डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन

जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए मेहनती आदमी दूसरो का मुँह नहीं ताकता।

Mar 19, 2024 - 12:07
Mar 19, 2024 - 12:17
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डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन

डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन

Dr. Sarvepalli Radhakrishnan

जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए मेहनती आदमी दूसरो का मुँह नहीं ताकता। वह तो जैसे भी हो अपने बल पर आगे बढ़ता है और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करता है। फलस्वरूप उसकी राहे आसान हो जाती है और चाहे पूरी होती है। जरूरी सुख्ख-सुविधाओं के अभाव में भी वह पूरी लगन से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है। और, एक ऐसा दिन आता है कि जब सारी दुनिया उसकी महानता को स्वीकार कर उसको मान-सम्मान देती है।

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भारत के दूसरे राष्ट्रपति

भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्यान ऐसे ही महान लोगों में थे जिनकी बर्चा हमने ऊपर की है। डॉ० राधाकृष्णन का जन्म आन्ध्र प्रदेश के एक छोटे-से गाँव तिरुत्ताणि में ५ सितम्बर सन् १८८८ में हुआ। डाक्टर साहब के माता-पिता धार्मिक प्रवृत्ति के थे। सुबह-शाम पूजा-पाठ करते और रामायण- महाभारत का पाठ करते थे। फलस्वरूप राधाकृष्णन जी बचपन में ही ऋषि-मुनियों और त्यागी तपस्वियों की जीवन-चर्या से परिचित हो गये और अपने को उनके अनुरूप ढालने का प्रयास करने लगे थे।

डॉक्टर राधाकृष्णन की प्रारम्भिक शिक्षा


डॉक्टर राधाकृष्णन की प्रारम्भिक शिक्षा ईसाई मिशनरी द्वारा संबालित स्कूलों में हुई। आगे चल कर इन्होने मद्रास विश्वविद्यालय से दर्शन-शास्त्र में एम० ए० पास किया। राधाकृष्णन जी बड़े ही मेधावी छात्र थे, हमेशा फर्स्ट आते थे। इससे उनके अध्यापकगण और विश्वविद्यालय के अधिकारी-वर्ग इतना प्रभावित हुए कि मद्रास विश्वविद्यालय में ही दर्शन-शास्त्र के अध्यापक के रूप में इनकी नियुक्ति हो गयी। भारतीय धर्म और दर्शन में उनकी पैठ दिन-पर-दिन गहरी होती गयी और उनकी ख्याति विदेशों में भी पहुँब गयी।


उन्हीं दिनों इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय 'आक्सफोर्ड में भारतीय दर्शन के अध्यापक की जगह खाली हुई। डॉ० राधाकृष्णन को इस पद के लिए योग्यतम व्यक्ति माना गया और नियुक्त कर दिया गया। राधाकृष्णन जी इंग्लैण्ड बले गये और भारतीय धर्म और दर्शन के सफलतम व्याख्याता सिद्ध हुए। शीघ ही उनकी गणना विश्वविद्यालय के योग्यतम अध्यापकों में होने लगी।तभी कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शन-शास्त्र में एम० ए० की कक्षा प्रारम्भ की गयी। श्री आशुतोष मुकर्जी के सुझाव पर देश- विदेश के दर्शन-शास्त्रियों को कलकत्ता विश्वविद्यालय ने दार्शनिक विषयों पर भाषण देने के लिए बुलाया जिससे किसी योग्य अध्यापक का चुनाव किया जा सके।

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डॉ० राधाकृष्णन का  भाषण


डॉ० राधाकृष्णन ने भी इस भाषण-माला में भाग लिया। डॉ० साहब ने गूढ़तम विषयों की सरलतम व्याख्या कर सबको प्रभावित कर लिया और विश्वविद्यालय का नियुक्ति-पत्र प्राप्त किया । परन्तु बहाँ भी डॉक्टर साहब थोड़े ही दिन रह पाये और मद्रास विश्वविद्यालय में उपकुलपति बना दिये गये। एक वर्ष बीतते-बीतते उन्हें मद्रास भी छोड़ना पड़ा और ज्ञान-ध्यान की नगरी वाराणसी आना पड़ा जहाँ उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उप कुलपति का पद सम्हाला ।

डॉ० राधाकृष्णन काशी विश्वविद्यालय


डॉ० राधाकृष्णन ने बड़ी खूबी के साथ काशी विश्वविद्यालय के दूषित वातावरण को सुधार कर उसे पुनः पढ़ने-पढ़ाने का केन्द्र बना दिया। यह सब करने में डॉ० साहब की कूटनीतिक प्रतिभा भी उजागर हुई। भारत सरकार ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा को मान्यत्ता देकर 'यूनेस्को' का अध्यक्ष बनने के लिए उन्हें काशी विश्वविद्यालय से मुक्त कर दिया।


