आदर्शों के प्रति समर्पित महान् स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय
संप्रदायवाद के विरोधी तथा राष्ट्र के लिए अपने प्राणों को बलिदान कर देनेवाले क्रांतिकारी नेता लाला लाजपतराय ने कहा था
आदर्शों के प्रति समर्पित महान् स्वतंत्रता सेनानी , प्रसिद्ध आर्यसमाजी, धार्मिक सद्भाव के प्रणेता, संप्रदायवाद के विरोधी तथा राष्ट्र के लिए अपने प्राणों को बलिदान कर देनेवाले क्रांतिकारी नेता लाला लाजपतराय ने कहा था ,
अपने अतीत को ही निहारते रहना व्यर्थ है । जब तक हम उस अतीत पर गर्व करने योग्य भविष्य के निर्माण के लिए कार्य न करें । हम अपने पूर्वजों की हड्डियों पर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकते । उनकी उपलब्धियों की स्मृति हमको प्रेरणा तो दे सकती है, हमारी आत्माओं को गर्व और शर्म की भावना से भी भर सकती है (गर्व उसकी महानता पर , शर्म उसकी नीचता पर )। अतीत के गौरव का इतिहास हमको आह्लादित भी कर सकता है, परंतु जीवित रहने के लिए और सम्मान के साथ जीवित रहने के लिए हमको वर्तमान समय की संस्थाओं और संस्कृति के शस्त्रागार से सज्जित होकर वर्तमान में ही जीना होगा। लालाजी स्वप्नदर्शी नहीं थे। उन्होंने जिन योजनाओं की रूपरेखा बनाई , उन्हें पूर्ण करने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया । लालाजी शांतिपूर्ण उपायों से स्वराज्य- प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे। लेकिन उन्होंने आतंक और अत्याचार के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था , इसमें संदेह नहीं कि अत्याचार करनेवाला अपराधी होता है , लेकिन वह , जो अत्याचार सहता है , ज्यादा बड़ा अपराधी है ।
मैं हमेशा कहता हूँ कि यदि हम , दृढ़ निश्चय करके अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ तो कोई हम पर अत्याचार नहीं कर सकता , और यदि कोई अत्याचार करने का प्रयास करेगा तो हमारी लाशों पर लगे जख्म घोषणा करेंगे कि हिंसा और जुल्म के दिन हमेशा नहीं रहते । लालाजी के लिए स्वाधीनता से अधिक मूल्यवान कोई वस्तु नहीं थी । उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति को नैतिक आवश्यकता के रूप में अनुभव किया । उनका दृढ़ मत था कि किसी भी विदेशी शासन से पराजित जाति को कोई लाभ नहीं मिलता । सन् 1907 में स्यालकोट में आयोजित एक राजनीतिक सम्मेलन में लालाजी ने कहा था दुनिया का कानून है कि शासक और शासित तथा गुलाम और मालिक में न्याय नहीं होता है । शासक अथवा मालिक जो करता है, वह बात चाहे गलत हो अथवा ठीक , पर हमारे कितने ही स्थानों में ‘ राजा करे सो न्याय की कहावत प्रसिद्ध है। स्वाधीनता संसार में सबसे बड़ी चीज है। संसार में सरकार से वही न्याय प्राप्त कर सकता है, जिसे उसके । अफसरों को रखने और निकालने का अधिकार प्राप्त हो । जब तक आपको यह अधिकार प्राप्त नहीं होगा तब तक न्याय की आशा व्यर्थ है ।
लालाजी राष्ट्रीय विचारों के प्रणेता थे। उनके लिए पूर्ण स्वराज्य आदर्श भी था और धर्म भी । अपने आदर्श की पूर्ति के लिए उन्होंने प्रार्थना - पत्रों की राजनीति को सदा के लिए मुक्ति दे दी थी । उन्होंने जिस स्वराज्य की कल्पना की थी , वह ब्रिटिश शासन में रहकर संभव नहीं था । वे पृथक् एवं स्वतंत्र राज्य के समर्थक थे, जिसके प्रत्येक कार्य को उसके नागरिक स्वयं संपन्न करते हों । लालाजी का मत था कि दो असमान जातियों में कभी मेल नहीं हो सकता । विदेशी शासन सदैव झूठ पर अवलंबित होता है और शक्ति के सहारे अपनी