वक्तव्य
सैकड़ों बरस से ऐसे परदेशियों के अधीन रहकर जिनके न हमारे साथ कोई सहानुभूति थी न हमारी प्राचीन सभ्यता का जानने की परवाह करते थे हम लोग अपने के भूल गये, और हमारे पुराने नगर जिनके आगे रोम, कार्थेज, ओर बग़ादाद् कल की बस्तियाँ हैं अब तीथ बन गये और वहाँ यात्री इसी विचार से यात्रा करने जाते हैं कि संसार के बन्धन से उनकी मुक्ति हो जाय। हमारे पास अब न धन बचा है न वेभव । केवल इतने ही पर सन्तोष करते हैं कि जिस समय हम लोग सभ्यता की पराकाष्ठा के पहुँच गये थे, उस समय श्राजकलकी बढ़ी-चढ़ी जातियों का या तो अस्तित्व द्वी न था या पशुप्राय थीं। हमारे पास इस बात का प्रमाण है कि हमारे देशवासियों ने संसार में सम्यता का सूत्रपात किया था। बिचारने को बात है कि हमारा देश क्या है ? ओर जिस देश का नाम हिन्दुस्थान है. बह इस प्रायद्वीप काकौन सा भाग है ? साठ वर्ष हुए हम लखनऊ में अमीनाबाद में कुछ मित्रों के साथ टहल रहे थे । एक पंजाबी लड़का पहाड़ी छड़ियाँ बेचरहा था। हमने उससे दाम पूछे ते डसने कुछ ऐसे दाम बताये जा हमके अधिक प्रतीत हुए। हमने कहा कुछ कम करोगे ? बह बोलउठा कि भूठ बोलना हिन्दुस्थान के लोगों का काम है। यह कलंक बुरा तो लगा परन्तु अवसर न था कि हम उसको दंड देते । परन्तु हिन्दुस्थान
शब्द ने हमकेा चक्कर में डाल दिया। हमारे बंगाली महाशय भी हमके दिन्दुस्थानी कहते हैं। विन्ध्याचल के दक्षिण की तो कोई बात ही नहीं। ज्यों ज्यों समय बीतता गया, हमारी समझ में यह बात आगई कि मुख्य हिन्दुस्थान ( [तातप५छ्षम 70927 ) हिमालय के दक्षिण विन्ध्याचल के उत्तर दिल्ली और दिल्ली के पूर्व और पटने के पश्चिम के भूखंड के कहते हैं और किसी प्रान्त के हमसे सहानुभूति न रही | हिन्दुस्थान के भाग्य का निर्णय इस हिन्दुस्थान के पश्चिम पानीपत के मैदान में हुआ । पंजाबी अपने के कितना ही वीर कह लें, आक्रमणकारियों का न रोक सके ।
इस देश का भाचीन नाम उत्तरकाशला है, जिसकी राज- घानी अयोध्या थी। यों तो चन्द्रबंश का प्रादुर्भाव प्रयाग के दक्षिण प्रतिष्ठानपुर में हुआ ; परन्तु जैसे मनु प्रथ्वी के प्रथम राजा ( मही- भृतामाद्यः ) कहे जाते हैं बैस ही उत्तरकेशला की राजघानी अयोध्या भी सबसे पहिली पुरी हैं। इसी उत्तरकाशला में विध्तु भगवान के मुख्य अवतार राम, कऋष्ण ओर बुद्ध अयोध्या, मथुग और कपिलवस्तु में हुए। दीथथंगाज प्रयाग, सुक्तिदायिनी विश्वनाथपुरी काशी इसी कोशला में हैं। बेदों में जिन पांचालों का नाम बार बार आया है थे इसी काशला के रहनेवाले थे। इसी काशला में अयोध्या के राजा भगीरथ कठिन परिश्रम से गंगा का ले आय। यहीं स निकलकर क्षत्रियों ने तिब्बत, श्याम और जापान में साम्राज्य स्थापित किये। जैन लाग २४ तीथंकर मानते हैं। उनमें से २२ इच्चाकुबंशी थे। यों तो ५ ही तीथेकरों की जन्मभूमि अयोध्या में बताई जाती है, परन्तु जैनियों की
