आर्थिकी को बल देती आधी आबादी
भारत 2027 में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। साथ ही पांच वर्षों में वैश्विक विकास में भारत का योगदान दो प्रतिशत बढ़ जाएगा।
आर्थिकी को बल देती आधी आबादी
लोकसभा चुनाव का उद्घोष हो चुका है। आगामी पांच वर्षों के लिए शासन की बागडोर किसके हाथ में होगी, इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में छुपा है, परंतु बीता एक दशक भारत को क्या देकर गया है, उसका विश्लेषण उपयोगी होगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ के अनुसार प्रबल संभावना है कि भारत 2027 में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। साथ ही पांच वर्षों में वैश्विक विकास में भारत का योगदान दो प्रतिशत बढ़ जाएगा।
ये रुझान यही दर्शाते हैं कि भारत मजबूती के साथ आर्थिक विकास की गति की और उन्मुख है। इस विमर्श में एक स्वाभाविक प्रश्न यही सामने आता है कि बीते एक दशक में ऐसा क्या हुआ कि आर्थिक विकास का प्रवाह तीव्र गति से बढ़ा है? अगर यह कहा जाता है कि इसके पीछे सरकार की आर्थिक नीतियां हैं तो क्या 2014 से पूर्व आर्थिक विकास को गति देने के लिए रणनीति नहीं बनीं? यकीनन आजादी के बाद से ऐसी कई योजनाओं एवं नीतियों का निर्माण हुआ, जिससे भारत एक सुदृढ़ आर्थिक धरातल पर खड़ा हो सके, लेकिन इसके बावजूद उन नीतियों के अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हुए। ऐसे में उन कारणों को जानना आवश्यक है, जिनके चलते बीते एक दशक से पूर्व आर्थिक विकास की गति
अपेक्षित रूप से तेज नहीं थी? सर्वप्रथम तो हमें यह समझना होगा कि आर्थिक विकास स्वयं में स्वतंत्र पहलू नहीं है, बल्कि इसके निर्धारण में अन्य नहीं है, बल्कि इसके निर्धारण में अन्य पहलुओं की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। दूसरा, आर्थिक विकास तब तक अपनी अपेक्षित गति से नहीं बढ़ सकता, जब तक उसमें आधी आबादी यानी महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी न हो। इस विमर्श में तीसरा बिंदु जी कि भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और वह यह कि इसमें ग्रामीण भारत की प्रतिभागिता हो। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत की 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में निवास करती है।
अतः उसकी प्राथमिकताएं और आवश्यकताएं जब तक आर्थिक विकास की रणनीति में केंद्रीय स्थान नहीं पातीं तब तक आत्मनिर्भर एवं सशक्त भारत की कल्पना व्यर्थ है। क्या आजादी के छह दशकों तक ग्रामीण विकास तथा महिला कल्याण केंद्रित योजनाएं क्रियान्वित नहीं हुईं? निश्चित ही ऐसी योजनाएं बनीं और महिला स्वावलंबन के लिए अनेक वित्तीय प्रविधान भी प्रस्तावित हुए, परंतु महिला सशक्तीकरण का प्रश्न अनसुलझा ही रहा। आर्थिक स्वावलंबन आधी आबादी के सशक्तीकरण की अपरिहार्य शर्त है और यह तभी संभव है जब महिलाओं के भीतर 'स्व' का भाव व्याप्त हो। आत्मसम्मान का अभाव अक्षमता और उदासीनता को जन्म देता है। दशकों से आधी आबादी को निरंतर यह बोध कराया गया कि वे समाज की वह 'जिम्मेदारी' हैं, जिनका सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण में योगदान शून्य है।
मूल्यहीनता बौध ने आधी आबादी से गरिमामय जीवन छीन लिया। उनकी पीड़ा, उनकी समस्याएं किसी के भी चिंतन-मनन का विषय नहीं बनीं। अंधेरे में शौच के लिए सुरक्षित स्थान की खोज, ईंधन की जुगत में में भटकना, पानी के लिए मीलों चलना तथा स्वच्छता की परिभाषा और महत्व से अनभिज्ञ माहवारी के समय अपराधबोध से ग्रस्त जीवन व्यतीत करने की विवशताएं किसी भावनात्मक कथानक का लेखन नहीं, अपितु आधी आबादी के जीवन की वह कठोर सच्चाई थी, जिसे नकारा नहीं जा सकता। जीवन की आपाधापी के बीच स्वावलंबन उनके लिए कोरी कल्पना से अधिक कुछ नहीं था। दशकों से चली आ रही ऐसी पीड़ाओं को 15 अगस्त, 2014 के दिन लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इन शब्दों ने भेद दिया क्या कभी हमारे मन को पीड़ा आज भी हमारी माताओं और बहनों कोखुले में शौच के लिए जाना पड़ता है का दायित्व नहीं...'
