397 भारत में 1975 के आपातकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ और उनके निर्णय का अध्ययन
397 आपातकाल का निर्णय एवं प्रिया देश वासियों
397 आपातकाल का निर्णय एवं प्रिया
३1७ सामान्य परिचयः- आपातकाल का सामान्य अर्थ ऐसी परिस्थितियों से लिया जाता है कि विषेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए विषेष वैधानिक प्रावधान प्रयुक्त किये जाऐं आपातकाल के प्रावधान को जर्मनी के संविधान से लिया गया है। सविधांन के 18वें भाग में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकाल का वर्णन किया गया है।1
आपातकाल के दौरान राजनीतिक व्यवस्था संघीय से एकात्मक हो जाती है। भारत या उसके किसी एक भाग में सषस्त्र विद्रोह हो जाये या भारत किसी युद्ध मंे फँस जाये तो उस समय राष्टश्पति अनुच्छेद 352 के अन्र्तगत संकटकाल की घोषणा कर सकता है। इन्हीं प्रावधानों का सहारा लेते हुए भारत में 25 जून 1975 मे आपातकाल लागू किया गया।
भारत में आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों की विवेचना ;1975 से 2012
आपातकाल का सामान्य अर्थ ऐसी परिस्थितियों से लिया जाता है। कि विषेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए विषेष संवैधानिक प्रावधान प्रयुक्त किये जाए । आपातकाल के प्रावधान को जर्मनी के संविधान से लिया गया है। सविधांन के 18वें भाग मे अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकाल का वर्णन किया गया है। 25 जून 1975 को जयप्रकाष नारायण के नेतष्त्व में साम्यवादी दल को छोडकर अन्य विरोधी दलों ३संगठन कांग्रेस, जनसंघ, समाजवादी दल और भारतीय लोकदल इत्यादि७ ने इन्दिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए एक बडा व्यापक आन्दोलन छेड़ने की घोषणा की। इस पर प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने अपने सहयोगी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियो और अन्त में राष्टश्पति से विचार किया। इन्दिरा गाँधी के विचार में कानून तथा व्यवस्था के टूटने और अराजकता फैलने की पूरी-पूरी संभावना थी इसलिए उन्होने तत्कालीन राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद से आन्तरिक संकटकालीन स्थिति की घोषणा करवा दी। बाहरी संकटकालीन स्थिति 3 दिसम्बर 1971 से पहले की चल रही थी। इसके बाद आन्तरिक आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक लगभग 21 महीने तक रहा। इन्दिरा गाँधी का 1 जुलाई, 1975 को प्रगतिषील सामाजिक, आर्थिक रूपान्तरणों के अन्तर्गत 20 सूत्रीय कार्य म की षुरूआत मूलतयाः भूमि सुधार का कार्य म तेज करने खेतिहार मजदूरों की स्थिति में सुधार करने, ऋणदासता आदि का उन्मूलन करने की ओर निर्देषित था। इसके अन्तर्गत मेरे द्वारा 1975 में विधायक एवं 1977 में सांसद पण्डित रामकिषन का साक्षात्कार लिया एवं 1975 में प्राध्यापक ओमप्रकाष गुप्ता का साक्षात्कार भी लिया गया।
आपातकाल की घाष्ेाणा क ेसाथ ही विपक्षी दला ंेक ेनते ाआ ंेकी गिरफ्तारियाँ षुरू कर दी गई। सुबह होने पर लोगों को पता चला कि लोकतंत्र का गला घोंटकर देष में इंदिरा सरकार ने ‘‘आपातकाल’’ की घोषणा कर दी है। दूरभाष से पूर्व सूचना देकर दिल्ली में नानाजी देषमुख, श्री जगदीष प्रसाद माथुर प्रभष्ति षीर्षस्थ नेताओं को सजग कर दिया गया था ताकि वे आन्दोलन का नेतष्त्व कर सकें। आपातस्थिति की अचानक घोषणा से देष में आतंक का वातावरण फैल गया क्योंकि गिरफ्तारी के बाद न उसके विरोध में अपील हो सकती थी, न वकील न अदालत में दलील पेष करने की गुंजाईष रखी गई थी। अपने घरों से फरार और गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के परिवारों को भी प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं रखी गई। जेलों में कैद कार्यकर्ताओं को अकथनीय यातनाऐं दी गईं। पचासों उदाहरण देष की जेलों में उन दिनों संघ के ही कार्यकर्ताओं, छात्रों तथा विपक्षी दलों के बंदियों के जीवन में घटित हुए। अनेक तो यातनाऐं झेलते-झेलते ही जेलों में ही षहीद हो गये।
लोकतंत्र की मजबूती का मीडिया की आजादी से सीधा संबंध है। स्वस्थ्य लोकतंत्र की धमनियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रक्त की तरह बहती है और निष्पक्ष मीडिया लोकतंत्र का दय है जो सुनिष्चित करता है कि रक्त संचार सुचारू रूप से होता रहे। यही कारण है कि जब भी जहाँ भी लोकतंत्र को कमजोर करने या उसकी हत्या करने की कोषिष की गयी। पहला वार मीडिया की आजादी पर किया गया। कोई भी तानाषाह स्वतंत्र मीडिया का पक्षधर कभी नहीं हो सकता। तानाषाही में भय और आतंक के विरू डटकर खड़ी होने वाली मीडिया को बेरहमी से कुचला जाता है। भारत में भी आपातकाल के बहाने तानाषाही का ऐसा भी रूप देखा है।
छठें आम चुनाव कराये जाने की आकस्मिक घोषणा ने विभिन्न प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों के समक्ष गहन चुनौती उत्पन्न कर दी और आपसी विलय की विचारणा को अनिवार्य बना दिया। आपातकाल के दौरान प्रतिपक्षी नेताओं को आपसी विचार-विमर्ष का अनायास ही अवसर मिल गया था। जेल से छूट कर बाहर आये नेताओं के लिए यर्थाथ को टालने या बंटे-बिखरे रहने के कारण स्वयं अपने अस्तित्व के विलोप का खतरा साफ था अतः अपने-अपने पष्थक अस्तित्व को समाहित करने तथा देष में व्याप्त राजनीतिक अभिषाप की स्थिति को समाप्त करने की प्रेरणाऐं सबल बन गईं। सौभाग्य से जयप्रकाष नारायण जैसा प्रभावी नैतिक नेतष्त्व भी सुलभ हुआ और जो कार्य वर्षों में नहीं हो पाया वह अवसरजन्य स्थिति के कारण कुछ दिनों में संभव हो गया अन्ततः चार विपक्षी दलों ३संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल, समाजवादी दल७ ने मिलकर मोरारजी देसाई के नेतष्त्व में जनता पार्टी का गठन किया एवं 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी चुनाव जीत गई और 1975 से लेकर 2012 तक अनेक पार्टीयों बनी जिनमें प्रमुख हैं - जनता पार्टी, लोकतंत्र कांग्रेस, कांग्रेस ३एस७, लोकतंत्रीय कांग्रेस ३कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी७, लोकदल ३जनता एस७, भाजपा, कांग्रेस तिवारी, राष्टश्वादी कांग्रेस, एन.डीए., यू.पी.ए.।
1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें
मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे।
1980 के लोकसभा चुनाव म ें कागं ्रेस ३आई७ पार्टी की सरकार बनी जिसमें
इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थी।
1984 के लोकसभा चुनाव म ें कागं ्रेस ३आई७ पार्टी की सरकार बनी जिसमें
राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे।
1989 के लोकसभा चुनाव में जनता दल पार्टी की सरकार बनी जिसमें वी.पी.सिंह प्रधानमंत्री थे, लेकिन बाद में सरकार गिर जाने के कारण जनता दल ३सोषलिस्ट७ के चन् षेखर प्रधानमंत्री थे।
1991 के लोकसभा चुनाव म ें कागं ्रेस ३आई७ पार्टी की सरकार बनी जिसमें
पी.वी.नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे।
1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पार्टी की सरकार बनी जिसमें अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, लेकिन सरकार ज्यादा दिन नहीं चली, और बाद म ंे जनतादल सयं ुक्त मार्चे ा क े रूप म ंे एच.डी.दवे गाडे ा़ प्रधानमत्रं ी तथा इसक े बाद इन् कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने।
1998 क ेलाके सभा चनु ाव म ंेएन.डी.ए. की सरकार आइर्, जिसम ंेअटलबिहारी
वाजपेयी प्रधानमंत्री थे।
1999 के लोकसभा चुनाव में एन.डी.ए. की सरकार वापिस सत्ता में आई, जिसमें अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे।
2004 की लोकसभा चुनाव में यू.पी.ए. की सरकार आई, जिसमें मनमोहन
सिंह प्रधानमंत्री थे।
2009 की लोकसभा चुनाव में यू.पी.ए. की सरकार वापिस सत्ता में आई,
जिसमें मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे।
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि साधारण व्यक्तियों ने अपने मताधिकार से यह सि कर दिया कि वे समय आने पर ऐतिहासिक और ांतिकारी निर्णय ले सकते हंै। कांग्रेस के लिए यह 1977 का चुनाव परिणाम वज्रपात बनकर सामने आया। इससे न केवल भारतीय राजनीति पर तीस वर्षों से चला आ रहा कांग्रेस का एकाधिकार ही समाप्त हो गया अपितु केन्द्र में गैर कांग्रेस षक्तियों का विजय एक नये युग का श्री गणेष कर दिया। जनता पार्टी की जीत के बाद जनता पार्टी की सरकार ने बहुमत खो दिया और जनता पार्टी का विभाजन हो गया। भाजपा का निर्माण हुआ। कांग्रेस की कांग्रेस ३ई७ हो गयी अनेक पार्टी बनीं और बिगड़ी आज केन्द्र की राजनीति एन.डी.ए. ३नेषनल डेमो ेटिव अलाइन्स७ और यू.पी.
ए. ३यूनाइटेड प्रोगेषिव अलाइन्स७ के बीच है।
में षिक्षण कार्य के दौरान जब मंैने षोधकार्य करने का विचार किया तो सर्वप्रथम मेरे सामने षोध विषय के चयन को लेकर समस्या उत्पन्न हुई यों तो भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मेरी अभिरूचि अधिक थी और इसी क्षेत्र में अपना षोधकार्य करना चाहता था इसलिए इच्छा थी कि मैं किसी परम्परागत प्राचीन विषय पर कार्य न कर बल्कि भावी षोध को दिषा देने के लिए किसी अछूते और नूतन विषय का चयन करूँ। इस सन्दर्भ में जब मंैने अपनी बात डाॅ. गोविन्दकष्ष्ण षर्मा, सह-आचार्य, राजनीति विज्ञान के सामने रखी तो उन्होंने विषय चयन सम्बन्धी समस्या का निदान करते हुए मुझे सन् 1975 का आपातकाल के सम्बन्ध में पढ़ने के लिए कहा। जब मंैने गहराई से आपातकाल का विस्तार से अध्ययन किया तो मुझे दिषा भी मिली और अभिरूचि की पुष्टि भी हुई। ज्यों-ज्यों मंै सन 1975 के आपातकाल को पढ़ता, त्यों-त्यों आपातकाल की परिस्थितियों की संवेदनाओं में डूबता गया और उससे मेरी अभिरूचि और षोधपरक दष्ष्टि दोनों को निरन्तर गति मिलती गई इसलिए मंैने भारत में आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों की विवेचना ३1975-2012७ को अपने षोध का अध्ययन विषय बनाना निष्चय किया।
25 जून 1975 का आपातकाल अपनी प्रकष्ति में विष्लेषणात्मक एवं उद्देष्यपरक अध्ययन है। इस षोध अध्ययन का मुख्य उद्देष्य यह जानना है कि सन 1975 में आपातकाल क्यों लगाया गया ? और उसके बाद राजनीति में क्या परिवर्तन आये? राष्टश्ीय स्तर पर आपातकाल को लागू करने की क्या परिस्थितियाँ थी? आपातकाल के दौरान संघीय षासन व्यवस्था प्रदान करने में संवैधानिक सष्ं ाोधन किस प्रकार प्रभावी सि हुए हैं? आपातकाल के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों के अस्तित्व, संगठन एवं महत्व के लिए राजनीतिक दलों के सामने एक चुनौती थी और राजनीतिक दलों के लिए इन प्रष्नों से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने में राजनीतिक दलों में क्या बदलाव परिलक्षित होता है। आपातकाल में देष का राजनीतिक परिदष्ष्य क्या हो जाता है? क्या आपातकाल का प्रयोग तत्कालीन कांग्रेस सरकार के समक्ष एक मात्र विकल्प था? इसे टाला जा सकता था? आपातकाल के बाद आम चुनाव हुए। जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आयी। कुछ महीनों बाद जनता पार्टी ने बहुमत खो दिया। भाजपा का निर्माण किन परिस्थितियों में हुआ? व कांग्रेस की कांग्रेस३ई७ हो गई बाद में जनता दल, कांग्रेस तिवारी, राष्टश्वादी कांग्रेस, यूनाइटेड और राष्टश्ीय धु्रवीकरण के रूप में एन.डी.ए. और यू.पीए. बने। इसके अलावा और भी पार्टीयाँ बनीं और बिगड़ी उन सभी का इस षोध प्रबन्ध में क्या मुख्य उद्देष्य रहा है। षोधकार्य करना अपने आप में महत्वपूर्ण माना जा सकता है। मंैने ‘भारत में आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों की विवेचना ३1975 से 2012७’ षीर्षक पर सारगर्भित षोध प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो अपनी आवष्यकता, मौलिकता एवं महत्व को रेखांकित करते हुए प्रबुजनों के लिए चिन्तन के नये आयाम प्रस्तुत कर सकेगा ऐसा मेरा विष्वास है। मेरा षोध प्रबन्ध सात अध्यायों में विभाजित है और प्रत्येक अध्याय को बिन्दुओं के आधार पर सूक्ष्मता के साथ सटिक एवं तथ्यात्मक विष्लेषण के साथ प्रस्तुत किया है। यह विष्लेषण समीक्षात्मक एवं तथ्यात्मक
षोध प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में आपातकाल का सामान्य परिचय एवं भारत में 1975 के आपातकाल की राजनीतिक परिस्थितियों और उनके निर्णय का अध्ययन किया गया है।
षोध प्रबन्ध के द्वितीय अध्याय में आपातकाल के दौरान 20 सूत्रीय कार्य मों का ियान्वयन और प्रभाव की विवेचना ३साक्षात्कार एवं सर्वे७ पर आधारित है।
षोध प्रबन्ध के तष्तीय अध्याय में आपातकाल के दौरान गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों की स्थिति का अध्ययन किया गया है।
षोध प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में आपातकाल में पे्रस/ मीडिया की क्लिपिंग का अध्ययन किया गया है।
षोध प्रबन्ध के पंचम अध्याय में आपातकाल के बाद भारत का राजनीतिक परिदष्ष्य, राजनीतिक परिवर्तन, राजनीतिक दलों पर उनका प्रभाव, राजनीतिक चेतना और बनती बिगड़ती राजनीतिक पार्टीयों का अध्ययन किया गया है।
षोध प्रबन्ध के षष्ठ अध्याय में कांग्रेसवाद और गैर-कांग्रेसवाद की अवधारणा की विवेचना तथा आपातकाल के बाद राजनीतिक चेतना पर सर्वेक्षण किया गया है।
षोध प्रबन्ध के सप्तम अध्याय में 25 जून 1975 के आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों का मूल्यांकन किया गया है। वस्तुतः ये निर्धारित तत्व की प्रतिपाद्य विषय के अध्ययन का आधार बने
हंै जो कि वर्तमान सन्दर्भों में प्रासंगिक एवं महत्वपूर्ण माने जा सकते हंै। यद्यपि मंैने प्रस्तुत षोध विषय की पष्ष्ठभूमि और प्रमाणिकता के लिए अनेक ग्रन्थों से सहायता
भी ली है। माँ सरस्वती की असीम अनुकम्पा एवं माता-पिता के आषीर्वाद स्वरूप आज में इस षोध प्रबन्ध भारत में आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों की विवेचना ३1975-2012७ को प्रस्तुत करने की स्थिति में हूॅ। यह क्षण मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अवसर है। यह षोध प्रबन्ध को इस परिणति तक पहुँचाने हेतु मैं षोध-पर्यवेक्षक डाॅ. गोविन्दकष्ष्ण षर्मा सह-आचार्य, राजनीति विज्ञान, के प्रति अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने महाविद्यालय की व्यस्तता के बावजूद, विषय के चयन, अध्ययन, विष्लेषण, मूल्यांकन एवं प्रस्तुति के विविध चरणों में अपने बहुमूल्य सुझावों से पग-पग पर मेरा मार्गदर्षन किया। इस षोध प्रबन्ध में मंैने जो भी कुछ किया है वह उन्हीं की पे्ररणा का परिणाम है। समय≤ पर मुझे विष्वास, धैर्य एवं कष्त संकल्प बने रहने हेतु उनके प्रेरणास्पद परामर्ष ने मेरे प्रस्ताव को अर्थपणर््ू ाता एव ं दिषा प्रदान की। इसके लिए मैं सदैव उनका कष्तज्ञ एव ं ऋणी रहँूगा।
षोधार्थी उन सभी विद्वानों, लेखकों, चिन्तकों, मनीषियों के प्रति अपनी
कष्तज्ञता व्यक्त करता है जिनके षोध ग्रन्थों, पुस्तकों, लेखों, वक्तव्यों ने षोध कार्य में सहायता एवं मार्गदर्षन प्रदान किया क्योंकि उनके अध्ययन एवं सन्दर्भों के बिना षोध प्रबन्ध अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता। विद्याज्ञान अर्जन के बिना षोध कार्य सम्पन्न करना सभ्ंाव नही ं ह।ै म ंैपस्ु तकालयाध्यक्ष, कन्ेदी्रय पस्ु तकालय राजस्थान विष्वविद्यालय, जयपुर, कोटा विष्वविद्यालय, कोटा, दिल्ली विष्वविद्यालय दिल्ली, भगवती कन्या महाविद्यालय, गंगापुर सिटी, भगवती स्नातको ार महाविद्यालय, गंगापुर सिटी, राजकीय कला महाविद्यालय कोटा, राजकीय महारानी श्री जया महाविद्यालय, भरतपुर, वीणा मेमौरियल डिग्री काॅलेज करौली, इंडियन एक्सप्रेस कार्यालय, दिल्ली, टाईम्स आॅफ इण्डिया कार्यालय, दिल्ली को उनके सहयोग के लिए हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।
श्रीमती डाॅ. भावना षर्मा ३पत्नी डाॅ. गोविन्दकष्ष्ण षर्मा७ देवाषीष के स्नहे पणर््ू ा व्यवहार क े लिए कष्तज्ञ हँू। मै ं अपन े पजू नीय पिताजी स्व. श्री रामचरन लाल अम्बेष, सहायक निदेषक ३अभियोजन विभाग७ के प्रति कष्तज्ञ हूँ जिन्होंने अपने जीवनकाल में मुझे षोध कार्य करने के लिए प्रेरित किया। मेरी पूजनीय माताजी श्रीमती लीलावती जिन्हें मेरे इस अध्ययन के दौरान अनेक असुविधाऐं हुईं जिन्हें उन्होंने न केवल प्रसन्नता पूर्वक सहन किया अपितु षोधकार्य में पूर्ण सहयोग दिया।
षु एवं आकर्षक कम्प्यूटर मुद्रण के लिए अनिल कुमार गोधा को साधुवाद देता हूँ जिन्होंने अल्प समय में यह कार्य षीघ्रता से सम्पन्न किया। अन्त में उन सभी अग्रजों, षुभचिन्तकों, मित्रों एवं सहकर्मियों को आभार प्रदर्षित करता हूँ जिनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान इस षोधकार्य में मिला। भारत में 1975 के आपातकाल की राजनीतिक परिस्थितियां और उनके निर्णय का अध्ययन
३1७ सामान्य परिचयः- आपातकाल का सामान्य अर्थ ऐसी परिस्थितियों से लिया जाता है कि विषेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए विषेष वैधानिक प्रावधान प्रयुक्त किये जाऐं आपातकाल के प्रावधान को जर्मनी के संविधान से लिया गया है। सविधांन के 18वें भाग में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकाल का वर्णन किया गया है।1
आपातकाल के दौरान राजनीतिक व्यवस्था संघीय से एकात्मक हो जाती है। भारत या उसके किसी एक भाग मंे सषस्त्र विद्रोह हो जाये या भारत किसी यु मंे फँस जाये तो उस समय राष्टश्पति अनुच्छेद 352 के अन्र्तगत संकटकाल की घोषणा कर सकता है। इन्हीं प्रावधानों का सहारा लेते हुए भारत में 25 जून 1975 मे आपातकाल लागू किया गया।
३2७ भारतीय संविधान में आपातकाल को लागू करने की स्थितियाँ:-
1. भारत में आपातकाल को तभी लागू किया जा सकता है जब प्रधानमंत्री और उसका मंत्रिमण्डल इसकी लिखित सूचना राष्टश्पति को दे।2
2. भारत में आपातकाल की घोषणा, संसद के दोनों सदनों के मध्य रखी जाती हैं और यदि एक माह समाप्त होने के पूर्व संसद के दोनांे सदनों के द्वारा अनुमोदित नहीं किया जाता है, तो वह घोषणा प्रभावी नही होगी।3
3. भारत में आपातकाल की घोषणा के समय यदि लोकसभा का विघटन हो जाता है तो वह घोषणा लोकसभा के पुर्नगठन की प्रथम बैठक की तारीख से 30 दिन में उसका अनुमोदन सदन के विषेष बहुमत से पारित करेगी।4
4. भारत में आपातकाल की घोषणा संसद द्वारा पारित होने की तिथि से 6 माह की अवधि तक प्रभावी रहेगी और 6 माह की अवधि से अधिक अवधि तक घोषणा को जारी रखने के लिए 6 माह की अवधि के दौरान दोनों सदनांे द्वारा अनुमोदन आवष्यक है।5
5. भारत में आपातकाल की समाप्ति की घोषणा लोकसभा के कुल सदस्यों के एक बटा दस सदस्यों द्वारा लिखित में प्रस्तुत प्रस्ताव द्वारा की जाएगी और सदन में यह प्रस्ताव स्पीकर को दिया जायेगा, यदि सदन नहीं चल रहा हो तो उस पर विचार करने के लिए राष्टश्पति या स्पीकर को 14 दिनों के अन्दर विषेष सत्र बुलाना पड़ता है।6
३3७ आपातकाल के दौरान संघ की कार्यपालिका और विधायिका को असाधारण षक्ति प्राप्त होनाः-
पण् कार्यपालिका
पपण् विधायीपपपण् वि ाीय पअण् मूल अधिकार
३प७ कार्यपालिका:- जब आपातकाल की घोषणा की जाती है तो संघ की कार्यपालिका राज्यों को यह निर्देष दे सकती है कि वह राज्य अपनी कार्यपालिका
षक्ति का प्रयोग उसकी षक्ति के अनुसार करें।7 सामान्य समय मंे कार्यपालिका को किसी राज्य को निर्देष देने की षक्ति अनुच्छेद 256 एवं 257 मे विद्यमान है।8
आपातकाल के दौरान केन्द्र सरकार को किसी राज्य में किसी भी विषय पर निर्देष देने की षक्ति मिल जाती है। जिसके परिणाम स्वरूप राज्य सरकार निलम्बित होने पर भी संघ की कार्यपालिका के नियत्रंण में रहेगी।
३पप७ विधायीः- जब आपातकाल की उद्घोषणा की जाती है तो संसद की विधायी षक्ति का विस्तार होता है और अनुच्छेद 246३3७ द्वारा सूची के बारे में मर्यादा हटा दी जाती है। उद्घोषणा के कारण राज्य का विधानमंडल निलम्बित नहीं होता परन्तु संघ और राज्य के बीच, जहां तक संघ का संबंध है विधायी षक्तियों का वितरण निलम्बित हो जाता है और संघ की संसद आपातकाल का सामना करने के लिए किसी भी विषय पर विधान बना सकती है। आपातकाल के समय संसद विधि द्वारा लोकसभा की अवधि को एक बार में एक वर्ष से अधिक ब
छः माह से अधिक नहीं हो सकती ३अनुच्छेद-83३2७9
आपातकाल के दौरान संसद को यह अधिकार है कि वह किसी भी विषय पर कानून बना सकती है। चाहे वे विषय राज्य के अधिकार क्षेत्र में ही क्यों न आते हों।
३पपप७ वित्तीयः- आपातकाल की उदघोषणा के समय राष्टश्पति को अपने आदेष द्वारा संघ और राज्यों के बीच वित्तीय साधनों के आवंटन पर संबंधित संविधान के उपबंधों को रूपांतरित करने की संवैधानिक षक्ति प्राप्त हो जाती है जिसका उल्लेख अनुच्छेद 268 एवं 274 में किया गया है।10
३पअ७ मूल अधिकारः- आपातकाल की उद्घोषणा का मूल अधिकारों पर प्रभाव अनुच्छेद 358 एवं 359 मंे बताया गया है।11
३1७ अनुच्छेद 358 के अन्तर्गत राज्य पर अनुच्छेद 19 की मर्यादा लागू नहीं होती है। आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 19 स्वतः समाप्त हो जायेगा। अनुच्छेद 359 के अन्तर्गत राष्टश्पति के आदेष द्वारा इन अधिकारों का निलम्बन किया जा सकता है।
३2७ यु, बा य आ मण या सषस्त्र विद्रोह के दौरान आपातकाल को अनुच्छेद 359 में दर्षाया गया है। लेकिन अनुच्छेद 358 में यु बार्,ि आ मण को दर्षाया गया है।
३3७ आपातकाल की उदघोषणा के फलस्वरूप अनुच्छेद 358 प्रकट हो जाता है। और अनुच्छेद 19 स्वतः ही समाप्त हो जाता है लेकिन अनुच्छेद 359 को लागू करने के लिए राष्टश्पति का आदेष लिया जाना आवष्यक है।
३4७ अनुच्छेद 19 को अनुच्छेद 358 निलम्बित करता है। अनुच्छेद 359 के अन्तर्गत आपातकाल की घोषणा होते हुए भी अनुच्छेद 20 और 21 के अधीन किसी बंदी को न्यायालय में पहुँचने के अधिकार को छीना नहीं जा सकता है।
आपातकाल राष्टश्पति की संकटकालीन षक्तियों के अन्तर्गत आता है। जिसको राष्टश्ीय आपातकाल के नाम से भी जाना जाता है। इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत किया गया है। 44 वें संविधान संसोधन द्वारा राष्टश्पति को आपातकाल लागू करने के लिए मंत्रिमण्डल का परामर्ष आवष्यक है। प्रत्येक राज्य को संकटकाल में उसके अस्तित्व को रखने के लिए ऐसी षक्ति सम्पन्न अधिकारों का होना आवष्यक है। जिसको आपातकालीन परिस्थिति का सामना करने के लिए विषिष्ट सत्ता प्राप्त हो। संघीय देष में यह सत्ता राष्टश्ीय सरकार में निहित होती है। वस्तुतः संकटकालीन परिस्थिति का सामना करने का मुख्य उत्तरदायित्व राष्टश् की कार्यपालिका का ही होता हैं।12
भारत का संविधान संघीय सरकार की स्थापना करता है। इसमें संघ के सभी आय के लक्षण विद्यमान हैं। जैसे दो सरकार, षक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वाेच्चता, संविधान की कठोरता, स्वतंत्र न्यायपालिका एवं द्विसदनात्मक आदि, यद्यपि भारतीय संविधान में बडी संख्या में एकात्मकता और गैर संघीय लक्षण भी विद्यमान हैं। जैसे एक सषक्त केन्द्र, एक संविधान, एकल नागरिकता, संविधान का लचीलापन, एकीकष्त न्यायपालिका, केन्द्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति, अखिल भारतीय सेवाऐं, आपातकालीन प्रावधान इत्यादि। संविधान में कभी ‘संघीय’ षब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। अनुच्छेद 1 में भारत का उल्लेख ‘राज्यों का संघ’ के रूप में किया गया है। इसके दो अभिप्राय हैं। पहला, भारतीय संघ राज्यों के बीच हुए किसी सहमति का परिणाम है। दूसरा, किसी भी राज्य को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है।
भारतीय संविधान को निम्नलिखित नामों से जाना जाता है।
जैसे- एकात्मकता की भावना में संघ, अर्थ संघ ३के.सी. वेरे७ वारगेनिंग फेडरेलिज्म,३मोरिज जोम्स७, को-ओपरेटिव फेडरेलिज्म ३ग्रेनविल आॅस्टीन७, फेडरेषन विद ए सेंडलाइजिंग टेंडेंसी ३आइवर जेनिंग्स७13
संविधान तीन तरह का आपातकाल व्यवस्था निर्धारित करता है।- राष्टश्ीय, राज्य एवं वित्त। आपातकाल के दौरान केन्द्र सरकार के पास सभी षक्तियाँ आ जाती हैें। और राज्य, केन्द्र के पूर्ण नियंत्रण में आ जाते हैं। यह बिना किसी संविधान संषोधन के संघीय
ऐसी व्यवस्था किसी संघ में नहीं पायी जाती है।
आपातकाल के दौरान केन्द्र राज्यों के बीच संबंध बदल जाते हैं। राष्टश्ीय आपातकाल ३अनुच्छेद 352७ के अन्तर्गत राष्टश्पति केन्द्र व राज्यों के बीच संवैधानिक राजस्व वितरण को परिवर्तित कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि राष्टश्पति या तो वि ाीय अंतरण को कम कर सकता है या रोक सकता है। ऐसे परिवर्तन जिस वर्ष आपातकाल की घोषणा की गई हो उस वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक प्रभावी रहते हैं।
अमेरिका सहित सभी संघीय व्यवस्थाऐं, संघवाद के एक कड़े स्वरूप हैं। किसी भी परिस्थिति में अपना स्वरूप और आकार परिवर्तित नहीं कर सकते। लेकिन भारत का संविधान समय और परिस्थिति के अनुसार एकात्मक एवं संघीय दोनों प्रकार का हो सकता है। यह इस प्रकार निर्मित किया गया है कि सामान्यतः यह संघीय व्यवस्था के अनुरूप कार्य करता है परन्तु आपातकाल में यह एकात्मक
व्यवस्था के रूप में कार्य करता है।
३4७ आपातकालीन उपबंधों की आलोचना:-
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने आपातकालीन उपबंधों की निम्न आधार पर आलोचना की’’14
1. संविधान का संघीय स्वरूप नष्ट हो जायेगा तथा केन्द्र सर्व षक्तिमान बन जायेगा।
2. राज्यों की षक्तियाँ ३एकल व संघीय दोनों७ पूरी तरह से केन्द्रीय प्रबंधन के हाथों मे आ जायेगी।
3. राष्टश्पति तानाषाह बन जाएगा।
4. राज्यों की वि ाीय स्वाय ाता निरर्थक हो जायेगी।
5. मूल अधिकार अर्थहीन हो जाऐंगे और परिणामस्वरूप संविधान की प्रजातंत्रीय आधारषिला नष्ट हो जायेगी।
अतः एच. बी. कामथ ने मत प्रकट किया कि ‘‘मुझे डर है कि इस एकल अध्याय द्वारा हम एक ऐसे सम्पूर्ण राज्य की नींव डाल रहे हैं जो कि एक पुलिस राज्य, एक ऐसा राज्य जो उन सभी सिान्तों और आदर्षों का पूर्ण विरोध करता है। जिसके लिए हम पिछले दषकों से लडते रहे। एक राज्य जहाँ सैंकडों मासूम महिलाओं एवं पुरूषों के स्वतंत्रता के अधिकार सदैव संषय में रहेंगे। एक राज्य जहाँ कहीं षान्ति होगी जो कब्र में होगी और षून्य अथवा रेगिस्तान में होगी यह षर्म और दुःख का दिन होगा। जब राष्टश्पति इन षक्तियों का प्रयोग करेगा जिनका विष्व के किसी भी लोकतांत्रिक देष के संविधान से कोई साम्य नहीं होगा-15
के.टी. षाह ने इनकी व्याख्या इस प्रकार दी है कि ‘‘ प्रति िया और पतन का एक अध्याय मैंने पाया जो किसी ने नहीं कहा परन्तु दो विभिन्न धाराएं इस अध्याय के संपूर्ण उपबंधों की रेखांकित एवं प्रभावित करती है ३1७ केन्द्र की इकाइयों के विरू विषिष्ट षक्ति से सुसज्जित करना और ३2७ सरकार को इन लोगों के विरू सषक्त करना जो विषेषतः इस अध्याय के लगभग सभी अनुच्छेदों में दिए गए सभी उपबंधों का अध्ययन और षक्तियांे का मुख्य नियंत्रण करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र का नाम केवल संविधान में ही रह जायेगा।’’
टी.टी. कष्ष्णमाचारी ने भय प्रकट किया कि-‘‘ इन उपबंधों के द्वारा राष्टश्पति एवं कार्यकारी, संवैधानिक तानाषाही का प्रयोग करेंगे।’’16
एच.एन. कुंजरू ने कहा- ‘‘ वि ाीय आपातकाल के उपबंध राज्य की वि ाीय स्वायत्ता के लिए एक गंम्भीर खतरा उत्पन्न करते हैं। हालांकि संविधान सभा में इन उपबंधों के समर्थक भी थे। अतः सरअलादि कष्ष्णास्वामी ऑयर ने इन्हें ‘संविधान की जीवन साथी बताया’ महावीर त्यागी ने विचार व्यक्त किया कि यह ‘सुरक्षा वाल्व’ की तरह कार्य करेंगे और संविधान की रक्षा करने में सहायता करेगा-17
डाॅ. बी.आर. अम्बेडकर ने भी संविधान सभा में आपातकालीन प्रावधानों के बचाव में उनके दुरूपयोग की संभावनाओं को व्यक्त किया और उन्होंने कहा ‘‘ मैं पूर्ण रूप से इनकार नहीं करता कि इन अनुच्छेदों का दुरूपयोग अथवा राजनैतिक उद्देष्य के लिए इनके प्रयोग की संभावना है।18
३5७ आपातकाल की घोषणा- भारत में अब तक तीन बार राष्टश्ीय आपातकाल लगाया गया है। पहला आपातकाल 1962 में लगाया गया। 1962 में भारत पर चीन के आ मण के कारण पहला आपातकाल लगा था। दूसरा आपातकाल 1971 में भारत पर पाकिस्तान के आ मण की स्थिति में लगाया गया था। 1962 मंे नेफा तथा लद्दाख क्षेत्र में आ मण के कारण संकटकालीन की स्थिति विद्यमान थी। 8 नवम्बर 1962 को व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए न्यायालय की षरण लेने के अधिकार को स्थगित कर दिया गया और 14 नवम्बर 1962 को अनुच्छेद 14 भी स्थगित कर दिया गया। 26 अक्टूबर 1962 को ‘‘भारत प्रतिरक्षा अध्यादेष’ भी जारी किया गया। भारत प्रतिरक्षा सेवा नियम, नागरिक प्रतिरक्ष सेवा नियम, भारत प्रतिरक्षा ३सम्पत्ति अर्जन एवं अधिकरण७ नियम आदि इस अधिनियम के आधार पर बनाए गए। 1962 में जारी की गई यह संकटकालीन घोषणा 1968 तक जारी रही-19
- 1962 में चीन ने भारत पर आ मण कर दिया इस आ मण का सामना करने के लिए हमारे स्वर्गीय प्रधानमंत्री ने अनेक तैयारियां की-20
- 22 अक्टूबर 1962 ई. की रात्रि को आकाषवाणी के दिल्ली केन्द्र से भारत की सीमा पर चीनी हमले के कारण उत्पन्न परिस्थिति के संबंध में राष्टश् के नाम संदेष प्रसारित करते हुए कहा ‘‘ दुष्मन के हमले के सामने हम अपना सिर कभी झुका नहीं सकते चाहे उसका नतीजा कुछ भी हो’’21
- अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल दूसरी बार 1971 में लागू किया गया था 3 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर आ मण कर दिया। उस समय भारत के राष्टश्पति ने संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर दी। भारत सरकार ने विदेषी गुप्तचरों तथा राष्टश् विरोधी गतिविधियों का सामना करने के लिए बहुत सी असाधारण षक्तियां ग्रहण कर ली। भारत-पाक यु 14 दिन में समाप्त हो गया था और पाकिस्तान बुरी तरह परास्त हो गया। यह संकटकालीन स्थिति 21 मार्च 1977 तक जारी रही और 27 मार्च 1977 को समाप्त हुई।
- अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल 25 जून 1975 को लागू किया था जो कि 21 मार्च 1977 तक रहा। यह आपातकाल अन्य दो आपातकाल से भिन्न
था 1962 एवं 1971 का आपातकाल बा य आ मण के कारण लगा था। लेकिन तीसरी बार आपातकाल आन्तरिक कारणों से लगा था। 1975 के आपातकाल में संकटकालीन षक्तियों का दुरूपयोग किया गया था।22
- 25 जून 1975 को तत्कालीन राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद ने आंतरिक संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर दी । उसके पष्चात् स्वतंत्रता संबंधी मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिये गये। 18 जनवरी 1977 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने छठी लोकसभा के चुनावों की घोषणा कर दी। इस उदघोषणा से संबन्धित प्रेस विज्ञप्ति में ‘‘आन्तरिक अषान्ति’’ बताते हुए कहा था कि कुछ व्यक्ति पुलिस और सषस्त्र बलों को अपने कर्तव्यों के निर्वहन और सामान्य कार्यकारण के विरू उत्प्रेरित कर रहे हैं।23 आपातकाल के दुरूपयोग को रोकने के लिए संविधान में 44 वां संषोधन हुआ जिसमें -
- 1978 एवं 1979 में अनुच्छेद 352 के उपबंधों को ओर कठोर बना दिया गया। यह अधिनियम 20 जून 1979 में लागू हुआ आंतरिक अव्यवस्था के आधार पर।
- 25 जून 1975 को घोषित आपातकाल को रोकने के कटु अनुभव के बाद ऐसा करना पडा कि आपात उपबंधों को रोकने के लिए ‘आंतरिक अव्यवस्था’ के स्थान पर ‘सषस्त्र विद्रोह’ षब्द रखे गये।
- 1975 से 1977 तक जो आंतरिक आपातकालीन स्थिति चली उसके दौरान किए गये संषोधनों में सबसे अधिक व्यापक संषोधन 42 वां था। इसने संविधान के अनेक अनुच्छेद में परिवर्तन किए जैसे संविधान की उद्देषिका, सातवीं अनुसूची तथा अनु0 31, ,32क, 39क, 43क, 48क, 51क, 55, 74, 81, 82, 83, 103, 131क, 139क, 144, 145, 150, 166, 170, 172, 192, 217, 225-228क, 257क, 311, 312, 323क, 323ख, 330, 352, 353, 356-359,
366, 368 और 371च
इन संषोधनों के द्वारा यह प्रयास किया गया कि संसद और राज्य विधान मंडलों द्वारा बनाई गई विधियों की संवैधानिकता का निर्णय करने के लिए न्यायाधीषों की न्यूनतम संख्या निर्धारित की जाये और किसी कानून को अवैध घोषित करने के लिए कम से कम दो तिहाई बहुमत आवष्यक माना जाए।24
25 जून 1975 में भारत में आपातकाल लागू किया गया जो कि तात्कालिक कांग्रेस सरकार द्वारा लागू किया गया था आपातकाल में अनेक समस्याओं का सामना करना पडा। भारत में 1975 के आपातकाल का अध्ययन कर आपातकाल के नायकों, गणमान्य नागरिकों एवं आम नागरिकों से अलग प्रष्नावली भरवाकर अध्ययन किया गया है।
३6७ उपलब्ध साहित्य की समीक्षा:-
25 जून, 1975 को भारत में आपातकाल घोषित किया गया और मीसा
के अन्तर्गत सभी गैर-कांगे्रसी पार्टियों के नेताओं को जेल में डाल दिया गया और आम जनता पर मनमाने अत्याचार किये गये। सन 1977 में आपातकाल को समाप्त कर दिया गया जिस पर कुछ साहित्य निम्न प्रकार हंै:-
डाॅ. राजेन्द्र मोहन भटनागर ने ’भारतीय कांग्रेस का इतिहास’ 1986 मंे कांगे्रस की स्थापना से लेकर राजीव गाँधी सरकार तक का विवेचन किया गया है एवं 25 जून 1975 के आपातकाल से पहले 10 सूत्री कार्य म एवं इसके बाद के 20 सूत्री कार्य मों की चर्चा की गयी है। कांग्रेस की पराजय और उसका विभाजन एवं सत्ता में पुनः प्रवेष को दर्षाया गया है।
धर्मचन्द जैन न े ‘भारतीय राजनीति’ 1990 म ंे इन्दिरा गाँधी क े षासनकाल से लेकर राजीव गाँधी के षासनकाल तक का वर्णन किया है जिसमें आपातकाल के बाद कांग्रेस सरकार की हार व उसके बाद गैर कांग्रेस सरकार की स्थापना, पुनः कांग्रेस सरकार की कार्यविधि का वर्णन किया गया है।
डाॅ. एम.पी. राॅय ने ‘भारतीय सरकार एवं राजनीति’ 1977 में आपातकाल के बाद चुनावी राजनीति एवं कार्य मों एवं कांग्रेस की पराजय तथा जनता पार्टी के विजय के कारणों पर चर्चा की गयी है। इन्दिरा कांग्रेस की विजय और जनता पार्टी तथा लोकदल आदि के पराजय के कारणों पर चर्चा की गयी है।
ए.एस. नारंग ने ‘भारतीय षासन एवं राजनीति’ 1988 में आपातकाल के बाद गैर कांग्रेसी सरकार जिसमें जनता पार्टी का जन्म, जनता पार्टी कार्य मों व उसके बाद भारतीय जनता पार्टी तथा अनेक पार्टीयों के उदय के कारणों पर चर्चा की गयी है। प्रो. जी.एस. पाण्डेय ने ‘भारत का संविधान’ 2007 में आपातकाल के औचित्य की समीक्षा की गयी है।
डाॅ. डी.डी. बसु ने ‘भारत का संविधान’ 2012 में 42वंे एवं 44वें संविधान
संषोधनों पर विस्तष्त चर्चा की गयी है एवं अनुच्छेद 352 एवं अनुच्छेद 356 में तुलना की गयी है। पा्र.े एस.एम. सइर्द न े ‘भारतीय राजनीतिक व्यवस्था’, 2009 म ंे आपातकाल की कटू आलोचना की गयी है एवं आपातकालीन षक्तियों का मूल्यांकन किया गया है और राष्टश्ीय आपातकाल की उद्घोषणा के प्रभावों को दर्षाया गया है। आर.सी. अग्रवाल ने ‘भारतीय संविधान का विकास तथा राष्टश्ीय आन्दोलन’, 2000 म ंे 25 जनू 1975 क े आपातकाल की घाष्ेाणा, कागं ्रसे की नीतिया ंे एव ं कार्य मांे को बताया गया है। 6वीं लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की असफलता एवं जनता पार्टी की जीत के कारणों, कांग्रेस में फूट ३1978७, कांग्रेस ३इन्दिरा७ की स्थापना की विवेचना की गयी है। नेषनल न्ट की सफलता एवं विफलता का वर्णन करते हुए भारतीय जनता पार्टी के उदय के कारणों को बताया गया है। सुषीला कौषिक ने ‘भारतीय षासन एवं राजनीति’, 1990 में इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल, जनता पार्टी का षासन, इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री का दूसरा चरण एवं राजीव गाँधी के कार्यकाल को संक्षेप में वर्णन किया गया। राजस्थान पत्रिका 25 जनू 2011 पष्ष्ठ सख्ं या 10 म ंे लख्े ाक इन्दर मल्हात्रे ा ने आपातकाल के संबंध में एक पहलू प्रकाषित किया जो निम्न है:- राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद ने 25 जून 1975 को आन्तरिक आपातकाल की सिफारिष पर दस्तखत किये थे और भारत में आपातकाल लगा जो
21 माह तक रहा। दैनिक जागरण 25 जून 2011 पष्ष्ठ संख्या 8 में लेखक ए. सूर्यप्रकाष ने आपातकाल के संबंध में एक लेख प्रकाषित किया जो निम्न है:- आपातकाल को कांग्रेस के लोकतंत्र विरोधी दष्ष्टिकोण के प्रमाण के रूप में याद कर रहे हंै। कांग्रेस इस धारणा पर चल रही है कि नेहरू-गाँधी परिवार के सदस्यों के सरकारी कामकाज में दखल देने के लिए किसी औपचारिक पद की आवष्यकता नहीं है। कांग्रेस के रवैया में कोई परिवर्तन नहीं आया है इसलिए अधिक सावधान रहने की आवष्यकता है। पूर्व साहित्य समीक्षा एवं पूर्व षोध समीक्षा के आलोक में मैने यह प्रयास
किया है कि पूर्व के अनुभवों और अनुसंधानों की ठोस पष्ष्ठभूमि पर तथ्य और सत्य जुटाकर 25 जून 1975 के आपातकाल और उसके बाद से होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों तक सीमित न रहे बल्कि भावी भारत में लोकतंत्रात्मक, संसदनात्मक षासन व्यवस्था को सुदष्ढ़ करने, सामाजिक विकास की भागीदारी की दिषा भी तय करें, प्रत्येक षोध का अपना एक प्रयास होता है और बौकि जगत में पहचान के लिए संबल बने, उन्हें दिषा-निर्देष दे व प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण व आपातकाल से होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों को उजागर किया जा सके। प्रस्तुत षोध अध्ययन म आपातकाल स ेउत्पन्न राजनीतिक परिवतर्न सैन्तिक, व्यवहारिक, प्िरयात्मक आदि विभिन्न पक्षों को समुचित रूप से उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है।
7- षोध का उद्देष्य:-
प्रस्तुत षोध ‘भारत में आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों
की विवेचना ३1975 - 2012७’ अपनी प्रकष्ति में विष्लेषणात्मक एवं उद्देष्य परक अध्ययन है। इस षोध अध्ययन का मुख्य उद्देष्य यह जानना है कि सन 1975 मंे आपातकाल क्यों लगाया गया? और उसके बाद राजनीति में क्या परिवर्तन आये ? राष्टश्ीय स्तर पर आपातकाल लागू करने की क्या परिस्थितियाँ थीं ? आपातकाल के दौरान संघीय षासन व्यवस्था को सुदष्ढ़ करने, स्वच्छ एवं संकल्पनात्मक सुषासन किस प्रकार प्रभावी सि हुए हंै। आपातकाल की पुनरावष्ति को रोकने में इनका क्या योगदान रहा? आपातकाल के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों के अस्तित्व, संगठन एवं महत्व के लिए राजनीतिक दलों के सामने एक चुनौती थी और राजनीतिक दलों के लिए इन प्रष्नों से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने में राजनीतिक दलों में क्या बदलाव परिलक्षित होता है। आपातकाल में देष का राजनैतिक परिदष्ष्य क्या हो जाता है ? क्या आपातकाल का प्रयोग तात्कालीन कांग्रेस सरकार के समक्ष एक मात्र विकल्प था ? इसे टाला जा सकता था ? आपातकाल के बाद आम चुनाव हुए, जनता पार्टी की सरकार स ाा में आयी कुछ महीनों के बाद जनता पार्टी की सरकार ने बहुमत खो दिया व जनता पार्टी का विभाजन हो गया। जनता पार्टी न ेबहमु त क्या ंेखा ेदिया? भाजपा का निमाणर्् ा किन परिस्थितियांे में हुआ व कांग्रेस की कांग्रेस ३आई७ हो गयी। यह क्यों हुआ बाद में जनता दल, कांग्रेस तिवारी, राष्टश्वादी कांग्रेस, यूनाइटेड और राष्टश्ीय धु्रवीरकण के रूप में एन.डीए. ३नेषनल डमो ेकटव अलाइन्स७ और यूपीए ३यूनाइटेड प्रोग्रेषिव अलाइन्स७ बने ? इनके अलावा और भी पार्टियाँ बनीं और बिगड़ी उन सभी का इस षोध प्रबन्ध में विचारधारा और कार्य म के आलोक में षोध करने का प्रयास किया गया है।
8- षोध प्रविधि:-
षोध की पति विष्लेषणात्मक एवं विवेचनात्मक है साथ ही आपातकाल के नायकों ३उपलब्ध७ का साक्षात्कार लिया गया है। आपातकाल के दौरान 20 सूत्री कार्य मों की प्रष्नावली बनवाकर आम जनता की उस पर राय/ प्रति िया जानी गयी है। तत्पष्चात् विवेचना एवं विष्लेषण का प्रयास किया गया है। इस षोध कार्य को पूर्ण करने के लिए प्राथमिक आँकड़े और द्वितीय आँकड़े एकत्रित किये गये हैं। निम्नलिखित बिन्दुओं की सहायता से द्वितीय आँकड़े एकत्रित किये गये हैं।ः-
1. आपातकाल से सम्बन्धित विभिन्न साहित्य।
2. आपातकाल से सम्बन्धित विभिन्न षोधकार्य।
3. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाषित होने वाले आपातकाल से सम्बन्धित लेख।प्रस्तावित षोध में पुस्तकालय विधि के साथ-साथ साक्षात्कार विधि को अपनाया गया है। जिसमें प्रष्नावली के माध्यम से तथ्यों को संग्रहण किया गया है। आँकड़े इकट्ठा करना, मूल्यांकन एवं परिवेक्षण को भी अपनाया गया है। इस अध्ययन का केन्द्र बिन्दु 1975 का आपातकाल है। इस आपातकाल के विषेष संदर्भ में भारत की राजनीति में आपातकाल से होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया गया ह।ै
३ब७ भारत में 1975 के आपातकाल की राजनीतिक परिस्थियाँ और निर्णय का अध्ययन:-
1975 में आपातकाल लगाया गया यह तात्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा लगाया गया था। जो कि गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों को दबाने के लिए भारत में पहली बार आन्तरिक स्थिति के आधार पर 25 जून 1975 में आपातकाल का प्रयोग किया गया, हालांकि कांग्रेस तथा विरोधी दलों के मध्य टकराव की स्थिति 1967 से आरम्भ हो गई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर 1967 तक केन् तथा सभी राज्यों में कांग्रेस सरकारों का प्रभुत्व था, लेकिन 1967 के चुनाव में पहली बार आठ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों की स्थापना से विवाद उत्पन्न हो गया।
३1७ कांग्रेस तथा विरोधी दलों के मध्य टकराव:-
संविधान लागू होने से चतुर्थ आम चुनाव तक भारत में केन्द्र और
राज्य सरकारों के मध्य संबंध सहयोग एवं सदभावना पर आधारित थे। जिसका सबसे बडा कारण यह था कि केन्द्र तथा लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस दल का प्रभुत्व था, लेकिन 1967 के पूर्व कुछ मामलों में विरोध उत्पन्न हुआ था लेकिन यह विरोध अन्तर्दलीय था और उन्हें पारिवारिक झगडों से ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता है। ऐसे अवसरों पर दल के हाई कमान या प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप द्वारा इन झगडों का निपटारा होता रहा।
सी.एस. पंडित ने कहा कि ‘‘ गत चैबीस वर्षों में जब व्यावहारिक रूप से लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस दल के हाथों में सत्ता रही’ केन्द्र सरकार ने एक पितष्स ाा के रूप में विकसित होकर अधीनस्थ इकाईयों को अपने दल के मुख्यमंत्रियों के माध्यम से नियंत्रित किया। इस बीच जो टकराव उत्पन्न हुए उनकों दल के अन्दर ही हल कर लिया गया।’’25
1967 के आम चुनाव के पष्चात् भारत में कांग्रेस दल के प्रभुत्व का अन्त हो गया और आठ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों की स्थापना हुई। इस राजनीतिक परिवर्तन के कारण राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों तथा केन्द्रीय सरकार के बीच टकराव आरम्भ हो गया। जिसका एक कारण कांग्रेस दल के विरू राज्यों में विरोधी दलों में पायी जाने वाली द्वेष भावना भी थी। इसलिए लगभग सभी गैर-कांग्रेसी सरकारों वाले राज्यों की ओर से केन्द्र के ब26
मुख्यमंत्री करूणानिधि ने यही नारा दिया- ‘‘भारत’’ भारत वालों के लिए और तमिलनाडू , तमिल लोगों के लिए’’27
३2७ 1967 के बाद कांग्रेस तथा विरोधी दलों के मध्य टकराव-
३प७ संस्थागत कारणः-
भारतीय संविधान का वास्तविक स्वरूप 1967 के पष्चात् सामने आता है। जब देष के कुछ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों की स्थापना हुई। इन सरकारों द्वारा संविधान के विभिन्न उपबंधों के आधार पर केन्द्र सरकार से अधिक अधिकारों की मांग की गयी। विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं और राजनीतिक पदों के लिए तथा षक्तियों के विषय में प्रष्न उठाये गये जो कि 1967 से पहले कभी सामने नहीं आये थे। स ाा में गम्भीर विवाद राज्यपाल की षक्तियों तथा स्थिति के संबंध में उठाया गया। विरोधी दलों ने यह आरोप लगाया कि केन्द्र सरकार राज्यपाल से गैर-कांग्रेसी सरकारों को अपदस्थ कराने का कार्य लेती रही है। राज्यपाल के संबन्ध में पहले राजस्थान का विवाद उत्पन्न हुआ। जिसका कारण 1967 के आम चुनाव में राजस्थान विधान सभा में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका और विभिन्न विरोधी दलों ने एक संयुक्त मोर्चे के रूप में संगठित होकर राज्यपाल से उन्हें सरकार बनाने को अवसर देने की मांग की गयी जिसे राजस्थान के तात्कालिक राज्यपाल सम्पूर्णानन्द ने अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कांग्रेस दल के नेता मोहनलाल सुखाडिया को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। राज्यपाल की ओर से यह तर्क दिया कि विधानसभा में कांग्रेस सबसे बडा राजनीतिक दल था। इसलिए सरकार बनाने का अवसर पहले उसे दिया जाना चाहिए। राज्यपाल का यह निर्णय अन्यायपूर्ण था। विपक्षी दलों के सदस्यों ने राष्टश्पति के समक्ष उपस्थित होकर यह सि कर दिया कि उनका यह संयुक्त संगठन वास्तव में बहुमत में था और राज्यपाल ने उसे सरकार बनाने का अवसर न देकर राजनीतिक पक्षपात का परिचय दिया है। राज्यपाल पर दलीय हितों को ब28
उत्तर प्रदेष तथा पंजाब में भी विधान सभा में बहुमत निर्धारण के संबंध में राज्यपाल द्वारा अपनाए जाने वाले तरीकों पर आवाज उठाई गई जिन राज्यों में विधान सभा का विघटन किया गया, उनमें विरोधी दलों ने राज्यपाल के विरू यह आरोप लगाया कि उन्होंने गैर-कांग्रेसी दलों को सरकार बनाने के लिए आंमत्रित किए बिना विधान सभा को भंग कराने की सूचना केन्द्र सरकार को भेजी। विभिन्न राज्यों में राज्यपालों ने एक ही प्रकरण की परिस्थितियों में भिन्न-2 तरीकों को अपनाया और अनुच्छेद 356 का प्रयोग बडी उदारता के साथ किया गया। 19 अगस्त 1969 को तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करूणनिधि ने विधानसभा में तीन सदस्यों की एक समिति के गठन की घोषणा की। इस समिति के सभापति डा.पी.बी. राजमन्नार तथा सदस्य डा.ए.एल मुदालियर तथा टी.पी.चन्द्र रेड्डी थे। इस समिति के निर्माण का मुख्य उद्देष्य संविधान में ऐसे संषोधन करने का सुझाव देना था जिसमें राज्य को समुचित स्वायत्तता देने के लिए आवष्यक हो। इस समिति ने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए, जिन पर केन्द्र सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया।29
३पप७ कार्यात्मक कारण:- केन्द्र तथा राज्यों के बीच विरोध का दूसरा विषय व्यवस्था का प्रष्न था।19 सितम्बर 1968 को पूरे देष में केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों ने हडताल कर दी जिसमें कुछ स्थानों पर गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गयी। हडताल के दौरान राष्टश्पति ने एक अध्यादेष जारी किया -
‘‘एसेंषियल सर्विस मेंटेनेस आॅडिनेंस’’
इस अध्यादेष का उद्देष्य सरकारी कर्मचारियों की हडताल को अवैधानिक घोषित करना था लेकिन केरल सरकार ने इस अध्यादेष के उपबंधों को मानने से इंकार कर दिया। और उसने यह कहा कि उसका उत्तरदायित्व इतना ही है कि केन्द्रीय कार्यालयों की रक्षा करें और यह देखें कि इन कार्यालयों में प्रवेष में कोई बाधा तो नहीं है। केन्द्र सरकार ने यह भी कहा कि हडताल के लिऐ उकसाने वाले व्यक्तियों को दंडित करें लेकिन केरल सरकार ने यह तर्क दिया कि केन्द्रीय कर्मचारियों के सेवा संबंधी मामलों में प्रवेष करना राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार से बाहर है।30
1968 में गष्हमंत्री बाई.बी. चाव्हण ने केरल सरकार की पूर्व अनुमति के बिना सी.आर.पी.एफ की एक बटालियन केरल में स्थित केन्द्र सरकार के कार्यालयों की रक्षा करने के लिए भिजवा दी मुख्यमंत्री नंबूदरीपाद ने केन्द्र सरकार को इस कार्यवाही के विरू रोष प्रकट किया और 18 दिसम्बर 1968 को वहाँ के मंत्रिमण्डल ने न्यायालय की अनुमति से केन्द्रीय कर्मचारियों के विरू सारे मुकदमा वापस ले लिये। केन्द्र सरकार ने इस निर्णय का रोष प्रकट करते हुए राज्य सरकार को चेतावनी दी उसका कार्य अवैधानिक है। केन्द्र सरकार ने यह तर्क दिया कि संविधान में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है कि किसी राज्य में सषस्त्र पुलिस को भेजने के लिए संबन्धित राज्य की अनुमति ली जाए। परिस्थितियों कीे आवष्यकतानुसार केन्द्र सरकार के स्वविवेक पर निर्भर करता है। कब किस स्थान पर सी.आर.पी.एफ. भेजे31
पंष्चिम बंगाल में जब दुर्गापुर तथा काषीपुर में फैली हुई अषान्ति तथा अव्यवस्था पर नियंत्रण पाने के लिए केन्द्र सरकार ने सी.आर.पी.एफ भेजी तो बंगाल सरकार ने इसका विरोध किया और यह मांग की केन्द्र सरकार सीआर.पी.एफ को तुरन्त वापिस बुला ले और काषीपुर गन तथा षैल फैक्टश्ी में हुए गोलीकाण्ड की जाँच कराने का आष्वासन केन्द्र सरकार ने दिया तो वहाँ की सरकार ने केन्द्र सरकार द्वारा की जाने वाली जाँच में सहयोग देने से इंकार कर दिया।32
बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा ने केन्द्र की लापरवाही से तंग आकर एक बार केन् सरकार से यह अपील की इस राज्य में अकाल की स्थिति का सामना करने के लिए उनकी मदद करें।33
उत्तर प्रदेष के भूतपूर्व मुख्यमंत्री सी चन्द्रभानू गुप्ता और श्रीमती सुचेता कष्पलानी ने भी यह षिकायत की कि केन्द्र सरकार उनके प्रदेष में ब34
३3७ आर्थिक कारणः- केन्द्र 1967 के बाद केन्द्र और राज्य सरकारों में विवाद का कारण आर्थिक दषा का खराब होना भी था केन्द्र सरकार द्वारा गैर-कांग्रेसी सरकार को समुचित सहायता न दिया जाना भी था। केरल सरकार ने यह षिकायत की केन्द्र सरकार उसे समुचित मात्रा में धन नहीं दे रही है। और कहा कि यदि केन्द्र सरकार अपने वायदों को पूरा नहीं करेगी तो वह चीन से धन का प्रबंध करेगी। कर्नाटक के भूतपूर्व मुख्यमंत्री वीरेन्द्र पाटिल ने एक बार यह षिकायत की कि केन्द्र सरकार, गैर-कांग्रेसी सरकारों के सभी मुख्यमंत्रियों के साथ असमानता का व्यवहार करती है। और अपनी नीतियों आदि से उन्हें पूर्णतया से अवगत नहीं कराती उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि केन्द्र सरकार के मंत्री जब उस राज्य में आते हैं तो विधानसभा के सदस्यों को दल-बदल कर कांग्रेस में षामिल हो जाने का प्रोत्साहन देते हैं।35
३3७इन्दिरा गाँधी का 1971 का चुनाव एवं बदलती इुई परिस्थितियाँः-
1971 से 1977 तक का काल एकात्मक संघवाद का युग कहा जाता
है। 1971 के चुनाव में इन्दिरा गाँधी के नेतष्त्व में पूरे देष में कांग्रेस पार्टी का राजनैतिक एकाधिकार स्थापित हो गया। इन्दिरा गाँधी ने चुनाव में न केवल विपक्षी दलों को पराजित किया वरन् कांग्रेस के अन्दर से उभरती हुई नई पार्टी ३कांग्रेस संगठन७ को भी बुरी तरह हराया। इन्दिरा गाँधी एक सषक्त नेता के रूप में उभरी जिनका पार्टी संगठन और सरकार दोनों पर वर्चस्व स्थापित हो गया। उन्होंने देष की राजनीतिक, और आर्थिक व्यवस्था में अमूल परिवर्तन करना चाहा जिसके लिए 42 वें संविधान संषोधन के रूप में एक लघु-संविधान बनाया गया। न्यायपालिका की षक्तियों में कटौती की गई। राज्य सरकारों का इच्छानुसार गठन और पुर्नगठन किया गया और पूरी ‘संसदीय व्यवस्था’ व्यवहार में ‘प्रधानमंत्रीय व्यवस्था’’ में परिवर्तित हो गई। अपने विरोधियों को दबाने के लिए इन्दिरा गाँधी ने देष में आपातकाल की उदघोषणा करा दी। इस राजनैतिक वातावरण में डरे और सहमें हुए राज्य केन्द्र से कोई टकराव लेने की स्थिति में नहीं रहे। संघीय षासन व्यवस्था एकात्मक सरकार में परिवर्तित हो गई।36
1971 के चुनाव में कांग्रेस को मिलने वाली भारी सफलता ने इन्दिरा गाँधी कोअत्यधिक प्रभावपूर्ण स्थिति मे पहुँचा दिया था। इन परिस्थितियों में नये राष्टश्पति का निर्वाचन पूर्ण रूप से इन्दिरा गाँधी की इच्छा पर निर्भर करता था। और उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के एक सदस्य फखरूद्दीन अली अहमद को भारी बहुमत से निर्वाचित कराया लेकिन अपना कार्यकाल पूर्ण करने से पहले ही फरवरी 1977 में फखरूद्दीन अली अहमद की आकस्मिक मष्त्यु हो गयी। फखरूद्दीन अली अहमद, इन्दिरा गाँधी के अत्यधिक विष्वास पात्र थे। अतः उन्होंने सदैव इन्दिरा गाँधी की इच्छानुसार कार्य किया। 1975 में की गई राष्टश्ीय आपातकाल की उद्घोषणा के पक्ष में नहीं थे किन्तु इन्दिरा गाँधी की इच्छा का अनादर न कर सक।े
मुख्यमंत्रियों की नियुक्तिः-
1972 में राज्य विधानसभा के चुनाव के पष्चात् कुछ राज्यों में कांग्रेसविधायक दल ने स्वयं अपना नेता चुनने के बजाय एक प्रस्ताव के द्वारा प्रधानमंत्री को यह अधिकार दे दिया कि वह चाहे जिसे दल का नेता मनोनीत कर दे।
1972 के चुनाव के पष्चात बिहार और गुजरात विधानसभाओं ने और 1973 में आन्ध्रप्रदेष विधानसभा के सदस्यों ने इस प्रकार का प्रस्ताव पारित करके प्रधानमंत्री को दल का नेता चुनने का अधिकार दिया था। 1971 के बाद राज्यों में बनने वाली कांग्रेसी सरकारों के लिए मुख्यमंत्री की नियुक्ति और विमुक्ति प्रधानमंत्री की इच्छानुसार होती रही इस प्रकार प्रधानमंत्री का नियंत्रण राज्य सरकारों पर बहुत बढ गया। 1971 के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल इन्दिरा गाँधी की इच्छा का विषय बन गया। प्रधानमंत्री के प्रभाव के कारण मंत्रिमण्डल के सदस्यों के लिए उनकी इच्छाओं का अनादर करना आसान बात नहीं थी। 1971 के चुनाव के बाद से सत्ता के केन्द्रीयकरण और अधिनायकबाद की जो प्रवष्तियाँ विकसित हो रही थीं 1975 में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। 1971 में 25 वें संविधान संषोधन द्वारा अनु0 31३2७ में ‘‘ मुआवजा’’ षब्द हटाकर ‘‘ राषि’’ षब्द जोड़ दिया गया इसी प्रकार 25 वें संषोधन द्वार भूमि सीमाकरण के लिए राज्य भूमि अधिकष्त कर सकता है। तथा उसका मुआवजा व्यवस्थापिका निष्चित कर सकती है। न्यायालय को मुआवजा की धनराषि पर विचार करने का अधिकार नहीं होगा।37
1971 के चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि इन्दिरा गाँधी प्रधानमंत्री पद पर अधिकार रखती है। निसन्देह षक्ति के विस्तार के लिए इन्दिरा गाँधी की राजनीतिक चतुराई ही काफी नहीं थी। इसमें अनेक तत्वों ने भी योगदान दिया। जिस समय इन्दिरा गाँधी ने अपनी षक्ति और स्थिति संगठित कर रही थी। वे भारतीय राष्टश् के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्ष थे। देष की अर्थव्यवस्था मंे गंभीर परिवर्तन हो रहे थे। कष्षि में आवष्यकता से अधिक उत्पादन के आरंभिक वर्ष और औद्योगिक क्षेत्र में सम्मान वष् िके वर्ष समाप्त हो चुके थे। भारत की आर्थिक व्यवस्था तथा मिश्रित अर्थिक विकास की प्र िया से अनेक प्रकार के विरोधावास उत्पन्न हो रहे थे। जनसाधारण की आकांक्षाअंों में अपार वष् िपरन्तु उनकी पूर्ति के लिए स्रोतों की कमी। औद्योगिक क्षेत्र में तीव्र गति से विकास परन्तु कष्षि क्षेत्र में सीमित उत्पादन दर, अधिकारों तथा विषेषाधिकारों की जानकारी के संबंध में राजनीतिक आधार पर जानकारी में वष् िपरन्तु राजनीतिक चेतना का स्तर पिछडा हुआ और साम्प्रदायिकता तथा क्षेत्रीयता पर आधारित इन ब
अतः ज्यादातर स्थिति गंभीर तथा अस्थिरता पूर्ण थी। इस संकट की परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए उच्चस्तरीय राजनीतिक निपुणता चाहिए थी। और राजनीतिक दल तथा व्यक्ति इस संकट के नीचे दबे हुए थे। निपुण व्यक्ति के लिए न केवल अपने अस्तित्व को बनाए रखना असंभव था लेकिन एक नेता के रूप में स्थापित होने के लिए भी परिस्थितियां अनुकूल थी। व्यवस्था की मांग की जा रही थी। और बुर्जुआ वर्ग की आवष्यकता थी और एक ऐसे नेता की जो अपने वायदों के प्रति निपुणता से जनसाधारण का विष्वास पा सके और दक्षिणपंथियों तथा वामपंथी उग्रवादियों से उत्पन्न चुनौती को समाप्त कर सके।
अतः षासक वर्ग और षासक दल के लिए स्थिरता बनाए रखने तथा सामाजिक तनावों को फिर से उभरने से रोकने की आवष्यकता थी। अस्थिरता और तनावों से उत्पन्न की प्र िया में गिरावट आ रही थी। चालू राजनीति बिगडती हुई अर्थव्यवस्था का मुकाबला करने में असमर्थ सि हो रही थी। मीसा के अधीन गिरफ्तारियाँ तथा अन्य कठोर कदम भी विरोध तथा आन्दोलनों को कुचलने में विफल हो रहे थे। षासक वर्ग कानून एवं व्यवस्था स्थापित करने तथा स्थिरता कायम रखने के लिए आतुर हो रहा था। दिनोंदिन असंतोष बढ रहा था। और विभिन्न अंगों की वैधता में कमीं आ रही थी। इन्दिरा गाँधी जैसी नेता स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रही थी। लगातार बिगड़ती हुई परिस्थितियों पर दुर्बल
एवं कठोर कार्यवाही की आवष्यकता थी।38
लगभग 1970 के बाद से स्थिति और गंभीर हो गयी। मुद्रास्फीति की दर आकाष छूने लगी, उत्पादन कम हो गया, अकाल, बेकारी तथा गरीबी में वष्,ि इसी कारण सख्त कदम उठाने की मांग की जाने लगी। परस्पर द्वंदों, सांम्प्रदायिक संघर्षों तथा संकुचित संसदीय लाभों की स्थिति में फँसे राजनीतिक दल इस राष्टश्ीय चुनौती का सामने करने के योग्य नहीं थे इसमें षासक दल का भीतरी व आपसी संकट और बढ गया तथा विरोधी दलों की साख कम हो गयी। अल्पकाल के लिए षासन में विराधी दलों के प्रयोग के बाद लोगों का अधिकतर विराधी दलों में इस बारें में विष्वास उठ गया कि वे कांग्रेस का विकल्प बन सकते थे।
जय प्रकाष नारायण ने ‘सम्पूर्ण ांति का नारा दिया और कर न देने, जिला अधिकारियों का घेराव करने विद्यार्थियों से एक वर्ष के लिए स्कूल काॅलेजों को छोडकर इस आन्दोलन में भाग लेने की अपील की। उन्होंने सेना से भी यह अपील की वह सरकार के ऐसे आदेषों का पालन न करे जो अनुचित तथा अवैधानिक हो। 14 अक्टूबर 1974 को जयप्रकाष नारायण ने यह घोषणा की कि जल्द ही प्रषासकीय स्तरों पर समानान्तर सरकारों की स्थापना की जायेगी 14 नवम्बर को जय प्रकाष नारायण ने पटना में एक रैली का नेतष्त्व किया जिस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया और जय प्रकाष नारायण को भी चोटें आईं। भ्रष्टाचार के लिए आरोप लगाए गए इन आन्दोलनों ने ांति का रूप धारण कर लिया और बिहार में लूटमार और उपद्रव का वातावरण उत्पन्न हो गया। इन्दिरा सरकार की ओर से आन्दोलन की घोर आलोचना की गई। यह प्रचार किया गया कि इस आन्दोलनो के पीछे फासिस्टवादी षक्तियाँ हैं जो जनतंत्र का अन्त कर देना चाहती हैं।39
३4७ प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी पर भ्रष्टाचार का आरोपः-
मार्च 1971 में इन्दिरा गाँधी अपने प्रतिद्वन्दी राजनारायण ३उस समय समाजवादी नेता और बाद में राष्टश्ीय जनता पार्टी के नेता७ को एक लाख से भी अधिक मतों से पराजित करके रायबरेली ३उ ारप्रदेष७ लोकसभा के लिए विजयी घोषित की गई थी। राजनारायण ने 24 अप्रेल 1971 में याचिका दायर की जिसमें उन्होंने इन्दिरा गाँधी पर निम्नलिखित आरोप लगाएः-
1. इन्दिरा गाँधी ने चुनाव से पूर्व मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए उन्हेंकम्बल, धोतियां आदि बांटी।
2. चुनाव पर लगभग 15 लाख रूपये खर्च किए जबकि चुनाव खर्च 75 हजाररूपये से अधिक नहीं होनी चाहिए।
3. स्थल सेना और वायुसेना के विमानों और हैलीकाॅप्टरों का चुनाव अभियान केदौरान प्रयोग किया गया।
4. मतदाताओं को मतदान केन्द्रों पर लाने के लिए सरकारी वाहनों का प्रयोगकिया गया।
5. सरकारी कर्मचारियों को चुनाव अभियानों में षामिल किया गया।
6. धार्मिक चित्र गाय और बछडों को पार्टी चिन्ह बनाया गया।
