महिलाओं की गरिमा का उद्घोष मोदी सरकार में
भारत की लगभग 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में निवास करती है। अतः उनकी प्राथमिकताएं और आवश्यकताएं जब तक आर्थिक विकास की रणनीति में केंद्रीय स्थान नहीं पातीं तब तक आत्मनिर्भर एवं सशक्त भारत की कल्पना करना व्यर्थ है। महिलाओं की गरिमा का उद्घोष मोदी सरकार में
महिलाओं की गरिमा का उद्घोष
लोक सभा चुनाव जारी है। पार्टियां सभी और उम्मीदवार अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रचार-प्रसार के क्रम में अनेक घोषणाएं कर अपने विकास के मॉडल और सोच से वोटरों को लुभा रहे हैं। हालांकि जनता किसके वादे और इरादे पर विश्वास करती है और आने वाले 5 वर्षों के लिए शासन की बागडोर किसके हाथ में सौंपेगी, इसका उत्तर 4 जून को मालूम हो जाएगा। परंतु बीता दशक भारत को क्या देकर गया है, यह विश्लेषण भविष्य की पटकथा लिखने के लिए आवश्यक ही नहीं वांछित भी है। क्योंकि उसी में विश्वास की डोर निहित है। आईएमएफ के अनुसार भारत के वर्ष 2027 में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने की प्रबल संभावना है और यह भी अनुमान लगाया गया है कि 5 वर्षों में वैश्विक विकास में भारत का योगदान 2 प्रतिशत बढ़ जाएगा। यह आंकड़े स्पष्ट इंगित कर रहे हैं कि भारत बड़ी ही सुदृढ़ता के साथ आर्थिक विकास की गति को थामे हुए है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि बीते एक दशक में ऐसा क्या हुआ कि आर्थिक विकास का प्रवाह तीव्र गति से बढ़ा है?
क्योंकि अगर यह कहा जाता है कि इसके पीछे सरकार की आर्थिक नीतियां हैं, तो क्या 2014 से पूर्व आर्थिक विकास को गति देने के लिए रणनीतियां नहीं बनीं? यकीनन आजादी के बाद से निरंतर ऐसी अनेक योजनाएं व नीतियों का निर्माण हुआ जिससे भारत एक सुदृढ़ आर्थिक धरातल पर खड़ा हो सके। परंतु इसके बावजूद उन नीतियों के वह परिणाम प्राप्त नहीं हुए जो अपेक्षित थे। ऐसे में क्या उन कारणों को जानना आवश्यक नहीं हो जाता, जिसके चलते बीते एक दशक से पूर्व आर्थिक विकास की गति मंधर थी?
सर्वप्रथम तो हमें यह समझना होगा कि आर्थिक विकास स्वयं में स्वतंत्र चर नहीं है बल्कि इसके निर्धारण में अन्य अनवस्थित की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। दूसरा आर्थिक विकास तब तक अपनी अपेक्षित गति से नहीं बढ़ सकता जब तक उसमें आधी आबादी की भागीदारी न हो। और तीसरा बिंदु जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और यह यह कि इसमें ग्रामीण भारत की प्रतिभागिता हो, चूंकि भारत की लगभग 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में निवास करती है। अतः उनकी प्राथमिकताएं और आवश्यकताएं जब तक आर्थिक विकास की रणनीति में केंद्रीय स्थान नहीं पातीं तब तक आत्मनिर्भर एवं सशक्त भारत की कल्पना करना व्यर्थ है। अब पुनः फिर वही प्रश्न उत्पन्न होता है कि आजादी के छः दशकों तक क्या ग्रामीण विकास तथा महिला कल्याण केंद्रित योजनाएं क्रियान्वित नहीं हुई? निश्चित ही ऐसी योजनाएं बनी भी और महिला स्वावलंबन के लिए अनेक वित्तीय प्रावधान भी प्रस्तावित हुए, परंतु इन प्रयासों के बावजूद भी महिला सशक्तीकरण का प्रश्न अनसुलझा ही रहा। यह निर्विवाद सत्य है कि आर्थिक स्वावलंबन आधी आबादी के सशक्तीकरण की अपरिहार्य शर्त है और यह तभी संभव है जब महिलाओं के भीतर 'स्व' का भाव व्याप्त हो।
आत्म सम्मान का अभाव अक्षमता और उदासीनता को जन्म देता है।
