अफगानिस्तान से क्या संबंध है डॉ० जाकिर हुसैन का
एक साधारण परिवार के सदस्य होकर भी देश के महानतम व्यक्ति बनने वाले डॉ० जाकिर हुसेन की जीवनकथा बहुत रोचक और प्रेरणा देने वाली है डॉ० जाकिर हुसेन
![अफगानिस्तान से क्या संबंध है डॉ० जाकिर हुसैन का](https://www.heritagetimes.in/wp-content/uploads/2019/10/Zakir-Hussain-Indira-Gandhi.jpg)
अफगानिस्तान से क्या संबंध है डॉ० जाकिर हुसैन का
जीवन में सफलता प्राप्त करने वालों को तरह-तरह की परेशानियों, कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है। सोना भी आग में तप कर ही कुन्दन बनता है। इसी तरह परीक्षाएँ आदमी को तराशती और संवारती हैं। साधारणतः लोग पहली ही उलझन के आगे घुटने टेक देते हैं किन्तु आगे चलकर महान बनने वाले लोग कभी और किसी भी परिस्थितियों में हौसला नहीं खोते-तभी तो वे 'बड़े आदमी' बनते हैं।
डॉ० जाकिर हुसेन का जन्म हैदराबाद (दक्खिन) में हुआ था पर उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इटावा इस्लामिया हाई स्कूल फर्रुखाबाद में हुई। आठ वर्ष की छोटी सी उम्र में ही इनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। इस महादुःख से उबरने भी नहीं पाये थे कि इनकी माताजी भी बल बसीं, जिसकी सूचना इन्हें आगरा से लौटने पर हुई जहाँ वे छात्रवृत्ति-परीक्षा देने गये थे।
इस सम्बन्ध में डॉ० जाकिर हुसेन ने स्वयं लिखा है कि "हाई स्कूल परीक्षा पास करने के बाद में छात्रवृत्ति-परीक्षा देने आगरा गया था। परीक्षा के बाद में कायमगंज लौटा, घर से इस बार मेरे लिए छकड़ा भी नहीं आया था। स्टेशन से घर काफी दूर था-पैदल बलकर गाँव पहुंचा। घर जाकर देखा कि सभी दरवाजे बन्द थे। पास-पड़ोस के लोगों से मालूम हुआ कि मेरे सिर से माँ - का साया उठ चुका था। में अनाथ हो गया था। मैं असहाय होकर सोबने लगा तो माँ का कहना याद आया कि "अपने आप काम करो, कभी घबराओं नहीं और पुरखों का नाम करो। इसी के बल पर हम सभी भाई अपने पैरों पर खड़े हुए। मैं इस जीवन-संदेश को कभी न भूला।
सबमुच, डॉ० साहब ने माँ की सीख कभी नहीं भुलाई। जैसे- तैसे अपनी पढ़ाई करते रहे। उच्ब शिक्षा के लिए उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में नाम लिखाया। एम० ए० की तैयारी करते समय कुछ कारणों से जाकिर साहब ठीक से पढ़ाई न कर सके। अतः लोगों ने परीक्षा न देने की राय दी। परन्तु जाकिर साहब चुपचाप तैयारी करते रहे। समयानुसार परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। हिम्मते मरदाँ और मददे खुदा वाली कहावत चरितार्थ हुई और जाकिर साहब 'स्कालरशिप' लेकर यूरोप चले गये। जर्मन विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर उन्होने साहित्य और दर्शन में डाक्टरेट (डी० फिल्०) प्राप्त की।
भारत लौटने पर डॉ० जाकिर हुसेन महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गये। भारत की नयी पीढ़ी को स्वदेशी ढंग से पढ़ाने लिखाने के लिए उन्होने दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया नामक संस्था की स्थापना की। डॉ० साहब एक सफल शिक्षा-शास्त्री और कुशल अध्यापक थे। गांधी जी द्वारा संबालित 'हिन्दुस्तानी तालीमी संघ' के भी वे प्रमुख कार्यकर्ता थे।
वे कर्मठ और लगन के धनी इन्सान थे। कहने की जगह करने में विश्वास करते थे। उपदेश देने के बजाय अपने आचरण से रास्ता दिखाना पसन्द करते थे। एक बार उन्होंने ऊँची कक्षाओं में पढ़ाने वाले एक अध्यापक से किसी छोटी कक्षा मे पढ़ाने का अनुरोध किया। इसे अपमानजनक समझ कर वे अध्यापक उस कक्षा में नहीं गये। दुबारा कहने पर उन्होंने उस कक्षा को पढ़ाने से साफ इन्कार कर दिया।
डॉ० साहब को इसकी सूबना मिली तो वे स्वयं उस कक्षा में पढ़ाने चले गये। यह जानकर वे घमण्डी महाशय बहुत लज्जित हुए और तुरन्त उस कक्षा को सम्हालने जा पहुँचे। डॉ० साहब ने मुस्कारते हुए उनका स्वागत किया और कुछ कहे बिना उन्हें कक्षा सौंप कर बाहर हो गये।
