संसाधनों पर निजी अधिकारों का पेच

भारत में जब मूल अधिकारों की प्रेरणा ली गई, तो जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों को एक साथ रखा गया और संपत्ति के अधिकार को सामुदायिक बनाया गया था। लेकिन संसाधनों या संपत्ति पर अधिकार समुदाय का है या फिर निजी व्यक्ति का यह प्रश्न एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लाया गया है।

May 9, 2024 - 20:45
May 9, 2024 - 20:46
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संसाधनों पर निजी अधिकारों का पेच

संसाधनों पर निजी अधिकारों का पेच

भारत में जब मूल अधिकारों की प्रेरणा ली गई, तो जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों को एक साथ रखा गया और संपत्ति के अधिकार को सामुदायिक बनाया गया था। लेकिन संसाधनों या संपत्ति पर अधिकार समुदाय का है या फिर निजी व्यक्ति का यह प्रश्न एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लाया गया है। 

अधिकार प्राप्त होते हैं, जिनमें जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार सर्वोपरि हैं। इन निजी अधिकारों की रक्षा करना प्रकृति के नियमों की रक्षा करना है, जो नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का मूल तत्व भी है। ह इस सामान्य नियम पर अक्सर विवाद होते रहे हैं कि भारत जैसे देश में संसाधनों या संपत्ति पर अधिकार समुदाय का है या फिर निजी व्यक्ति का। ऐसा ही प्रश्न एक बार फिर न्यायालय के समक्ष लाया गया है। संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) तथा (सी) के प्रावधानों की व्याख्या नौ-न्यायाधीशों की एक पीठ द्वारा की जाएगी, जो स्वाभाविक रूप से ऐतिहासिक होगी लेकिन पहले इस विषय को समझ लेना जरूरी है। गौरतलब है कि कर्नाटक राज्य बनाम रंगनाथ रेड्डी, 1978 मामले में न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्णा अय्यर ने कहा था कि संसाधनों पर समुदाय के स्वामित्व की संकल्पना में सभी प्राकृतिक व भौतिक संसाधन तथा सार्वजनिक और निजी संसाधन शामिल होंगे। प्रश्न यह है कि यदि निजी संसाधनों पर व्यक्ति का अधिकार सुरक्षित नहीं है, तो आज की आर्थिक रूप से उदारीकृत व्यवस्था में जब निजी निवेश जरूरी हो गया है, तो हम निवेशकों को   

जरूरी हो गया है, तो हम निवेशकों को कैसे प्रेरित कर पाएंगे? इस पर विचार करने से पहले यह देखना जरूरी है कि संविधान निर्माताओं ने सार्वजनिक और निजी अधिकारों को किस प्रकार संतुलित किया है औरवर्तमान परिदृश्य में उसकी व्याख्या कैसे की जानी चाहिए। मूल संविधान में उदारवादी और समाजवादी, दोनों ही विचारों को शामिल किया गया है, जिसके आधार पर लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के साथ आवश्यकतानुसार संसाधनों के वितरण पर समान बल है। यही हमारे संविधान की सबसे बड़ी विशेषता है, जिसके लिए वह शासन व्यवस्था को निर्देश देता है, ताकि लोकतांत्रिक समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति कर भारत को कल्याणकारी राज्य बनाया जा सके। हालांकि हमने समाजवादी विचारों को शामिल करने की प्रेरणा सोवियत संघ से ली है, लेकिन भारतीय समाजवाद अपने आप में अनूठा है, क्योंकि इसमें उदारवादी गुणों का मिश्रण है। इसका अर्थ यह है कि संबिधान संसाधनों का आवश्यकतानुसार वितरण कर लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का प्रावधान करता है।


इसी कारण अनुच्छेद 39 (बी) और (सी) में क्रमशः भौतिक संसाधनों पर समुदाय के स्वामित्व और उत्पादन के साधनों के कुछ लोगों के पास इक‌ट्ठा होने पर रोक लगाने का प्रावधान है। इन्हीं समाजवादी सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए पहले संशोधन अधिनियम 1951 से अनुच्छेद 31 ए, 31 वी और नौवीं अनुसूची को जोड़ा गया था। राज्य द्वारा भूमि अधिग्रहण और उसके वितरण का प्रावधान करने के लिए भूमि सुधार अधिनियमों को नौवीं अनुसूची में शामिल कर उन्हें न्यायिक समीक्षा से छूट दी गई थी। इसी प्रकार, 25वें संशोधन से अनुच्छेद 31 सी जोड़कर भूमि सुधार संबंधी निदेशक तत्वों, विशेष कर अनुच्छेद 39 (बी) और (सी) को संरक्षण दिया गया है।