चुनाव कार्यों के लिए सरकारी अधिकारियों की सेवाओं के दुरूपयोग के संबंध में मुख्य आरोप यह लगाया था कि इन्दिरा गाँधी ने यषपाल कपूर की सेवाऐं ली जबकि वे केन्द्रीय सरकार के एक कर्मचारी थे और वे प्रधानमंत्री के सचिवालय में विषेष ड्यूटी पर नियुक्ति अधिकारी के रूप में कार्य करते थे। ३5७ मीसा तथा क्ण्प्ण्त् का दुरूपयोगः- निवारक नजरबंदी अधिनियम के साथ-साथ 1971 में बांग्लादेष के प्रष्न पर पाकिस्तान यु के समय आंतरिक सुरक्षा अधिनियम ३मीसा७ तथा भारतीय सुरक्षा अधिनियम ;क्ण्प्ण्त् भी लागू किए गए। निवारक नजरबंदी अधिनियम के अन्तर्गत तो यह व्यवस्था थी कि प्रत्येक मामलो का एक स्वतंत्र पुनरीक्षण नामिका द्वारा निरीक्षण किया जाएगा, मीसा तथा क्ण्प्ण्त् मे गलत अथवा व्यक्तिगत आधार पर प्रेरित गिरफ्तारियों के विरू कुछ उपायों की व्यवस्था थी। इसके बाबजूद इनका प्रयोग राजनीतिक विरोधियों के विरू किया गया।
३6७ भारत-पाक यु से उत्पन्न समस्याः- भारत-पाक यु 1971-72 लगातार सूखा और सबसे अधिक पैटशल की कीमतों मे वष् िहो रही थी इन मु ों के कारण समाज में व्यापक असंतोष और निराषा की स्थिति उत्पन्न हो रही थी विषेष रूप से उन वर्गो में जो ब40
भारत-पाक यु ने भारत की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुचाई, तदुपरांत तेल-उत्पादक देषो के द्वारा तेल की कीमतों में वष्,ि अकाल,आवष्यक वस्तुओं की कमी ने सामान्य स्थिति को गंभीर बना दिया था धीरे-घीरे देष में टकराव की राजनीति का जन्म हुआ एक ओर स ाादल था जिससे लोग अप्रसन्न थे जिसने 1971 के चुनाव में जिस आष्वासनो को पूरा नही किया था। तो दूसरी ओर विरोधी दल थे, जो कांग्रेस की असफलता का पूरा फायदा उठाना चाहते थे। उन्होनें कांग्रेस की इस निष् ियता को विष्वासघात की संज्ञा दी। औद्योगिक विकास में वष्,ि रोजगार और आय ग्रामीण क्षेत्रो मे वस्तुओं की मांग की ब41
३7७ तात्कालिक कांग्रेस सरकार द्वारा संविधान में संषोधन ३1971-75७42
३1७ 24 वां संषोधन ३1971७ः- यह संषोधन नागरिको के मूल अधिकारो से सम्बधित था। गोलकनाथ विवाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा संसद की मौलिक अधिकारों से संबधित संविधान संषोधन की षक्ति को सीमित कर दिया था। 24वें संविधान संषोधन में संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह संविधान के मौलिक अधिकारों सहित किसी भी भाग को संषोधित कर सकती है।
३2७ 25 वां संषोधन ३1971७:-संविधान में नया अनुच्छेद 31 ३स७ जोड़ा गया जिसके अनुसार नीति निदेषक तत्वों को अमल में लाने के लिए जो कानून बनाये जायंेगे। उन्हे इस आधार पर अवैध घोषित नही किया जा सकता कि वें मौलिक अधिकारों के विरू हैं, 24वें व 25वें संविधान संषोधन के कुछ अंषों को आगामी समय तक अवैध घोषित कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई संिवधान संषोधन नहीं किया जाना चाहिए जिससे संविधान का बुनियादी
३3७ 26वां संषोधन ३1971७ः- इस संषोधन द्वारा देषी रियासतों के षासको की मान्यता को समाप्त कर दिया गया तथा उनका प्रीवियर्स समाप्त कर दिया गया।
३4७ 27वां संषोधन ३1971७ः- दो नये संघ राज्य क्षेत्र मिजोरम व अरूणाचंल प्रदेष 1971 मे बनाये गये।
३5७ 28वां संषोधन ३1972७ः- इस संषोधन द्वारा भूतपूर्व भारतीय सिविल सेवा ३प्ण्ब्ण्ै७ के अधिकारिया की सेवा षर्ते व विषेषाधिकारांे को समाप्त कर दिया गया।
३6७ 29वां संषोधन ३1972७ः- केरल के भूमि-सुधारो से संबधित दो अधिनियमों को नवीं अनुसूची में 1972 में जोडा गया।
३7७ 30वां संषोधन ३1972७ः- उच्चतम न्यायालयों मे दीवानी की अपील के लिए बीस हजार रूपये की धनराषि की सीमा हटा दी गई।
३8७ 31वां संषोधन ३1974७ लोकसभा के सदस्यो की संख्या 525 से ब
545 कर दी गई।
३9७ 32वां संषोधन ३1974७ः- आन्ध प्रदेष व तेलांगना के बीच विवाद को दूर करने के लिए छः सूत्रीय कार्य म को वास्तविकता प्रदान करने के लिए यह संषोधन किया गया।
३10७ 33वां संषोधन ३1974७ः- लोकसभा अध्यक्ष या विधानसभा अध्यक्ष द्वारा किसी सदस्य का इस्तिफा तब तक स्वीकार नहीं किया जायेगा जब तक उसे यह विष्वास न हो जाये कि इस्तीफा सदस्य द्वारा अपनी इच्छा से, न कि किसी के दबाब के कारण दिया गया है।
३11७ 34वां संषोधन ३1975७ः- भूमि सुधार सम्बन्धी बीस अधिनियमों को अनुसूची मे जोड़ा गया।
३12७ 35वां संषोधन ३1975७ः- संविधान मे दसवी अनुसूची जोडी गयी तथा सिक्किम को सह-संयुक्त राज्य का दर्जा दिया गया।
३13७ 36वां संषोधन ३1975७ः- इस संषोधन द्वारा सिक्किम को पूर्णराज्य का दर्जा प्रदान किया गया
1969-74 के बीच मूल्य सूचकांक में 38 प्रतिषत की वष् िहो
गयी थी। जबकि सभी सरकारी कर्मचारी के विभिन्न वर्गो की आय में इतनी ब
भारतीय अर्थव्यवस्था गंम्भीर संकट की स्थिति में थी। इसके
कारण समाज में व्यापक आन्दोलन फैल रहा था जो कि सरकार के विरू अनेक प्रकार के आन्दोलनों द्वारा प्रकट किया जा रहा था। वेतन भोगी श्रमिक और सरकारी कर्मचारी, सरकार द्वारा वेतन स्थरीकरण, जीवन-निर्वाह सूचक अंकांे को निलम्बित करने तथा मंहगाई-भत्ते इत्यादि को जबरन जमा करने इत्यादि आदेषांे का कडा विरोध कर रहे थे। अनेक आन्दोलन और विरोध आयोजित किए गए। इन आदोलनों में प्रमुख 1974 की रेलवे हडताल और जय प्रकाष नारायण का आंदोलन था।
संस्थाओं के स्तर पर नेतष्त्व, दल और केन्द्र में विभिन्न वर्गों की समस्याए, विभिन्न स्तरो पर सत्ता के केन्द्रीयकरण से और भी अधिक प्रबल हो रही थी। षक्ति का यह केन्द्रीयकरण कांग्रेस व्यवस्था की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की उस आरंभिक राजनीति से प्रस्थान की ओर बडा कदम था।43
कांग्रेस राजनीति में ब
तथा विभिन्न गुटो और दलो के अंदर दबाब समूहों के प्रति केन्द्रीय नेतष्त्व के व्यवहार से स्पष्ट थी। परन्तु सत्ता का यह केन्द्रीयकरण पारस्परिक संघर्ष को भी बढ़ा रहा था क्योंकि राजनीतिक केन्द्रीयकरण ने उनके महत्वपूर्ण संगठनों की षक्ति और सत्ता के रास्ते पर रूकावट लगा दी। इन विभिन्न संगठनो ने अब अपनी राजनीतिक रूकावट को जनसंघ, समाजवासदी पार्टी तथा कांग्रेस ३एस७ के माध्यम से गुजरात और बिहार आन्दोलन द्वारा प्रकट करना आंरभ कर दिया था। ३8७ विरोधी दलांे के आन्दोलन एवं उनके प्रभावः- 1974 के गुजरात आन्दोलन और 1974-75 के बिहार आन्दोलन ने कांग्रेस के स्थानीय नैतिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की ओर पिछडेपन के अतिरिक्त अत्यधिक-मूल्य-वष् िऔर आवष्यक वस्तुओं की कमी के लिए भी कांग्रेस के खराब षासन को जिम्मेदार ठहराया था जबकि लोगो को सामाजिक न्याय और जीवन स्तर को सुधारने की आषाएं ब44
धीरे-धीरे सरकार की क्षमता और राजनीतिक दलों पर से
लोगो का विष्वास उठ रहा था। बिहार-आन्दोलन के नेताओं ने आव्हान किया कि यह गंभीर स्थिति केवल कांग्रेस सरकार को समाप्त करके ही सुधारी जा सकती हैं इसलिए आन्दोलन की पहली और प्रमुख मांग कांग्रेस सरकार का त्यागपत्र थी जिसे भ्रष्टदलीय राजनीति का रूप माना जा रहा था। गुजरात और बिहार दोनांे ही आंदोलनो में मुख्य रूप से धनी किसान और मध्यम वर्ग के लोग सं िय थे। वास्तव में गुजरात मे धनी किसानों ने इस आन्दोलन का उपयोग भूमि की अधिकतम सीमा और धन की उगायी समाप्त करने के लिए किया।45
विद्यार्थी और मूंगफली के तेल के उद्योग में लगे व्यापारी और
दुकानदार सबने मिलकर राज्य सरकार के विरू व्यापक संघर्ष छेडा। इन्होने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में विद्यमान भ्रष्टाचार का भंडाफोड किया और आवष्यक वस्तुआंे की कमी तथा मूल्यवष् िके लिए कांग्रेस नेतष्त्व को जिम्मेदार ठहराया। जयप्रकाष नारायण ने इस आंदोलन का और अधिक विस्तार किया। उनके इस नेतष्त्व को जनता की स्वीकष्ति मिली और इसके विकास के साथ उनके संबंधो ने इसके महत्व को देष के अन्य भागो में पहुँचाकर इसे राष्टश्ीय स्तर का आंदोलन बना दिया। 1974 में बडे भाग मे जयप्रकाष आंदोलन ने विधानसभा भंग करने की मांग को लेकर लोकप्रिय प्रदर्षनों के द्वारा राज्य सरकार की कार्यक्षमता को ठप्प रखा। विभिन्न प्रदर्षनों तथा बैठकों में राज्य के भ्रष्ट विधायकों के त्यागपत्र की मांग की जाती थी। केन्द्रीय सरकार को भी सम्मिलित कर इसे राष्टश्ीय रूप देने का प्रयत्न किया गया। जयप्रकाष ने आंदोलन के आधार को व्यापक बनाने के लिए जनसंघ, समाजवादी पार्टी, भारतीय लोकतंत्र, कांग्रेस ३एस७ तथा विभिन्न गाँधीवादी संगठनो में सहयोग देने का आव्हान दिया। विभिन्न दलों, संगठनों को सहमति के आधार पर जयप्रकाष एक सामाजिक और अर्थिक कार्य म निर्धारित करने ने सफल हुए। जय प्रकाष की आर्थिक सफलता उनके व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जीवन में उनकी ईमानदारी के आधार पर प्राप्त हुई।46
जय प्रकाष नारायण समस्त आंदोलन का केन्द्र और विभिन्न
विचारधाराओं, परस्पर विरोधी दलों तथा संगठनों मे एकता के प्रतीक थे। बिहार आन्दोलन के साथ जयप्रकाष के संबध और उनकी स िय भूमिका ने विरोधी दलों को राजनीतिक दष्ष्टि से स िय किया, उन्हे एक संगठित राजनीतिक आंदोलन का अवसर दिया और भ्रष्टाचार, सामाजिक असमानताओं और अन्यायों के विरू उनके यु को वैधता प्रदान की। जयप्रकाष आंदोलन ने बुरी तरह से बंटे हुए विरोधी दलों को नैतिक बल प्रदान किया गया बिगड़ती हुई अर्थव्यवस्था और राजनीतिक समस्याओं के जोर पकडने की प्र िया मे ऐसे हालात उत्पन्न कर दिए जिनमें अषांति तथा हष्ट-पुष्ट दंगे दैनिक कार्य बन गए। इन्ही का विकसित रूप गुजरात और बिहार आन्दोलन था। कांगे्रस सरकार के विरू असंतोष की स्थिति का फायदा उठाते हुए विरोधी दलों ने मिलकर संविद सरकार का निर्माण किया। गुजरात में 1975 के चुनाव में विजय प्राप्त की। विरोधी दलांे ने सहयोग की प्र िया की एक घटना ने और प्रोत्साहित किया यह घटना 1975 में इलाहबाद उच्च न्यायालय द्वारा इंदिरा गाँधी के रायबरेली चुनाव क्षेत्र से चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। 24 जून 1975 को उच्चतम न्यायालय द्वारा इन्दिरा गाँधी को इस निर्णय के विरूध पूर्ण स्थगन ३ैजंल७ प्रदान करने से इंकार कर दिया।
विरोधी दलों ने इस निर्णय को एक महान उपलक्ष्य के रूप में विस्तष्त किया गया। इन्दिरा गाँधी के नेतष्त्व मे कांग्रेसी भ्रष्टाचार के विरू उनके अभियान को जैसे न्यायिक वैधता प्रदान की गई थी। विजय के इस उल्लास में पांच विरोधी दलो ने एक मोर्चा कायम किया और प्रधानमंत्री से तुरंत त्यागपत्र की मांग को लेकर सत्याग्रह की एक योजना बनाई। लोकसंघर्ष समिति के नाम से आंरभ इस मोर्चे ने राष्टश्व्यापी अवज्ञा आन्दोलन की विस्तष्त योजना बनाई और जनता को आष्वासन दिया कि वह इन्दिरा गाँधी से तुरंत पद त्यागने की मांग को मनमाने के लिए निषेधाज्ञा, कानूनन गिरफ्तारी, पुलिस आ मण आदि का उल्लंघन करें।47
इस व्यापक योजना के ियान्वित होने से पहले ही आपातकालीन स्थिति की घोषणा करके दबा दिया और बाहरी और आंतरिक दोनो चुनोतियों को देखते हुए सत्ताधारी कांग्रेस दल ने स्वतंत्र भारत में पहली बार आंतरिक स्थिति के बिगडने के आधार पर 25 जून 1975 को राष्टश्ीय आपातकाल की घोषणा कर दी गयी।48
३9७ आपातकाल का निर्णय एवं प्र ियाः- जून 1975 में भारतीय राजनीति मे एक नया मोड उत्पन्न हुआ। राजनैतिक नारेबाजी तथा आर्थिक दाब-पेचों की असफलता के बाद इन्दिरा गाँधी ने उदारवादी लोकतंत्र मे प्राप्त आखिरी अधिकार का प्रयोग, आपात स्थिति की घोषणा और निरंकुष षासन स्थापित करने की कार्यवाही की।
मार्च 1971 में राजनारायण ३समाजवादी नेता७ ने इन्दिरागाँधी के विरू रायवरेली ३उ ारप्रदेष७ से चुनाव लड़ा था उसमे वह बुरी तरह पराजित हुआ था। उसके बाद उसने अप्रेल 1971 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के विरू इलाहबाद उच्च न्यायालय में एक चुनाव याचिका दायर की थी जिसमें प्रधानमंत्री के विरू भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था। 12 जून 1975 को इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायधीष जगमोहन लाल सिन्हा ने राजनारायण की याचिका पर हाई कोर्ट का निर्णय प;।इेनसंजम ैजंल भी जारी कर दिया क्योकि प्रधानमंत्री का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसके बाद इन्दिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए साम्यवादी दल को छोडकर अन्य विरोधी दलांे ने आन्दोलन छेडने का निष्चय किया उन्होने 13 जून 1975 को राष्टश्पति भवन के सामने धरना दिया।
18 जून 1975 को कांग्रेस संसदीय दल ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें इन्दिरा गांधी के नेतष्त्व में अटूट विष्वास प्रकट किया और कहा गया कि उनका नेतष्त्व देष के हित के लिए अनिवार्य है 20 जून 1975 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के विरू उच्चतम न्यायालय से अपील की। इस अपील में इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय कों उस समय तक पूर्ण रूप से तथा बिना षर्त के स्थगित रखने के लिए प्रार्थना की गई। जब तक उच्च न्यायालय अन्तिम रूप से अपील पर कोई निर्णय नही लेता।
24 जून 1975 को उच्चतम न्यायालय के अवकाष पीठ ने प्रधानमंत्री की अपील पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को स्थगित करने के लिए एक आदेष जारी कर दिया जिसमें कहा गया कि इन्दिरा गाँधी की अपील या निर्णय तक प्रधानमंत्री के रूप मे कार्य कर सकती है। और संसद की कार्यवाही में भाग ले सकती है पर मतदान मे भाग नही ले सकती है। 25 जून 1975 को जयप्रकाष के नेतष्त्व में साम्यवादी दल को छोडकर अन्य विरोधी दल ३संगठन कांग्रेस, जनसंघ, समाजवादी दल और भारतीय लोकदल इत्यादि७ ने इन्दिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए बडा व्यापक आन्दोलन छेड़ने की घोषणा की। स्थिति बडी गंम्भीर थी। इस पर प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने अपने सहयोगी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियो और अन्त में राष्टश्पति से विचार किया। इन्दिरा गाँधी के विचार में कानून तथा व्यवस्था के टूटने और अराजकता फैलने की पूरी-पूरी संभावना थी इसलिए उन्होने राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद से आन्तरिक संकटकालीन स्थिति की घोषणा करवा दी। बाहरी संकटकालीन स्थिति 3 दिसम्बर 1971 से पहले की चल रही थी। इसके बाद आन्तरिक आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक लगभग 21 महीने तक रहा।49
संदर्भ -
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15. कंस्टीटूषन असेम्बली डिवेट्स खण्ड प्ग्ए पष्ष्ठ संख्या-105
16. कंस्टीटूषन असेम्बली डिवेट्स खण्ड प्ग्ए पष्ष्ठ संख्या-123 17. कंस्टीटूषन असेम्बली डिवेट्स खण्ड प्ग्ए पष्ष्ठ संख्या-547
18. कंस्टीटूषन असेम्बली डिवेट्स खण्ड प्ग्ए पष्ष्ठ संख्या-177
19. फडिया बी.एल. ‘भारतीय षासन एवं राजनीति’ 2012, साहित्य भवन पब्लिकेषन’ आगरा, पष्ष्ठ संख्या-240
20. अग्रवाल, आर.सी ‘भारतीय संविधान का विकास तथा स िय आन्दोलन’ ‘एस चंद कम्पनी लि ’ 2000 दिल्ली, पष्ष्ठ संख्या-405
21. नवभारत टाइम्स ‘दिल्ली 23 अक्टूबर 1962 पष्ष्ठ संख्या-1, कालम 1-3
22. अवस्थी, डाॅ ए.पी ‘भारतीय षासन एवं राजनीति’ 2011, नवरंग आॅफसेट प्रिन्टर्स, आगरा, पष्ष्ठ संख्या- 220
23. बसु, आचार्य डी.डी.‘भारत का संविधान’ 2012, लेक्सिस नेक्सिस बटरवर्धस बाधवा, नागपुर, पष्ष्ठ संख्या-361
24. कष्यप साुभाष ‘हमारा संविधान’ 2011, नेषनल बुक टश्स्ट इंडिया, पष्ष्ठ संख्या- 283
25. इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली 30 मार्च 1969
26. दि टाइम्स आॅफ इंडिया दिल्ली 11 जनवरी 1973
27. पेटिश्याट, दिल्ली, 21 जुलाई 1973
28. सईद, ‘प्रो एस.एम ’भारतीय राजनीतिक व्यवस्था’ 2009, भारत बुक सेन्टर लखन¯, पष्ष्ठ संख्या-231
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30. डाॅ. एल.एम सिंघवी एण्ड अदर्स ३सं७ यूनियन-स्टेट रिलेषंस इन इंडिया ३द इन्सिट्टयटू आॅफ कस्ं टीटष्ू ानल एण्ड पार्लियामन्ेटरी स्टडीज, दिल्ली 1969७ पष्ष्ठ संख्या- 1985-86
31. दि हिन्दुस्तान टाइम्स, दिल्ली, 8 अक्टूबर 1968
32. डाॅ. एल.एस सिंघवी एण्ड अदर्स यूनियन स्टेट रिलेषंस इन इंडिया 1969, पष्ष्ठ संख्या-188
33. गुप्त, डी.सी ‘इंिडयन गवर्नमेन्ट एण्ड पोलिटिक्स स्टडीज’, विकास पब्लिषषिगं हाउस, दिल्ली, 1972, पष्ष्ठ संख्या-106
34. तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-106
35. तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-105
36. सईद, एस.एम.’ ‘भारतीय राजनीतिक व्यवस्था’ 2009, भारत बुक सेन्टर, लखन¯, पष्ष्ठ संख्या-241
37. चतुर्वेदी, गीता ‘भारतीय राजनीतिक व्यवस्था’ ‘2010, पंचषील प्रकाषन जयपुर, पष्ष्ठ संख्या-179
38. काेिषक, सष्ु ाीला, ‘भारतीय षासन एव ं राजनीति’ 1990 हिन्दी माध्यम कायानर््वय निदेषालय दिल्ली विष्वविद्याालय, पष्ष्ठ संख्या-187
39. अग्रवाल, आर.सी. ‘भारतीय संविधान का विकास तथा राष्टश्ीय आन्दोलन’ एसचन्द एण्ड कम्पनी लि0, 2000, दिल्ली, पष्ष्ठ संख्या-28 40 थ्तंदबपदम तिंदामसश् प्दकपंे चवसपजपबंस मबवदवउल 1947.1977 वगवितक नदपअमतण्
च्तमेे छमू क्मसीपए 1978ए ब्ंीउच.4
41ण् ैवउम तमबमदज ूंहम जतमदके ;चसंददपदह बवउउपेेपवद छमू क्मसीप 1978 च्.78
42ण् काेिषक, सष्ु ाीला, ‘भारतीय षासन एव ं राजनीति’ 1996 हिन्दी माध्यम कायानर््वय निदेषालय, दिल्ली विष्वविद्यालय, पष्ष्ठ संख्या-187
43ण् श्रवीद ूववकश् मगजतं चंतसपंउमदजंतल वचचवेपजपवदे पद प्दकपंश्श् ।द ंदंलसपेपे व िचवचनसपेज ंहपजंजपवदे पद ळनरतंज. ठपींत ष्चंबपपिब ंििंपते 1975
क्ंदपमस हतंअमेष् चवसपजपबंस उवइसप्रंजपवद पद प्दकपं श् जीम पितेज चंतजल ेलेजमउ ष्।ेपंद ेनतअमल ेमच. 1976
त्ंरदप ावजदंतपश् ज्ीम बवदहतमेे ेलेजमउ वद जतपंस श् ।ेपंद ेनतअमल थ्मअ 1967
44ण् ठींजजंबींतलंए ।रपजश् क्मेचंपत ंदक भ्वचम पद ठपींत जपउमे व िप्दकपंश् ैमच 17ए 1973
45ण् ैींीए ळदंदेदलंउष् ज्ीम 1976 ळनरतंज ।ेेमउइसल मसमबजपवद पद प्दकपंष् ।ेपंद ेनतअमल 1976
क्ंूद श्रवदमे ंदक त्मकदमल श्रवदमे ष् नतइंद नचदमंअमस पद प्दकपं ष् डंतबी 1976
46. कोषिक, सुषीला, ‘भारतीय षासन एवं राजनीति’ 1996 हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेषालय, दिल्ली विष्वविद्यालय, पष्ष्ठ संख्या-394
47ण् ज्ीम ज्पउमे व िप्दकपं. श्रनदम. 27ए 1975
48. कोषिक सुषीला भारतीय षासन एवं राजनीति’ 1996’ हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेषालय, दिल्ली विष्वविद्यालय, पष्ष्ठ संख्या-396
49. अग्रवाल, आर.सी.’ भारतीय संविधान का विकास तथा राष्टश्ीय आन्दोलन एस. चन्द एण्ड कम्पनी लि0, 2000, दिल्ली, पष्ष्ठ संख्या-335
अध्याय द्वितीय
आपातकाल के दौरान 20 सूत्रीय कार्य मों का ियान्वयन और प्रभाव की विवेचना ३साक्षात्कार, सर्वे७ पर आधारित
भारत के राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद ने 25 जून 1975 को
सम्पूर्ण देष में आपातकाल की घोषणा कर दी।1
इन्दिरा गाँधी का 1 जुलाई 1975 को प्रगतिषील सामाजिक,
आर्थिक रूपान्तरणों के अन्तर्गत 20 सूत्रीय कार्य म की षुरुआत मूलतया भूमि सुधार कार्य म को तेज करने, खेतिहार मजदूरों की स्थिति में सुधार करने, ऋणदासता आदि का उन्मूलन करने की ओर निर्देषित था।2
भारतीय कम्यूनिष्ट पार्टी ने सरकार के कदमों के समर्थन की घोषणा की और 20 सूत्रीय कार्य म के ियान्वयन मंे सरकार के साथ स िय सहयोग की घोषणा की।3
आपातकाल की अवधि में भारतीय साम्यवादी पार्टी ने सरकार की
नीतियों के समर्थन की घोषणा की और 20 सूत्रीय कार्य म के ियान्वयन में सरकार के साथ सहयोग करने का निर्णय लिया गया था। किसान सभा तथा खेत मजदूर संघ ने यह निर्णय लिया था कि सन् 1975-76 में 20 सूत्रीय कार्य म के ियान्वयन को सुनिष्चित करने के लिए पदयात्रायें की जाये जिससे यह पता चल सके कि अधिकांष ग्रामीणों की स्थिति, घोषित कार्यवाहियों से प्रभावित हुई है या नहीं।4
३अ७ युवकों को पकड़कर की गई नसबंदी:-
इमरजसंे ी म ंेयवु का ंेकी स्थिति खराब थी इस दारै ान बहतु अत्याचार
हुये थे। नवयुवकों को पकड़ पकड़ कर उनकी नसबंदी की गई। दरअसल संजय गाँधी और इंदिरा गाँधी को लगा कि जिस प्रकार चीन में सख्ती के साथ विकास को धार दी गई है उसी प्रकार भारत में यह चमत्कार करके दिखा दें। गांवों में डाॅक्टरों ने नसबंदी के आंकड़े पूरे करने के लिए जिस प्रकार फर्जी तरीके से नसबंदी के झूठे आंकड़े पेष किए। उसी से लोगों में गुस्सा और कांग्रेस के खिलाफ नफरत फैली। ऐसा नहीं है कि इमरजेंसी का पूरे देष में एक जैसा विरोध हुआ क्योंकि सन् 1977 में चुनाव में कांग्रेस का जहाँ उत्तर भारत में सफाया हो गया वहीं दक्षिण के प्रदेषों में कायम रहीं। इंदिरा गाँधी रायबरेली में राजनारायण के हाथों पराजित होने के बाद दक्षिण भारत में चुनाव जीत गई।
इमरजेंसी का यह पहलू आज भी हमें याद है और उस पर हर
साल चर्चा होती है और कहते हंै कि वह खराब थी, लोकतंत्र की हत्या थी लेकिन उस पहलू को कोई याद नहीं रखना चाहता, जिसने देष की कानून व्यवस्था, प्रषासन और सरकारी कामकाज को उस वक्त करने के लिए सख्ती अपनायी। आज के महौल में यदि हम उसी पहलू की विवेचना करें तो गलत नहीं होगा।
३ब७ बसों से लेकर कर्मचारी तक सब रहते थे राइट टाइम:-
इस बार म ें मैंने कई बुजुर्गो से बात की जिन्हानें े इमरजसें ी के समय
सरकारी दफ्तरों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया था। लखन¯ में रहने वाले एक बुजुर्ग आर.पी. सिंह का कहना है कि वह उस समय पी.डब्ल्यू.डी में कार्य करते थे। इमरजेंसी का ऐसा डर था कि वह अपने दफ्तर 10 बजे से पहले ही पहुँच जाते थे। घूस का बोलबाला उस समय भी ऐसे दफ्तरों में आया था लेकिन इमरजेंसी ने सारी स्थितियाँ की बदल कर रख दी थी। कोई भी बाबू हो या अधिकारी उनकी घूस लेने की हिम्मत नहीं पड़ती थी लोग अपने आवास पर घूस की रकमों को अपने रिष्तेदार के पास रख आए थे।
हालात यह हो गये थे कि षहरों में चलने वाली बसें एकदम समय
पर आने लगी थीं। 70 के ¯पर हो चुके सिंह कहते हंै कि उस समय तो इमरजेंसी पर गुस्सा आया था लेकिन जब आज अन्ना को आंदोलन करते देखता हूँ और देष में रोज होते घोटाले तो हमने इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी को थोड़ा वक्त दिया होता तो आज देष की दषा ऐसी न होती। श्री सिंह की बात की तस्दीक करने के लिए मैंन े एक क े बाद एक कई एसे े अधिकारिया ंे स े बात की जिन्हानें े सरकारी सवे ा म ंे रहते हुए इमरजेंसी को देखा।5 उनके अनुसार किसी भी अधिकारी की घूस लेने की हिम्मत नहीं होती थी।
ऐसे ही एक व्यक्ति हंै आलोक सिंह। आलोक सिंह उस समय
सिंचाई विभाग में थे उन्होंने इमरजेंसी का एक किस्सा सुनाया। उस किस्से को मंै हूबहू आपके सामने पेष कर रहा हूँ। आलोक सिंह बताते हंै कि सन् 1975 की गर्मियों में जैसे ही आपालकाल की घोषणा हुई और खुफिया विभाग के अधिकारियों ने भ्रष्ट अधिकारियों के घरों पर छापा मारकर अवैध सम्प िा को पकड़ना षुरू किया। मेरे एक मित्र थे काफी चर्चित थे। ३घूस लेने के मामले में७ अचानक एक दिन पता चला कि वह लंबी छुट्टी पर चले गये हंै। जब वापिस लौटे तो मंै उनके घर पर उनसे मिलने चला गया। घर पहुँचा और छुट्टी का कारण पूछा तो उन्हांेने बताया कि जिस समय अफसरों के घरों पर छापे पड़ रहे थे तब उनके पास घर पर 90000 रू. कैष था। उस समय 90000 रू. बड़ी रकम होती थी। जाहिर है कि उन्हांेने कमीषन खोरी और घूसखोरी लेकर कमाई थी।
उन्होंने आगे बताया कि इस पैसे को लेकर परेषान था क्योंकि
पकड़े जाने का भय था और नौकरी जाने का भी उन्होंने एक टैक्सी किराये पर ली और अपने पास उपलब्ध सारा कैष रखा और बच्चों के साथ गोवा चले गये खूब मौज मस्ती की और जब 5000 के आसपास रकम बची तो वापिस चल दिये।6 74 वर्षीय राम बहादुर सक्सैना बताते हंै कि इमरजेंसी के दौरान कोई भी सरकारी कार्य में देरी नहीं होती थी। आलोक और सक्सैना के किस्से को मंैने यह इसलिए पेष किया कि लोग इमरजेंसी के सिर्फ एकपहलू को देखते हंै। आज जो देष के हालात हैं। उसक े परिप्रक्ष्े य म ें यदि इमरजसंे ी का े दख्े ा ंे ता े वह बुरी नही ं अच्छी लगगे ी। लेिकन मंै युवाओं से सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि वह अपने बुजुर्गो से पूछे कि क्या इमरजेंसी में नागरिक सुविधायें जैसे टशंसपोर्ट, बिजली और परिवहन और कानून व्यवस्था ठीक हुई थी कि नहीं। आपका जबाव मिल जायेगा।7
३स७ बीस सूत्रीय कार्य म:-
इस कार्य म की घोषणा सन् 1975 में की गयी थी जिसे 1980, 1982, 1986 में संषोधित किया गया इसे 1 अप्रेल 1987 से नए रूप में लागू किया गया। इस कार्य म के उद्देष्य इस प्रकार है8 -
1-
गरीबी पर प्रहार
2-
वर्षा पर आधारित खेती
3-
अधिक उपज
4-
सिंचाई का अधिक प्रयोग
5-
भूमि सुधार लागू करना
6-
ग्रामीण श्रमिकों के लिए विषेष कार्य म
7-
पीने का साफ जल
8-
सभी के लिए स्वास्थ्य
9-
दो बच्चों का आदर्ष
10- षिक्षा का विस्तार
11- अनुसूचित जाति एवं जनजाति को न्याय
12- औरतों के लिए समानता
13- नवयुवकों के लिए नये अवसर
14- लोगों के लिए आवास
15- गन्दी बस्तियों का सुधार
16- वनरोपण
17- पर्यावरण संरक्षण
18- उपभोक्ता का संरक्षण
19- गांवों के लिए ¯र्जा
20- उत्तरदायी प्रषासन षामिल
३1७ मरूस्थल विकास कार्य म:-
सन् 1977-78 में षुरू किया गया मरूस्थल विकास कार्य म 152
प्रखण्डों में चल रहा है। मरूस्थली क्षेत्रों का विकास जिसके लिए भौतिक, मानवीय तथा अन्य संसाधनों और पषुधन का अच्छा से अच्छा उपयोग करते हुए यहाँ की निवासियों की उत्पादन क्षमता, आय स्तर एवं रोजगारों के अवसरों में वष् िकी जाती है।
३2७ काम के बदले अनाज कार्य म:-
काम के बदले अनाज मूल रूप से एक विकास कार्य म है जिसे
अप्रैल 1977 में षुरू किया गया। यह भयंकर सूखे तथा फसल के नष्ट जाने पर षुरू किये जाने वाले सहायक कार्यों से पूरी तरह अलग है। काम के बदले अनाज कार्य म एक पंथ दो कार्य की कहावत चरितार्थ करता है। इसका उद्देष्य एक ओर ग्रामीण परिसम्प िायों का रखरखाव करना तथा दूसरी ओर गांव की गरीब जनता के लिए रोजगार का अवसर प्रदान करना है।
३3७ अन्त्योदय कार्य म:-
यह गाँव के सबसे कमजोर वर्ग की आर्थिक स्थिति सुधारने की
विषिष्ट योजना है। इस कार्य म की अपनी कुछ विषेषताऐं हंै। यह कार्य म इस बात का इतं जार नही ं करता कि विकास का लाभ धीरे-धीरे नीचे पहुँचे। इसके स्थान पर इस कार्य म में अन्तिम व्यक्ति की दषा सुधारने की ओर ध्यान दिया जाता है।
३4७ समेकित ग्रामीण विकास कार्य म:-
इस कार्य म को सन् 1977-78 में छोटे पैमाने पर लागू किया
गया। प्रारम्भ में देष के सिर्फ 2300 प्रखण्डों में जहाँ छोटे किसानों के लिए विकास एजेन्सी, सीमान्त किसानों तथा कष्षि मजदूरों की एजेन्सी, सूखा ग्रस्त क्षेत्र कार्य म लागू थे, इस कार्य म को लागू किया गया। हर प्रखण्ड में प्रतिवर्ष 400 परिवारों को गरीबी की सीमा रेखा से ¯पर उठाने का लक्ष्य रखा गया। सन् 1980 में देष के सभी प्रखण्डों में इस कार्य म को लागू किया गया तथा इसके अन्तर्गत छोटे किसानों के लिए विकास एजेन्सी तथा सीमांत किसानों और कष्षि मजदूरों की एजेन्सी को मिला दिया गया।
३5७ राष्टश्ीय ग्रामीण रोजगार कार्य म:-
सन् 1977-78 में काम के बदले अनाज कार्य म लागू किया गया था। छठी योजना में इसका नाम बदलकर ‘राष्टश्ीय ग्रामीण रोजगार कार्य म’ रख दिया गया। इस कार्य म का उद्देष्य ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर वर्गों के लिए अतिरिक्त श्रम की दष्ष्टि के लिए श्रम परियोजनाओं, जैसे - भूमि तथा जल संरक्षण, भूमि सुधार, सड़क निर्माण, लघु सिंचाई का निर्माण, सामाजिक सुधार, वष्क्षारोपण, स्कूल तथा ग्राम पंचायत के लिए भवन निर्माण आदि को लागू किया जाता है।
३6७ ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्य म:-
इस कार्य म को सन् 1983-84 में लागू किया गया। यह रोजगार
कार्य म राष्टश्ीय ग्रामीण रोजगार कार्य म का पूरक है। ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्य म के भी वहीं उद्देष्य हंै जो राष्टश्ीय रोजगार के कार्य म हंै। केवल इस कार्य म के अन्तर्गत भूमिहीन परिवारों को अतिरिक्त रोजगार की सष्ष्टि करना तथा इन परिवारों के कम से कम एक सदस्य को साल में 100 श्रम दिन के रोजगार की व्यवस्था करना है।
३7७ न्यूनतम आवष्यक कार्य म:-
इस कार्य म का प्रारम्भ 1972 में हुआ। इसका उद्देष्य निम्न आय वाले लोगों के लिए राज्य के द्वारा कुछ आधारभूत आवष्यकताओं की व्यवस्था करना है, जैसे - पीने का पानी, प्रारम्भिक षिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, ग्रामीण सड़क, ग्रामीण आवास, ग्रामीण विद्युतीकरण, पौष्टिक आहार की व्यवस्था आदि।
३8७ बीस सूत्री कार्य म:-
इस कार्य म की घोषणा 1975 मंे की गई थी जिसे सन् 1980, 1982, 1986 में संषोधित किया गया। इसे 1 अप्रैल, 1987 से नए रूप में लागू किया गया। इस कार्य म के उद्देष्य इस प्रकार हंै:- गरीबी पर प्रहार, वर्षा पर आधारित खेती, अधिक उपज, सिंचाई का अधिक प्रयोग, भूमि सुधार लागू करना, ग्रामीण श्रमिकों के लिए विषेष कार्य म, पीने का साफ जल, सभी के लिए स्वास्थ्य, दो बच्चों का आदर्ष, षिक्षा का विस्तार, अनुसूचित जाति एवं जनजाति को न्याय, औरतों के लिए समानता, नवयुवकों के लिए नये अवसर, लोगों के लिए आवास, गन्दी बस्तियों का सुधार, वष्क्षारोपण, पर्यावरण का संरक्षण, उपभोक्ता संरक्षण, गांवों के लिए ¯र्जा तथा उत्तरदायी प्रषासन षामिल है।
३9७ जवाहर रोजगार योजना:-
भारत के गांवों में रहने वाले निर्धनों के लिए बड़े पैमाने पर
रोजगार की व्यवस्था करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने 28 अप्रैल 1989 को संसद में एक योजना की घोषणा की जिसे जवाहर योजना कहते हंै। इसका मुख्य उद्दष्े य दष्े ा की प्रत्यके गा्रम पचं ायत का े प्रत्यक्ष रूप स े वित्त प्रदान करना है जिससे अधिकांष निर्धनों के लिए अधिक से अधिक रोजगार की व्यवस्था की जा सके। अतः इसका लक्ष्य देष के प्रत्येक अथवा षत प्रतिषत पंचायतों को अपने अन्तर्गत लाना है।