बात मनवाने का प्रयास करता है । लालाजी मानते थे कि अपने अपमानों से मुक्ति पाने के लिए पराधीन जाति को बराबरी का संघर्ष करना चाहिए। सच्ची मित्रता के लिए बराबरी भी एक धन है । उन्होंने कहा था , जब तक कोई जाति अपने को किसी के बराबर न बना ले , तब तक उसके साथ पक्की दोस्ती नहीं रह सकती और यह लोग हमें बराबर बनने नहीं देते । जिस तरह अंग्रेज मित्रता रखते हुए भी अपने जातीय अधिकारों को नष्ट नहीं होने देते , उसी तरह हमको भी दोस्ती रखते हुए अपने जातीय अधिकारों को लेना चाहिए । इंपीरियल जाति का नियम है कि वे शासितों पर दो प्रकार से शासन करते हैं ( अ ) बल से और ( ब ) चापलूसी से । जो देश के अधिक लोगों को अपने में मिला लेते हैं उनके वास्ते यह पॉलिसी ठीक है , किंतु शासितों को चाहिए कि वे उनसे न तो बहुत डरें और न चापलूसी में आएँ और अपने कर्तव्यों का सदा ध्यान रखें । सामाजिक जीवन में फैली हुई निराशा और विकृत मनोवृत्तियों को समाप्त करने के उद्देश्य से लालाजी ने आर्यसमाज का आश्रय ग्रहण किया । उनके समय में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अस्पृश्यता का शिकार था । लालाजी ने इस बात को कभी उचित नहीं माना कि समाज का एक वर्ग सामाजिक चेतना और सामाजिक सुख से वंचित कर दिया जाए। उन्होंने नागरिकों को समानता के अधिकार दिलाने के उद्देश्य से दलितोद्धार के लिए निरंतर संघर्ष किया ।
इसी प्रकार लालाजी ने स्त्री जाति के प्रति सामाजिक अन्याय का डटकर विरोध किया । निश्चय ही उनमें समाज के इस निर्बलतम अंग के प्रति वास्तविक सहानुभूति के भाव भरे हुए थे, जो उनकी वाणी और उनकी क्रियाओं से व्यक्त हुए हैं । नारी को समाज की शक्ति और निर्माता बताते हुए लालाजी ने कहा था , समुदाय की सबसे बड़ी आवश्यकता है समुदाय की माताओं की यथासंभव सर्वोत्तम देखभाल करना । एक हिंदू के लिए नारी लक्ष्मी, सरस्वती और शक्ति का मिश्रित रूप है। इसका अर्थ यह है कि वह उस सभी की नींव है, जो सुंदर है, वांछनीय है और शक्ति -प्रदाता है। किसी जाति की माताएँ उसकी निर्मात्री होती हैं , और जब तक उनकी दशा स्वस्थ नहीं होगी, जाति की दशा नहीं सुधर सकती । किसी सामाजिक या राजनीतिक इकाई की दक्षता और समृद्धि में उसकी स्त्रियों की दक्षता और ऐश्वर्य प्रतिबिंबित होना चाहिए । लालाजी श्रमिक को अनावश्यक रूप से शोषित किए जाने के कड़े विरोधी थे। वे बेगार को कानूनी आधार पर बंद करवाना चाहते थे। उन्होंने शोषण को किसी रूप में स्वीकार नहीं किया , ये शोषण चाहे ब्रिटिश शासन का हो अथवा सबल जाति का निर्बल के प्रति । वे चाहते थे कि भेदभाव की हर दीवार मानसिक और भौतिक दोनों ही स्तरों पर समाप्त की जानी चाहिए। वे मानते थे कि संसार के सभी श्रमजीवियों के हित एक समान हैं , इसलिए उन्हें संगठित होकर अपने हितों के लिए संघर्ष करना चाहिए। उनका विचार था कि संसार सच्चे रूप से प्रजातांत्रिक तभी बन सकता है, जब श्रम को उसके उचित स्थान पर आसीन किया जाएगा । वर्तमान स्थिति असभ्यतापूर्ण है । धन के उत्पादक राष्ट्र में सबसे गरीब , सबसे पिछड़े और सबसे अधिक दयनीय दशावाले मनुष्य हैं । यदि यूरोपीय सभ्यता में कोई ऐसी चीज है जिसका हमें किसी भी दशा में अनुकरण नहीं करना है तो वह है । उनका पूँजीगत आर्थिक जीवन और उनका उद्योगवाद , उनकी व्यावसायिकता और वर्ग विभाजन । लालाजी श्रम को उचित मान- सम्मान देने के समर्थक थे, किंतु उन्होंने श्रमिक वर्ग के अधिनायकवाद का कभी समर्थन नहीं किया । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था , न तो मैं साम्यवादी हूँ और न मेरी साम्यवादी सिद्धांतों में अधिक आस्था है। उन्होंने औद्योगिक क्रांति के साथ -साथ विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का समर्थन किया , जिसमें शोषण की संभावना नगण्य ही होती है । लालाजी ने आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुए शिक्षा ग्रहण की थी ।