किसी भी व्यक्ति के भीतर आत्मसम्मान की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा कारण स्वयं के जीवन को मूल्यहीन समझना है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि दशकों से आथी आबादी को निरंतर यह बोध कराया गया है कि वो समाज का वह 'दायित्व' हैं जिनका सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण में योगदान शून्य है। मूल्यहीनता के इस बोध ने आधी आबादी से गरिमामय जीवन को छीन लिया। उनकी पीड़ा, उनकी समस्याएं किसी के भी चिंतन-मनन का विषय नहीं बनी। अंधेरे में शौच के लिए सुरक्षित स्थान की खोज, ईंथन की जुगत में जंगलों में भटकना, पानी के लिए मीलों तक का सफर तय करना तथा स्वच्छता की परिभाषा और महत्व से अनभिज्ञ माहवारी के समय अपराधबोध ग्रसित जीवन व्यतीत करने की विवशताएं किसी भावनात्मक कथानक का लेखन नहीं, अपितु आथी आबादी के जीवन की वह कठोर सच्चाई थी जिसे नकारा नहीं जा सकता।
जीवन की संघर्षशील चेष्टा के बीच स्वावलंबन उनके लिए कोरी कल्पना से अधिक कुछ भी नहीं था। परंतु दशकों से चली आ रही पीड़ाओं की 15 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री के उच्चारित शब्दों ने भेद दिया 'क्या कभी हमारे मन को पीड़ा हुई है कि आज भी हमारी माता और बहनों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। डिग्निटी ऑफ वीमेन, क्या यह हम सब का दायित्व नहीं... यह आवाहन विशुद्ध रूप से गैर-राजनीतिक था। 'डिग्निटी ऑफ विमेन' इन शब्दों ने आधी आबादी की दशा और दिशा बदल दी। 'एक्सेस टू टॉयलेट्स एंड द सेफ्टी कन्वीनियंस एंड सेल्फ रिस्पेक्ट ऑफ विमेन इन इंडिया' की रिपोर्ट ने खुलासा किया कि खुले में शौच से मुक्ति ने महिलाओं के भीतर अदम्य आत्मविश्वास जागृत किया है।
गरिमामय जीवन के अध्याय में एक नवीन पृष्ठ तब जुड़ा जब' उज्ज्वला योजना' क्रियान्वित हुई। इस योजना ने महिलाओं के घंटों के उस ईंधन की खोज में व्यय होते थे। यह पोजना जीवन रक्षक भी सिद्ध हुई। उल्लेखनीय है कि बीते वर्ष हुए एक शोध के मुताबिक विश्व भर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने से निकलने वाला धुआं सालाना करीब 37 लाख लोगों की जान ले रहा है। अगस्त 2019 महिलाओं के गरिमामय जीवन के लिए मील का पत्थर साबित हुआ, जब 'हर घर नल से जल योजना' आरंभ हुई। शोध बताते हैं कि ग्रामीण महिलाएं पानी इकट्ठा करने के लिए एक दिन में 10 मील तक पैदल चलती थीं। पानी लाने के लिए घंटों का सफर तय करना महिलाओं को आय अर्जित करने वाले व्यवसायों में संलग्न करने में सबसे बड़ी बाधा थी।
परंतु 2019 से 2024 तक आते आते तस्वीर बदल गई। योजना आरंभ होने से पूर्व ग्रामीण क्षेत्र के 16.79 प्रतिशत घरों में नल थे जो कि 2024 में बढ़कर 75.18 प्रतिशत हो गए। स्वच्छ जल तक पहुंच में निवेश, महिलाओं और लड़कियों के सशक्तीकरण में प्रत्यक्ष निवेश है। यह महिलाओं को उनके समुदाय में नेतृत्य के अवसर और प्रतिनिधित्त्व प्रदान करता है। स्वच्छता, जल की सहज उपलब्धता और ईंधन ने आधी आबादी को 'पूर्ण शक्ति' प्रदान की, क्योंकि इन योजनाओं ने शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक सशक्तता का मार्ग प्रशस्त किया। साथ ही उनके उत्पादक समय को जो कि पूर्व में निरर्थक व्यय होता था 'आर्थिक स्वावलंबन' की ओर प्रवृत्त किया।
जैविक कृषि, पशुपालन तथा हथकरघा उद्योग में ग्रामीण महिलाएं संलग्न होकर आत्मनिर्भर भारत की सबसे मजबूत कड़ी के रूप में उभरी। तमाम राजनीतिक विमर्शों और जीत-हार के आकलन से परे इस सत्य को स्वीकार करना ही चाहिए कि 2014 में 'डिग्निटी ऑफ विमेन' (महिलाओं की गरिमा) के उद्घोष ने बीते एक दशक में आधी आबादी के जीवन को सुगम और सुरक्षित कर महिला सशक्तीकरण की नई परिभाषा लिखी है, जिसने न केवल वर्तमान में अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण में अपनी महती भूमिका निभाई है वरन भविष्य भी उनके आत्मबल का साक्षी बनेगा। इसलिए आधी आबादी को स्वयं ही नीर क्षीर विवेक के जरिए अपनी गरिमा के लिए सकारात्मक दिशा में बढ़े हुए कदम को और गति देकर इस संकल्प को सिद्धि में बदलना ही होगा।
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