३10७ प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना ३ग्रामीण विकास७:-
यह योजना वर्ष 2000 में षुरू की गई जिसके अन्तर्गत 200 करोड़ रूपये खर्च करने का प्रावधान वर्ष 2001-02 के लिए रखा गया और 2001-02 में ग्रामीण विकास के लिए 126.34 करोड़ रू. प्रदान किए गये।
३11७ समग्र आवास योजना:-
एक अप्रैल, 1999 में समग्र आवास योजना के नाम से एक नई योजना की षुरूआत की गई है। यह एक व्यापक आवास योजना है जिसका उद्दष्े य आवास, स्वच्छता और पये जल की समग्र व्यवस्था करना है। इस याजे ना का मुख्य उद्देष्य ग्रामीण क्षेत्रों के सम्पूर्ण पर्यावरण के साथ-साथ लोगों की जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना है। इस योजना के अन्तर्गत ग्रामीण गरीबों को, विषेषकर जो गरीबी रेखा से नीचे हंै, लाभान्वित किए जाने का प्रावधान है। वर्ष 1999-2000 और 2000-01 के दौरान एक कार्य म के ियान्वन के लिए मषः 2.67 करोड़ और 1.36 करोड़ रू. केन्द्र सरकार द्वारा विभिन्न राज्य सरकारों को उपलब्ध कराये गय।े
३12७ स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना:-
यह एक नई स्वरोजगार योजना है जिसे 01 अप्रैल, 1999 से लागू
किया गया। इस योजना मंे पूर्व में चल रहे निम्नांकित हंै।
20 सूत्रीय कार्य म 2006 में 65 है जिसका प्रबन्धन केन्द्र नोडल
मंत्रालयों द्वारा किया जाता है तथा मुख्य रूप से कार्यान्वयन राज्य सरकारों/ केन्द्र षासित प्रदेषों के प्रषासकों द्वारा होता है। 20 सूत्रीय वस्तुओं को संलग्नक किया गया है। ३संलग्नक-1७ सन् 2010-11 के दौरान राज्यों कार्यान्वित वस्तुओं की मासिक निगरानी सूची संलग्न है9।
4. अपषिष्ट भूमि वितरण
३हिमाचल प्रदेष को छोड़कर सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
5. न्यूनतम मजदूरी परिवर्तन ३फार्म श्रम सहित७
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
6. खाद्य सुरक्षा
३क७ एएवाद, एपीएल, बीपीएल के लिए लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली टीडीपीएस७
३ख७ केवल अन्त्योंदय योजना के लिए पीडीएएस
३ग७ केवल गरीबी रेखा के नीचे के लिए टीडीपीएस
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
7. इंदिरा आवास योजना के लिए गामीण आवास
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
8. षहरी क्षेत्रों में ईडब्ल्यूएस/एलआईजी मकान
३आन्धप्र द्र ष्े ा, असम, बिहार, दिल्ली, गजु रात, हरियाणा, कनार्ट क, करे ल, मध्यपद्र ष्े ा, महाराष्टश्, मिजोरम, नागालैण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेष, पष्चिम बंगाल तथा चण्डीगढ़ राज्यों में७
9. ग्रामीण क्षेत्र त्वरित ग्रमीण जल आपूर्ति कार्य म
३दिल्ली, गोवा, पाण्डिचेरी, अण्डमान और निकोबार, चण्डीगढ़, दादर और नागर हवले ी, दमन आरै द्वीप, लक्षदीप का ेछाडे क़ र सभी राज्या ंेतथा कन्ेदष््र ाासित प्रदेषों में७
10. ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता कार्य म
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
11. संस्थागत प्रसव
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
12. अनुसूचित जाति के परिवारों को सहायता
३अरूणाचल प्रदेष, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, अण्डमाान और निकोबार द्वीप समूह, दादर और नागर हवेली, दमन और द्वीप तथा लक्षद्वीप को छोड़कर सभी राज्यों राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
13. आईसीडीएस योजना को सार्वभौमिक करना
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
14. कार्यात्मक आंगनबाड़ी
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
15. सात सूत्रीय चार्टर के अन्तर्गत षहरी गरीबी परिवारों को सहायता की संख्या यानि भूमि कार्यकाल, सस्ते दामों पर मकान , जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य, षिक्षा तथा सामाजिक सुरक्षा -
३आन्धप्र द्र ष्े ा, असम, बिहार, दिल्ली, गजु रात, कनार्ट क, करे ल, मध्यपद्र ष्े ा, महाराष्ट,श् मिजोरम, नागालैण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेष, पष्चिम बंगाल तथा चण्डीगढ़ राज्यों में७
16. वनरोपण -
३क७ सार्वजनिक तथा वन भूिम पर बागान के अन्तर्गत षामिल क्षेत्रो ं बिजली की आपूिर्त
३ख७ सार्वजनिक वन तथा भूमि पर लगाई पौधों की संख्या
३सभी राज्यों तथा केन्द्रषासित प्रदेषों में७
17. प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अन्तर्गत निर्माण की गई ग्रामीण सड़कें
३सभी राज्यों तथा दिल्ली को छोड़कर केन्द्रषासित प्रदेषों में७
18. राजीव गाँधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के अन्तर्गत बिजली दिए गए गांव-
३अरूणाचल प्रदेष, असम, बिहार, दिल्ली, छत्तीसगढ़, हिमाचल, जम्मू और कष्मीर, झारखण्ड, कर्नाटक, मध्यप्रदष्े ा, मणिपुर, मघ्े ाालय, मिजारे म, नागालैण्ड, ओड़िषा, राजस्थान, सिक्किम, त्रिपुरा और पष्चिम बंगाल राज्यांे में७
19. अर्जित किए गए पम्पसैट -
३आन्ध्रप्रदेष, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेष, कर्नाटक, करे ल, मध्यपद्र ष्े ा, आेिडष़् ाा, पाण्डिचरे ी, पजं ाब, राजस्थान, तमिलनाड,ु उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेष, पष्चिम बंगाल, दमन और दीप राज्यों में७
20. बिजली की आपूर्ति -
३सभी राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों में७
संदर्भ -
३1७ नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली, 27 जून 1975, पष्ष्ठ संख्या-1
३2७ नेषनल हेराल्ड, लखन¯, 2 जुलाई 1975, पष्ष्ठ संख्या-1
३3७ मुक्ति संघर्ष, नई दिल्ली, 10 सितम्बर 1975, पष्ष्ठ संख्या-13
३4७ मुक्ति संघर्ष, नई दिल्ली, 17 अगस्त 1975, पष्ष्ठ संख्या-5
३5७ आर.पी. सिंह लखन¯ के साक्षात्कार पर आधारित।
३6७ आलोक जी के साक्षात्कार पर आधारित।
३7७ राम बहादुर सक्सैना के साक्षात्कार पर आधारित।
३8७ अग्रवाल डाॅ. अमित ‘भारत के ग्रामीण समाज’, विवेक प्रकाषन, 2009 जवाहर नगर, दिल्ली, पष्ष्ठ संख्या-205
३9़ ७ सांख्यिकी एवं कार्य म कार्यान्वयन मंत्रालय 15 सितम्बर 2011
३10७ तत्रवै
अ ध् य ा य - त ष् त ी य
आपातकाल के दौरान गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों की स्थिति की विवेचना
आपातकाल की घाष्ेाणा क ेसाथ ही विपक्षी दला ंेक ेनताआ ंेकी गिरफ्तारियाँ षुरू कर दी गई सुबह होने पर लोगों को पता चला कि लोकतंत्र का गला घोंटकर देष में इंदिरा सरकार ने ‘‘आपातकाल’’ की घोषणा कर दी है। दूरभाष से पूर्व सूचना देकर दिल्ली में नानाजी देषमुख, श्री जगदीष प्रसाद माथुर प्रभष्ति षीर्षस्थ नेताओं को सजग कर दिया गया था ताकि वे आन्दोलन का नेतष्त्व कर सकें। आपातस्थिति की अचानक घोषणा से देष में आतंक का वातावरण फैल गया क्योंकि गिरफ्तारी के बाद न उसके विरोध में अपील हो सकती थी, न वकील न अदालत में दलील पेष करने की गुंजाईष रखी गई थी। अपने घरों से फरार रहे और गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के परिवारों को भी प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी गई। जेलों में कैद कार्यकर्ताओं को अकथनीय यातनाऐं दी गईं। पचासों उदाहरण देष की जेलों में उन दिनों संघ के ही कार्यकर्ताओं, छात्रों तथा विपक्षी दलों के बंदियों के जीवन में घटित हुए। अनेक तो यातनाऐं झेलते-झेलते ही जेलों में ही षहीद हो गये।
इस प्रसंग में लखन¯ के स्वयंसेवक चन्द्रषेखर के परिवारों के कष्टों तथा दुःखों की याद ताजा हो आती है। उनके घर पर छापा मारकर पुलिस द्वारा एक दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और वे लम्बे समय तक जेल में ही सड़ते रहे। यातनाऐं सहते रहे। उनका परिवार अतीत दुःखी और व्यग्र हो उठा। वे रेलवे में कार्यरत थे और एकमात्र वहीं परिवार के पालन पोषणकर्ता थे अब राषन कौन कहाँ से कौन लाये। उनके जेल जाने से यह संकट आ खड़ा हुआ। दिल्ली में नवम्बर 1975 तक 2500 सत्याग्रही जेल में पहुँच गये थे। दिल्ली से प्रति सप्ताह आन्दोलन की गतिविधियांे के बारे में ‘जनवाणी’ नामक पत्रिका प्रकाषित होती थी जिसकी प्रसार संख्या 50000 तक हो गई थी। पंजाब में ‘षिरोमणी अकाली दल’ ने इस आन्दोलन में आकर सन 1975 की 25 जून से लेकर आपातस्थिति की समाप्ति तक अपने लोगों की 45000 से अधिक संख्या में गिरफ्तारियाँ देकर जेले भर दीं। जैल सिंह और इसी आन्दोलन में अकाली दल के दो सत्याग्रहियों सरदार प्रेमसिंह तथा सरदार फौरसिंह ने जेल में ही भीषण यातनाऐं झेलते-झेलते लोकतंत्र की बहाली के लिए अपन े प्राण न्यौछावर कर दिय।े अकाली दल क े महासचिव सरदार जसवतं सिहं बरार ने 75 सत्याग्रहियों जत्थों के साथ 16 सितम्बर 1976 को और अमष्तसर में अकाली दल के प्रधान जत्थेदार मोहन सिंह तुड़ ने 175 सत्याग्रहियाँ सहित गिरफ्तारी दी।
मध्य प्रदेष में जनसंघ के हजारों कार्यकर्ताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। पांच हजार से अधिक कार्यकर्ता जेलों बंद थे। अन्य किसी दल के इतने लोग बंदी नहीं बनाये गये। पुलिस ने जेल में बंद उन कार्यकर्ताओ पर भीषण अत्याचार किय।े
राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ का पूर्व दमनः-
आपातकाल में अगर किसी एक संगठन का सबसे अधिक दमन हुआ तो वह था राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ, संघ के स्वयंसेवक कार्यकर्ता और प्रचारक गिरफ्तार किए गए। पुलिस ने गिरफ्तार करने में उम्र का भी ख्याल नहीं रखा। आपातकाल के दौरान गिरफ्तार और प्रताड़ित होने के लिए स्वयंसेवक का विरोध कर रहे 90 फीसदी लोग किसी न किसी तरह से संघ से जुड़े थे। वाराणसी के बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय के छात्रसंघ पर उस समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कब्जा था। पुलिस ने आपातकाल की घोषणा होते ही पंडित मदन मोहन मालवीय ने आरएसएस को लाॅ काॅलेज के परिसर में दो कमरों का एक भवन कार्यालय के लिए दिया था पर प्रषासन ने उसे एक ही रात में बुलडोजर चला कर ध्वस्त करा दिया। आपातकाल के विरू राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ ने जन आंदोलन को सफल
बनाने के लिए बहुत बडी़ भूिमका निभाई। 14 नवम्बर 1975 से 14 जनवरी 1976 तक पूरे देष में हजारों स्थानों पर सत्याग्रह हुए जिसमें 1,54,860 सत्याग्रही षामिल हुए। इन सत्याग्रहियों में 80,000 संघ के स्वयंसेवकों का समावेष था। सत्याग्रह के दौरान कुल 44,963 संघ से जुड़े लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से 35,310 स्वयंसेवक थे।
विपक्ष की आवाज बंद:-
आपातकाल की घोषणा हुई और जो कहने के पूर्व सभी विरोधी दलों ३सी.पी.आई. को छोड़कर७ के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। न उम्र का लिहाज रखा गया न स्वास्थ्य का 120 से अधिक बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई जिनमें जयप्रकाष नारायण, विजयाराजे सिंधिया, राजनारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, कष्पलानी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकष्ष्ण आडवाणी, सत्येन्द्र नारायण, जार्ज फर्नाडिष, मधु लिमये ज्योति बसु, सुमर गुहा, चन्द्रषेखर, बाला साहेब देवरस और बड़ी संख्या मे सांसद, विधायक षामिल थे। राष्टश्ीय स्तर के नेता, आंतकवादियों की तरह रात के अंधरे में घर से उठा लिए गए और मीसा के तहत अनजाने स्थान पर कैद कर लिए गए।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही भारतीय राजनीति में नये युग का श्री गणेष हुआ। देष के प्रमुख विपक्षी नेताओं और इन दलों के स िय कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। आन्तरिक सुरक्षा कानून और सेंसरषिप लागू कर दी गई। आपातकाल के दौरान विपक्षी पार्टी के नेताओं पर जो अत्याचार हुए इतिहास के काले पन्ने को आज भी याद किया जाता है। आपातकाल पर समय≤ पर विभिन्न लेख प्रकाषित होते हंै जिनमें विपक्षी पार्टी के नेताओं के साथ जो व्यवहार कांग्रेस पार्टी द्वारा किया। उसका विस्तार से वर्णन किया गया है जो निम्न प्रकार है:-
1. झुक नही सकते:-
टूट सकते हंै मगर हम झुक नहीं सकते। सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता है निरंकुषता से, अंधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अंतिम अस्त होती है। दीप निष्ठा का लिये निष्कम्प, वज्र टूटे या उठे भूकंप, यह बराबर का नहीं है यु, हम निहत्थे, षत्रु हंै सन्नु, हर तरह के षस्त्र से हैं सज्ज, और पषुबल हो उठा निर्लज्ज। किन्तु फिर भी जूझने का प्रण, पुनः अंगद ने बढ़ाया चरण, प्राण-प्राण से करेंगे प्रतिकार, सम्र्पूण की मांग अस्वीकार। दांव पर सब कुछ लगा है, रूक न हीं सकते।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
अटल बिहारी बाजयपेयी1 ३आपातकाल के दौरान जेल में रहते हुए लिखी कविता७
2. तीन दिन नहीं दिया भाई को खाना:-
आपातकाल लागू होने के बाद पुलिस ने जब ज्यादती करना षुरू कर दिया तो सत्याग्रह होने लगे। राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता खेमचन्द्र की गिरफ्तारी के लिए पुलिस उनके पीछे पड़ी थी। दरियावजगंज निवासी खेमजी जब नहीं मिले, तो उनके भाई लक्ष्मण सिंह को उठा लिया। खेमजी का पता पूछने के लिए भाई को न सोने दिया और न ही भोजन दिया। परिवार की यह हालत देख खेमचन्द ने सत्याग्रह की तिथि की घोषणा कर दी और 7 जुलाई 1975 को उनकी गिरफ्तारी हो गई। इसी तरह पुलिस ने विष्व हिन्दू परिषद् के षीर्ष नेता स्व. आचार्य गिरिराज किषोर की गिरफ्तारी के लिए उनके परिजनों पर दबाव बनाया, लेकिन आचार्य पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा और उन्होंने कह दिया कि मेरे लिए देष महत्वपूर्ण है। आचार्य ने अपने लेखों में इन बातों का उल्लेख किया है। आपातकाल से जूझने वाले लोगों को अब पेंषन भी नहीं मिल रही है जो दर्द उन्होंने झेला, उसकी भरपाई अब कई प्रान्तों की सरकारें कर रही है। मीसा बंदियों में से अधिकांष इस दुनिया में नहीं है, मगर उनकी यादें अमिट हंै।2
3. अपराधियों जैसा बर्ताव करता था प्रषासन:-
वयोवष् भाजपा नेता गंेदालाल गुप्ता बताते हंै कि जो लोग जेल चले गए, उनक े परिजन पुिलस उत्पीडऩ स े मक्ु त रहत े थ।े जा े भूिमगत थ।े उनक े परिवारांे में आए दिन दबिषें पड़ती थीं। पुलिस लोकतंत्र के प्रहरियों से षातिर अपराधी की तरह व्यवहार करती थीं। उन्होने कहा कि जेल में चूंकि मीसा बंदियों की तादाद ज्यादा थी, इस कारण जेल प्रषासन कभी उलझने की नहीं सोचता था। जेल के अदं र रहने वालो ं का सबसे बडा़ दर्द यह था कि वे अपने परिवार से दरू थे। अखबारों में दमन की खबरें ही ज्यादा आती थीं जिन पर खूब चर्चा होती थी। जेल के अंदर जब यह खबरें पहुंचती थीं कि बंदी लोगों के साथियों को पकड़ने के लिए पुलिस परिवारजनों पर दबाव बना रही है तो खून खौल उठता था, लेकिन हम सब विवष
थे।3
4. अपनों ने
आपातकाल का नाम सुनते ही प्रसि कवि देवकीनन्दन कुम्हेरिया की बूढ़ी आँखों में लाल डोरे पड़ गये। उन्होंने बताया कि अपने ही देष के सिपाहियों ने बेदर्द तरीके से बंदूकों की बटों और लाठी डण्डों से पिटाई करते हुए सड़कों पर घुमाया। जले म ंे प्रताडित़ किया गया। डाॅ. फलू चन्द जैन बतात े है ं कि नारबे ाजी करत े हुए थाने पहुँचे, तो पुलिस वाले डंडें से पीटते हुए दानघाटी मंदिर तक लाए और वहाँ से थाने तक ले गये। फिर करीब तीन घंटे तक थाने मे पिटाई की गई। उन्होंने मुझे मरणासन्न स्थिति में पहुंचा दिया। नेमीचन्द अग्रवाल बताते हंै कि जितने नारे लगाए, उतने ही डंडे पड़े। महीनों तक षरीर के अंगों ने काम करना छोड़ दिया। पिटाई के वक्त लगा कि मुष्किल ही बच पायगें े। परन्तु बात अपनी मातष्भूिम को अपने ही लोगों से बचाने की थी, सो उत्साह ने दामन नहीं छोड़ा।4
5. जेल जाने के डर से बने टीबी मरीज:-
सुरीर के 84 वर्षीय आरएसस कार्यकर्ता बष्जकिषोर वाष्र्णेय ने इमरजेंसी की काली यादें ताजा करते हुए बताया कि इमरजेंसी के दौरान पुलिस तरह-तरह की यातना दे रही थी। उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस घूम रहीं थी, कई बार घर पर दबिष दी। इससे बचने के लिए टीबी सेनेटियम अस्पताल वष्न्दावन में जाकर भर्ती हो गए थे। यहाँ पर छह माह तक मरीज के रूप में पडे़ रहे।5
6. पेंषन कम, और सुविधायें मिलें: चैधरी योगेन्द्र:-
नोहझीलः आपातकाल के दौरान जेल में रहे गांव मुसमुना निवासी चैयोगेन्द्र सिंह ने बताया कि आपातकाल की घोषणा होते ही वह खुद भगत भकरेलिया निवासी चै. चतुर सिंह के नेतष्त्व में चै. लटूर सिंह फिरोजपुर, चै. हुकम सिंह सीगोनी, वंषो सिंह मुसमुना के साथ प्रदर्षन के लिए नोहझील आये। यहाँ पर उन्हें गिरफ्तार कर मथुरा जेल भेज दिया। वह मुलायम सिंह द्वारा लोकतंत्र सेनानी का दर्जा दिए जाने से खुष तो हैं, परन्तु अन्य प्रान्ता ें के मुकाबले मिल रही कम पष्ें ान से आहत भी हंै। बताया कि उ.प्र. में मिल रही 12 हजार रू. पेंषन के मुकाबले राजस्थान में करीब 15 हजार, बिहार में 17 हजार तथा मध्यप्रदेष में करीब 20 हजार रू. मिल रहे हंै। वह चाहते हंै कि केन्द्र सरकार भी उन्हें लोकतंत्र सेनानी का दर्जा प्रदान करें। वह चाहते हंै केन्द्र सरकार भी उन्हें लोकतंत्र सेनानी का दर्जा प्रदान करे। बस की तरह रेल यात्रा में भी एक सहायक के साथ यात्रा करने की सुविधा मिले।6
7. किताबों ने कही कहानी:- कतरा बी आरजू - लेखक राही मासूम रजा ने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से आपातकाल की आलोचना की है। मिडनाइटस चिल्डश्न - बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखक सलमान रूष्दी के इस चर्चित उपन्यास का एक नायक सलीम सिनाई नाम का एक व्यक्ति है। आपातकाल के दौरान किसी प्रकार वह सरकारी योजनाओं से प्रभावित होता है। उपन्यास मंे इसका जि है।
अ फाइन बैलेस व सच अ लोंग जर्नी - रोहिंटन मिस्त्री ने अपनी पुस्तकों में आपातकाल पर लोगों के ¯पर हुये ज्यादतियों का किस्सा बयां किया है। पुस्तक पारसी संस्कष्ति के नजरिये से लिखी गई है। इंडिया अ टूडेड सिविलाईजेषन - वीएस नायपाॅल की यह पुस्तक आपातकाल के दौरान देष का हाल बयां करती हंै।7
8. आपातकाल की देन है जम्मू कष्मीर में छह साल की विधानसभा:- इंदिरा के कानून की धारा में बह गई जम्मू कष्मीर विधानसभा।
जागरण ब्यूरो श्रीनगर: जम्मू-कष्मीर की विधानसभा का कार्यकाल छह साल का है, लेकिन यह अवधि राज्य की विधान सभा ने तय नहीं की है। यह अवधि आपातकाल की देन है। कष्मीर के वरिष्ठ राजनीतिक विषेषज्ञ ताहिर मोहिउद्दीन ने बताया कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देष में आपातकाल लागू किया था तो जम्मू कष्मीर भी उसके दायरे में आ गया, लेकिन यहाँ जेपी आंदोलन का असर कोई खास नहीं था। उन्हांेने कहा कि जम्मू संभाग में जहां जनसंघ और सोषलिस्ट पार्टी से जुड़े लोगो का जनाधार था, उन्हें खूब भुगतना पड़ा, लेकिन कष्मीर में न जनसंघ था, न जनता पार्टी से जुड़े लोगों का आधार। यहाँ सिर्फ आवामी एक्षन पार्टी व जमायत ए इस्लामी था। नेषनल कां ेन्स और कांग्रेस भी थी, लेकिन दोनों सत्ता में थी। उनके अनुसार , आपातकाल ने जम्मू-कष्मीर को देष के अन्य हिस्सों से सियासी व संवैधानिक तौर पर अलग करने में अहम भूमिका अदा की। आज भी बहुत से लोग यह मानते हंै कि हमारी विधानसभा का कार्यकाल छह साल का सिर्फ अलग संविधान और धारा 370 के कारण है, लेकिन यह आधा सच है। उन्हांेने कहा कि आपातकाल के दौरान ही इंदिरा गाँधी ने छह साल की विधानसभा और संसद का कानून लाया था। हमारे राज्य में उस समय कांग्रेस की मदद से षेख मुहम्मद अब्दुल्ला की सरकार चल रही थी। षेख अब्दुल्ला ने यह कहकर कि हम पूरे देष के साथ चलना चाहते हंै, सन् 1977 में राज्य विधानसभा में संषोधन प्रस्ताव लाया और उसके बाद से अब तक यहाँ छह साल की विधानसभा है। ताहिर मोहिउद्दीन ने कहा कि इंदिरा गाँधी के सत्ता से बाहर होने पर जनता पार्टी उनके उनके फैसलों को बदला, लेकिन जम्मू कष्मीर में यह संभव नहीं हो पाया, क्योंकि यहाँ राज्य विधानसभा की मंजूरी जरूरी होती है और उस समय षेख अब्दुल्ला पूरी तरह ताकतवर हो चुके थे।8
9. तराष मंदिर में रूके थे नानाजी देषमुख:-
वष्न्दावन:आपातकाल की यातना सहने वाले तत्कालीन चेयरमैन रहे मगनलाल षर्मा के पुत्र पं. उदयन षर्मा बताते हंै कि बाबू जी अपने करीबी कांग्रेस नेता डाॅ. षिवषंकर उपाध्याय के घर छिपे थे, एक रात करीब 12 बजे इन्स्पेक्टर उनके घर पहुँचे और पिताजी से कहा कि उन्हें जिलाधिकारी ने याद किया है। यह सुनते ही पिता मगनलाल समझ गये कि जेल जाना है। इमरजेंसी के दौरान जनसंघ के नेता नानाजी देषमुख काफी दिनों तक उनके तराष मंदिर स्थित आवास पर भूमिगत रहे।9
10. कोतवाली में नोंचे गये बाल और नाखून:-
आपातकाल के दौरान पुलिस से लेकर जेल तक में लोगों को यातनाएँ दी गई जो पकड़ में नहीं आए, उनके परिजनों पर जुल्म
आपातकाल के दौरान रामबाबू भाटिया कई स्थानों पर छिपते रहे। पीछे से उनके घर की कुर्की हो गई। इसके बाद उनकी भाटिया वाच कम्पनी की दुकान की कुर्की हो गई। तब पुलिस इस दुकान से 12 टन घड़ियों का माल ले गई थी। बड़ा बेटा नहीं मिला, तो छोटे को ले गये। बमुष्किल स्कूल के प्रिंसीपल ने यह कहकर उसे छुड़वाया कि ये बच्चा तो स्कूल में था। उनकी पत्नी आत्मादेवी ने सत्याग्रहियों का माला पहनाकर स्वागत किया था, तो उन्हीं भी पुलिस ने बहुत परेषान किया। आखिर 31 जुलाई 1975 को उन्हांेने अदालत में समर्पण किया। आठ अगस्त को जेलर ने उन्हें तन्हाई में डाल दिया। इस बैरक में उन्हें 22 घंटे कैद रखा जाता था। वर्तमान हालात पर श्री भाटिया बताते हंै कि प्रदेष सरकार कोई अकेले पेंषन नहीं दे रही है, सभी प्रदेषों की सरकारें लोकतंत्र सेनानियों को पेंषन देती है। डी.आइ.आर. में निरू पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष वीरेन्द्र अग्रवाल बताते हंै कि इमरजेंसी के दौरान वह षांति मार्केट में बैठे थे, तभी पुनैठा नाम का दरोगा आया और उन्हें कोतवाली ले जाकर विभिन्न धाराओं में पाबन्द कर जेल भेज दिया। कई लोकतंत्र सेनानियों के कोतवाली में नाखून और सिर के बाल तक नोचे गये। जेल में षाम को खाना खाने के दौरान यह गीत रोजाना गाया जाता था - देष प्रेम का मूल्य प्राण है, देख कौन चुकाता है। देखें कौन सुमन सैया तक कंटक पथ अपनाता है। संबल मोह-ममता को तज कर माता जिसको प्यारी है। षत्रु को हिय छेदने हेतु जिसकी तेज कटारी हो।
वही वीर अब बढ़े जिसमें हँस-हँस कर बढ़ना आता हो।10
11. इस एक्ट में रहे बन्द:-
आपातकाल का विरोध मेन्टिनेन्स आॅफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट ३मीसा७ और डिफेंस आॅफ इंडिया रूल्स यानि डीआईआर के तहत जेलों में बंद रहे थे। ऐसे नेताओं में ज्यादातर राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ से जुड़े थे।11
12. फैसले को चुनौती:-
इन्दिरा गाँधी ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 24
जून, 1975 को जस्टिस आर. कष्ष्णा अय्यर ने हाईकोर्ट ने निर्णय को बरकरार रखते हुए इंदिरा गाँधी को सांसद के रूप में मिल रही सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया। उन्हानंे े ससं द म ंे वाटे दने े स े वंिचत कर दिया गया लेिकन उनका े प्रधानमत्रं ी बन े रहने की अनुमति मिल गई। अगले दिन जयप्रकाष नारायण ने दिल्ली में बड़ी रैली आयोजित की। उसमें उन्होंने कहा कि पुलिस अधिकारियों को सरकार के अनैतिक आदेषों को मानने से इंकार कर देना चाहिए। उनको यह बयान को देष के भीतर अषांति भड़काने के रूप में देखा गया।12
13. आपातकाल का असर -
20 सूत्री कार्य म - इसके बाद इन्दिरा गाँधी ने कष्षि, औद्योगिक उत्पादन, जन सुविधाओं के सुधार, गरीबी और अषिक्षा से लड़ने के लिए 20 सूत्री आर्थिक कार्य म घोषित हुये। गिरफ्तारियाँ - अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू होने के बाद इंदिरा गाँधी को असाधारण षक्तियां मिल गईं। विपक्षी नेताओं जयप्रकाष नारायण, लालकष्ष्ण आडवाणी, चरण सिंह, मोरारजी देसाई, राजनारायण के अलावा सकै डा़ े नते ाआ,ंे कायर्क र्ताअ ा ंे का े मीसा एक्ट ३मटंे ीनसंे आॅफ इटरनल सिक्याेिरटी एक्ट७ के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। तमिलनाडु में एम करूणानिधि सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। कई राजनीतिक दलांे को प्रतिबंधित कर दिया गया। राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया।
मीसा 1971 में पारित एक विवादित कानून था उसमें सुरक्षा एजेन्सियों को असीमित षक्तियाँ मिली थीं। इसके तहत बिना वारंट के लोगों को गिरफ्तार कर अनिष्चितकालीन तक जेलों में रखा जाता था। नसबंदी कार्य म - बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए परिवार नियोजन कार्य म षुरू किया गया था। उसमें नसबंदी कार्य म वैसे तो स्वैच्छिक था लेकिन कहा जाता है कि इसको जबरिया लागू करते हुए उनके अविवाहित लोगों को भी इसके लिए मजबूर किया गया। इस कार्य म में संजय गांधी की भूमिका मानी जाती है। प्रेस - सबसे ज्यादा मीडिया की आजादी पर अंकुष लगाया गया। सेंसरषिप लागू कर दी गई। इस पर अंकुष लगाने के लिए इंदिरा गाँधी ने इन्द्र कुमार गुजराल को हटाकर विधाचरण षुक्ल को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया। कानून में परिवर्तन - इंदिरा गाँधी को संसद में दो तिहाई बहुमत था। उन्होंने कई कानूनों को बदल दिया। संविधान मंे संषोधन कर दिया गया। 42वें संविधान संषोधन उसी दौर में किया गया।
1977 के चुनाव - 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गाँधी ने नए चुनाव की घोषणा करते हुए सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया। 23 मार्च को आधिकारिक रूप से आपातकाल समाप्ति की घोषणा की गई। मार्च में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी और संजय गाँधी दोनों ही चुनाव हार गए। बिहार और उत्तर प्रदेष जैसे राज्यों से कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला। मोरार जी देसाई के नेतष्त्व में जनता पार्टी भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आई।13
14. संघ में तेज उत्थान:-
संघ में उनकी कुषल कार्यषैली से प्रभावित होकर लक्ष्मणराव
देषमुख ने जुलाई 1975 में उन्हें गुजरात लोक संघर्ष समिति का महासचिव बना दिया। इसके पहले ही मोदी ने सगठन में हर स्तर पर न सिर्फ अपनी जरूरत का अहसास करवा दिया था, बल्कि संगठन के हर काम में वे खुद षामिल रहते थे। जून में ही इंदिरा गाँधी ने देष में आपातकाल लागू किया था और गुजरात में इसके विरोध में हो रहे आंदोलन से संघ जुड़ा ही था। इस दौरान मोदी के कामों का नतीजा था कि संघ में उनका तेजी से उत्थान हुआ। आपातकाल व ‘राज्य के षत्रु’ - आपातकाल के दौरान गुजरात में संघ के सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। मोदी को हेडगेवार भवन का कनिष्ठ कर्मचारी मान छोड़ दिया गया। मगर भूमिगत आंदोलन को न सिर्फ संगठित किया, बल्कि मीडिया पर पाबंदी के बावजूद इस सरकारी अतिरेक से जुड़ी खबरें, पर्चों के रूप में देष ही नहीं विदेष भिजवाने का भी प्रबंध किया। कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षित ठिकाने और पैसे जुगाड़े। उस वक्त सरकार ने विरोध करने वाले लोगों को राज्य का षत्रु करार दिया।14
15. आपातकाल के लिए इंदिरा नहीं जिम्मेदार:-
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माखनलाल फोतेदार का मानना है कि सन् 1975 में आपातकाल लगाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी जिम्मेदार नहीं थीं। इस कार्य के लिए तब के पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिार्थ षंकर राय ने उकसाया। उनसे सवं ाददाता अजीत मैंदोला की बातचीत हुई, पेष है इस बातचीत के प्रमुख अंष -
40 साल पहले तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई थी। उसके पीछे क्या वजह थी?
मंै पहले यह बात साफ कर देना चाहता हूँ कि इंदिरा गाँधी इमरजेंसी के लिए जिम्मेदार नहीं थी। यह अलग बात है कि उन्होंने ही इसकी घोषणा की। फिर सब कुछ उनके ¯पर डाल दिया गया। सच तो यह है कि सिार्थ षंकर राय जैसे नेताआ ें ने उनके सामने इमरजसें ी का माहौल बनाया। इंिदरा गाँधी क े चुनाव पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद ऐसा माहौल बनाया गया कि उन्हें इमरजेंसी लगानी पड़ी। फिर माहौल ऐसा बनाया गया कि इंदिरा गाँधी ही पूरी तरह से जिम्मेदार है।
क्या उस समय इमरजेंसी लगाने के हालात थे?
नहीं, ऐसे कोई हालात नहीं थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जैसे
मंैने पहले कहा कि सिार्थ षंकरराय ने गाँधी को कठोर कदम उठाने की सलाह दी। उसमें एक इमरजेंसी का भी सुझाव था। इंदिरा गाँधी ने सहयोगियों से बातचीत की लेकिन उनके मन में सिार्थ षंकर राय की बात बैठ गई। आप कह रहे हंै कि गाँधी परिवार इमरजेंसी के लिए कतई
जिम्मेदार नहीं था। संजय गाँधी की भी र्कोई भूमिका नहीं थी?
मुझे जो कहना था कह दिया है लेकिन आप एक बात नहीं देख रहे है।
जनता ने ढ़ाई साल बाद ही कांगे्रस को फिर से सत्ता में बिठाया था। यह सब गाँधी परिवार की वजह से ही हुआ था क्योंकि जनता गांधी परिवार को प्यार करती थी। इंदिरा गाँधी के पीछे जनता पागल थी। दो साल में ही गैर कांग्रेस सरकार एक्सपोज हो गई थी। भानुमति का ऐसा कुनबा था जो एक ही झटके में तार-तार हो गया। फिर इंदिरा गाँधी के नेतष्त्व में कांग्रेस सरकार बनी। जनता ने भारी बहुमत को लेकर जनता में रोष होता तो कभी भी कांगे्रस की वापिसी नहीं होती। लेकिन, जनता ने आपातकाल का े लके र कागं स्रे का े तुरन्त माफ कर दिया था। उसक े बाद कागं स्रे आगे बढ़ती गई। विपक्ष बिना मतलब के आपातकाल को लेकर ही हल्ला मचाता है। आपको लगता है कि कभी फिर से देष में आपातकाल लग
सकता है?