इसी तरह की एक और घटना है। बार-बार कहने के बाद भ अनेक बच्चों को बिना पालिश किये जूते पहने देखकर एक सुबह डॉ० साहब पालिश की डिब्बियाँ और बश लेकर कालेज गेट पर जा बैठे। बच्चों के जूतों का मुआयना होने लगा जो भी गन्दे जूतों में नजर आया, एक किनारे खड़ा कर दिया गया। और फिर हरेक के जूते पर खुद डॉ० साहब ने पालिश की। दूसरे ही दिन से हर बच्चे के जूते चमकते नजर आने लगे। सचमुब कहने की उपेक्षा कर दिखाने का कहीं ज्यादा असर होता है।
डॉ० साहब घर-बाहर एक समान रहते थे। घर का भी एक किस्सा पेश है। उनका घरेलू नौकर बड़ा कामचोर था। रात में सबसे पहले सो जाता और सबेरे देर से सोकर उठता। घर के तमाम लोगों ने उसे निकाल बाहर करने का फैसला सुना दिया। परन्तु जाकिर साहब ने कहा, "एक बार मैं भी समझा कर देख लूँ।
दूसरे दिन सबेरा होने पर डॉ० साहब साबुन और तौलिया लेकर, उसके सिरहाने जाकर खड़े हो गये। उसे जगाते हुए बोले, "उठिये भी जनाब । सबेरा हो गया मैं पानी ले आया हूँ-हाथ-मुँह थोड्ये, तब तक मैं आपके लिये चाय ले आता हूँ।" इतना कहकर डॉ० साहब रसोई घर की तरफ चल दिये। इधर नौकर साहब एक झटके में उठ कर खड़े हो गये हक्का-बक्का से। तभी डॉ० साहब हाथों में प्लेट-प्याली लिये फिर हाजिर हो गये और बोले, "बहुत खूब ! आपने हाथ-मुँह थो लिये लीजिये बाय नोश कीजिये। अरे, तकल्लुफ छोड़िये चाय पीकर काम शुरु कीजिये।"
नौकर मियाँ पानी-पानी होकर बोले, "हुजूर, बस एक और मौका दीजिये-अब कभी ऐसी गलती न होगी।" डॉ० साहब हँसते हुए लौट गये। दूसरे ही दिन से नौकर महाशय सबसे पहले उठकर काम करने लगे। डॉ० साहब सिद्धान्तों के पक्के आदमी थे। उदार तो इतने कि बगैर कहें ही लोगों के काम कर दिया करते थे पर सख्त भी इतने की अच्छे से अच्छे दोस्त या रिश्तेदार का गलत काम उन्होंने कभी नहीं किया।
परन्तु उनके 'न' कहने का ढंग भी ऐसा निराला होता था कि कभी कोई नाराज होकर नहीं गया। इस सम्बन्ध में एक घटना प्रस्तुत है। एक बार उनका कोई पुराना शिष्य किसी की सिफारिश करने आया और बोला, "सर । यह मैट्रिक में तीन बार फेल हो चुके हैं-आपकी मेहरबानी हो तो इनका बेड़ा पार हो जाये।" इस पर डॉ० साहब ने मुस्कराते हुए कहा, "अरे भई ! तुम मेरे इतने प्यारे और पुराने स्टूडेन्ट हो-भला तुम्हारी बात न मानूँगा। मगर एक बात है-गलत काम ही कराना है तो बड़ा काम कराओ-कहो तो इसका दाखिला बी० ए० में करवा दूँ इस तरह से मैट्रिक पास करने की जहमतु से भी बब जायेंगे और एक दम बी० ए० में पहुँच जायेंगे है न? जाओ तुरन्त फार्म ले आओ।" बस, फिर क्या था-भूतपूर्व छात्र महोदय शर्मिन्दा होकर चुपचाप लौट गये।
डॉ० जाकिर हुसेन सच्चे देशभक्त थे। सभी धर्मों का आदर समान भाव से करते थे। साम्प्रदायिकता के कट्टर शत्रु थे। मजहबी दंगों की बात सुनकर गमजदा हो जाया करते थे। उन्होंने हमेशा यही कोशिश की कि हिन्दू मुसलमान भाई-भाई की तरह मिल-जुल कर रहें।
डॉ० जाकिर हुसेन को जो भी काम मिला, उन्होंने पूरे मन से किया। मुल्क की खिदमत आखिरी साँस तक करते रहे। राज्य सभा के मनोनीत सदस्य रहे-बिहार के राज्यपाल रहे । सन् १९६२ में उप-राष्ट्रपति बने। सन् १९६७ में डॉ० राधाकृष्णन के पद-मुक्त होने पर डा० जाकिर हुसेन राष्ट्रपति बने। राष्ट्रपति-पद की जिम्मेदारियों को निभाते हुये भी वे 'नई तालीम' की रूप-रेखा को अन्तिम रूप देने में लगे रहे। उनके कार्यकाल में राष्ट्रपति- भवन में अदीबों का आना-जाना बढ़ गया था-कवि-शायरों की महफिलें अकसर जमती रही।
३ गई सन् १९६९ को अचानक दिल का दौरा पड़ने से डॉ० जाकिर हुसेन का देहान्त हो गया। उनका शव उसी जामिया मिल्लिया के आँगन में दफना दिया गया, जिसे उन्होंने अपने खून पसीने से सींचा था। आमीन।
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