'यूनेस्को' में उनके भाषणों ने विश्व भर के प्रतिनिधियों को अत्याधिक प्रभावित किया। इसके बाद उनके अन्दर छिपी राजनीति-कुशलता निखरती ही बली गयी। सन् १९५२ में उन्हे रूस में भारत का राजदूत बना दिया गया। धोती-पगड़ीधारी इस भारतीय राजदूत से मिल कर रूस के लौहपुरुष स्टालिन ने कहा था कि, "डॉ० राधाकृष्णन मानवतावादी और सच्चे मन से बोलने वाले व्यक्ति हैं। सच्चे देशभक्त होने के साथ ही वे पूरे संसार के पीड़ित लोगों के लिए सहानुभूति रखने वाले आदमी है।" सच्बाई तो यह है कि भारत और रूस की गहरी दोस्ती की आधार-शिला रखने का श्रेय डॉ० राधाकृष्णन को ही है। सन् १९५२ में भारतीय संविधान लागू किया गया और डॉ० राधाकृष्णन देश के उपराष्ट्रपति बनकर स्वदेश लौट आये।

उपराष्ट्रपति चुने गये। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद

सन्१९५७ मे वे पुनः उपराष्ट्रपति चुने गये। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के सेवा-निवृत्त होने पर डॉ० राधाकृष्ण देश के राष्ट्रपति बने। उस अवसर पर प्रसिद्ध दार्शनिक बट्रॅण्ड रसेल ने कहा था कि, "दर्शन- शास्त्र को सम्मानित किया गया है।राष्ट्रपति बनने पर भी डॉ० राधाकृष्णन के रहन-सहन में कोई अन्तर नहीं आया। तभी तो उनकी सादगी से प्रभावित होकर पोप पाल ने सन् १९६२ में उन्हें 'गोल्डेन स्पर' भेट किया। उसी वर्ष उन्हें 'ब्रिटिश अकादमी' का सदस्य चुना गया। यही नहीं, संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में भाषण देकर लौटते समय इंग्लैण्ड के राज-महल "बर्किधम पैलेस' में आयोजित एक समारोह में उन्हें 'आंर्डर आफ मेरिट' से सम्मानित किया गया। इस तरह दुनियाँ में उनकी योग्यता का सम्मान हुआ।

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डॉ० राधाकृष्णन एक अध्यापक से राष्ट्रपति बनने वाले पहले आदमी थे। उन्होंने साधारण भारतीय के जीवन को बहुत करीब - से देखा था। तभी तो उनके हृदय में सीधे-सादे भारतीय के प्रति अपार सहानुभूति थी। देश के गरीबों की दीनदशा जानने वाले डॉ० राधाकृष्णन ने अपना पूरा वेतन लेने से इनकार कर दिया और केवल ढाई हजार रुपये लेते रहे। इस प्रकार उन्होंने दूसरे उच्चाधिकारियों को भी कम खर्च में काम चलाने और कम वेतन लेने की प्रेरणा दी। यह और बात है कि उनकी सरकार के दूसरे पदाधिकारियों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।


राष्ट्रपति के रूप में डॉ० राधाकृष्णन


राष्ट्रपति के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करने के साथ डॉ० राधाकृष्णन का पढ़ना लिखना भी बदस्तूर चलता रहा । समय-समय पर उनकी अनेक पुस्तके प्रकाशित हुईं। जिनमें 'धर्म और समाज', 'हिन्दुओं का जीवन दर्शन', 'भारत और विश्व', पूर्व और पश्चिम', धर्म: तुलनात्मक दुष्टि' और 'गौतम बुद्ध जीवन और दर्शन' को विशेष ख्याति मिली।


पूरे संसार में इन पुस्तकों का प्रचार-प्रसार हुआ। विश्व की अनेक भाषाओं में इनका अनुवाद हुआ। विश्व भर के विद्वानों ने इनकी प्रशंसा की। प्रसिद्ध लेखक एब० जी० वेल्स ने डॉ० राधाकृष्णन लिखित "भारतीय धर्म या पाश्चात्य विचार" पर टिप्पणी की थी "इस पुस्तक को हर कीमत पर खरीदना बाहिए भले ही इसके लिए अपनी सारी पुस्तकों को बेच देना पड़े क्योंकि यह पुस्तक सत्य की खोज से प्राप्त ज्ञान की राह दिखाती है।"


डॉ० राधाकृष्णन अंग्रेजी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। यद्यपि उनकी अधिकांश पुस्तके अंग्रेजी में हैं पर उनमें संस्कृत के अनेक उद्धरण भरे हुए हैं। उनकी 'इण्डियन फिलास्फी' नामक पुस्तक विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। और भारतीय दर्शन की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक मानी जाती है। डॉ० राधाकृष्णन मूलतः एक अध्यापक थे और विभिन्न पदों पर काम • करने के बावजूद वे अध्यापक बने रहे। एक अध्यापक की सादगी, अनुशासन-प्रियता और सत्य-निष्ठा उनमे कूट-कूट कर भरी थी। १३ मई १९६७ में उन्होंने स्वेच्छा से पद त्याग कर दिया। और मद्रास लौट गये। वहाँ वे अपने साधारण से मकान 'गिरिजा' में अन्त तक लेखन-कार्य के साथ पठन-पाठन करते रहे। १३ अप्रैल १९७५ को उनका देहावसान हो गया। परन्तु उनकी मूल्यवान कृतियाँ जब तक संसार में रहेंगी, उनका नाम अजर अमर रहेगा।

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