मंै दूसरे दलों के बारे में तो नहीं बता सकता। लेकिन, कांग्रेस की तरफ से फिर कभी आपातकाल नहीं लगाया जाएगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि कांग्रेस सत्ता में रहते कभी
भी इमरजेंसी जैसा कदम फिर नहीं उठाएगी।15
16. कष्षि पर कर के पक्ष में थीं इंदिरा:-
इंदिरा ने सन् 1975 में कष्षि से होने वाली आय तथा अमीर ग्रामीणों पर
कर लगाने के पक्ष में विचार जताए थे। बेंगलूरू में इन्स्टीट्यूट फाॅर सोषल एण्ड इकोनाॅमिक चेंज को संबोधित करते हुए उन्हांेने राज्यों से कहा था कि वे गांव के अमीरों व कष्षि से होने वाली आय पर कर लगाने से रोकने वाली बाध्यताओं को खत्म करें। सिंचाई के लिए पानी व बिजली पर सब्सिडी को उन्होंने गलत बताया
था।16
17. भाजपा ने मनाया काला दिवस:-
भरतपुर- भाजपा मीसा के 40 वर्ष पूर्ण होने पर 25 जून को काला दिवस मनाया। पार्टी के महामंत्री षिवराज सिंह के अनुसार यह निर्णय बैठक में किया गया। बैठक में आगामी निकाय चुनावों के बारे में भी चर्चा की गई। बैठक में प्रदेष उपाध्यक्ष भजनलाल षर्मा, विधायक विजय बंसल, किसान मोर्चा के प्रदेष उपाध्यक्ष जवाहर बेढ़म, जिला अध्यक्ष भानुप्रताप सिंह तथा मोहन रारह आदि मौजूद थें17
18. आग गई वह काली रात - पहले घोषणा, बाद में हस्ताक्षर:-
25 जनू की मध्यरात्रि का ेमंित्रमण्डल की अनष्ु ाष्ंाा पर राष्टपश् ति फखरूदद् ीन अली अहमद ने देष में आपातकाल की घोषणा कर दी। यद्यपि माना जाता है कि आपातकाल की घोषणा रेडिया पर पहले कर दी गई थी तथा बाद में सुबह मंत्रिमण्डल की बैठक के बाद उस पर राष्टश्पति ने हस्ताक्षर किया। यद्यपि संवैधनिक प्रावधान है कि मंत्रीमण्डल की बैठक के बाद उसकी अनुषंषा पर जब राष्टश्पति हस्ताक्षर कर देते हंै तब आपातकाल की घोषणा की जा सकती है।18
19. इंदिरा गांधी:-
आपातकाल के दौरान भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के करीब एक अमरीकी जासूस हुआ करता था। विकिलीक्स के हालिया केबल्स का दावा है कि सन् 1976 से ही अमरीकी सरकार को पता था कि इंदिरा गाँधी सन् 1977 मंे आम चुनाव करा सकती है। एक अन्य केवल के मुताबिक आपातकाल के एक दिन बाद अमरीकी दूतावास ने संदेष भेजा था कि आपातकाल के पीछे संजय गाँधी व आरके. धवन अहम षख्स थे।19
20. जेपी ने दिया आंदोलन को नेतष्त्व:-
गुजरात के असंगठित नव निर्माण आंदोलन के आंदोलन से सबक लेते हुए जेपी ने बिहार के छात्र आंदोलन को एक संगठन, लक्ष्य, नेतष्त्व और करिष्मा प्रदान किया। उन्होंने छात्रों से आग्रह किया कि वे एक साल के लिए अपना काॅलेज
छोड़कर एक वैकल्पिक राजनीतिक प्रणाली के निर्माण के लिए संघर्ष करें।
लगभग सभी राजनीतिक दल अपने मतभेद भुलाकर जेपी के साथ खड़े हो गये। जल्दी ही आंदोलन का लक्ष्य प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को हटाना और भ्रष्टाचार तथा एकाधिकार षासन का अंत हो गया। बताया जाता है कि जेपी मार्च 1975 के ‘संसद मार्च’ मंे 4 लाख से भी अधिक लोग सम्मिलित हुए। 25 जून 1975 को रामलीला मैदान की महारैली में जेपी ने पुलिस और सैनिक बलों से असंवैधानिक और अनैतिक आदेषों को नहीं मानने का आग्रह किया। बाद में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने के लिए ‘आंतरिक अषांति’ की आषंका को इसी भाषण के आधार पर तर्कसंगत ठहराया था।20
21. दो षीर्ष अदालतों का निर्णय:-
इस पूरी स्थिति में इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय ने आग में घी डालने के लिए काम किया। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीष जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गाँधी का चुनाव निरस्त कर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगाया। उन पर चुनाव में सरकारी मषीनरी का दुरूपयोग, अधिक खर्च करने का आरोप राजनारायण ने लगाया था। उच्च न्यायालय ने आरोपों को आंषिक रूप से सही ठहराया। इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा से इन्कार करते हुए फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीष जस्टिस कष्ष्ण अय्यर ने 24 जून 1975 के अपने अंतरिम आदेष में इंदिरा गाँधी को बिना षर्त राहत नहीं दी। पूर्व दष्ष्टांतों के आधार पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बने रहने, संसदीय कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दी पर संसद में वोट देने की अनुमति नहीं दी। विपक्ष की प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग तेज हो गई।21
22. जंजीरों में जकड़े गए जाॅर्ज:-
आपातकाल के दौरान तत्कालीन केन्द्र सरकार ने विपक्षी नेता जाॅर्ज फर्नांडीस और 24 अन्य लोगों के खिलाफ बड़ौदा डायनामाइट नामक आपराधिक मामला दर्ज किया था। सरकार की तरफ से सीबीआई ने यह आरोप लगाया था कि जाॅर्ज और उनके सहयोगियों ने सरकारी प्रतिष्ठान और रेलवे लाईन उड़ाने के लिए डायनामाइट की तस्करी की। समाजवादी नेता जाॅर्ज को जेल में जंजीरों में जकड़ कर रखा गया था। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी की सरकार आने पर फर्नांडीस और उनके सहयोगियों के खिलाफ चल रहा मामला वापिस ले लिया गया था।22
23. आपातकाल के ‘सूत्रधार’ः-
समाजवादी नेता राजनारायण को आपातकाल का सूत्रधार माना जाये तो अतिष्योक्ति नहीं होगी। सन् 1971 के चुनाव में रायबरेली से इंदिरा गाँधी से हारने के बाद राजनारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। लंबी बहस के बाद 12 जून 1975 में न्यायालय में इंदिरा गाँधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया। यहीं से आपातकाल लगाने की कहानी षुरू हुई। आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में राजनारायण ने एक बार फिर इंदिरा गाँधी का मुकाबला किया और उन्हें भारी मतों से हराया। केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनने पर राजनारायण को मंत्री पद से नवाजा गया। यह अलग बात है कि राजनारायण की वजह से जनता पार्टी टूटी।23
24. आपातकाल के ‘खलनायक’:-
इन्दिरा गाँधी के छोटे पुत्र संजय गाँधी की आपातकाल में खासी भूमिका रही। आपातकाल के दौरान अपनी माँ इंदिरा गाँधी के प्रमुख सलाहकार के रूप में वे कार्य किया करते थे। इस दौरान दिल्ली के कई इलाकों में अति मण हटाने से लेकर जबरन नसबंदी थोपे जाने के पीछे भी उनका ही हाथ होने की चर्चा राजनीतिक गलियारों में रहीं। सन् 1977 में लोकसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा। 23 जून 1980 को एक दुर्घटना में उनकी मौत हो गई। संजय गाँधी की भूमिका को उस दौरान के अनेक कांग्रेसी नेता भाई नापसंद करते थे लेकिन संजय के सामने बोलने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी। एक दुर्घटना ने 34 वर्ष की उम्र में ही संजय गाँधी को देष की राजनीतिक से छीन लिया।24
25. फैसले ने बदली राजनीतिक हवा:-
इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीष जगमोहन लाल सिन्हा आपातकाल के चर्चित चेहरों में षुमार हंै। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को लोकसभा चुनाव के खिलाफ दायर याचिका पर उन्होंने ऐतिहासिक फैसला दिया। इसके तहत इंदिरा गाँधी का चुनाव अवैध घोषित किया गया था। सिन्हा के फैसले से देष ही नहीं दुनिया भी सन्न रह गई। इंदिरा गाँधी के खिलाफ दायर याचिका में उनके प्रतिद्वन्दी राजनारायण ने उनके खिलाफ स ाा के दुरूपयोग के आरोप लगाए थ।े उस दौर म ंे सिन्हा न े जा े एेितहासिक फैसला दिया उसकी चर्चा आज चार दषक बाद भी होती है। सात साल पहले सिन्हा इस दुनिया से विदा हो गए थे।25
26. सम्पूर्ण ान्ति के नायक:-
सम्पूर्ण ान्ति के जनक के रूप में पहचान बनाने वाले जयप्रकाष नारायण की पहचान लोकनायक के रूप म ें रही है। सन् 1974 म ें बिहार और गुजरात में चले छात्र आन्दोलन का नेतष्त्व जयप्रकाष नारायण ने किया। आपातकाल के दौरान 21 महीने की जेल काटने के बाद सन् 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्हें आपातकाल के हीरो के रूप में पहचाना जाता है। पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार के केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के लिए जयप्रकाष नारायण को ही श्रेय जाता है। राजनीति में रहते हुए भी जयप्रकाष नारायण ने कभी स िय राजनीति में आने या पद की महत्वाकांक्षा नहीं पाली।26
27. क्या है आपातकाल:-
देष में आतंरिक अषांति को खतरा होने, बाहरी आ मण होने अथवा वि ाीय संकट की हालात में आपातकाल की घोषणा की जाती है। देष में सन् 1962 में चीन के साथ एवं 1971 में पाकिस्तान के साथ यु के दौरान आपातकाल का दौर देखा था, पर यह बाहरी आ मण के कारण लगाया गया था। 25 जून 1975 की मध्यरात्रि 21 मार्च 1977 के बीच जो आपातकाल का दौर देष ने देखा, वह ‘आतंरिक अषांति’ के कारण अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत लगाई गई थी।
सन् 1971 के यु में सोवियत संघ ने भारत का साथ दिया था तथा अमरीका ने पाकिस्तान का। घरेलू मोर्चे पर इसका असर यह हुआ कि आर्थिक क्षेत्र में भारत की नीतियां अधिकाधिक समाजवादी होती गई तथा अन्तर्राष्टश्ीय व्यापार में भी भारत कई तरह की संधियों आदि के माध्यम से सोवियत संघ के निकट आता गया।
व्यापार कारोबार पर राज्य का नियंत्रण अधिकाधिक बढ़ता गया। आयकर की दरें अपने 80-90 प्रतिषत तक पहुंच गई थीं। आर्थिक स्वतंत्रता सीमित से सीमित होती जा रही थी। दुर्भाग्य से 1971-72 और 1972-73 भारी सूखा के वर्ष भी रहे। इससे एक तरफ अनाज उत्पादन गिरा तो दूसरा तरफ बिजली उत्पादन पर भी नकारात्मक असर हुआ। इन्हीं वर्षों के दौरान कच्चे तेल के दाम तीन गुना बढ़े जिससे 1971 के बाद के वर्षाें म ें महं गाई दर 10 प्रतिषत से भी अधिक रही। समन्वित असर यह हुआ कि गरीबी, बेरोजगारी तथा मंहगाई अपने चरम पर पहुंच रहे थे। नतीजा था व्यापक असंतोष। पर एकाधिकारवाद की ओर बढ़ रही कांग्रेस एक राजनीतिक दल के रूप में एक असंतोष को समायोजित करने के लिए तैयार नहीं
था।27
28. लोकतंत्र का काला दिन:-
सियासी बवंडर, भीषण राजनीतिक विरोध और कोर्ट के आदेष के चलते इंदिरा गाँधी अलग-थलग पड़ गई। ऐसे में पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिार्थ षकं र राय ने उनको देष मे ं आतंिरक आपातकाल घोषित करने की सलाह दी। इसमें संजय गाँधी का भी प्रभाव माना जाता है क्योंकि तब तक वह भी संविधानेत्तर षक्ति की तरह व्यवहार करने लगे थे। सिार्थ षंकर ने आंतरिक अषांति के चलते देष की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे के चलते इमरजेंसी लगाए जाने संबंधी मसौदे को तैयार किया था।
राष्टश्पति की मुहर - 25 जून, 1975 की रात को राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री की सलाह पर उस मसौदे पर मुहर लगाते हुए देष में संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित कर दिया। इसके तहत लोकतंत्र को निलंबित कर दिया गया। संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रधानमंत्री की सलाह पर वह छह महीने बाद 1977 तक आपातकाल की अवधि बढ़ाते रहे।28
29. राजनीतिक असंतोष:-
सन् 1973-75 के दौरान इंदिरा गाँधी सरकार के खिलाफ देषभर में राजनीतिक असंतोष उभरा। गुजरात का नव निर्माण आंदोलन और जेपी का सम्पूर्ण ांति का नारा उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण था।29
30. ऐतिहासिक फैसला:-
1971 के चुनाव में सोषलिस्ट पार्टी के नेता राजनारायण को इंदिरा गाँधी ने रायबरेली से हरा दिया। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्जी दायर कर इंदिरा पर आरोप लगाया था कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मषीनरी का दुरूपयोग कर चुनाव जीता। षांति भूषण ने उनका केस लड़ा। इंदिरा गाँधी को हाईकोर्ट में पेष होना पड़ा। वह किसी भारतीय प्रधानमंत्री के कोर्ट में उपस्थित होने का पहला मामला था।
12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा
ने फैसले सुनाते हुए इंदिरा गाँधी को दोषी पाया। रायबरेली से इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैध ठहराया। उनकी लोकसभा सीट रिक्त घोषित कर दी गई और उन पर छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई। हालांकि वोटरों को रिष्वत देने और चुनाव धांधली जैसे गंभीर आरोपों से मुक्त कर दिया गया।30
31. नवनिर्माण आंदोलन:-
आर्थिक संकट और सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ
छात्रों और मध्यम वर्ग के उस आंदोलन से मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा। केन्द्र सरकार को राज्य विधानसभा भंग कर राष्टश्पति षासन लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा।31
32. सम्पूर्ण ान्ति:-
मार्च-अपै्रल 1974 में बिहार के छात्र आंदोलन का जयप्रकाष नारायण ने
समर्थन किया। उन्होंने पटना में सम्पूर्ण ान्ति का नारा देते हुए छात्रों, किसानों और श्रम संगठनों से अहिंसक तरीके से भारतीय समाज का रूपान्तरण करने का आव्हान किया। एक महीने बाद देष की सबसे बड़ी रेलवे यूनियन राष्टश्व्यापी हड़ताल पर चली गई। इंिदरा सरकार न े निर्मम तरीक े स े इस े कुचला। इसस े सरकार क े खिलाफ जन असंतोष बढ़ा। 1966 से स ाा में काबिज इंदिरा के खिलाफ इस अवधि तक लोकसभा में 10 अविष्वास प्रस्ताव पेष किये गये।32
33. अंग्रेजों जैसे जुल्म
फिरोजाबाद: पूरे 40 साल पहले 25 जून 1975 को देष में आपातकाल लागू होते ही राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था। षहर में पीडी जैन इंटर काॅलेज में राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ का षिविर लगा था। जैसे ही संघ पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा हुई, तो षिविर को निर्धारित अवधि से दो दिन पहले ही आनन-फानन म ें खत्म कर दिया गया। इसके बाद बचते बचाते किसी तरह स्वयं सेवकों को उनके जिलों तक पहुंचाया गया। पुलिस ने उस दौरान अंग्रेजों जैसे जुल्म सत्याग्रहियों पर
पीडी जैन इटं र काॅलेज म ें आयोजित प्राथमिक सघ्ं ा षिक्षा वर्ग के समापन कार्य म में षामिल होने के लिए दो दिवसीय प्रवास पर सर संघ चालक बाला साहब देवरस आए हुए थे। देवरस को नागपुर जाते समय रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया गया। षहर में अफरा-तफरी मच गई। आपातकाल लगते ही गिरफ्तारियां षुरू हो गई थीं। कई कार्यकर्ता 26 जून की रात को गिरफ्तार हो गए। आचार्य लाल नरूला एवं लक्ष्मीनारायण जैन को गिरफ्तार कर श्री नगर स्थित संघ कार्यालय पर ताला डाल दिया गया। आंदोलन में सत्याग्रही रहे बुजुर्ग बताते हंै कि कार्यकर्ताओं के घर दिन रात ऐसे दबिषे ं दी गई,ं जैसे किसी बदमाष को पकडऩ े पुलिस आई हो। आधी रात को सीढ़ियाँ से घरों में पुलिस वाले घुस आते थे, मारपीट करते हुए जेल भेज देते थे। साथियों को या जानकारों को हर तरह से उत्पीड़ित किया गया। इस दौरान युवा पुलिस का े चकमा दने े म ंे कामयाब रह े 14 नवम्बर 1975 का े जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन के मौके पर जब लोक संघर्ष समिति ने आहवान किया तो जत्थों के रूप में गिरफ्तारी देने का सिलसिला षुरू हो गया। गिरजा ष्ंाकर, पं. रामस्वरूप, सुषील मिश्रा, रविन्द्र षर्मा दिनकर, प्रकाष गुप्ता आदि के नेतष्त्व में जत्थे निकलते और तहसील पर गिरफ्तारियां देते। पूरे समय जेल में बंद रहे आष्चर्य लाल नरूला व लक्ष्मी नारायण जैन इलाहाबाद की नैनी जेल से रिहा होकर आए, तो हजारों लोगों ने उनकी आगवानी की।33
34. आपातकाल की मनाई वर्षगांठ - लोकतंत्र की करें रक्षा:-
भरतपुर- सर्वोदय संस्थान की ओर से 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल की वर्षगाठं पर आयाेिजत गाष्ेठी म ंे वक्ताआ ंे न े वर्तमान पी
नगर सुधार न्याय के पूर्व अध्यक्ष गुलराज गोपाल खण्डेलवाल ने कहा कि देष की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले सैनानी हंै, जिन्होंने कठिन यातनायें सहन करते हुए देष की रक्षा की। संस्थान अध्यक्ष गिरधारी तिवारी, व्यापार महासंघ के जिलाध्यक्ष संजीव गुप्ता, डाॅ. सतीष भारद्वाज, मदनलाल आजाद एवं मूलचन्द आर्य ने आपातकाल के सस्ं मरण सुनाए और कहा कि पहले लोकतत्रं ईमानदार था, लेकिन आज का लोकतंत्र पूरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। संचालन अनिल लोहिया ने व आभार सुनील गोयल ने जताया।34
35. विकीलीक्स का खुलासा - भूमिगत होकर चला रहे थे गतिविधियाँ - आपातकाल मंे सीआईए से मदद को तैयार थे फर्नांडीज:-
एक अगं ्रेजी अखबार की रिपोर्ट के अनुसार विकिलीक्स ने राजग सरकार
में रक्षा मंत्री रहे जाॅर्ज फर्नाडींज के संबंध में खुलासा किया है कि वे सन् 1975 में आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के खिलाफ सीआईए और ांस से आर्थिक मदद लेने को तैयार थे। आपातकाल के दौरान जाॅर्ज फर्नांडीज
भूमिगत होकर सरकार के खिलाफ गतिविधियाँ चला रहे थे।
रिपोर्ट के मुताबिक खुद को अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोधी बताने वाल े जाॅर्ज फनार्डं ीज नवम्बर 1975 म ंे कहा था कि व े सरकार क े खिलाफ गतिविधियाँ चलाने के लिए सीआईए से भी धन और मदद लेने के लिए तैयार थे। रिपोर्ट के मुताबिक जाॅर्ज फर्नांडीज ने 1 नवम्बर 1975 को ांसीसी नेता के साथ एक बैठक में कहा था कि वे आपातकाल का विरोध करने वाले सरकारी प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करना चाहते हंै। इसलिए वे उनकी मदद चाहते हंै। जाॅर्ज फर्नांडीज ने सबसे पहले ांसीसी सरकार से मदद मांगी। जब ांसीसी सरकार ने इनकार कर दिया तो उन्हानंे े ासं ीसी नते ा टरलैक स े पछू ा कि क्या व े र्सीआइए क े कछु सम्पर्क बता सकते है। हालांकि ांसीसी नेता सीआईए संपर्क की जानकारी से इनकार कर दिया था।
यह है दस्तावेज में -
अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ की रिपोर्ट के मुताबिक विकिलीक्स ने खुलासा किया है कि 28 नवम्बर 1975 को एक केबल नई दिल्ली मे ं मौजदू अमरीकी दतू ावास से वांषिगटन भेजा गया। इस केबल में कहा गया कि 8 नवम्बर को कोई मिस गीता ने अमरीकी लेबर काउन्सलर से आग्रह किया है कि क्या वो जाॅर्ज फर्नांडीज की अमरीकी राजदूत से मुलाकात करवा सकते हंै।
विकिलीक्स के मुताबिक ांसीसी नेता टरलैक से मुलाकात के दौरान जाॅर्ज ने दावा किया था कि उनके पास करीब 300 लोग हंै, जो देष में विध्वंसक गतिविधियाँ करने के लिए पूरी तरह से तैयार हंै। जाॅर्ज फर्नांडीज उस वक्त आॅल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेषन के अध्यक्ष थे और इमरजेंसी की घोषणा के साथ ही वे
भूमिगत हो गए थे।
हालांकि विकिलीक्स के खुलासे का ये कहना है कि उसे ऐसा कोई केबल नहीं मिला, जिससे पता चलता हो कि अमरीका ने जाॅर्ज फर्नांडीज की मदद की। कई केबल्स से पता चलता है कि अमरीका ने जाॅर्ज के आग्रह पर काफी रूचि दिखाई थी और इस अंदरखाने बहस भी हुई थी।
विकिलीक्स करेगा और खुलासे -
लंदन - भंडाफोड करने वाली बेवसाइट विकीलीक्स 1970 के दषक के 17 लाख से अधिक अमरीकी राजनयिक आरै खुिफया दस्तावजे जारी करन ेजा रहा ह।ै विकिलीक्स के संस्थापक जुलियान असांज ने यह खुलासा किया है। वेबसाइट द्वारा जारी किए जाने वाले दस्तावेज में केबल्स, खुफिया रिपोर्ट और कांग्रेस द्वारा किए गए पत्राचार
षामिल होंगे।
असांज ने लंदन में इक्वाडोर दूतावास में रहकर अधिकतर काम किया है और उन्होंने प्रेस एसोसिएषन को बताया कि रिकाॅर्ड विष्व में अमरीका के ‘व्यापक प्रभाव’ को दिखाता है।
अंसाज ने दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न के आरोपों में स्वीडन को अपने प्रत्यार्पण से बचने के लिए पिछले नौ महीने से इक्वाडोर के दूतावास में षरण ले रखी है। विकिलीक्स न े वर्ष 2010 म ंे 2,50,000 स े अधिक अमरीकी कबे ल्स जारी कर दुनियाभर में तहलका मचा दिया था।35
36. लोकनायक की 113वीं जयन्ती पर पीएम मोदी ने कहा - लोकतांत्रिक
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक लगे आपातकाल को लोकतंत्र पर सबसे बड़ा आघात करार दिया। उन्होंने कहा कि इसकी यादों को बनाए रखने की जरूरत है ताकि देष के लोकतांत्रिक
लोकतंत्र के प्रहरी कार्य म में मोदी ने कहा कि उस अवधि में देष को संकट के जिस दौर से गुजरना पड़ा, उसे भारतीय लोकतंत्र को संतुलित किया और यह मजबूत होकर निकला। मोदी ने आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने वालों का आभार जताया। उन्हांेने आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने वालों और जेल जाने वाले कुछ लोगों को सम्मानित भी किया। लोकनायक जयप्रकाष नारायण की 113वीं जयन्ति पर श्रांजलि देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि जयप्रकाष नारायण एक संस्थान और आदर्ष थे। इमरजेंसी के दैरान एक नई राजनीतिक पीढ़ी ने जन्म लिया जो जेपी की प्रेरणा से लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति पूरी तरह से समर्पित थे। मोदी ने कहा, आपातकाल विरोधी संघर्ष से जो सबसे बड़ा संदेष निकल कर सामने आया, वह दमन के खिलाफ संघर्ष करने की प्रेरणा थी। इसलिए आज राजनीति में कई लोग अपने प्रारम्भिक दिनों को इमरजेंसी से, जेपी आंदोलन नवनिर्माण आंदोलन से जोड़ते हंै, जिसने देष को नई तरह की राजनीति प्रदान की। लोकतंत्र के लिए जयप्रकाष नारायण के संघर्ष को मानक बनाये जाने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि उनके भाषणों में उन लोगों के गहरे आ ोष की अभिव्यक्ति होती है जो आपातकाल के दौरान प्रभावित हुए थे।
वाजपेयी, फर्नांडिस से की मुलाकात -
इससे पहले प्रधानमंत्री पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आवास पर जाकर उनसे मिली। मोदी ने एनडीए के पूर्व संयोजक जाॅर्ज फर्नाडिंस के आवास पर भी जाकर उनसे भेंट की जिन्होंने उन दिनों में लोकतंत्र के लिए संघर्ष में महत्वपूर्ण
भूमिका अदा की थी।
आडवाणी को सम्मान -
प्रधानमंत्री मोदी ने समारोह में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकष्ष्ण आडवाणी, षिरोमणि अकाली दल के प्रकाष सिंह बादल, राज्यपाल कल्याण सिंह, ओपी कोहली, बलराम दास टंडन और बजूभाई वाला, लोकसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर करिया मुंडा के अलावा भाजपा नेता वीके मल्होत्रा, जयन्ती बेन मेहता और सुब्रमण्यम स्वामी को सम्मानित किया गया। उन्होंने राकांपा नेता डीपी त्रिपाठी, पत्रकार वीरेन्द्र कपूर, के वि म राव, प्रो. रामजी सिंह, कामेष्वर पासवान और आरिफ बेग को भी सम्मानित किया।36
37. आपातकाल ने सिखाया मोदी को राजनीति का पाठ:-
40 वर्ष पर्वू इंिदरा गाध्ंाी द्वारा लगाया गया आपातकाल भारतीय राजनते ाआंे के लिए एक ऐसा समय माना जाता है जिसे उन्होंने पूर्ण रूप से राजनीतिक रूप से निभाया था। संजय गाँधी के साथ कई अन्य कांग्रेस नेताओं ने भी इंदिरा गाँधी के इस फैसले पर साथ दिया। जिन्हें समकालीन राजनीति के इतिहास में याद भी किया जाता है। आपातकाल के विरू किए गए प्रयासों में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी सहभागिता निभाई थी। नवयुवक के तौर पर उस समय अपनी समझदारी और सूझबूझ का कौषल दिखाने के लिए मोदी को काफी प्रोत्साहन भी मिला और वही एक दौर था जब मोदी खुद को राजनीति में प्रवेष करता महसूस कर पा रहे थे। दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतष्त्व में चलाए जा रहे जनसंघ सत्याग्रह में मोदी ने पहली बार सहभागिता की। सन् 1971 में नवयुवक के तौर पर वे इन सत्याग्रहों का हिस्सा बने। इस दौरान मुक्ति वाहिनी का साथ देने के विरोध में सरकार ने उन्हें जेल में भी डाल दिया। कई प्रकार की उच्च स्तरीय जिम्मेदारियों के चलते एक वर्ष के अंदर ही मोदी को अहमदाबाद में स्वयंसेवक कार्यालय का प्रचारक बना दिया। एक या दो साल के भीतर उनका कद बढ़ गया था। उसी समय नवनिर्माण आंदोलन इंदिरा गाँधी के लिए एक राजनीतिक संकट में तब्दील हो चुका था। इस दौरान मोदी स्वयंसेवक कार्यालय में आए पत्रों के जबाव देते थे और कार्यकर्ताओं के लिए रेल व बस के रिजर्वेषन का कार्य किया करते थे। आपातकाल के दौरान लोगों में ‘क्या सही है’ इस बात की समझ बढ़ाने के लिए ‘सरू सर्व जाने’ ३सही क्या है सभी को जानना चाहिए७ कार्य म के तहत उन्होंने जन जागष्ति षुरू की। आपातकाल क े विरू मादे ी का े गुप्त रूप स े कार्यांे का े करना पडा़ जिसक े लिए आरएसएस ने उन्हें गुजरात की लोक संघर्ष समिति का अधिकारी नियुक्त किया। इस दौरान दिल्ली की जेल में कैद लोगों से वे अलग-अलग रूप व कपड़ों में जाया करते थे। साथ ही उन्होंने अपना एक नकली नाम भी रखा ‘प्रकाष।’ इन साहसी कार्यों से वे जनता के लिए अद्वितीय षोभा के रूप में सामने आये।
भारतीय मजदूर संघ की नींव रखने वाले द ाोपंत थेगड़ी से भी उनकी नजदीकियाँ बढ़ने लगी। सरसंघचालक के पिता कहे जाने वाले मधुकरराव भागवत मोदी के विष्वसनीय सलाहकार भी थे। देष भर में नीतियों को पूरा करने और गुप्त रूप से किसी हितकारी कार्य म को परिणाम देने के लिए वे काफी पहचाने जाने लगे। उन्हें ‘विचारषील’ व्यक्ति भी कहा जाने लगा। संघ की कार्यकारिणी को संभालने के दौरान 37 वर्ष पूर्व उन्होंने राजनीति में प्रवेष करने का फैसला लिया था।37
38. याद रखने की जरूरत है कि आपातकाल के पीछे पूरा सत्ता प्रतिष्ठान
था, सिर्फ इंदिरा गाँधी नहीं। उस दौरान देष की स्वतंत्र संस्थाओं ने घुटने टेक दिए थें। सच यह भी है कि इमरजेंसी के खिलाफ हमारा संघर्ष बहुत कमजोर था।
क्या आपातकाल के सबक याद हैं
यह सच है कि आखिर जनता के वोट ने अधिनायकवाद के खतरे को रोका। बेषक, 1977 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र का स्वर्णिम अध्याय था। लेकिन याद रहे कि जनता का वोट आपातकाल की ज्यादतियों और सत्ताधारियों के अहंकार के खिलाफ था, लोकतांत्रिक नियम-कायदे के उल्लंघन के खिलाफ नहीं। दक्षिण भारत में आपातकाल की ज्यादतियां नहीं हुई, वहां जनता ने 1977 में भी कांग्रेस को जमकर जिताया। दरअसल हमारे जनमानस में लोकतांत्रिक प्र ियाओं और नियम-कायदे को लेकर कोई गहरी समझदारी न उस वक्त थी, न आज है। लाल कष्ष्ण आडवाणी के बयान से उठने वाला असली सवाल यह नहीं है कि आज इमरजेंसी स्थिति बन सकती है या नहीं। जाहिर है अगर दोबारा आपातकाल आएगा, तो उसी रूप में संविधान के अनुच्छेद 352 के सहारे तो नहीं आएगा। वह राष्टश्वाद, संस्कष्ति या विकास का कोई नया लबादा ओढ़कर भी आ सकता है। असली सवाल यह है कि अगर आज इमरजंेसी जैसी स्थिति बनती है, तो क्या हम उसे पहचानने और उसका मुकाबला करने के लिए तैयार है? क्या हम मजबूत नेता की जगह सामूहिक नेतष्त्व पसंद करेंगे? क्या हम स्वायत्त संस्थाओं की आजादी की रक्षा करेंगें? क्या हमारा मीडिया लोकतंत्र पर हमले को पहचानेगा? क्या हमारे बुजिीवी ऐसे किसी हमले के खिलाफ बीच का रास्ता छोड़कर ठोस आवाज उठाएंगे? सवाल यह है कि क्या हमें आपातकाल के सबक याद है? इसका जवाब लालकष्ष्ण आडवाणी को नहीं, हमें और आपको देना है।38
39. अभी बाकी हैं बहुत खुलासे: विकिलीक्स पर भी राजनीति?
विकिलीक्स के ताजा खुलासों ने यह साबित कर दिया कि राजनीति ने विकीलीक्स को गंभीरता से नहीं लिया है और विकिलीक्स से कुछ भी नही सीखा है। जब विकिलीक्स की कोई सूचना आती है तो सरकारं और राजनीतिक पार्टियां अपनी राजनीति की तराज ू परस सचू ना को तौलती है।ं ताजा खुलासे देष के दो बडे़ नेताओं के बारे में आए- राजीव गाँधी और जार्ज फर्नाडिस। कांगेस पार्टी ने राजीव गाँधी के खिलाफ किसी सबूत से इंकार कर दिया, लेकिन जार्ज को निषाना बनाया और कांगे्रस के प्रवक्ता ने मानों एक तरह से फैसला ही सुना दिया कि आपातकाल के दौरान जार्ज को अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईआई से पैसे मिले थे। ये कैसी राजनीति हैं। विकीलीक्स द्वारा जारी सूचनाओं में यह सरकारें व पार्टियां अपनी सहूलियत देख रही है। कांगे्रस ने यह बात को बिल्कुल भुला दिया कि जाॅर्ज इस देष के रक्षा मंत्री रहे हैं, उसे बस यह याद रहा कि जाॅर्ज हमेषा ही कांग्रेस के विरोधी थें। दूसरी ओर, भाजपा ने राजीव गाँधी और कांगे्रस पर निषाना साधा, लेकिन जार्ज पर मुह चुरा लिया। यह कैसी राजनीति है? कांग्रेस विकीलीक्स के खुलासे के आधार पर जार्ज को निषाना बना रही है, लेकिन उसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान को भुला दिया, सरकार इन दस्तावेजों की सच्चाई, विषय वस्तु और यहां तक कि उनके होने की भी पुष्टि नहीं कर सकती?