धारणा यह है कि सारे तीर्थ करों को अयोध्या ही में जन्म लेना चाहिये। विशेष बातें इस ग्रन्थ के पढ़ने से विद्ति होंगी। ऐसे प्राचीन नगर का इतिहास जानने की किस सहृदय भारतवासी को अभिलापा न होगी ॥ चार बरस हुये हमने फेज़ाबाद के लोकप्रिय डिपुटी कमिश्नर श्रीमान आर० सी० होबांट महोदय की आज्ञा से अयोध्या का एक छोटा सा इतिहास अंग्रेज़ी में लिखा | यह प्रयाग विश्वविद्यालय फे वौइस चैम्सलर श्रीमान् महामहोंपाध्याय डाक्टर गंगानाथ का, एम० ए०, डी० लिट०;एल-एल० डी० की अनुमति से 7290 एकएटा 549 546९5 ५० 9 में छपा। सर जाज॑ ग्रियर्सन, सर रिचर्ड बने आदि अंग्रेज़ी के बढ़े बढ़े बिद्वानों ने इसकी मुक्कदःठ से प्रशंसा की । उस छोटी सी पुस्तक का अनेक मित्रों के आग्रह से हिन्दी में अनुवाद किया गया। परन्तु वह ग्रन्थ छोटा था। इससे जब हिन्दुस्तानी एकेडमी की ओर से इसके प्रकाशन का प्रस्ताव किया गया तो श्रीमाच सर शाह मुहस्मद सुलेमान महोदय की अनुमति यह हुई कि ग्रन्थ बढ़ाकर २०० प्रष्ठ का कर दिया जाय ।
अयोध्या के इतिहास की सामभी प्रदुर है, परन्तु बढ़े खेद की बात है कि यद्यपि महात्मा बुद्धजी यहाँ १६ बष तक रहे ओर यहीं उनके सारे सिद्धान्त परिणत हुये तो भी उनके यहाँ निवास का पूरा विवरण नहीं मिल सका। कशवचित लक्षा में सिंहली भाषा सें कुझ - सामग्री हो। बंद, पुराण, गमायग[, महाभारत, गज्ञेटियर आदि के अतिरिक्त रायल एशियाटिक सोसायटी के जनल में प्रसिद्ध विद्वान पार्जिदर के लेखों से इस ग्रन्थ के सम्पादन में विशेषरूप से सहायता मिली है। झयोध्या में जैनधर्म का वर्णन कलकत्ते के सुप्रसिद्ध विद्वान बाबू पूरनचन्द नाहार और लखनऊ के ऐडबोकेट प॑० अजित प्रसाद जी के भेजे लेखों के आधार पर है। गोंडा जिले के तीर्थो' का वर्शन हमारे स्थ॒र्गवासी मित्र बाबू रामरतन लाल का संकलित किया हुआ है। अयोध्या के शाकद्रीपी राजाओं के इतिहास की सामग्री स्वरगंवासी महाराजा प्रतापनारायण सिंह अयोध्यानरेश से प्राप्त हुई थी । बड़े शोक की वात है कि महाराजा साहब ऐसे गुशज्ञ रईस अब संसार में नहीं हैं, नहीं तो इस ग्रन्थ का रूप भी कुछ और होता। अस्तु, जो कुठ्र मिला वह पाठकों की सेंट किया जाता है। इसमें छापे की अशुद्धियाँ बहुत हैं | पढ़ने से पहले उन्हें शुद्ध कर लेना चाहिये।
अयोध्या में इतिहास की सामग्री दबी पड़ी है जो पुरातत्त्वविज्ञान की खोज से निकलेगी परन्तु जो कुछ इस ग्रन्थ में लिखा गया है उससे यदि इतिहास के मर्मज्ञों का ध्यान इस पुरानी उजड़ी नगरी की ओर आकषित दो तो मैं अपना परिश्रम सफल समभूँगा ।धरि हिय सिय रघुबीर पद, विरच्यों मति अनुरूप। अवधपुरो-इतिहास यह» अवधनिवासी भूप ॥ निज पुरुषन के सुजस तहेँ तेज प्रताप विचारि। पढ़ें मुदित मन सुजन तेहि मेरे दोष बिसारि ॥