यह आह्वान विशुद्ध रूप से गैर-राजनीतिक था। इन शब्दों ने हमारे देश में आधी आबादी की दशा और दिशा बदलने का काम किया। कई अध्ययन भी इसकी पुष्टि करते हैं। 'एक्सेस टू टायलेट्स एंड द सेफ्टी कन्वीनियंस एंड सेल्फ रिस्पेक्ट आफ वीमेन इन इंडिया' शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार खुले में शौच से मुक्ति ने महिलाओं के भीतर आत्मविश्वास जागृत किया है और उनका वह समय जो शौच के लिए सुरक्षित स्थानों की खोज में व्यय होता था, अब बचने लगा है। गरिमामय जीवन के अध्याय में एक नवीन पृष्ठ तब जुड़ा जब 'उज्ज्वला योजना' क्रियान्वित हुई। इस योजना ने महिलाओं के घंटों के उस परिश्रम पर विराम लगा दिया, जो आंखों और सांसों को कष्ट देने वाले ईंधन की खोज में करना पड़ता था।
यह योजना जीवनरक्षक भी सिद्ध हुई। एक शोध के अनुसार विश्व भर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने से निकलने वाला धुआं सालाना करीब 37 लाख लोगों की जान ले रहा है। अगस्त 2019 भी महिलाओं के गरिमामय जीवन के लिए मील का पत्थर साबित हुआ, जब 'हर घर नल से जल' योजना आरंभ हुई। शोध बताते हैं कि अनेक ग्रामीण महिलाएं पानी इकट्ठा करने के लिए एक दिन में 10 मील तक पैदल चलती थीं। पानी लाने के लिए घंटों का सफर तय करना महिलाओं को आय अर्जित करने वाले व्यवसायों में संलग्न करने में सबसे बड़ी बाधा थी, लेकिन बीते चार वर्षों में तस्वीर बदल गई।
योजना आरंभ होने से पूर्व ग्रामीण क्षेत्र के 16.79 प्रतिशत घरों में नल थे जो 2024 में बढ़कर 75.18 प्रतिशत हो गए। स्वच्छ जल तक पहुंच में निवेश, महिलाओं और लड़कियों के सशक्तीकरण में प्रत्यक्ष निवेश है। यह महिलाओं को प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। स्वच्छता, जल की सहज उपलब्धता और ईंधन ने आधी आबादी को 'पूर्ण शक्ति' प्रदान की, क्योंकि इन योजनाओं ने शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक सशक्तता का मार्ग तो प्रशस्त किया ही, उनके उस समय को 'आर्थिक स्वावलंबन' की और उन्मुख किया, जो पूर्व में निरर्थक व्यय होता था। जैविक कृषि, पशुपालन तथा हथकरघा उद्योग में ग्रामीण महिलाएं संलग्न होकर आत्मनिर्भर भारत की सबसे मजबूत कड़ी के रूप में उभर रही हैं। तमाम राजनीतिक विमर्शों से परे इसे स्वीकार करना चाहिए कि बीते एक दशक में आधी आबादी के जीवन को सुगम और सुरक्षित कर महिला सशक्तीकरण की नई परिभाषा लिखी गई है। इसने अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण के साथ महिलाओं के आत्मबल को बढ़ाने का काम किया है।
(लेखिका समाजशास्त्र
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