लीक्स की अहमियत
सूचनाओं से संसार बदलता है। जब दुनिया में सरकारें अपने ही लोगों से झूठ बोल रही हों, तब सरकारें पूरा सच न बोल रही हों, जब सरकारें गलत नीतियां अपना रही हों, जब सरकारें गरीबों को जायज फायदा भी न दे रही हों, तो उन सूचनाओं का महत्व बढ़ जाता है, जो न्याय की राह आसान बना सकती हैं। आज जूलियन असाज और विकीलीक्स जैसे संस्थानों की दुनिया को जरूरत है। अमरीका की सरकार से बचकर इक्वाछोर के दूतावास में षरण लेने वाले असाज ने पिछले साल कहा था, ‘लोगों की बालने की षक्ति और मिलकर प्रतिरोध करने की षक्ति भ्रष्ठ और अलोकतांत्रिक ताकतों को डरा देती है। अगर एक बार हम लोगों ने बोलना बंद कर दिया और विरोध करना बंदर कर दिया अगर हमने एक दूसरे से मुंह मोड़ लिया तो हम ज्यादा समय स्वतंत्र नहीं रह पाएंगे।
ऐसे विकीलीक्स के खिलाफ दुनिया में कुछ सरकारें स िय है। अमरीका ज्यादा परेषान है, क्यांेकि उसने महाषक्ति बनने या बने रहने के लिए काफी गलत तरीकों से दुनिया को संचालित किया है और सबसे ज्यादा सूचनाऐं उसकी ही तिजोरी से लीक हो रही हैं। कोई आष्चर्य नहीं, अमरीकी सेना ने विकीलीक्स को दुष्मन बताया और समाज को उसका पीड़ित। नही सुधरी सरकारें।
जूलियन मानते हैं कि सरकारों में विकीलीक्स के कारण सुधार आया है, जेकिन वास्तव में ज्यादातर देषों पर कोई असर नहीं पड़ा है। खासकर, भारत और पाकिस्तान जैसे देषों में तो विकीलीक्स की सूचनाओं पर भी राजनीति हुई है। आम लोगों को षायद अभी भी ऐसी सूचनाओं का इंतजार है, जो सरकारों के झूठे- ूर चेहरों पर से नकाब पूरी तरह हटा दे, षायद तभी सरकारें अपने कामकाज में लोगों के अनुकूल सुधार लाने के बारे में सोचेंगी। अभी और भांडाफोड़ जूलियन असांज ने पिछले साल ही कह दिया था, विकीलीक्स के पास दस लाख से ज्यादा दस्तावेज है, जिन्हे जारी करने की तैयारी की जा रही है, ये दस्तावेज दुनिया के सभी देषों को प्रभावित करेंगें।39
40. इतिहास का काला पन्ना - आपातकाल को कांग्रेस के लोकतत्रं विरोधी दष्ष्टिकोण के प्रमाण के रूप में याद कर रहे हंै - ए. सूर्यकान्त
- कांग्रेस इस धारणा पर चल रही है कि नेहरू-गाँधी परिवार के सदस्य को सरकारी कामकाज में दखल देने के लिए किसी औपचारिक पद की आवष्यकता नहीं है।
- कांग्रेस के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया है, इसलिए अधिक सावधान रहने की आवष्यकता है।
देष के अन्दर और बाहर हर कोई यह भलीभाँति जानता है कि केन्द्र सरकार के भीतर जो कुछ चलता है उसे एक संविधाने ार षक्ति केन्द्र द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह भी केाई रहस्य नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी 2004 के लोकसभा चुनाव मंे सप्रंग की जीत के बाद सीधे-सीधे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के पष्चात सुपर संवैधानिक स ाा बन गई थी। सरकार पर पकड़ बनाए रखने के लिए वह नियमित तौर पर अपनी षक्ति का प्रदर्षन करती है। चूंकि कांग्रेस में इस प्रकार की संविधाने ार षक्तियों की परम्परा सी रही है, इसलिए कांग्रेस को इसमें किसी सिान्त, संविधान के उल्लंघन जैसी कोई बात नजर नहीं आती। नेहरू गाँधी परिवार कांग्रेस के कामकाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पार्टी इस धारणा पर चल रही है कि इस परिवार के सदस्य को सरकारी कामकाज में दखल देने के लिए किसी औपचारिक पद की आवष्यकता नहीं है।
आमधारणा के विपरीत यह प्र िया नेहरू के दिनों ने ही षुरू हो गई थी। उनकी बेटी इंदिरा गाँधी ने राजनीति में दिलचस्पी लेनी षुरू कर दी थी और सन् 1950 के दषक में आखिरी वर्षों में नेहरू ने उन्हें कांग्रेस का आ ामक रूप से संविधाने ार गतिविधियों में दखल 1970 के दषक में देखने को मिला। तब युवक कांग्रेस के अध्यक्ष संजय गाँधी ने कंेद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को आदेष देने षुरू कर दिये थे। षासन की यह पति आपातकाल के दौरान तमाम हदें पार कर गईं। अपनी माँ प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा प्रेरित संजय गाँधी ने संघीय स्तर पर और राज्यों में समानान्तर स ाा केन्द्र स्थापित कर लिया था। केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के पर कतर दिए गए थे और पूरे भारत में भय का षासन कायम कर दिया गया था। इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी के कारनामों से इस कदर अभिभूत हुई थीं कि उन्होंने अपने प्रचण्ड बहुमत के बल पर सन् 1971-76 के लोकसभा के कार्यकाल को एक वर्ष का विस्तार दे दिया था। यह भयावह दौर तब खत्म हुआ जब लोगों ने चुनाव में कांग्रेस को उखाड़ फेंका। इंदिरा गांधी ने यह चुनाव इन खुफिया रिपोर्टों के बाद कराया था कि जनता उनका समर्थन करगे ी।
यह कांग्रेस के षासन का इतिहास है, किन्तु बहुत से कांगे्रसी दिखावा करते हंै कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं या फिर वह लोगों की स्मष्ति से लोप हो गया है, किन्तु वे लोग जिनका लोकतंत्र में अटल विष्वास है, फिर से ऐसा नहीं होने देना चाहते। आतंक के दिनों को भूलना मुसीबतों को फिर से न्यौता देने के समान है। इसलिए लोकतंत्र की खातिर आपातकाल की वर्षगांठ 25 जून पर इनके स्याह दिनों को याद करना जरूरी है।
इसी आलोक में कुछ संगठनों व व्यक्तियों पर समानान्तर स ाा खड़ी करने संबंधी केन्द्रीय मंत्रियों के आरोपों की भत्र्सना करना जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए, भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान करने क अनिच्छुक सरकार प्रधानमंत्री और सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने से पैर खींच रही है। यह ऐसा है जो नागरिकों के कड़े तबके को परेषान कर रहा है। नेहरू के दिनों से ही कांग्रेस भ्रष्टाचार पर अंकुष लगाने के कदम उठाने से हिचकिचाती रही है। उदाहरण के लिए आजादी के बाद से ही कांग्रेस पार्टी के वफादार सदस्यांे को ही राज्यपाल के रूप में नियुक्त करती रही है। इसी प्रकार उसने हमेषा प्रयास किया है कि चुनाव आयुक्त ऐसा व्यक्ति न बन जाये जो स्वतंत्र रूप से फैसले कर सकता हो। आपातकाल के दौरान कांग्रेस खुलेआम स्वतंत्र मीडिया और न्यायपालिका के खिलाफ अभियान चलाती रही है। संविधान में 42वें संषोधन पर संसद में हुई बहस से ही साफ हो जाता है कि कांग्रेस न्यायपालिका, मीडिया और स्वतंत्र विचारों वाले नौकरषाहों के किस कदर खिलाफ है। सीएम स्टीफेन जैसे लोगों ने खुलेआम ‘समर्पित न्यायपालिका’ की वकालत की थी। यह समर्पण संविधान के प्रति न होकर कांग्रेस के प्रति अभीष्ट था। इसके बाद भी हालात में कोई परिवर्तन नहीं आया। हमेषा यह प्रयास किया जाता रहा है कि पार्टी के समर्थक या फिर दागदार छवि वाले व्यक्ति संवैधानिक पदों पर तैनात कर दिये जायें। इसकी सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है चुनाव आयुक्त के रूप में नवीन चावला की तैनाती, जिन्हें षाह जांच आयोग किसी भी सार्वजनिक पद को अयोग्य ठहरा चुका है। इसका दूसरा उदाहरण है कांग्रेस द्वारा मानकों को धज्जियाँ उड़ाते हुए भ्रष्टाचार के एक आरोपी को केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त ३सीवीसी७ के तौर पर तैनात करना।
इस परिप्रेक्ष्य में कपिल सिब्बल और पी. चिदम्बरम जैसे कुछ केन्द्रीय मंित्रया ंे क े प्रवचन सुनना अजीब लगता है, जा े सन् 1980 क े दषक म ंे मीडिया विराध्े ाी बिल लाने के कर्णधार थे। कुछ दिन पहले उन्होंने संयुक्त रूप से मीडिया को संबोधित करते हुए मजबूत लोकपाल बिल लाने की पक्षधर सिविल सोसायटी के सदस्यों पर हमला किया कि बाहरी लोगों द्वारा किए गए फैसलों के आधार पर सरकार चलाना सही नही है। मजबूत लोकसभा के खिलाफ एक अन्य दलील यह थी कि सरकार के समानान्तर एक और
आपातकाल की वर्षगांठ पर हमें उन भयावह संवैधानिक संषोधनों पर भी नजर डालनी चाहिए जो कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान किए थे। इनमें प्रधानमंत्री को संविधान से ¯पर स्थापित करना, सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट की षक्तियों को कम करना और राष्टश्पति को कार्यकारी आदेषों के माध्यम से संविधान संषोधन की षक्ति प्रदान करना षामिल था। इन संषोधनों ने संविधान के मूलभूत सिान्तों को ही ध्वस्त कर दिया था। कांग्रेस के रवैये में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं आया है, इसलिए अधिक सावधान रहने की आवष्यकता है। हमें 25 जून को खुद यह याद दिलाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए कि कांग्रेस अथवा उसके नेतष्त्व वाली सरकार क्या-क्या षरारतें करने में समर्थ है? हमें विरोध से घष्णा करने वाली कांग्रेस द्वारा आपातकाल के दौरान मारे गए, सताए गए और जेल में ठंूस दिए गए लाखों लोगों का स्मरण करना चाहिए।40
आपातकाल में प्रेस / मीडिया की प्रेस क्लिपिंग का अध्ययन
लोकतंत्र की मजबूती का मीडिया की आजादी से सीधा संबंध है। स्वस्थ्य लोकतंत्र की धमनियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रक्त की तरह बहती है और निष्पक्ष मीडिया लोकतंत्र का दय है जो सुनिष्चित करता है कि रक्त संचार सुचारू रूप से होता रहे। यही कारण है कि जब भी जहाँ भी लोकतंत्र को कमजोर करने या उसकी हत्या करने की कोषिष की गयी। पहला वार मीडिया की आजादी पर किया गया। कोई भी तानाषाह स्वतंत्र मीडिया का पक्षधर कभी नहीं हो सकता। तानाषाही में भय और आतंक के विरू डटकर खड़ी होने वाली मीडिया को बेरहमी से कुचला जाता है। भारत में भी आपातकाल के बहाने तानाषाही का ऐसा भी रूप देखा है।
ठीक चालीस साल पहले 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में आपातकाल लगाया था। आपातकाल के लगते ही प्रेस पर संेसरषिप लागू हो गया। प्रेस को साफ संदेष दे दिया गया था कि उनको इंदिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज इंदिरा मानना होगा या भुगतना होगा। कुछ ने झुकने से साफ इंकार कर दिया कई ऐसे भी थे जो रेंगने लगे फिर क्या था, भारतीय मीडिया के इतिहास का सबसे काला अध्याय बन गया आपातकाल का वह दौर।
1. मीडिया की बेवाकी से परेषान थी इंदिरा गांधी:-
इसकी षुरूआत असल में सन् 1967 के दौरान ही हो चुकी थी। तब तक अजेय मानी जाने वाली कांग्रेस पार्टी के खिलाफ देष भर में माहौल बन गया था। आजादी के बाद पहली बार देष के कुल आठ राज्यों में कांग्रेस की हार हुई थी। देष के अखबार भ्रष्टाचार, मंहगाई और लचर कानून व्यवस्था के खिलाफ खुलकर लिख रहे थे। इससे कांग्रेस पार्टी बहुत असहज महसूस कर रही थी। सन् 1967 के चुनाव के बाद पहली बार कांग्रेस को समझने में आने लगा कि असली विपक्ष का होना क्या होता है। काॅग्रेस में हर रोज विपक्ष का सामना करना और विपक्ष के हमलों की खबरों को अखबार में छपते देखना कांग्रेस सरकार के लिए दूभर हो रहा था पर जब सन् 1971 में बांग्लादेष मुक्ति यु में भारत ने सहयोग किया और इंदिरा गांँधी ने उनकी प्रषंसा भी की। लेकिन षायद इंदिरा मीडिया से हर वक्त ऐसा व्यवहार चाहती थी। पाकिस्तान के खिलाफ 1971 की जीत का असर अधिक दिनों तक नहीं रह सका। इस जीत से देष की हालत कहँा बदल पायी थी। जनता मँहगाई और कुव्यवस्था से त्रस्त थी। सन् 1973 में गुजरात के अहमदाबाद में व्यापक छात्र आंदोलन की षुरूआत हुई। इस आंदोलन का जयप्रकाष नारायण ने समर्थन किया। ऐसा ही एक ओर छात्र आंदोलन विहार में भी षुरू हुआ। धीरे-धीरे जयप्रकाष नारायण के नेतष्त्व में एक आंदोलन जनआंदोलन का रूप लेने लगा। फिर क्या था, जय प्रकाष नारायण ने पूरे देष में ‘सम्पूर्ण ांति’ आंदोलन का आव्हान किया। इस परिणाम स्वरूप हुआ कि पूरे देष में इंदिरा विरोधी लहर की षुरूआत हो गयी। अखबारों ने जमकर इस आंदोलन से जुड़ी खबरें छापीं। आखिरकार जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीष जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गाँधी का चुनाव निरस्त कर उन पर 6 साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया और उनके मुकाबले हारे राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था तो इस घटना ने इंदिरा गाँधी के सामने संवैधानिक चुनौती खड़ी कर दी। यह मामला सन् 1971 में लोकसभा चुनाव का था जिसमंे इंदिरा गाँधी के अपने मुख्य प्रतिद्वन्द्वी राजनारायण को पराजित किया था लेकिन राजनारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी थी और अन्ततः उनकी जीत हुई थी। इसके बाद भी इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा देने से इंकार कर दिया और कांग्रेस पार्टी ने बयान जारी कर इंदिरा गाँधी का नेतष्त्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है। उसी दिन एक और घटना घटी। गुजरात में कांग्रेस के विरू विपक्षी जनता मोर्चा को भारी जीत मिली। इस दोहरे झटकों से कांग्रेस बौखला गयी। 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में सभी विपक्षी नेताओं की सफल जनसभा हुई। आखिरकार इंदिरा गांधी ने अदालत के फैसले को मानने से इंकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 25 जून को आपात काल लागू करने की घोषणा कर दी गई।
2. प्रेस पर लागू हुआ सेंसरषिप:-
आपातकाल की घोषणा के साथ ही पे्रस पर सेंसरषिप लागू कर दिया गया। स्वतंत्रता के बाद ऐसा पहली बार हुआ था। प्रेस पर पूर्ण आपातकाल लगाया गया
था। सभी अखबारों के सम्पादको पर आपातकाल के दोरान हो रही ज्यादतियां की खबर ना छापने के लिए दबाव बनाया गया। बड़ी संख्या में पत्रकार इस दबाव के आगे नतमस्तक हो गये। मीडिया में सत्ता की चापलूसी करने वाले पत्रकारों ने
भारतीय पत्रकारिता को हमेषा के लिए षर्मिन्दा कर दिया।
अधिकतर अखबारों में केवल सरकारी विज्ञप्तियों को ही खबर की तरह छापा जा रहा था। मीडिया में आपातकाल और सरकार विरोधी खबरांे के लिए कोई जगह नहीं थी। खबरों को छापने से पहले सरकारी अधिकारी को दिखाना आवष्यक था। किसी भी खबर को बिना सूचित किये नहीं छापा जा सकता था। जैसे कई अखबारों ने मजबूरी में आपातकाल का विरोध नहीं किया। 9 जुलाई 1975 को दिल्ली के 47 संपादकों ने देष में समाचार पत्रों पर लगाये गये सेंसरषिप और इंदिरा गाँधी की नीतियों पर अपना समर्थन व्यक्त किया।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका ने खुलकर सरकार की तरफदारी की। पत्रिका न े 6 फरवरी 1977 का े ‘राजनीतिक षतरजं क े पुरान े खिलाडी़ और नए माहे र’ंे षीर्षक से एक लेख प्रकाषित किया जिसमें आने वाले चुनाव में कांग्रेस का पलड़ा भारी होने की बात कही गई थी जबकि देषभर में काॅग्रेस के खिलाफ माहौल था। अन्ततः 1977 के चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह हार भी हुई।
निष्चित तौर पर कई अखबारों और पत्रिकाओं को अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए झुकना पड़ा पर पत्रकारों की बड़ी जमात जिस तरह से रेंगने के लिए तैयार हो गयी उससे भारतीय पत्रकारिताओं पर कभी न मिटने वाला दाग लग गया।
3. जो झुकने को नहीं हुए तैयार:-
इन सरकारी षिंकजे के बावजूद बड़ी संख्या में ऐसे भी पत्रकार थे जिन्हांेने अपने जमीर पर दाग नहीं लगने दिया। प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करते हुए कुलदीप नैयर, सूर्यकान्त बाली, वि मराव, वीरेन्द्र कपूर, ष्याम खोंसला, देवेन्द्र स्वरूप, रतन मलकायी और दीनानाथ मित्र जैसे पत्रकारों ने जेल की यातनायें झेली। कुल 327 पत्रकारों को मीसा कानून के अन्तर्गत जेलों में बंद कर दिया गया। कई अखबारों और पत्रिकाओं ने अपने तरीके से प्रेस पर लगे सेंसरषिप का विरोध किया। कुछ संपादकों ने संपादकीय का स्थल खाली छोड़कर सरकार का विरोध किया। कुछ ने संपादकीय के स्थान पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में महापुरूषों की उक्तियों को छापा।
सरिता में 6 महीने तक कोई संपादकीय कालम नहीं छपा। सरिका ने जुलाई 1975 क े अकं म ंे सपं ादकीय का े ससें र अधिकारी द्वारा काला किए गए वाक्यांे और षब्दों सहित हुबहू प्रकाषित कर दिया। इस अंक में 27-28 संख्या के पष्ष्ठ लगभग पूरी तरह काले थे।
प्रेस में प्रतिबंध को लेकर ऐसा भय का वातावरण बना कि सेमिनार और अधिनियम जैसे अनेक पत्र पत्रिकाओं को अपने प्रकाषन बंद करने पड़े। सरकार ने 3801 समाचार पत्रों के डिक्लेरेषन जब्त कर लिये और 290 अखबारों के विज्ञापन बंद कर दिये गये।
आपातकाल से पहले देष में चार समाचार समितियाँ थीं - पीटीआई,
यूएनआई, समाचार भारती और हिन्दुस्तान समाचार। सरकार ने इसे मिलकर एक समिति समाचार का गठन किया जिससे यह पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में रहे। 18 दिसम्बर 1975 को अध्यादेष द्वारा पे्रस परिषद को समाप्त कर दिया गया। आपातकाल के दौरान आकाषवाणी और दूरदर्षन पर जनता का ऐसा विष्वास उठा कि लोग बीबीसी और वाॅयस आॅफ अमेरिका सुनते थे।
ऐसा नहीं था कि सरकार ने विदेषी पत्रकारों को परेषान ना किया हो। ब्रिटेन के टाइम और गार्जियन के समाचार प्रतिनिधियों को भारत से निकाल दिया गया। रायटर सहित अन्य एजेन्सियों टेलेक्स और टेलीफोन काट दिये गये।
7 विदेषी संवाददाताओं को भारत छोड़ने का हुक्म सुनाया गया।
आपातकाल के चालीस साल बीत चुके हंै। पर भारतीय पत्रकारिता के उस काले दौर को हमेषा याद रखने की जरूरत ताकि आने वाली पीढ़ियों को प्रेस की स्वतंत्रता, के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले पत्रकारों से सीख मिलती रहे।
4. इन्दिरा ने आपातकाल की भारी कीमत चुकाई:-
आपातकाल के बाद आम चुनाव हुए उत्तर भारत में पूर्ण पराजय हुई
दक्षिण के राज्यों में भारी जीत हुई और इंदिरा गाँधी चुनाव हार गई।
5. नई दिल्ली:-
राष्टश्पति प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि सन् 1975 में देष में लगी आपात स्थिति षायद एक टाले जा सकने लायक घटना थी। कांग्रेस व इंदिरा गाँधी ने उस विपदा के लिए भारी कीमत चुकाई। तब आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों व राजनीतिक गतिविधियों पर लगी रोक बड़े पैमाने पर हुई गिरफ्तारियों और प्रेस की स्वतंत्रता पर पाबंदी का जनता पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। हाल में प्रकाषित द डोमेटिक डिकेटः द इंदिरा गांधी ईयर्स पुस्तक में प्रणव मुखर्जी ने ये बाते कही हंै। 6. दिषाहीन था जे.पी. आन्दोलन:-
उस दौरान इन्दिरा गाँधी मंत्रिमण्डल में जूनियर मंत्री रहे मुखर्जी ने तब
जयप्रकाष नारायण के नेतष्त्व में आंदोलन में षामिल विपक्ष के नेताओं को भी अपनी किताब में नही बख्षा है। मुखर्जी की नजर में जेपी का आंदोलन दिषाहीन था जेपी आ ामक रूख के बारे में मुखर्जी ने लिखा है कि जिस दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गाँधी को लोकसभा की सदस्यता के अयोग्य करार दिया और उसके दूसरे ही दिन जेपी घटना के दौरान मैदान से इंदिरा के इस्तीफे के लिए गरजने लगे।
7. सिार्थ षंकरराय के कहने पर लगा था आपातकाल:-
प्रणव मुखर्जी ने यह खुलासा किया है कि इंदिरा गाँधी को 1975 में आपातकाल लागू करने क संवैधानिक प्रावधानों की जानकारी नहीं थी। सिार्थ षंकर राय ने उन्हें इस निर्णय तक पहुंचाया। राय तब पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियाँ पर गठित षाह आयोग के समय राय आपातकाल का े सही ठहरान े स े मकु र गए और उस फैसल े का े अपना मानन े स े इकं ार कर दिया।
ऐसे लागू हुआ था आपातकाल -
आपातकाल लाग ू होने से कुछ समय पहले के 25 जनू 1975 की रात को नाटकीय क्षण को याद करते हुए लिखते हंै कि पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री राय के सुझाव पर इंदिरा गाँधी ने तो सिर्फ अमल किया था। राय तब कांग्रेस कार्यसमिति और केन्द्रीय संसदीय बोर्ड के सदस्य थे। तब इंदिरा गाँधी के सर्वाधिक प्रभावषाली सलाहकारो में थे और तब विभिन्न मुद्दों पर उनकी राय मांगती थी।
द डशमेटिक डिकेड: द इंदिरा गाँधी ईयर्स में है कई अनकही बातें:-
प्रणव मुखर्जी ने उस उथल पुथल वाले समय के बारे में अपने विचार भारत की स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में अपनी किताब ‘द डामेटिक डिकेड: द इंदिरा गाँधी ईयर्स’ में किया है जिसका अभी हाल में प्रकाषन हुआ है।
आपातकाल की उपलब्धियों का भी किया गुणगान -
प्रणव मुखर्जी ने यह भी का है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपातकाल ने जनता के जीवन में अनुषासन लाया, आर्थिक विकास हुआ, मंहगाई पर अंकुष लगा, पहली बार व्यापार लाभ में बदला, विकास पर खर्च बढ़ा और कर चोरी और तस्करी के खिलाफ कार्यवाही हुई लेकिन षायद इस घटना को टाला जा सकता था।1
रक्षामंत्री बंषीलाल और संजय गाँधी भी इस चुनाव के विरू थे।2 प्रसि पत्रकार कुलदीप नैयर का विचार था कि प्रधानमंत्री की सारी राजनीति के पीछे उनका उद्देष्य अपने सुपुत्र संजय गाँधी के लिए राजनीतिक भूमिका तैयार करना था।3
सन् 1975 में आपातकाल में संसद तथा विधानसभाओं की कार्यवाही के प्रकाषन पर रोक लगा दी। यह विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा प्रेस की
स्वतंत्रता पर आघात था।4
सन् 1975-76 के आपात में निरू व्यक्तियों की संख्या 175000 तक पहुँच गयी थी।5 सन् 1975 में लोकसभा में प्रष्नविधि को स्थगित कर दिया। समाचार-पत्रों पर सेंसर थोप दिया गया। संसद की कार्यवाही के प्रकाषन पर प्रतिबंध्ेा लगा दिया।6
यहाँ तक हुआ कि न्यायालय भी कार्यपालिका अधिकारियों की मनमानी से नागरिकांे की रक्षा नहीं कर सके और विरोधी दलों के अनेक नेताओं को आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।7
8. आपातकाल की हिन्दी पत्रकारिता का अनुषीलन:-
25 जून 1975 भारत के इतिहास में एक ऐसा काला दिवस रहा है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा का भय, आतंक और दहषत का माहौल बना दिया। 19 महीनों तक चले आपातकाल के काले बादल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी छाये और इंदिरा गाँधी ने प्रेस पर भी सेंसरषिप थोप दी। आपातकाल के चलते पत्रिका के स्वरूप में बड़ा बदलाव देखा गया और लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया तानाषाही का षिकार हुआ।
वर्ष 1974 तक पत्रकारिता के माध्यम से स ाा और सरकार की
सर्वत्र आलोचना हो रही थी। देष में भ्रष्टाचार, षैक्षणिक अराजकता, मँहगाई और कुव्यवस्था के विरोध में समाचार-पत्रों में बढ़-चढ़कर लिखा जा रहा था। गुजरात, बिहार में छात्र आंदोलन ने जन आंदोलन का रूप ले लिया था जिसके नेतष्त्व का भार लोकनायक जयप्रकाष नारायण ने अपने कंधो पर ले लिया। उन्होंने पूरे देष में सम्पूर्ण ांति आंदोलन का आव्हान कर दिया था दूसरी और लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने, सत्ता का केन्द्रीयकरण करने, अपने विरोधियों को मात देने और बांग्लादेष बनाने में अपनी अहम भूमिका के कारण, इंदिरा गाँधी में अधिनायकवादी प्रवष्तियां बढ़ती चली गई और जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अपने आपको स ाा में बेदखल पाया तो उन्हांेने कुछ चापलूसों के परामर्ष से आपातकाल की घोषणा का निर्णय ले लिया। 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की जनसभा से इंदिरा गाँधी घबरा गई और उन्हांेने आपातकाल की घोषणा कर दी।
आपातकाल के दौरान एक ओर जहाँ स ाा और सरकार की चापलूसी करने वाले पत्रकार थे। वहीं दूसरी ओर प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले पत्रकारों की भी कमी नहीं थी जिन्हांेने सेंसरषिप को स्वीकार किया और रोजी-रोटी के लिए नौकरी को प्राथमिकता दी। यही स्थिति साहित्यकारों के साथ भी थी। स्वतंत्र भारत में वर्ष 1975 में आपातकाल की घोषणा के साथ ही
पत्र-पत्रिकाआ ंेपर ससंे रषिप लगा दी र्गइ किन्त ुतमाम प्िरतबध्ंाा ंेक ेबावजदू अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पद पूरी तरह ग्रहण नहीं लग सका। पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसर लगा तो बुलेटिनों ने कुछ हद तक इसकी क्षतिपूर्ति की। कुछ संपादकों ने संपादकीय का स्थान खाली छोड़कर तो कुछ न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में महापुरूषों की उक्तियों को छापकर सरकार का विरोध किया।
सेंसरषिप और अन्य प्रतिबंधों के कारण सरकार और समाज के बीच सूचनाओं का प्रसारण एकतरफा हो रहा था। सरकार की घोषणाओं और तानाषाही रवैये की खबर तो किसी न किसी रूप में जनता तक पहुँच जाती थी। सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों के सहारे भी अखबारों में अधिकतर समाचार छप रहे थे। एकतरफा पक्ष की बार-बार प्रस्तुति से पत्र-पत्रिकाओं की विष्वसनीयता पर भी प्रष्नचिन्ह खड़ा हो गया था इसलिए एकतरफा संचार के कारण आपातकाल के 19 महीनों तक सरकार गलतफहमी में रही, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा।
सेंसरषिप के कड़े प्रतिबंधों और भय के वातावरण के कारण अनेक पत्र-पत्रिकाओं को अपने प्रकाषन बंद करने पड़े। इनमें सेमिनार और अधिनियम के नाम उल्लेखनीय हंै। आपातकाल के दौरान 3801 समाचार पत्रों के डिक्लेरेषन जब्त कर लिये गये विदेषी पत्रकारों को भी प्रताड़ित किया गया। ब्रिटेन के टाइम और गार्जियन के समाचार प्रतिनिधियों को भारत से निकाल दिया गया। रायटर सहित अन्य एजेन्सियों के टेलेक्स और टेलीफोन काट दिए गए। आपातकाल के दौरान 51 पत्रकारों के अधिस्पष्टीकरण रद्द कर दिए गए। इनमें 43 संवाददाता 2 कार्टूनिस्ट तथा 6 केमरामेन थे। 7 विदेषी संवादाताओं को भी देष से बाहर जाने को कहा गया।
प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुष डालने के लिए समाचार समितियों का विलय किया गया। आपातकाल के पूर्व देष में चार समाचार समितिया थीं पीटीआई, यूएनआई, हिन्दुस्तान समाचार और समाचार भारती जिसे मिलाकर एक समाचार परिषद का गठन किया गया जिससे यह पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में रहे।
आपातकाल के दौरान आकाषवाणी और दूरदर्षन पर से जनता का विष्वास उठ चुका था। भारत के लोग उस समय बीबीसी और वायस आॅफ अमेरिका सुनना षुरू कर दिया था।
आपातकाल की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री के द्वारा ली गई पहली बैठक में प्रस्ताव आया कि प्रेस परिषद को खत्म किया जाये। 18 दिसम्बर 1975 को अध्यादेष द्वारा प्रेस परिषद समाप्त कर दी गई। आपातकाल के दौरान भूमिगत संचार व्यवस्था के द्वारा एक समान्तर प्रचार-तंत्र खड़ा हो गया। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो जनजीवन को एकपक्षीय समाचार मिल पाता और सच्ची खबरों से वंचित रह जाते। आपातकाल में संचार अवरोध का खामियाजा जनता पर ही नहीं पड़ा। अपितु सत्ता और सरकार आपातकाल विरोधियों की मनोदषा को नहीं समझ पाये संचार अवरोध का कितना बड़ा खामियाजा सत्ता को उठाना पड़ सकता है यह वर्ष 1977 के चुनाव परिणाम से सामने आया।
संपादकांे का एक समूह चापलूसी की हद किस तरह पार कर रहा था इसका अदं ाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के 47 सपं ादका ें ने 9 जुलाई 1975 को इंदिरा गाँधी द्वारा उठाये गये सभी कदमों में अपनी आस्था व्यक्त की जिसमें समाचार-पत्रों पर लगाया गया सेंसर भी षामिल है। सेंसरषिप के कारण दिनभर एकपक्षीय खबर छपने को बाध्य हुई। दिनमान ने सेंसरषिप लगाये जाने का विरोध भले ही ना किया हो किन्तु सेंसरषिप हटाये जाने पर संपादकीय अवष्य लिखा है।
आपातकाल की लोकप्रिय पत्रिका ‘सप्ताहिक हिन्दुस्तान’ भी सेंसरषिप लागू होते ही सरकार की पक्षधर हो गई। यह पत्रिका सरकार की कितनी तरफदारी कर रही थी इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव की घोषणा के बाद 6 फरवरी 1977 के अंक में राजनीतिक षतरंज के पुराने खिलाड़ी और नए मोहरे, षीर्षक से प्रकाषित आलेख में कांग्रेस का पलडा भारी होना सुनिष्चित किया गया है जबकि वास्तविकता यह है कि वर्ष 1977 क े चुनाव म ंे कागं स्रे की बुरी तरह हार हुई थी। आपातकाल के पूर्व सरिता में चुटीले बेबाक और धारदार लेख तथा संपादकीय छपा करते थे। सत्ता की मनमानी पर कड़ा प्रहार किया जाता रहा किन्तु आपातकाल लगने के बाद सेंसरषिप के कारण सिलसिला टूट गया। सेंसरषिप थोपे जाने और सत्ता के तानाषाही रवैये के कारण सरिता ने 6 महीनों में संपादकीय कालम लिखना छोड़ दिया।
सारिका का जुलाई 1975 का अंक सेंसरषिप का पालन कड़ाई से किए जाने का जीवंत दस्तावेज बन गया है। सेंसर अधिकारी द्वारा सारिका के पन्नों पर काला किए गए वाक्यों और षब्दांे को संपादक ने विरोध स्वरूप वैसे ही प्रकाषित कर दिया था। इस अंक के पष्ष्ठ सं. 27-28 को तो लगभग पूर्ण तरह काला कर दिया गया था। इसके बाद अंकों में संपादकीय विभाग इतना संभल गया कि सेंसर अधिकारी को पष्ष्ठ काला करने की नौबत ही नहीं आई।
लोकराज के 5 जुलाई 1975 के अंक में आपात घोषणा षीर्षक से संपादकीय छपां इस संपादकीय में कहा गया है कि कुछ लोगों के अपराध के लिए सम्पूर्ण प्रेस जगत को सेंसरषिप क्यों झेलना पड़े? लोकराज के 12 जुलाई 1975 के अंक में अनुषाासन पर्व षीर्षक से एक संपादकीय छपा जिसमें आपातकाल की
घोषणा का स्वागत किया गया था।
इस प्रकार हम देखते हंै कि सेंसरषिप की कंैची ने पत्रकारिता के स्वरूप को ही बिगाड़ दिया था। दहषत और आतंक के माहौल में अधिकांष पत्र-पत्रिकाओं ने सेंसरषिप को स्वीकार कर लिया था।
संपादकीय खाली छोड़ने और पष्ष्ठों को काले अंक को हूबहु छापने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह गया था।
आपातकाल की यह अवधि पत्रकारिता की दष्ष्टि से ऐसी रही कि यह अलग पहचान लिए है। आपातकाल हिन्दी पत्रकारिता के संबंध में आज अधिक सामग्री उपलब्ध नहीं हैं ऐसे में डाॅ. अरूण कुमार भगत द्वारा आपातकाल की हिन्दी पत्रकारिता का अनुषीलन विषय पर किया गया षोध कार्य महत्वपूर्ण है।8
9. कुलदीप नैयर वरिष्ठ पत्रकार की कहानी:-
सन् 1975 में इंदिरा गाँधी के खिलाफ जब चुनावों में धांधली के आरोप के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया तब जगमोहन लाल सिन्हा जज थे। मंै तब ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में काम किया करता था। हम सब, जो जयप्रकाष नारायण या जेपी आंदोलन से जुड़े थे। वो तो यही चाहते थे कि फैसला इंदिरा जी के खिलाफ ही हो पर मन ही मन हम ये भी समझते थे कि उस वक्त इतनी मजबूत और ताकतवर इंदिरा गाँधी के खिलाफ फैसला देने की हिम्मत आखिर किस न्यायाधीष में होगी। 1971 में जब उन्होंने पाकिस्तान को दो हिस्से किये थे तब अटल बिहार वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा’ कहा था। इंदिरा के खिलाफ जब फैसला आया तब जाहिर है कि हम सब खुष हुए तब तक कभी सोचा ही नहीं था कि इसके क्या परिणाम हो सकते हंै। जेपी का हैडक्वार्टर, इंडियन एक्सप्रेस हुआ करता था, जब भी वे दिल्ली आते तो विभिन्न संस्करणों के संपादकों से मिलते थे।