वे प्रचलित शिक्षा से और उसके उद्देश्य तथा नीतियों से सहमत नहीं थे। भारतीय -शिक्षा में आवश्यक सुधार लाने के लिए उन्होंने इंग्लैंड, अमेरिका और जापान की शिक्षा -पद्धतियों का विशेष रूप से अध्ययन किया। शिक्षा को उन्होंने सामाजिक प्रश्न के रूप में स्वीकार किया और उसी रूप से उसे हल करने का प्रयास भी किया । वे शिक्षा को एक सामाजिक कार्य मानते थे । उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य था — जीवन की उन्नति , और उन्नति भी ऐसी जो सदा होती रहे , उसमें कोई रोक -टोक न हो और वह अनंत हो । लालाजी शिक्षा को राष्ट्रीय स्वरूप देना चाहते थे। उनके अनुसार शिक्षा का प्रथम उद्देश्य स्वतंत्रता की अनुभूति कराना होना चाहिए। इस अनुभूति से वह राष्ट्रीय गौरव को जीवित करने के समर्थक थे। उनका विचार था कि भारत के नागरिकों का ध्येय जापानी या अमेरिकी बनना नहीं है, उनका उद्देश्य तो सच्चा भारतीय बनना है । लालाजी का पारिवारिक जीवन धार्मिक सद्भाव से ओत-प्रोत था । उनके पिता इसलाम धर्म के प्रति आसक्त थे तो उनकी माता सिख धर्म की कट्टर अनुयायी थीं , जबकि उन्होंने आर्यसमाज को अपनी धार्मिक निष्ठा समर्पित की । वैदिक रीतियों और परंपराओं के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी । उन्होंने धर्म को अथवा धार्मिक संगठन को संकीर्ण भाव से स्वीकार नहीं किया । एक ओर उन्होंने हिंदुत्व की रक्षा पर बल दिया तो दूसरी ओर मुसलमानों के प्रति अपना सद्भाव बनाए रखा। हिंदू-मुसलिम एकता का समर्थन लालाजी ने इस आधार पर किया कि हमारा धर्म भले ही भिन्न हो , हम एक ही पृथ्वी और एक ही आकाश के नीचे रहते हैं , हमारी प्रजाति और परंपरा एक है ।
लालाजी ने अपने जीवन में कोरे आदर्शवाद को ही स्वीकार नहीं किया वरन् अपने विचारों को मूर्तरूप देकर कर्मपथ का निर्माण भी किया । डॉ . वीरेंद्र शर्मा के शब्दों में , सच्चे देशभक्त और राष्ट्रवादी के रूप में उन्होंने अपने जीवन को संकुचित मनोवृत्ति से मुक्त करके स्वदेश को समर्पित कर दिया । इस समर्पण में निर्भीक । देशभक्त की स्वदेशी के प्रति सच्ची भावना मुखरित होती है। लालाजी ने संघर्षपूर्ण जीवन को , निर्धन परिवार को , विपन्न भारत माता को अपने पौरुष से अलंकृत किया । उन्हें न सत्ता का मोह था और न शासन से भय ।
जीवन से बलिदानों का इतिहास लिखा था । ऐसे महान् राजनीतिज्ञ , समाज- सुधारक, विचारक , स्वराज्य के उद्घोषक , आदर्शों के प्रति निष्ठावान् और सांप्रदायिक एकता के समर्थक , लाला लाजपतराय की चिंतन -धारा से अपने देश की युवा पीढ़ी को परिचित कराने का शुभ -संकल्प लेकर यह संकल्प युवा पीढ़ी को परिचित कराने का शुभ -संकल्प लेकर यह संकलन युवा पीढ़ी को समर्पित है। लालाजी का अधिकांश साहित्य और उनके भाषण अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध हो सके । इनके चयन और अनुवाद- कार्य में मेरे अनन्य मित्र श्री वी . पी . गुप्ता ने मुझे विशेष सहयोग प्रदान किया है, उनके प्रति मैं विशेष रूप से आभारी हूँ।
— गिरिराजशरण अग्रवा book
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