दूसरी ओर, मूल संविधान में अनुच्छेद 31 के तहत व्यक्तियों को संपत्ति का मूल अधिकार देकर उदारवादी लोकतंत्र की स्थापना की गई थी। यानी व्यक्ति के निजी अधिकारों को भी समान महत्व दिया गया था। 1976 में 42वें संशोधन अधिनियम से संविधान की उद्दे‌शिका में 'समाजवादी' शब्द जोड़े जाने के बाद उदारवादी लोकतंत्र और समाजवादी सिद्धांतों के बीच एक टकराव की स्थिति पैदा हो गई, क्योंकि समाजवादी देशों में संपत्ति पर निजी अधिकारों को वरीयता नहीं दी जा सकती है। इसी कारण, 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 से इसे मूल अधिकार से हटाकर अनुच्छेद 300ए में एक कानूनी अधिकार बना दिया गया, ताकि राज्य विधि के तहत निजी संपत्ति का नियमन कर सके। पर इसका मतलब यह नहीं है कि देश में लोगों को निजी संपत्ति का अधिकार नहीं है और राज्य समुदाय के स्वामित्व के नाम पर उसका अधिग्रहण नहीं कर सकता है, जब तक कि संपत्ति निर्धारित सीमा से अधिक नहीं हो। ऐसी व्यवस्था जन कल्याण के उद्देश्य से की गई है। आज जब आर्थिक विकास में निजी निवेश की भूमिका अपरिहार्य हो गई है, इसके बिना जन कल्याण की परिकल्पना नहीं की जा सकती।


भारत के संविधान में लोकतंत्र को सर्वोपरि माना गया है और संसाधनों का वितरण अर्थात समाजवादी सिद्धांत उसकी प्राप्ति के साधन हैं। इसके अलावा, संपत्ति का अधिकार एक प्राकृतिक अधिकार भी है, जिसके कारण इसका मूल तत्व नैसर्गिक न्याय है। भारत में जब मूल अधिकारों की प्रेरणा ली गई, तो जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों को एक साथ रखा गया और संपत्ति के अधिकार को सामुदायिक बनाया गया था। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि यहां संसाधनों पर निजी अधिकारों का महत्व कम है और इन्हें छीना जा सकता है।


भारतीय संविधान की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह लोकतांत्रिक है तथा निजी अधिकारों व समाजवादी सिद्धांतों के बीच इसमें संतुलन है। बाजार अर्थव्यवस्था के प्रसार के बाद राज्य, बाजार और नागरिक समाज, सभी हितधारकों द्वारा एक साथ समन्वय बनाते हुए कार्य करना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में, संविधान में अंतर्निहित सिद्धांतों की उदारवादी व्याख्या जरूरी है। इसी संदर्भ में अनुच्छेद 39 (बी) में उल्लिखित समुदाय के स्वामित्व वाले प्रावधानों को भी समझा जाना चाहिए। मौजूदा परिस्थिति में यदि निजी अधिकारों को केवल इस आधार पर निबंधित किया गया कि संसाधनों में निजी संपत्ति भी शामिल है, तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध होगा।


संविधान में संपत्ति का अर्थ मुख्यतः भूमि संसाधन है, क्योंकि अनुच्छेद 39 (सी) में उल्लिखित शब्द 'उत्पादन के साधन' में मुख्यतः भूमि और पूंजी शामिल हैं, जिनके जमा होने पर रोक लगाई गई है। दूसरी ओर, अनुच्छेद 31 सी में भूमि सुधार संबंधी निदेशक तत्वों को अधिकारों पर वरीयता देने का अर्थ निजी अधिकारों को छीनना नहीं है। वस्तुतः अधिकारों और निदेशक तत्वों के बीच सामंजस्य होना चाहिए। अतः संसाधनों पर सामुदायिक स्वामित्व की व्याख्या कर निजी अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए।

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