फैसला आने के एक या दो दिन बाद जब जेपी दिल्ली आये तो उन्होंने
हम सभी को बुलाया, उन्हांेने पूछा - इंदिरा गाँधी सुप्रीम कोर्ट में अपील करने वाली हंै। हम बस इंतजार कर सकते हंै पर फिर भी हम ये चर्चा करने लगे कि मान लो अगर उन्हें पद से हटाया जाता है तब चुनाव हांेगे। जेपी का कथन था कि चुनाव के बारे में बात करना फिजूल है क्योंकि वो वापिस सत्ता में आ ही जाएगी। असल मंे उनके षब्द थे। ‘‘मंै सोचता हूँ कि यदि चुनावों की घोषणा होती तो हमें इसमें मान लेना चाहिए या नहीं न सोचकर, इसका बहिष्कार क्यों कर देना चाहिए? उस समय हममें से कुछ ने जबाव दिया जेपी हो सकता है कि आप सभी को रिपोर्टरों, संपादकों को पत्रों से मिले फिडबैक के आधार पर हम ये तो कह सकते हंै कि लोगों में बहुत गुस्सा है। भले जेपी वो इसे जाहिर करे या न करें। यहाँ लोगों का मिजाज भांपने के लिए हम अगले दिन के ‘‘इंडियन एक्सपे्रस’’ में एक प्रतिष्ठ छापेगें कि उसी दिन षाम के 5 बजे रामलीलाल मैदान में जेपी एक जनसभा को संबोधित करेगें और फिर जो हुआ वो अविष्वसनीय था। रामलीला मैदान को छोड़िए, कनोट प्लेस तक लोगों का हुजूम ही हुजूम था। उस समय रामनाथ गोयनका, इंडियन एक्सप्रेस के मालिक थे और तब उन्होंने कहा कि अब हमें इस मुद्दे के साथ आगे बढ़ना चाहिए, तब मंै
फील्ड में काम किया करता था।
मंै सबसे पहले जगजीवन राम से मिला तथा मंैने देखा कि उन्हांेने अपने फोन का रिसीवर उठा के अलग रखा हुआ था, मंैने पूछा कि ऐसा क्यों तो उन्हांेने कहा, हमें नहीं पता पर हो सकता है कि इंदिरा गाँधी मेरे फोन काॅल टेप करवा रही हों और मुझे भी ऐसा लगता है कि किसी भी वक्त मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है। फिर मंै कमलनाथ के पास गया ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के बोर्ड का पुनर्गठन हुआ था और रामनाथ गोयनका की जगह के. के. बिरला अध्यक्ष बनाये गये। कमलनाथ बोर्ड के सदस्य थे। मंै कमलनाथ को जानता था वो मुझे पंजाबी में हैलो कहा करते थे। मंे उनसे एक बार मिला भी था। वे संजय गाँधी के करीबी थे। उन्होंने मुझसे कहा, तुम संजय गांधी से क्यों नहीं कहते कि वो हमारे लिए लिखे? मंेने कहा कि हाँ अगर वो कुछ करते हंै तब मंै जरूर ऐसा करूंगा। उन्होंने पूछा, क्या तुम उनसे मिलना चाहते हो? मंैने जबाब दिया, अभी तो नहीं पर फिर कभी तो मिलूंगा। आपातकाल के बाद मंैने उनका वादा याद दिलाया और संजय गाँधी से मिलने मंै श्रीमती इंदिरा गाँधी के घर पहुंचा। मुझे आज भी याद है कि वो बरामदे में थीं। वो हार चुकी थी। सब जगह कागज बिखरे हुए थे। घर उस समय प्रधानमंत्री आवास ही था, संजय गाँधी एक पेड़ के नीचे बैठे थे। मुझे देखकर वो आई पर मंैने उनसे कहा नहीं आज मंै आपका नहीं संजय गाँधी का इन्टरव्यू लेने आया हूँ। मंैने संजय से पूछा, आपको कैसे लगा था कि इतना सब कर आप आगे जा पायेंगे? उन्होंने कहा, इसमें परेषानी ही क्या थी? बंषीलाल की मदद के साथ हम अच्छा ही कर रहे थे। ३बंषीलाल उस समय रक्षा मंत्री थे, इससे पहले वो हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे, पर बाद में संजय उन्हें दिल्ली ले आये।७ षायद मुझे कहीं और बंषीलाल भी मिल सकता। उन्होंने आगे कहा, मंैने जो स्कीम बनायी थी उससे आने वाले 30 सालों तक कोई चुनाव नहीं था। मंैने एक नोट भी बनाया था, उन्हांेने उस नोट की एक प्रति मुझे भी दी जिसमें एक ऐसी नई व्यवस्था थी जो संसदीय नहीं बल्कि अध्यक्षीय थी यानि समग्र षक्तियाँ एक व्यक्ति पर केन्द्रित थीं, यहाँ चुनाव प्रत्यक्ष नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष
थे। यानि सभी चीजें अप्रत्यक्ष रूप से ‘‘मैनेज’’ की जा सकती थी।
इस सबक े बीच मैनं े साचे ा मझु े इलाहाबाद जाकर जज ३जगमाहे न सिन्हा७ से तो जरूर मिलना चाहिए। वहाँ पहुंच कर मंैने उनके घर के बारे में पता किया और उनके पास पहुँच गया जब वे मुझसे मिले तब मंैने उनसे कहा कि जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा आष्चर्य में डाला वो थी आपका फैसला आने से पहले उसके बारे में किसी को अंदाजा नहीं हुआ कि वो क्या होगा? आपने ये कैसे किया? उनसे मिलने पर मंैने सबसे पहले यही सवाल पूछा ‘‘उन्होंने बताया कि उन्होंने केस के इतिहास आदि से जुड़े हिस्से अपने स्टेनो को बोलकर लिखवाए गये पर बाकी पूरा फैसला उन्होंने अपने हाथ से लिखा था, स्टेनो को भी छुट्टी पर भेज दिया।
उनके एक साथी जज ने सिन्हा को ये भी बताया कि उन्होंने किसी से ये भी सुना है कि धवन ३आर.के. धवन, इंदिरा गाँधी का निजी सचिव७ सिन्हा को सुप्रीम कार्टे का जज बनान े की साचे रह े हैं। एसे ा मुझ े सिन्हा न े बताया कि वा े साथी उन्हें कुछ और ही संदेष देना चाह रहे थे और जैसे मंैने अपनी किताब ‘‘द जजमेंट इनसाइड स्टोरी आॅफ द इमरजेंसी इन इंडिया’’ में भी लिखा है कि चरणसिंह ने सिन्हा का पता लगाया और उन्हें सजा भी दी। सिन्हा ने मुझे बताया कि वो साधु संतो को बड़ा मानते थे तो उन्होंने ३इंदिरा गाँधी के मददगारों ने७ कुछ साधु संतों को मेरे पास भेजा जिससे कि वो मेरे फैसले के बारे में कुछ जान सकें। सिन्हा ने आगे बताया जब मंैने उनका पूरा गेम प्लान देखा और उस केस की सभी बहसों को पढ़ने के बाद नतीजे पर पहुंचा तो मेरे दिमाग में से साफ हो चुका था कि इंदिरा गाँधी ने अपनी षक्तियों का दुरूपयोग किया है और मंै सजा दूंगा। सिन्हा पर काफी दबाव डाला गया। उनके परिवार को परेषान किया गया पर नही वे नरम पड़े न ही अपने
फैसले से डिगे।9
मनमोहनी दौर और उसके बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए इमरजेंसी एक षब्द है जिसका ब
25 जून 1975 का दिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने आंतरिक उपद्रवियों का हवाला देते हुए देष में आपातकाल लागू किया था। इसके साथ ही जयप्रकाष नारायण समेत सभी विरोधी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। संसद का कार्यकाल 6 बर्ष कर दिया गया था। तमाम मौलिक अधिकार रद्द कर दिए गए। कोर्ट के पर कतर दिए गए। प्रेस पर संेसरषिप के जरिए खामोष कर दिया गया। इस सबके साथ ही इंदिरा की सरकार और उनके छोटे षहजादे और राजनीतिक वारिष संजय गाँधी की मनमानियों का सिलसिला भी चल निकला। कागज पर इसे पांच सूत्रीय कार्य म कहा गया। संजय गाँधी अपने नाना पंडित नेहरू के समाजवाद और मम्मी की कथित गरीब समर्थक नीतियों से कतई प्रभावित नहीं थे। वह कैपिटलिस्ट व्यवस्था के भक्त थे और साथ ही बेतरह अधीर भी। उन्हें बिना कुछ किए ही बजरिये मम्मी असीमित षक्ति मिल गई थी। बिना किसी जबावदेही के और इसका उन्होंने ूर ेला।
इमरजेंसी पर देष में कई किताबें, लेख और संस्मरण लिखे गये। ये दो तरह के थे एक जिन्होंने इसे भोगा उन्होंने अपना नजरिया लिखा, मसलन इंडियन एक्सप्रेस की समाचार एजेंसी में उस समय संपादक रहे कुलदीप नैयर की किताब ‘इमरजेंसी रिटोल्ड या फिर इतिहासकारों ने भी भारतीय राजनीतिक के एक अध्याय के तौर पर लिखा इसके लिए तमाम फस्र्ट हैण्ड अकाउण्टेन्ट अखबारी रिपोर्ट और इमरजेंसी की जांच के लिए जनता सरकार द्वारा बनाये गये षाह कमीषन की रिपोर्टो के आधार पर माना गया।
पहले में बहुत सब्जेक्टिविटी रही और दूसरे में बहुत आब्जेक्टिविटी रही दोनों का ही अपना महत्व है।
मगर जब एक किताब आई है जिसने षानदार
कूमी कपूर इमरजेंसी के वक्त इंडियन एक्सप्रेस अखबार के साथ बतौर रिपोर्टर जुड़ी थी। उनके पति वीरेन्द्र कपूर फाईनेन्सियल एक्सप्रेस के साथ थे। वीरेन्द्र का एक रोज संजय गाँधी के खास युवा नेता अंबिका सोनी से झगड़ा हो गया। नतीजा वीरेन्द्र कपूर भी डीआईआर की धाराओं के तहत जेल में थे। यहाँ से कूमी का दौहरा संघर्ष षुरू हुआ। बतौर रिपोर्टर इमरजेंसी के दौर की तमाम खबरें करना, अपनी कुछ महीनों की बच्ची को पालना और वीरेन्द्र के लिए पैरवी और भागदोड़ करना, यह तो हुई पर्सनल बात किताब को लिए कूमी ने उस दौर के तमाम अहम लोगों के लेने इंटरव्यू लिए, हर उपलब्ध लिखित षब्द को खंगाला, षाह कमीषन की तीन खण्डों की रिपोर्ट को या फिर उस दौर के अखबार, बाद के दर्षकों से लिखी गई किताबों को या फिर समय≤ पर होने वाले खुलासे और इन सबको मिलाकर इमरजेंसी, उसके पहले और उसके बाद की एक मुकम्मल तस्वीर पेष की गई।
किताब बहुत ही रोचक है, इसकी भाषा सरल है। इसमें किस्सो
की भरमार है। मगर उनकी सतह के नीचे सियासत के कई जख्मी सबक कुलबुलाते नजर आते हंै। 355 पन्नों को पढ़ने के दौरान कभी भी बोरियत नहीं होती छोटे-छोटे अध्यायों को पढ़ने में सहूलियत रहती है। भारती की कहानी हो या बंषीलाल की चाटुकारिता, ललित का बुलडोजर, रूखसाना सुल्तान का नसबंदी अभियान हो या फिर जाॅर्ज फर्नाडिष और सुब्रªण्यम स्वामी की सरकार से लुका छिपी।
बाॅलीवुड पर भी चला सरकारी डण्डा -
विरोध प्रदर्षन का तो सवाल नहीं उठता था क्योंकि जनता को जगाने वाले लेखक, कवि और फिल्मी कलाकारों तक को नहीं छोड़ा गया। कहते हंै - मीडिया, कवियों और कलाकारों का मुँह बंद करने के लिए नहीं बल्कि इनसे सरकार की प्रषंसा करवाने के लिए विद्याचरण षुक्ल सूचना प्रसारण मंत्री बनाये गये थे।
उन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रषंसा में गीत लिखने और गाने पर मजबूर किया। ज्यादातर लोग झुक गये लेकिन किषोर कुमार ने आदेष नहीं माना। उनके गाने रेडिया पर बजने बदं हो गये। उनके घर पर आयकर के छापे पडे़। अमष्त नाहटा की फिल्म ‘‘किस्सा कुर्सी का’’ को सरकार विरोधी मानकर उसके सारे प्रिंट जला दिये गये। गुलजार की आवाज पर भी पाबंदी लगाई गई।
10. सारे विपक्षी नेताओं को जेल, मीसा, का कहर और डी.आई.आर.ः-
सरकार का विराध्े ा करन े पर दमनकारी काननू मीसा क े तहत दष्े ा म ंे एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिये गये। खुद जेपी की किडनी कैद के दौरान खराब हो गयी। कर्नाटक की मषहूर अभिनेत्री डाॅ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकली बाद में उनकी मौत हो गयी। उस काले दौर में जेल यातनाओं को दहला देने वाली कहानियाँ भरी पड़ीं है।10
किस्सा कुर्सी का 1977 - मोदी सरकार से मदद की गुहार -
इमरजेंसी के दौरान बैन हुई किस्सा कुर्सी का दोबारा होगी रिलीज -
इमरजेंसी के दौरान रिलीज से रोकी गई फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ का दोबारा रिलीज होगी। सरकार पर फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ के नेगेटिव और प्रिंटस जलाने के आरोप लगे थे। फिल्म के निर्माता और पूर्व सांसद अमष्त नाहटा के बेटे राकेष नाहटा अब दोबारा से फिल्म बनाने जा रहे हंै।
राकेष नाहटा के मुताबिक ‘सेंसर बोर्ड’ के फिल्म पास न करने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित था। राकेष दावा करते हंै कि बावजूद इसके दिल्ली में संजय गाँधी और तात्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विधाचरण षुक्ल के निर्देष पर काम कर रही एक टीम ने छापा मारा और इस फिल्म के नेगेटिव्स ले जाकर जला दिये। वहीं इस संबंध में दायर एक आर.टी.आई. से भी साफ हो चुका है कि सन्
1975 में रिलीज के लिए तैयार इस फिल्म के नेगेटिव्स जलाये जा चुके हंै।
राकेष नाहटा ने अब खत लिखकर प्रधानमंत्री मोदी से गुहार लगाई है कि मौजूदा सरकार इस फिल्म के नेगेटिव्स और प्रिंटस दिलवाये या फिर आर्थिक क्षति और मानसिक क्षति के लिए मुआवजा दंे। राकेष किसी तरह की राहत ना मिलने पर एक सरताज के इंतजार के बाद सुप्रीम कोर्ट जाने का मन भी बना चुके ह।ैं
कई कट्स के साथ ‘किस्सा कुर्सी का’ पार्ट-2 तो रिलीज हुई पर पूर्व सांसद और फिल्मकार अमष्त नाहटा आजादी से अपनी बात नहीं रख पाये। अमष्त नाहटा के देहांत के बाद अब उनके बेटे उनके लिखे स् िप्ट पर ‘किस्सा कुर्सी का’ पार्ट-3 बनायगे ंे जिसम ंे इमरजसंे ी क े दौरान की ज्यादतिया ंे और राजनीतिक भ्रष्टाचार के राज खुलने के दावे किये जा रहे हैं।
11. न केस न दलील फिर भी हुई जेल:-
लोकतंत्र सेनानियों के लिये काल रात्रि जैसी थी 25 जून 1975 की रात, एटा के सैकड़ो लोगों ने 19 महीने काटी आपातलकाल की जेल
एटा: ‘किसी के ¯पर न कोई केस दर्ज था और न कोई दलील, न अपील और न कोई वकील। फिर भी तमाम लोग जेल में डाल दिये गये। 19 माह तक सिर्फ इसलिए जेल में रहना पड़ा है कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए आवाज उठाई थी। मीसा बंदियों के दिलों में 1975 में लगाए गए अपातकाल की धुंधली यादें आज भी जिंदा हंै।
25 जून 1975 की रात कालरात्रि जैसी थी, जब देष में इमरजेंसी लागू की गई। अगली सुबह से ही पुलिस ने सामाजिक संगठनों, प्रेस, राजनीतिक दलों, समाजसेवियो ं को सचू ीब कर जेल भेजना षुरू कर दिया। एटा के करीब उस वक्त 200 लोग मीसा में बंद हुये। इनमें भाजपा के बुजुर्ग नेता पूर्व राज्यमंत्री गेंदालाल गुप्ता, पूर्व सांसद महादीपक सिंह षाक्य, रमाकांत वैद्य, अतिवीर सिंह जैन, राजेन्द्र प्रसाद षर्मा, बैनीराम आदि लोग जेल में थे। कई ऐसे लोग भी हंै, जो अब इस दुनिया में नही हंै। इनें स्व. बचान सिंह राठौर, स्व. फकीर चन्द अग्रवाल जैसे लोकतंत्र रक्षक सेनानी षामिल हंै।11
12. जीवन का अधिकार भी नहीं रहा:-
सन् 1975-77 आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात्रि से ही देष में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर षुरू हो गया। जयप्रकाष नारायाण, लालकष्ष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जाॅर्ज फर्नांडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया। लोगों को रखने के लिए जेलों में जगह नहीं बची। आपातकाल के बाद प्रषासन और पुलिस के द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियाँ सामने आईं। प्रेस पर भी सेंसरषिप लगा दी गई। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छपने पर गिरफ्तारी हो सकती थी। 23 जनवरी 1977 को मार्च में चुनाव घोषणा के साथ प्रतिबंधों में 12
फिल्मों ने दिखाया दर्द:-
13. हजारों ख्वाहिषे ऐसी 2005:-
निर्देषक सुधीर मिश्रा की यह फिल्म आपातकाल की पष्ष्ठभूमि पर बनी है। फिल्म में उस दौरान बढ़ रहे नक्सलवाद पर भी प्रकाष डाला गया है।13
14. नसबन्दी 1978:-
सरकार द्वारा चलाए गए नसबदं ी अभियान पर कटाक्ष करती आइ.एस. जौहर की इस फिल्म की रिलीज को प्रतिबंधित कर दिया गया क्योंकि इसमें इंदिरा गाँधी सरकार के कार्यो को दिखाया गया था।14
15. किस्सा कुर्सी का 1977:-
अमष्त नाहटा की इस फिल्म में षबाना ने भोली भाली जनता का किरदार निभाया है। आपातकाल पर बनी इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया और सभी प्रिंट जला दिये गये।15
16. आँधी 1975:-
गुलजार की इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया क्योंकि यह इंदिरा गांधी पर आधारित थी।16
17. आपातकालः-
दुनिया के जिस सबसे बड़े लोकतंत्र का नागरिक होने की बात हम दुनिया को बड़े फख्र से बताते हंे, उसी लोकतंत्र को आज से चालीस साल पहले आपातकाल का दंष झेलना पड़ा। नयी पीढ़ी तो आपातकाल की विभीषिका से बिल्कुल अंजान है। उसे सुनकर या पढ़कर इसके बारे में जानकारी जरूर है लेकिन 25 जून 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा देष पर थोपे गए आपातकाल के दंष से उसके भुक्तभोगी आज भी उबर नहीं पाये हंै। नागरिकों के सभी मूल अधिकार खत्म कर दिये गये। राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया। अखबारों पर सेंसरषिप लगा दी गई थी। पूरा देष सुलग उठा था। जबरिया नसबंदी जैसे सरकारी कष्त्यों के प्रति लोगों में भारी रोष था। कहते हंै कि लोकतंत्र की यही खूबी है कि आबोहवा में रहा समाज व्यवस्था की खामियों को तुरन्त दूर कर लेता है। लिहाजा यही हुआ। यह आपातकाल ज्यादा दिन नहीं चल सका। करीब 19 महीने बाद लोकतंत्र फिर जीता, लेकिन इस जीत ने कांग्रेस पार्टी की जड़े हिला दीं।17
18. एक अनजान भय की चादर में सिमटे होते थे लोग।
सवाल-जवाब से निकली राजस्थान पत्रिका के संस्थापक कर्पूर चन् कुलिष की जीवन धारा ‘धाराप्रवाह’ में आपातकाल के दौर का सटीक चित्रण किया गया है। सवालों के जवाब में कुलिष ने आपातकाल के 21 महीनों का वर्णन अपने अंदाज में किया है। पेष है आपातकाल में परिदष्ष्य पर उनकी दष्ष्टि...आपका व्यक्तित्व सदैव स्वच्छन्द और बन्धमुक्त दौर में अपने भीतर
हमेषा कुछ नया करने की चाह को कैसे दबा पाए? उत्तरः- दो-तीन महीने तो लगातार तनाव के वातावरण में नियमित दिनचर्या में बंधे-बंधाए म और माहौल में मेरा वक्त गुजरता गया लेकिन धीरे-धीरे उस माहौल में सहजता और अनुकूलता का भाव स्थापित होने लगा। मैनंे महसूस किया कि सेंसरषिप भी सख्ती और कठोरता की तहों से निकलकर अब सामान्य दिनचार्य या प्र िया का अंग बनती जा रही है। पाठक भी लीक से हटकर कुछ नयापन तलाष रहें है। प्रषासन की गांवों के विकास के लिए निरन्तर प्रयासरत है और साथ-साथ प्रचार माध्यमों का भी ध्यान इस ओर खीचना चाहता हूँ। कुछ तो वक्त की नब्ज पकर अपन े बुि-कौषल का उपयागे करते हुए, मैनें एक निष्चित किया और उस पर अमल करना षुरू कर दिया। निष्चय कहूं तो मन में एक संकल्प उठा कि क्यों न इस वक्त का सदुपयोग करते हुए मै राजस्थान के समग्र दौरे पर निकल जा¯ं। राजस्थान एक विषाल राज्य है। बहुत सारे गांव और गांवों की जिन्दगी के ऐसे पक्ष है जो अभी तक पत्रकारों की पहुंच से अनछुए है। उन गांवो का वहां के लोगों का आंखों देखा हाल, क्यूं न अक्षरषः अखबार के लिए लिखता रहूं। कोई योजनाब तरीके से सर्वेक्षण या विकास कार्याे की रिपाेिटर्गं करन े जैसा मरे ा उद्दष्े य नही ं था। बस मन म ंे एक विचार जगा कि पाठक को पढ़ने के लिए भी कुछ नई सामग्री मिलेगी और मैं भी अपने पाठकों से और गांवो से नजदीक से परिचित हो जा¯ँगा। बस तुरन्त अपनी 1972 माॅडल की ‘फोर्ड फाल्कन’ गाड़ी खुद ही चलाता हुआ राजस्थान क समग्र दौरे पर निकल पड़ा। एक-एक जिले में पांच-पांच, सात-सात दिन घूमता रहा। नित्य प्रति रिपोर्ट लिखकर सारा वष्त्तान्त अखबार में छपने भेज देता, जो साथ-साथ पत्रिका में
छपता रहता। आपातकाल के दौरान षहरों में जनता के मन में क्या भाव थे, यह तो आप रोजाना देखते थे। उस समय गांव के लोगों की क्या मनोदषा थी? उत्तरः- उन दिनों गांव के लोग, एक अनजान भय की चादर में सिमटे होते थे। लोग भयभीत रहते थे, पता नहीं कब, कौन अफसर, किस नीति के नाम पर, क्या कुछ जोर-जबरदस्ती कर गुजरे, यह आषंका गांव के लोगों के दिल में, धड़कनों के साथ-साथ पलती थी। गांवों में लोगो के मन मे खटका बना रहता था, विषेष रूप से जिस तरह से नसबंदी का प्रचार और इसका ियान्वयन बलपूर्वक
था क्योकि लोग उस वक्त बेबस थे। इसी यात्रा का नियमित वष्त्तान्त अखबार में छपता रहा, जो बाद
मे एक पुस्तक के रूप में भी छपा। इन लेखों का तथ्य क्या होता था?
उत्तरः- उन लेखों का न तो कोई राजनीति से लेना-देना था। नही
आपातकाल में कोई सरोकार था। मैनंे तो मात्र गांवों के अनछुए पक्षों को नजदीक से देखा और अपने अनुभवों को लिख भेजा। तथ्य क्या होता था? गांवो की कहानी होती थी। हमारे यहा। कानोड़ में नागरबेल का पान होता है। ताम्बूल पत्र, देषी पत्ता कहते है जिसे। ऐसा कड़क पान होता था कि पापड़ की तरह मुंह में चबाया जाता था। अब यह पान कैसे उगते है, पनवाड़ियों की जीवनवष्त्ति और दिनचर्या क्या है, पानों का चलन और इतिहास क्या है, लोगों को इस संदर्भ में मान्यता क्या है, यही सब लिखकर भेज देता था। गांव की जब यही कहानी ‘पत्रिका’ में छपती थी तो गांव के लोगों का सिर गौरव से ¯ँचा होता था, अरें आज हमारे गांव के बारे में पत्रिका में छपा है। प्रषासन की नजर में आपका यह दौरा किस तरह आंका गया, क्या आपने अपने लेख में सेंसरषिप के दबाव को महसूस नहीं किया। उत्तरः- दबाब कैसा, बल्कि मेरे काम को तो प्रषासन वाले अपने कार्य में सहयोग मान रहे थे। सैंसर वालों ने मेरे लेखों की तरफ ध्यान देना ही बंद कर दिया था। सरकारी और गैर सरकारी, दोनों लोगों को मेरा काम पसन्द आने लगा था। इसका परिणाम यह रहा कि सूचना कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी षंकर भट्ट, मुझसे मिलने आए। उनका प्रस्ताव था कि मेरे इस कार्य का अच्छा प्रचार-प्रसार होना चाहिएं मेरे आलेख पत्र सूचना कार्यालय से साइक्लोस्टाइल होकर देष के सभी समाचार पत्रों में प्रकाषन हेतु भेजे जाने लगे।18
19. आपात काल के लिए देष के समूचे सत्ता प्रतिष्ठान को माना जाना चाहिए जिम्मेदार। सिर्फ इंदिरा गाँधी पर दोषारोपण करना ठीक नहीं।
क्या हमें सबक अब भी याद है?
आपातकाल के बार में आगाह करने के पीछे लालकष्ष्ण आडवाणी की जो भी मंषा रही हो, उसका एक फायदा हुआ है। हर साल आपातकाल की बरसी चुपचाप नहीं गुजरेगी। हो सकता है इस विवाद के बहाने नई पीढ़ी को आपातकाल के बारे में पता लग जाए। षायक इस बहाने हम अपने गिरेबान में झांक लें। हो सकता है कि हम अपने आप से एक कड़ा सवाल पूछ लें। अगर आज कोई नेता आपातकाल लगाने की कोषिष करता है तो क्या हम उसका मुकाबला करने को तैयार है? क्या हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है? हम आपातकाल का पूरा सच न तो खुद याद रखने की हिम्मत करते हैं, न नई पीढ़ी को बताने की परवाह करते है। हमने अपना दिल बहलान के लिए आपातकाल के बारे में एक मिथक बना रखा है। मिथक यह है कि आपातकाल इंदिरा गाँधी की व्यक्तिगत सनक थी लेकिन पूरे देष ने उसे खारिज कर दिया। यह मिथक हमें दिलासा देता है कि हम हिन्दुस्तानियों में कुछ खास बात है कि हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है। सच यह है कि आपातकाल के पीछे देष का पूरा सत्ता प्रतिष्ठान था, सिर्फ इंदिरा गाँधी नहीं। सच यह भी है कि आपातकाल के दौरान देष की स्वतंत्र संस्थाओं ने एक-एक करके घुटने टेक दिए थे। सच यह भी है कि अगर चंद समर्पित और बेखौफ हिन्दुस्तानी आपातकाल के खिलफ न लड़तें तो हमारे पास याद करने को बहुत कुछ नहीं रहा। सच यह भी है कि अगर इंदिरा गाँधी 1977 का चुनाव करवाने की गलती नहीं करती तो हमारे लोकतंत्र का इतिहास बहुत अलग हो सकता था।
अपने लोकतंत्र पर गर्व करना और पड़ोसियों को नसीहत देना हम हिन्दुस्तानियों की आदत बन गया है। दरअसल हमें लोकतंत्र को हासिल करने और उसे बचाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। देष की आजादी के साथ-साथ हमें लोकतंत्र भी मिल गया। नेपाल, बांग्लादेष और पाकिस्तान की जनता को लोकतंत्र पाने या बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा, कुर्बानी देनी पड़ी। उसकी तुलना में आपातकाल के खिलाफ हमारा संघर्ष बहुत छोटा था। आजादी की लड़ाई से निकली कांग्रेस पार्टी पूरी इंदिरा गाँधी के सामने बिछ गई थी। विरोधी दलों का संघर्ष भी आधा-अधूरा था। सीपीएम ने विरोध किया लेकिन उसकी वजह बंगाल की राजनीति थी, लोकतंत्र मे आस्था नहीं। सीपीआई और देष के अधिकांष कम्युनिस्ट इंदिरा गाँधी के साथ खड़े थे। जनसंघ और राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जेल गए लेकिन संघ के प्रमुख बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गाँधी को चिठ्टी लिखकर उस पर पानी फेर दिया। अकाली दल के कार्यकर्ताओं ने बड़ी हिम्मत दिखाई लेकिन यह कहना मुष्किल है कि उनकी लड़ाई इंदिरा गाँधी के खिलाफ थी या आपातकाल के खिलाफ। समाजवादी कार्यकर्ताओं का संघर्ष लोकतंत्र का संघर्ष था लेकिन उनकी ताकत बहुत कम थी। राजनीतिक तंत्र आपातकाल का प्रभावी विरोध करने में विफल रहा।
आपातकाल के इक्कीस महीनों के दौरान लोकतंत्र की स्वायत्त संस्थाओं का इतिहास तो और भी षर्मनाक रहा था। कुछेक अपवादों को छोड़कर सारी अफसरषाही अधिनायकवाद की सेवा में जुट गयी थी। जिसे झुकने को कहा गया उसने रेंगना षुरू कर दिया। आज हम सब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज जगमोहन लाल सिन्हा को श्रा से याद करते है जिन्होनें इंदिरा गाँधी के खिलाफ फैसला देने की हिम्मत दिखाई। लेकिन सच यह है कि सुप्रिम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। एक अनजान से जज हंसराज खन्ना को छोड़कर पूरा सुप्रीम कोर्ट आपातकाल के असंवैधानिक आदेषों पर मुहर लगा रहा
था।
इस पाप में भगवती और चन्द्रचूड़ जैसे दिग्गज जज भी षामिल थंे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे कुछ अखबारों को छोड़ दें तो अधिकतर मीडिया आपातकाल के महिमामंडन में षामिल था। सीएसडीएस सरीखी संस्थाओं को छोड़ दें तो देष के बड़े-बड़े बुजिीवी इंदिरा गाँधी के दरबारी बन चुके थे। समझदार लोग भी हमेषा की तरह बीच का रास्ता निकालते हुए आपातकाल की आलोचना के साथ-साथ उसके गुण गिन रहे थे। और जनता? यह सच है कि आखिर जनता के वोट ने अधिनायकवाद के खतरे को रोका।
21 महिनो के उजले और काले पक्षः-
आपातकाल के लंबे दौर में काले और उजले दोनों पक्षों को देखा। एक तरफ मौलिक अधिकारों का पूरी तरह से निलंबन कर दिया गया तो दूसरी तरफ सरकारी मषीनरी में कुछ अनुषासन और कर्मठता भी आई
- आपातकाल को विनोदा भावे ने ‘अनुषासन पर्व’ कहा।
- सरकारी काम काज में समय की पाबंदी दिखने लगी।
- घंटो देरी से चलने वाली टेश्ने समय पर चलने लगी।
- जमाखोरों पर सख्त कार्यवाही होने लगी। सारे देष में अति मण व्यापक पैमाने पर हटाए गए।
- अधिकारियों में जिम्मेदारी और चुस्ती दिखाई देने लगी।
- मुनाफाखोरी पर रोक लगी व महंगाई भी काबू में आई। जिससे जनता ने राहत महसूस की।
- संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार और न्यायिक सुरक्षा जैसी मूलभूत कानूनी संरक्षण समाप्त कर दिए गए।
- प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई। सरकार की आलोचना करना किसी के लिए भी संभव नहीं रह गया।
- सत्ता के कंेन्द्रीयकरण को बढ़ावा मिला। लोकतांत्रिक चेतना के प्रसार को तगड़ा झटका लगा।
- जबरन नसबंदी की गई। कई मामलों में तो अविवाहित लोगों को भी नहीं बख्षा गया। उत्पीड़न बढ़ा।19
20. आपात काल का स्मरणः-आपातकाल आधुनिक भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है। आपातकाल थोपे जाने के 40 साल पूरे होने पर उसका स्मरण किया जाना आवष्यक है। इतिहास की भूलांे का स्मरण भविष्य की गलतियों के लिए गुंजाइष को कम करता है। आपातकाल पर तमाम चर्चा के बाबजूद यह विचित्र है कि 40 साल बाद भी कांग्रेस इसकी जरूरत नहीं महसूस कर रही है कि उसे इंदिरा गाँधी की इस भयंकर गलती के लिए देषवासियों से माफी मांगनी चाहिए। इससे भी विचित्र यह है कि इंदिरा गाँधी के करीबी माने जाने वाले कुछ नेता यह स्थापित करने की कौषिष कर रहे हैं कि आपातकाल के लिए इंदिरा गाँधी नहीं, बल्कि उनके सलाहकार जिम्मेदार थें। यह जानबूझकर तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की षरारत भरी कोषिष है। आपातकाल थोपे जाते समय प्रधानमंत्री पद पर इंदिरा गाँधी ही आसीन थीं, न कि उनके सलाहकार। इसी तरह सभी इससे परिचित हैं कि आपातकाल इसलिए लागू किया गया, क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैध ठहरा दिया था। यह कहना सच्चाई से मुँह मोड़ना है कि इंदिरा गाँधी अपने सहयोगियों के बहकावे में आ गई थीं अथवा उन्हें आपातकाल लगाने के लिए उकसाया गया था। यदि कांगे्रस आपातकाल के लिए माफी मांगने के लिए तैयार नहीं तो यह उसकी मर्जी, लेकिन उसके नेताओं को देष को गुमराह करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
कागं े्रस की ओर से इंिदरा गाँधी के बचाव मे ं यह तर्क देने की भी कोषिष होती रही है कि उस वक्त कथित अराजकता के महौल को दूर करने और बिगड़ी चीजों को दुरुस्त करने के लिए आपातकाल का सहारा लिया गया था। यह भी एक कुतर्क है, क्योंकि चार दषक बाद भी लोगों को यह अच्छी तरह स्मरण है कि हालात सुधारने के नाम पर किस तरह दमन च चलाया गया और बुनियादी नागरिक अधिकारों को कुचलने के लिए कैसे-कैसे प्रयास किए गए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के दमन के साथ ही संविधान में छेड़छाड़ कर लोकतंत्र को निरीह बनाने का भी काम किया गया। आपातकाल के सिलसिले मंे इस तथ्य को भी याद रखना जरूरी है कि इस काले अध्याय की षुरूआत इसलिए हो सकी, क्योंकि तत्कालीन राष्टश्पति तो कठपुतली साबित हुए ही, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इंदिरा गाँधी की मनमानी के समक्ष घुटने टेकना बेहतर समझा। यह भी याद रखना जरूरी है कि कम्युनिस्ट दलों ने इस या उस बहाने इंदिरा गाँधी का साथ देना अथवा मौन रहना बेहतर समझां पिछले दिनांे कुछ ऐसे स्वर सामने आए है कि फिर से आपातकाल लगने की आषंका के लिए कोई स्थान नहीं नजर आता। पिछले चार दषकों में लोकतांत्रिक और संस्थाएं कहीं अधिक मजबूत हुई हैं। मीडिया मजबूत होने के संबंधी आषंकाओं को खारिज करती हैं, लेकिन इसकी आवष्यकता पहले भी थी और आज भी है इस तरह की संस्थाएं और अधिक सजग, स िय और समर्थ बनें। इससे ही आम जनता के हितों और आकांक्षाओं की पूर्ति का मार्ग सही तरह से प्रषस्त होगा।20
21. आडवाणी की बेजा चिंताः-
देष में आपातकाल की पुनरावष् िा को लेकर लालकष्ष्ण आडवाणी की
चिंता को निर्मूल ठहरा रहे हैं, डाॅ. ऐ.के. वर्मा
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकष्ष्ण आडवाणी ने इंदिरा गाँधी द्वारा 25 जनू 1975 का े दष्े ा पर थापे े गय े आपातकाल की चालीसवी ं वर्षगाठं पर एक अनावष्यक विवाद को जन्म दे दिया। आपातकाल की पुनरावष्त्ति की आषंका पर उन्होंने कहा कि 1977 से आज तक ऐसे कदम उठाए गए है जो मुझे आष्वस्त कर सकें कि अब नागरिक स्वतंत्रताऐं निलंबित या नष्ट नहीं की जाएगी। उनके कथन नेतष्त्व को लेकर भी आष्वस्त है। इस बयान ने राजनीतिक रंग ले लिया है। वर्तमान संदर्भों मे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से संकेत हो सकता है। एक दूसरे अंगे्रजी समाचार पत्र दैनिक में आडवाणी ने इससे इनकार किया, पर लोगों मंे आडवाणी के कथन के प्रति कौतूहल जरूर है। क्यों कहा उन्होंने ऐसा? और उनका असली इरादा
क्या था?
