यदि मेरी मृत्यु हो जाये तो मेरे पुत्र दामोदर राव के जीवन की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है और इस बात का विशेष ध्यान रहे कि मेरा शव उनके हाथ में न पड़े जो मेरे धर्म के नहीं हैं।"
 
 
1857 की क्रान्ति में संत गंगादास महाराज
ने अपने 1200 साधुओं के साथ ब्रिटिश सेना से युद्ध किया था। रानी लक्ष्मीबाई ने प्राण त्यागने से पूर्व उनसे दो वचन लिए थे, पहला उनके पुत्र दामोदर राव की रक्षा का वचन और दूसरा यह कि मरने के बाद उनके शव को अंग्रेजी सेना हाथ न लगा पाये। इन्हीं दो वचनों को निभाने के लिए वे 1200 साधु, संत गंगादास की अगुवाई में लड़े और अंग्रेज सैनिकों से रानी के शव की रक्षा की। इस लड़ाई में 745 साधुओं ने वीरगति प्राप्त की। अन्त में रानी के शव को साधुओं के आश्रम की एक झोपड़ी में रखकर उसमें आग लगा दी गई। रानी के बलिदान के बाद अंग्रेज उनके शव को हाथ न लगा सके थे।
 
 
1857 के स्वातंत्र्य समर में 17 जून 1858 को रानी ने अपने विश्वासपात्र रामचन्द्र राव से कहा, "आज युद्ध का अन्तिम दिन दिखाई पड़ रहा है। यदि मेरी मृत्यु हो जाये तो मेरे पुत्र दामोदर राव के जीवन की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है और इस बात का विशेष ध्यान रहे कि मेरा शव उनके हाथ में न पड़े जो मेरे धर्म के नहीं हैं।"
 
 
1857 के स्वातंत्र्य समर में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर की रक्षा करने वाले 745 साधुओं के पराक्रम को जानना बेहद जरूरी है।
महंत गंगादास के आश्रम में आज भी उन 745 साधुओं की समाधियां बनी हुई हैं, जो यह बताती हैं कि अंग्रजों की दासता से मुक्ति के लिए उस स्वतन्त्रता संग्राम में सांसारिक मोहमाया से दूर साधुओं के मन में भी बेचैनी थी।
 
 
रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य, वीरता और युद्धकौशल से प्रभावित होकर ब्रिटिश जनरल ह्यू रोज ने टिप्पणी की थी -
"अपनी सुंदरता, चतुराई और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय, वह सभी विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक थीं। सबसे अच्छी और सबसे बहादुर ।"
 
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@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,