पिछले कुछ समय से आडवाणी अपने बयानों से अपनी महत्वाकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने के लिए जाने जाते रहे है। अटल बिहारी वाजपेयी के बाद वह खुद को भाजपा के स्वभाविक नेता के रूप में देखते थे। मोदी का अचानक राष्टश्ीय पटल पर आकर उन्हें विस्थापित करना संभवतः उन्हें अच्छा नहीं लगा, लेकिन मोदी को जो प्रचंड बहुमत मिला उससे वह चुप रहने को विवष हो गए। आडवाणी मोदी की आड़ में जनता और भाजपा को उलाहना तो नहीं दे रहे? अन्यथा स्वयं अपनी पार्टी और अपने प्रधानमंत्री के लिए अवांछित स्थिति पैदा करने के पीछे क्या मंषा हो सकती है? आडवाणी कैसे भूल सकते हैं कि मोदी के पास आपातकाल लागू करने का न कोई अवसर है, न कारण। 1977 से ऐसे संवैधानिक परिवर्तन कर दिए गए है कि अब आसानी से आपातकाल लागू करना संभव नहीं।
इंदिरा गाँधी ने विषेष परिस्थिति में अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आंतरिक अषांति के आधार पर आपातकाल लागू किया था। रायबरेली से उनके निर्वाचन को उनके प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने चुनौती दी थी और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी का निर्वाचन अवैध घोषित कर दिया था। जयप्रकाष नारायण के नेतष्त्व में सम्पूर्ण ांति आंदोलन चल रहा था और सभी विरोधी दल इंदिरा गाँधी से मांग कर रहे थे कि वह त्यागपत्र दें। 1975 की पुनरावष्त्ति न हो इसके लिए संविधान में 44वें संषोधन के द्वारा कई मूलभूत परिवर्तन किए गए है। एक, अब आंतरिक अषांति के आधार पर नहीं, वरन केवल यु, वा ा आ मण और सषस्त्र ांति के ही आधार पर आपातकाल लगाया जा सकता है। दो, आपातकाल लगाने के लिए प्रधानमंत्री को मौखिक नहीं, वरन मंत्रिमंडल का लिखित परामर्ष राष्टश्पति को देना पड़ेगा। तीन, संसद के दोनों सदनों को अलग-अलग केवल एक महीने के भीतर अपने कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत और उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से आपातकाल का अनुमोदन करना होगा जो केवल छह महीने के लिए ही वैध होगा। इतना ही नहीं, लोकसभा के दस फीसदी सदस्य आपातकाल समाप्त करने के लिए सदन की बैठक बुला सकते हैं और केवल साधारण बहुमत से आपातकाल समाप्त करवा सकते है।
1980 में मिनर्वा मिल्स मुकदमे में सर्वाेच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल की उद्घोषणा पर न्यायिक पुनर्निरीक्षण किया जा सकेगा। उसे कोई संवैधानिक उन्मुक्ति प्राप्त नहीं है। न्यायालय यह देख सकेगा कि आपातकाल लगाने के लिए राष्टश्पति के संतोष का कोई विधिक और तथ्यात्मक आधार है भी या नहीं? कोई भी नागरिक इस आधार पर आपातकाल को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे सकता है। मोदी सरकार के पास तो आपातकाल को पारित करवाने हेतु वांछित दो-तिहाई बहुमत न लोकसभा में है न राज्य सभा में। फिर तो आज, किसी भी स्थिति में, आपातकाल लागू हो ही नहीं सकता। आज सार्थक बहस यह होनी चाहिए कि हम और कौन-कौन से संवैधानिक, विधिक, प्र ियात्मक और राजनीतिक कदम उठाए ं जिसस े सत्तारूढ ़ दल द्वार सवं ैधानिक षक्तिया ंे क े दरुु पयागे पर प्रतिबंध लगाया जा सके पर आडवाणी द्वारा मोदी पर सांकेतिक प्रहार कांगे्रस को किसी प्रकार से आपातकाल की विभीषिका के उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं करता। जिस तरह से मीसा ३मेंटेनेंस आॅफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट७, डीआईआर ३डिफेंस आॅफ इंडिया रूल्स७ और कोफेपोसा ३ कांजेर्वेषन आॅफ फाॅरेन एक्सचेंज एंड प्रिवेंषन आॅफ स्मगलिगं एक्टिविटीज७ मे ं लोगो को जेलो ं मे ं बदं किया गया, जिस तरह जवान और अविवाहित बच्चों की नसबंदी कराई गई और सौंदर्यकरण की आड़ में घर गिराए गए, उससे पता चला कि स्वतंत्रता का क्या मोल होता है। 44 वें संषोधन ने आपातकाल में भी मौलिक स्वतंत्रताओं को कई सुरक्षा प्रदान की है। एक, संविधान के अनुच्छेद 19 मंे दी गई स्वतंत्रताएं अब केवल यु और वाह्य आ मण के आधार पर लगे आपातकाल में ही निलंबित की जा सकेंगी, आंतरिक अषांति या सषस्त्र ांति के आधार पर नहीं। दो, आपातकाल की स्थिति में भी अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लागू करवाने का अधिकार अब निलंबित नही किया जा सकगे ा। तीन, अनुच्छदे 22 क े अतं र्गत निवारक नजरबदं ी अधिक स े अधिक दो महिने ही की जा सकेगी जब तक कि उच्च-न्यायालय के न्यायाधीष की अध्यक्षता में बना बोर्ड उसे बढ़ाने की सिफारिष न करें। आष्चर्य है कि आडवाणी ने मीडिया को भी लपेटा और कहा कि लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता को बचाने की उसकी प्रतिबता की अभी परीक्षा होनी है। जबकि हकीकत यह है कि आपातकाल में भारतीय मीडिया ने जिस साहस का परिचय दिया आज उसी का नतीजा है कि मीडिया में लोगों का विष्वास बना हुआ है। षायद आडवाणी भूल गए कि 44वें संषोधन में मीडिया आपातकाल में भी संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही को बिना प्रतिबंध रिपोर्ट कर सकती है। लेकिन आडवाणी की यह बात दुरुस्त है कि आपातकाल जैसी दुर्घटना को भारतीय राजनीतिक संस्कष्ति में अभिव्यक्ति नहीं मिली। जहां विभाजन पर अनेक फिल्मे बनीं, वहीं आपालकाल पर कोई नहीं। गुलजार की आंधी जरूर आई थी, जिसमंे आपातकाल पर कुछ भी नहीं था। उसे भी उस दौरान प्रतिबंधित कर दिया गया
था।21
22. भूल नहीं सकते आपातकालः- आपातकाल म ंेराजनते ाआ,ंे पसे्र आरै आम जनता क ेदमन तथा अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता पर कुठाराघात की पीड़ा बयान कर रहे हंै - ए. सूर्यप्रकाष
एक व्यक्तिगत टिप्पणी के साथ इस लेख की षुरूआत करने के लिए क्षमा करें लेकिन मेरे दुःखदायी अनुभवों में से यह एक है। इंदिरा गाँधी ने 40 साल पहले जब देष पर आपातकाल थोपा था, तब कर्नाटक के पुलिस महानिरीक्षक मेरे संपादकीय बाॅस हो गए थे। उन्हें राज्य में मुख्य सेंसर अधिकारी नियुक्त किया गया था। मंै उस वक्त बेंगलोर में एक अंग्रेजी दैनिक का संवाददाता था। उन्हें मेरी सभी न्यूज रिपोर्ट भेजी जाती थी ताकि वह इसे जारी करने की अनुमति दें। उनके पास पुलिस उपाधीक्षकों, इन्स्पेक्टरों और सूचना विभाग के अफसरों की भारी भरकम टीम थी। ये सभी अखबारों में अगले दिन के संस्करणों में छापी जाने वाली सभी संपादकीय सामग्री की भले प्रकार से जांच के लिए उत्तरदायी थे। यह 25 जून,
1975 से जनवरी, 1977 के आखिरी तक 19 महीने के लिए रूटीन काम था।
हमें कड़े निर्देष थे कि आईजीपी और उनके लोगों की अनुमति के बिना एक षब्द प्रकाषन के लिए न जाये। परिणाम यह था कि हमारे पास एक वैन थी जो हमारे और मुख्य सेंसर कार्यालयों के बीच दौड़ती रहती थी। सेंसर हर सामग्री की जांच परख करता था और किसी भी ऐसी सामग्री को हटा देता था जो किसी भी तरह इंदिरा गाँधी सरकार के खिलाफ लगती हो। वहाँ से उन पर सील और मुहर लगती थी। जिन खबरों की अनुमति मिलती थी, सिर्फ उन्हें ही प्रकाषित किया जा सकता था। कोई तरीका नहीं था कि कोई सेंसर के आदेषों का उल्लंघन कर सके, क्योंकि भयानक मीसा ३आंतरिक सुरक्षा संरक्षण कानून७ के तहत गिरफ्तारी हमारे सिर पर खतरे की तलवार की तरह लटकती रहती थी।
लोकतांत्रिक वातावरण में बड़े हुए युवा पाठकों के लिए ऐसी स्थिति की कल्पना करना भी कठिन होगा जब मीडिया सामग्री को आईजी पुलिस नाम की छलनी से गुजरना पड़ता हो। अखबारों और टी.वी. चैनलों के संपादकीय विभागों में पुलिसवालों की कल्पना करें। वैसे, यह दमनकारी वातावरण के सैकड़ों उदाहरणों में से एक है जो आपातकाल के दौरान फैला हुआ था। ऐसे लोकतांत्रिक
तानाषाह बन जाने के इंदिरा गांधी के फैसले की जड़ में उनके खिलाफ राजनारायण द्वारा दायर चुनाव याचिका इसमें सन् 1971 लोकसभा चुनाव के दौरान रायबरेली संसदीय क्षेत्र में उन पर भ्रष्ट तरीके अपनाने का आरोप लगाया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री को भ्रष्ट तरीके अपनाने का दोषी पाया, संसद के लिए उनका चुनाव असंवैधानिक पारित किया और उन पर छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस फैसले के खिलाफ उनकी अपील पर न्यायमूर्ति वीआर कष्ष्ण अय्यर ने सुनवाई की। सब न्यायमूर्ति अय्यर के आदेष का इंतजार कर रहे थे जबकि इंदिरा गाँधी ने अपने सफदरजंग निवास के बाहर भाड़े की भीड़ के जरिये समर्थन जुटाने का माहौल बनाया।
न्यायमूर्ति अय्यर ने 24 जून को अपील पर आदेष दिया और उन्हें सषर्त बने रहने की अनुमति दी। इसमें उन्हें पद पर बने रहने की अनुमति थी, लेकिन उन्हें संसद में बहस में भाग लेने या वोट करने से मना कर दिया गया था। इसके साथ ही मामले को न्यायालय की बड़ी पीठ में भेज दिया गया था।
अब इंदिरा गाँधी के लिए एकमात्र सम्मानजनक रास्ता सर्वोच्च न्यायालय का अंितम फैसला आन े तक पद स े दरू रहना था, लेिकन वह स ाा छाडे ऩ े की इच्छुक नहीं थी। पद पर बने रहने के उनके संकल्प को उनके बेटे संजंय गाँधी और उनके चमचो ं के गिरोह ने समर्थन दिया। जो माँ-बेटे के इर्द-गिर्द जमा हो गये थे। कागं ्रेस का विरोध कर रही पार्टियाँ 12 जून को न्यायमूर्ति सिन्हा के फैसले के बाद से ही उनके इस्तीफे की माँग कर रही थी। न्यायमूर्ति अय्यर के ‘सषर्त’ बने रहने के आदेष ने उनके विचारों का समर्थन किया। जयप्रकाष नारायण, मोरारजी देसाई और अन्य नेताओं ने नई दिल्ली के रामलीला मेदान में 25 जून को हुई विषाल सभा को संबोधित किया और उन्हें स ाा से हटाने की माँग की, लेकिन इदिरा गाँधी और उनके किचन कैबिनेट की दूसरी ही योजना थी। सिार्थ षंकर राय संविधान को कुचलने के ‘बेहतरीन विचार’ के साथ आगे आये। उन्होंने इंदिरा गाँधी को संविधान की धारा 352 के अन्तर्गत आतंरिक आपातकाल लगाने की सलाह दी। वह सहमत हो गईं और उन्होंने घोषणा की कि देष को ‘झटके वाले उपचार’ की जरूरत है। उन्हांेने राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद से राष्टश्पति षासन की घोषणा के लिए आग्रह किया। प्रधानमंत्री ने इस सिलसिले में अपने मंत्रिमण्डल से विचार नहीं किया था, फिर भी ‘रबर स्टाम्प’ माने जाने वाले राष्टश्पति अहमद ने तत्काल उनकी बात मान ली। इंदिरा गाँधी ने अगले दिन सुबह मंत्रिमण्डल की बैठक बुलाई और अपने निर्णय के बारे में ‘सूचना दी’ं। तब तक उनके मंत्रियों के बीच इतना भय फैल गया था कि उनमें से किसी के पास पिछली रात हुई घटनाओं को लेकर कोई सवाल नहीं था या किसी को किसी चीज को लेकर कोई षंका नहीं थी। भारतीयों को यह समझने में बहुत देर नहीं लगी कि लोकतंत्र को कुचल दिया गया है क्योंकि उसके बाद जल्द ही कांग्रेस सरकार ने राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया। प्रधानमंत्री निवास पर पहले ही की गई पर्याप्त तैयारी के कारण यह अभियान तुरंत-फुरंत हुआ। जयप्रकाष नारायण, मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकष्ष्ण आडवाणी, मधु दंडवते, रामकष्ष्ण हेगड़े, अरूण जेटली समेत सैकड़ों राजनीतिज्ञ जेल भेज दिए गए। उसके बाद लोकतंत्र के अंतिम अवषेषों को नष्ट करने तथा न्यायपालिका और मीडिया का गला घोंटने के लिए संसद के जरिये कई कानून लागू किए गए और 39 से 42 तक संविधान संषोधन किए गए। यह सब इसलिए ताकि इंदिरा गाँधी को सर्वोच्च नेता बनाया जा सके जो हर कानून से ¯पर हो। संक्षेप में, कानून में सबसे लिए बराबरी और जीवन तथा स्वतंत्रता के अधिकार जैसे लोकतांत्रिक संविधान के मूलभूत मूल्यों को छीन लिया गया। सीएम स्टीफेन जैसे कांग्रेस नेताओं ने न्यायपालिका को धमकाया। वीसी षुक्ला ने पत्रकारों को धमकाया और उन ‘प्रतिकूल’ पत्रकारों की सूची बनाई जिन्हें सबक सिखाने की जरूरत थी। आर.एस.एस. से लेकर समाजवादियों तक के हजारों राजनीतिक
कार्यकर्ताओं और माकपा कार्यकर्तातों को जेलों में यातनायें दी गईं।
भारत में तानाषाही का भयावह अनुभव तब समाप्त हुआ जब जनता ने मार्च 1977 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को स ाा से उखाड़ फेंका। तबसे चालीस वर्ष बीत चुके हैं। क्या हमें इन स्मष्तियों का अन्त नहीं कर देना चाहिये? इसका उत्तर है नहीं क्योंकि उन्हें दूर-दूर तक ग्लानि नहीं है जिन्होंने आपातकाल के दौरान इतना जुल्म किया। उन्हें कोई प्रायष्चित भी नहीं है इसलिए आपातकाल को कभी नहीं भुलाना चाहिए और उन्हें कभी माफ नहीं करना चाहिए जिन्होंने भारत को तानाषाही में डूबो दिया था। कौन जानता है कि वे कब फिर ऐसा कर बैठें?22
23. लोकतंत्र पर लगा था ग्रहण:-
भारत की गिनती दुनिया के सबड़े बड़े लोकतांत्रिक देषों में होती है। सवा सौ करोड़ का यह देष लोकतंत्र में आस्था रखने वाले दूसरे देषों के लिए मिसाल है। तमाम अन्तर्विरोधी के बावजूद यहाँ लोकतंत्र की बयार सी बहती रही है और लोकतंत्र समष् भी हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि आजादी के इन 68 सालों में एक दौर ऐसा भी आया है जब लोकतंत्र पर ग्रहण भी लगा। आज का स्पाॅटलाइट और साथ में एक विषेष पेज आपातकाल से जुड़े तमाम पहलुओं को समेटे हुए है ..देष की संस्कष्ति में नहीं है तानाषाही रवैया -
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी का कहना है कि देष की संस्कष्ति में लोकतंत्र रचा-बसा है। यहाँ के लोगों को तानाषाही बर्दाष्त ही नहीं है। आपातकाल तो विघ्न था जिसका जनता ने कांग्रेस के खिलाफ वोट देकर प्रतिकार किया। पेष है कि उनसे हुई, राकेष रंजन की बातचीत के प्रमुख अंषः आज के दौर में आपाताकल के बारे में सोचते हंै, तो क्या लगता है? अंग्रेजों की गुलामी का ही असल है कि जो हमारे विचारों के विपरीत बात करते हंै, हम उन्हें सुन नहीं पाते। आपातकाल के दौर में भी षासन विरोधी स्वर सुनने कोई तैयार नहीं था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन हो रहा था हालांकि हमारी संस्कष्ति लोकतांत्रिक रही है। यह हमारी हिन्दू संस्कष्ति ही है जो सभी धर्मों को स्वीकारती है। भिन्न मतों का आदर करती रही है। षास्त्रार्थ की परम्परा अन्य किसी संस्कष्ति में नहीं मिलती। लोकतंत्र हमारी परम्परा में रचा-बसा है। बीच-बीच में विघ्न आए हंै और आपातकाल भी ऐसा ही विघ्न था। आपातकाल के दौर में सेंसरषिप देखकर कैसा लगा था?
आपातकाल के दौर में जब सेंसरषिप लागू थी, तब भी मंै गाँवों में जाकर किसानों से मिलता था। अपनी बात रखता था। देष ही नहीं मंै तो आपातकाल के विरोधी रहे मित्रों की सहायता से विदेष भी गया। एक बार नहीं दो बार गया। वहाँ भी आपातकाल के विरोध में खूब प्रचार किया। यहीं नहीं एक बार तो संसद में आकर भी इसके खिलाफ करीब एक मिनट बोलकर गायब हो गया। यह तभी संभव हो सका, जबकि हमारे देष में आपातकाल के विरोध में खड़े थे। आज के दौर की तुलना आपातकाल से की जाए तो ...
जहाँ तक आडवाणी जी के बयान संदर्भ में बात कर रहे हंै तो वे स्पष्टीकरण दे चुके है ं कि जब तक भाजपा सत्ता म ंे है, तब तक ता े आपातकाल नही ं लगगे ा। इसका अर्थ बिल्कुल साफ है कि भाजपा के कामकाज के तरीकों से जोड़कर उनके वक्तव्य को देखना अनुचित है।
ये तो मानना पड़ेगा कि आपातकाल के दौर में अनुषासन था .....हमारी संस्कष्त में है ही नहीं तानाषाही रवैया। आपातकाल के दफ्तरों में बाबू समय पर आने लगे थे। रेलगाड़ियाँ समय पर चलने लगी थीं। स्पष्ट कर दूँ कि भले ही कुछ समय तक कार्य अनुषासनात्मक रूप से चला लेकिन धीरे-धीरे लोगों को समझ में आने लगा कि यह कड़ा अनुषासन वास्तव में मनमानी से बचने की कोषिष ह ैं षासन की मनमानी का े सिर झुकाकर मानत े चलन े का े सही नही ं कहा जा सकता। धीरे-धीरे जनता समझने लगी तो इसके खिलाफ बोलने भी लगी। हमारी संस्कष्ति ही ऐसी है कि हम लम्बे समय तक तानाषाही सहन नहीं कर सकते।23
संदर्भ -
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12- राजस्थान पत्रिका, गुरूवार, 25 जून 2015 पष्ष्ठ संख्या-9
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14- तत्रवै
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18- राजस्थान पत्रिका, 25 जून 2015, अलवर, पष्ष्ठ संख्या-9
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20- दैनिक जागरण, 25 जून 2015
21- तत्रवै
22- तत्रवै
23- राजस्थान पत्रिका, गुरूवार, अलवर, 25 जून 2015
अ ध् य ा य - प ं च म
आपातकाल के बाद भारत का राजनीतिक परिदष्ष्य, राजनीतिक परिवर्तन, राजनीतिक दलों पर उसका प्रभाव, राजनीतिक चेतना और बनती-बिगडती राजनीतिक पार्टियों की विवचेना।
1. आपातकाल के बाद भारत का राजनीतिक परिदष्ष्य:-
25 जून, 1975 को देष में आपातकाल ३आन्तरिक७ की घोषणा के साथ करीब-करीब सभी विपक्षी नेताओं एवं प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। नवम्बर, 1976 में लोकसभा का कार्यकाल एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया था, इस दष्ष्टि से छठा आम चुनाव मार्च 1978 में होना था लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने फैसला लिया कि छठी लोकसभा का चुनाव मार्च 1977 में हो जाना चाहिए। लोकसभा भंग करने की उनकी सिफारिष राष्टश्पति ने स्वीकार कर ली। आपातस्थिति हटाई तो नहीं लेकिन इतनी
छठें आम चुनाव कराये जाने की आकस्मिक घोषणा ने विभिन्न प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों के समक्ष गहन चुनौती उत्पन्न कर दी और आपसी विलय की विचारणा को अनिवार्य बना दिया। आपातकाल के दौरान प्रतिपक्षी नेताओं को आपसी विचार-विमर्ष का अनायास ही अवसर मिल गया था। जेल से छूट कर बाहर आये नेताओं के लिए यर्थाथ को टालने या बंटे-बिखरे रहने के कारण स्वयं अपन े अस्तित्व क े विलापे का खतरा साफ था अतः उनक े अपन-े अपन े पथ्ष् ाक अस्तित्व को समाहित करने तथा देष में व्याप्त राजनीतिक अभिषाप की स्थिति को समाप्त करने की प्रेरणाऐं सबल बन गईं। सौभाग्य से जयप्रकाष नारायण जैसा प्रभावी नैतिक नेतष्त्व भी सुलभ हुआ और जो कार्य वर्षों में नहीं हो पाया वह अवसरजन्य स्थिति कारण कुछ दिनों में संभव हो गया अन्ततः चार विपक्षी दलों ३संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल, समाजवादी दल७ ने मिलकर मोरारजी देसाई के नेतष्त्व में जनता पार्टी का गठन किया।1 इसी बीच कष्षि मंत्री श्री जगजीवनराम ने मंत्रिमण्डल व कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इतनी लम्बी सेवा करने के बाद अचानक त्याग पत्र दे दिया तथा ‘लोकतांत्रिक कांगे्रस’ का गठन करके जनता पार्टी के सहयोग से चुनाव लड़ने की घोषणा की। षीघ्र ही जनता पार्टी ने अपना चुनाव घोषण पत्र जारी किया। जिसमें 10 वर्षों के भीतर गरीबी दूर करने, पाँच वर्षों में अस्पष्ष्यता निवारण तथा बेरोजगारी समाप्त करने के अतिरिक्त सत्ता में आते ही तुरन्त संविधान निर्माताओं की भावनाओं के अनुरूप जनता और सांसद, संसद और न्यायपालिका और कार्यपालिका, राज्य और केन्द्र, नागरिक तथा सरकार के बीच संतुलन स्थापित करने और इसके लिए 42वें संविधान संषोधन अधिनियम को रद्द करने का देषवासियों को वचन दिया गया। उन्होंने तानाषाही के विरू लोकतंत्र के पक्ष में मत देने का आह्वान किया।
प्. विभिन्न पार्टीयों का घोषणा-पत्र:-
चुनाव घोषणा-पत्र किसी भी दल की विचारधारा और मान्यताओं
के प्रतीक होते हंै। घोषणाओं के माध्यम से ही राजनीतिक दल अपने विचारों को मतदाताओं के सम्मुख प्रस्तुत करते हंै। इनमें राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को कतिपय आष्वासन दिये जाते हंै। पाष्चात्य देषों की राजनीतिक व्यवस्थाओं में मतदाताओं के राजनीतिक आचरण को प्रभावित करने में चुनाव घोषणा पत्रों का विषिष्ट स्थान होता है लेकिन भारत के पिछले पांच संसदीय निर्वाचनों का इतिहास यह बताता है कि यहाँ के राजनीतिक दल चुनावों की औपचारिकता मात्र पूरा करने के लिए ही घोषणापत्रों का प्रकाषन करते रहे हंै। अब तक के चुनावों में चुनाव प्रचार के समय घोषणा पत्रांे को प्राथमिकता प्रदान नहीं की गई, अपितु दूसरे पक्षों पर अधिक बल दिया जाता रहा। विगत चुनावों में भारतीय मतदाताओं के आचरण से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि उन्होंने भी मतदान करते समय घोषणापत्रों को आधार नहीं बनाया। इन सब वास्तविकताओं के बावजूद चुनावों में घोषणापत्रों के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
इन निर्वाचन में भी मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु राष्टश्ीय स्तर और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने अपने-अपने चुनाव घोषणापत्र प्रकाषित किये। जहाँ कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में स्थिर सरकार, समाजवाद, गरीबी और असमानता को दूर करने पर बल दिया, वहीं दूसरी तरफ जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों और साम्यवादी दलों ने आपातकाल की आलोचना करते हुए देष में लाके तन्त्रीय स्वरूप की पुर्नस्थापना हते ु नागरिक स्वतन्त्रताआ ंे का े प्रतिष्ठित करन े का आष्वासन दिया। देष के विभिन्न राजनीति दलों के घोषणापत्र इस प्रकार से थे:- ३अ७ जनतापार्टी का घोषणापत्र2
10 फरवरी, 1977 को जनता पार्टी के उपाध्यक्ष चैधरी चरण सिंह ने अपने दल का चुनाव घोषणापत्र जारी किया। घोषणापत्र में आपातकाल के दमनच , परिवार नियोजन की ज्यादतियों, स ाा के केन्द्रीयकरण और मौलिक अधिकारों के हनन के लिए सरकार की निन्दा की गई। घोषणापत्र में दल के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दर्षन को मतदाताओं के सम्मुख रखा गया। गाँधीवादी समाजवाद को घोषणापत्र का मुख्य आधार बताया गया। घोषणापत्र में दो मुख्य आधार ‘‘अर्थतन्त्र और प्रषासन का पूर्ण विकेन्द्रीयकरण’’ प्रचलित किये गये। भय का वातावरण, सत्ता के गैर संवैधानिक केन्द्र, मजदूरों पर अत्याचार और 42वें संविधान संषोधन के लिए सरकार की निन्दा की गई।3 घोषणापत्र में ‘‘रोटी के साथ आजादी’’ का स्वर प्रमुख था।
राजनीतिक क्षेत्र में जनता पार्टी ने निर्भयता का वातावरण बनाने
और लोकतन्त्र की पुर्नस्थापना करने हेतु 19 सूत्रीय कार्य म प्रस्तुत किया।4 इस कार्य म में आपातस्थिति को समाप्त करने, आन्तरिक सुरक्षा कानून को हटाने, 42वें संिवधान सष्ं ााध्ेान का े समाप्त करन,े संिवधान क े अनुच्छदे 352 और 356 क े दुरुपयागे को रोकने के लिए उनमें संषोधन करने, निर्वाचन प्रणाली में सुधार करने हेतु तारकुन्डे और अन्य विषेषज्ञ समितियों की सिफारिषों को लागू करने, न्यायपालिका की सत्ता को पुनः प्रतिष्ठित करने, कानून के षासन को पुनः स्थापित करने, प्रेस की स्वतन्त्रता को बहाल करने, आकाषवाणी और दूरदर्षन को स्वाय ाषासी संस्थाओं का स्वरूप प्रदान करने, मौलिक अधिकारों की सूची में से सम्प िा के अधिकार को हटाने, सामाजिक एजेन्सियों पर सरकारी नियन्त्रण और एकाधिकार को समाप्त करने और सरकारी कर्मचारियों को प्रताड़ित नहीं करने का आष्वासन दिया गया।
आर्थिक कार्य म में सम्प िा के मौलिक अधिकार को समाप्त करने,
काम प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करने, 10 वर्षों मंे भुखमरी का अंत करने, योजना प्राथमिकताओं में कष्षि और भूमि सुधारों के लिए अधिक धनराषि आवंटित करने, गांवों और षहरों के बीच की विषमता के अंत करने, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने, वेतन और मूल्य नीति का निर्धारण करने और जल तथा ¯र्जा के सम्बन्ध में राष्टश्व्यापी नीति के निर्धारण का संकल्प दोहराया गया।5
आष्वासन की राजनीति -
सामाजिक क्षेत्र में षिक्षा सुधार, पेयजल उपलब्ध कराने, स्वास्थ्य
बीमा, नगर विकास के लिए वैज्ञानिक नीति, दबाव रहित परिवार नियोजन, नागरिक अधिकार आयोग की स्थापना, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अधिकारों की रक्षा के लिए विषेष व्यवस्था, नारी अधिकारों की सुरक्षा करने, युवावर्ग की समष् िऔर गरीबों के लिए कानूनी सहायता प्रदान करने के कार्य म पर विषेष बल दिया गया।6
विदेष नीति के क्षेत्र में, उपनिवेषवाद और रंगभेद का विरोध करने,
विषु असंलग्नता की नीति का पालन करने, अन्तर्राष्टश्ीय विवादों का षांतिपूर्ण समाधान करने, पड़ौसी देषों के साथ मैत्रिपूर्ण सम्बन्ध कायम करने, निषस्त्रीकरण और तनाव षैथिल्य का समर्थन किया गया।7
प्रतिरक्षा के क्षेत्र में, सेनाओं को आधुनिकतम हथियारों से सज्जित
करने, सीमा सुरक्षा बल जैर्से असैनिक संगठनों को मजबूत बनाने, भूतर्पूव सैनिकों की सेवाओं का भूमि और जल संरक्षण कार्य मों में उपयोग लिये जाने पर महत्व दिया गया।8
दल ने दिल्ली के लिए भी पूरक घोषणा-पत्र प्रकाषित किया।
इसमें दिल्ली में विधानसभा की स्थापना करने और षुष्क बन्दरगाह स्थापित करने जैसे 27 सूत्रीय कार्य म का उल्लेख किया गया।9
३ब७ कांग्रेस का घोषणापत्र:-
8 फरवरी, 1977 ई. को तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने कांग्रेस
का घोषणा पत्र जारी किया। घोषणापत्र में मुख्यतः राष्टश् निर्माण में कांग्रेसी नेतष्त्व की भूमिका, वाधीन भारत के लोकतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और समाजवादी स्वरूप के निर्माण में दल की अहम भूमिका, 1971 के घोषणापत्र में दिये गये आष्वासनों को पूरा करने, 1971 और उसे बाद हुए विपक्षी दलों के गठबंधनों की भत्र्सना करने, आपातकाल की उद्घोषणा को उचित ठहराने, नवीन आर्थिक कार्य म की उपलब्ध् िायों का बखान करन,े अनुसूचित जातियों और जनजातियों की दषा में सुधार करने, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का आष्वासन देने, उद्योगों के विकास को प्राथमिकता देने, रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध कराने, श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा करने और उद्योगों में साझेदारी प्रदान करने, कीमतों को स्थिर रखने और जनता को उचित मूल्य पर आवष्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराने, सभी बच्चों को प्राथमिक स्तर पर षिक्षा प्रदान करने, सैकण्डरी और हायर सैकण्डरी के स्तर को ¯ँचा उठाने, स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं का विस्तार करने, परिवार नियोजन कार्य म में जोर जबरदस्ती नहीं करने, महिलाओं और युवकों की स्थिति में सुधार करने जैसे आष्वासन दिये गये। घोषणापत्र में भूमि सुधारों को लागू करन,े विकास के लाभों को गांवों तक पहुंचाने, 42वें संविधान संषोधन के आर्थिक और सार्वजनिक महत्व का भी उल्लेख किया गया। विदेष नीति के क्षेत्र में, असंलग्नता की नीति को जारी करने, नई अन्तर्राष्टश्ीय अर्थव्यवस्था की मांग करने और हिन्द महासागर को षांति क्षेत्र घोषित करने की मांग की गई।
घोषणापत्र के अनुसार कांग्रेस एक उद्देष्य से बंधी है और वह
उद्देष्य है देष की एकता स्थापित करना, भारतीय व्यक्तित्व के र्ािस के बिना समाज को आधुनिक बनाना, उद्योगों और कष्षि का विकास करना और जनसाधारण को ¯पर उठाकर षोषण को समाप्त करना है। विरोधी दलों पर कटाक्ष करने हुए कहा गया कि उन्होंने ‘प्रजातन्त्र खतरे में है’ का जो नारा दिया है, वह उन्हीं दलों का नारा है, जिन्होंने का कांग्रेस की प्रगतिषील नीतियों के ियान्वयन में बाधाएँ उपस्थित की हंै। कांग्रेस अपनी उपलब्धियों पर गर्व करती है। इंदिरा गाँधी के नेतष्त्व में राष्टश् ने बंैकों का राष्टश्ीयकरण किया, राजाओं की षाही षैली समाप्त की, बांग्लादेष संकट का हिम्मत से मुकाबला किया, सिक्किम को भारतीय संघ से मिलाया, 1974 ई. में षांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट किया, मंहगाई को नियंत्रत किया, आर्यभट्ट को अंतरिक्ष में स्थापित करके अंतरिक्ष विज्ञान में प्रवेष किया। यही अकेला दल है जो जो आम आदमी के लिए षांतिपूर्ण परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है।
अन्त में, घोषणापत्र में यह बताया गया है कि कांगे्रस का लक्ष्य
गरीबी हटाना और असमानता और अन्याय को समाप्त करना है। चुनाव का उद्देष्य केन्द्र में ऐसी षक्तिषाली सरकार की स्थापना करना है जो भारत की स्वतंत्रता की रक्षा करने में सक्षम हो, और जो सहनषक्ति और षांतिपूर्ण परिवर्तन की परम्परा को बनाये रख सके।10
३स७ लोकतन्त्री कांग्रेस का घोषणा पत्र:-
21 फरवरी, 1977 का े लाके तन्त्री कागं से्र क े महासचिव हमे वतीनन्दन
बहुगुणा ने अपने दल का घोषणापत्र जारी किया। 10 पष्ष्ठीय इस घोषणा पत्र में आपातस्थति को तत्काल समाप्त करन,े आंतरिक सुरक्षा कानून को वापिस लेने राजनीतिक बंदियों को तत्काल रिहा करने, आप िाजनक सामग्री के प्रकाषन पर प्रतिबन्ध समाप्त करने, संसद में होने वाली बहस के प्रकाषन पर प्रतिबंध हटाने के संबंध में फिरोज गाँधी समिति की सिफारिषों को लागू करने, चुनाव में मतदाताओं का ेआतंिकत करन ेक ेलिए पुिलस आरै अर्स ैिनका ंेका पय्र ागे नही ंकरन,े आकाषवाणी, समाचार और दरू दर्षन जसे े सरकारी प्रचार क े साधना ंे क े सबं ध्ंा म ंे आपातकाल क े पर्वू क ेनियमा ंेका ेअपनान ेआरै ‘‘बदं ी पत््रयक्षीकरण’’ की सुिवधा आरै न्यायिक पनु रावलाके न को बहाल करने के आष्वासन दिये गये।11
घोषणा पत्र में यह दावा किया गया कि इस दल का विकास
इसलिए हुआ कि सार्वजनिक जीवन में भय और आतंक समाप्त हो जाये और देष में वैज्ञानिक समाजवाद उत्पन्न हो। आधुनिक भारत के निर्माण में जवाहरलाल नेहरू की कल्पना को साकार करने का आष्वासन दिया गया। दल द्वारा संघीय स्वरूप को बहाल करने, किसी भी संगठन को राष्टश् विरोधी घोषित करने वाले कानून की न्यायिक समीक्षा करने, राज्यों की इच्छा का विरोध करने, जीवन और स्वतंत्रता के संबंध में न्यायपालिका पर लगाने गये सभी प्रतिबन्धों को समाप्त करने, सम्प िा के अधिकार को मूल अधिकारों से हटाने, राज्य के नीति निर्देषक सिान्तों को अनिवार्य रूप से लागू करने, सार्वजनिक उद्योगों का विकास करने और औद्योगिक घरानों पर प्रतिबंध लगाने, उचित मूल्य पर जनता को जीवनोपयोगी वस्तुऐं प्रदान करने, उद्योगों में श्रमिको को साझेदार बनाने, कम से कम समय में भूमि सुधारों को लागू करने, कष्षि उत्पादकों को उचित मूल्य प्रदान करने, प्रतिरक्षा और प्रतिरक्षा व्यवसाय को सुदष्ढ़ करने, जनाकांक्षाओं के अनुकूल प्रषासन में सुधार करने, षिक्षा की समान नीति निर्धारण करने, अल्पसंख्यकों में विष्वास पैदा करने और उर्दू को न्यायोचित स्थान प्रदान करने, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संरक्षण पद्र ान करन, े गैर विकासीय खर्च म ंे कमी करक े राजे गार क े अवसर ब
विदेषनीति के क्षेत्र में समाजवादी देषों से मित्रता बढ़ाने, पड़ौसी राष्टशें और विषेषकर पाकिस्तान और बांग्लादेष से मित्रता बढ़ाने, विष्वव्यापी निषस्त्रीकरण को बढ़ावा देने, आणविक षक्ति का षांतिपूर्ण प्रयोग करने और रंगभेद और उपनिवेषवाद के विरू संघर्ष कर रही षक्तियों का समर्थन करने का संकल्प व्यक्त किया गया। प्रषासनिक ज्यादतियों के लिए न्यायिक जांच कराने तथा आपातकाल के समय पास किये गये जन विरोधी और लोकतंत्र विरोधी कानूनों की समीक्षा करने का भी उल्लेख किया गया। अन्त में, देष के लाखों युवकों, बौकि वर्ग, षिक्षकों, श्रमिकों, किसानो और भूमिहीन श्रमिकों से निर्भयतापूर्वक मतदान करने की अपील की गई।12
३द७ भारतीय साम्यवादी दल का घोषणा पत्र:-
09 फरवरी, 1977 को भारतीय साम्यवादी दल का चुनाव घोषणा पत्र जारी किया गया। घोषणा-पत्र में चुनाव का महत्व, आपातकालीन स्थिति का समर्थन, आपातकाल के बाद, उभरती नकारात्मक प्रवष् िायों का विराध्ेा, 10 सूत्रीय कार्य म का उल्लेख, पिछली लोकसभा में भाकपा के सदस्यों द्वारा जनाधिकारों के लिए किया गया। संघर्ष और प्रगतिषील षक्तियों के जन समर्थन का उल्लेख किया गया।
घोषणा पत्र में लोकसभा चुनावों को महत्वपूर्ण बताते हुए यह कहा
गया कि इस चुनाव में पूर्ण प्रजातन्त्र और समाजवाद के लिए फैसला होना है। देष की जनता से अनुरोध किया गया कि एकाधिकार विरोधी कार्य मों और 20 सूत्रीय कार्य म के पक्ष में स्पष्ट बहुमत दें। घोषणा पत्र में 1975 के आपातकाल की घोषणा के समर्थन और बाद में सरकार की अधिनायकवादी प्रवष्त्तियों के विरोध की भी चर्चा की गई। इसमें यह भी उल्लेख था कि सरकार की नकारात्मक प्रवष्त्तियों के विरोध के फलस्वरूप भारतीय साम्यवादी दल ३भाकपा७ को निन्दा और बदनामी के अभियान का षिकार बनना पड़ा।
दल ने जनता के सम्मुख 10 सूत्रीय कार्य म प्रस्तुत किया।
लोकतंत्र की रक्षा हेतु आपातकाल को समाप्त करन,े प्रेस सेंसरषिप को हटाने, सत्तारूढ़ दल के पक्ष में आकाषवाणी, दूरदर्षन और समाचार के दुरूपयोग को रोकने, 42वें संविधान संषोधन के जन विरोधी कानूनों को समाप्त करने, संसद की कार्यवाही को समाप्त करने और भूमि सुधार लागू करने के लिए लोकप्रिय समितियों के निर्माण की मांग की गई। द्वितीय मूल्यांे को स्थिर रखने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करने, अनिवार्य वस्तुओं को उचित दाम पर उपलब्ध कराने, अनाज के थोक व्यापार का राष्टश्ीयकरण करने और जमाखारों के लिए बंैक से ऋण की व्यवस्था बन्द करने की बात कही गई। तष्तीय आर्थिक स्वतन्त्रता और अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए तेजी के साथ औद्योगिकीकरण और रोजगार की सुविधाऐं प्रदान करने, विष्व बंैक और अन्य नव साम्राज्यवादी षक्तियों के दबाव का मुकाबला करने, बहुराष्टश्ीय कम्पनियों की घुसपैठ को रोकने, सार्वजनिक क्षेत्र में प्रगति का े प्रात्े साहन दने ,े मजदरू ा ंे की साझदे ारी का े ब
चतुर्थ, श्रमिक वर्ग के लिए न्यूनतम मजदूरी और बोनस प्रदान
करने, अनिवार्य जमा योजना को समाप्त करने, कारखानों में तालाबन्दी और छंटनी पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने, मजदूर संगठनों को हड़ताल और अन्य अधिकार प्रदान करने और सरकार द्वारा मजदूरों के बारे मंे बनाये जाने वाले कानूनों में उनकी राय लिये जाने जैसे कार्य म निर्धारित किये गये। पंचम्, घोषणा पत्र में किसानों, कष्षि मजदरू ा ंे और जनजातिया ंे क े बार े म ंे यह मागं की गई कि किसाना ंे का े उनक े उत्पादन का सही मूल्य मिले। उन्हें ऋण, सिंचाई और कष्षि सामग्री सस्ते दाम पर प्राप्त हो। काष्तकारों और बटाईदारों के हितों की रक्षा हों। बंधुआ मजदूरी प्रथा समाप्त हो। कष्षि मजदूरों के लिए जीवनोपयागी मजदूरी तय की जायें। पूर्ण भूमि सुधार लागू किये जायें। बंजर जमीन भूमिहीनों में वितरित की जाये। षष्ठम्, जुलाहों और अन्य कारीगरों के बारे में दल ने मांग की कि उन्हें सस्ते दाम पर कच्चा माल मिले। इन दस्तकारों की प्रभावषाली सहकारी संस्थाऐं बनाई जानी चाहिए। सप्तम्, महिलाओं के बारे में दल के घोषणा पत्र में स्पष्ट किया गया कि महिलाओं को बराबरी का स्तर प्रदान करने वाले कानूनों को पूरी तरह से लागू किया जाये। समान काम के लिए समान वेतन दिया जाना चाहिए। परिवार कल्याण का व्यापक कार्य म बने, जिसमें मां और बच्चे के बारे में यह मांग की गई कि उन्हें काम प्राप्त करने का अधिकार दिया जाये। मताधिकार की आयु 18 वर्ष की जाये। षिक्षा के क्षेत्र में इस तरह का आमूलचूल परिवर्तन किया जाये कि उसमें धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी विचार दर्षन आ जाये। षिक्षण संस्थाओं के प्रषासन में विद्यार्थियों को प्रतिनिधित्व दिया जाये। सस्ती पुस्तकें और भोजन सुविधाऐं उपलब्ध हों। प्राथमिक और माध्यमिक षालाआ ें के अध्यापका ें के वेतन म ें वष् िहो। काॅलेज षिक्षको के बारे म ें विष्वविद्यालय अनुदान आयोग की सिफारिषों को लागू किया जाये। सभी अध्यापकों को सेवा सुरक्षा और लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त हों। नवम्, मुसलमानों, अन्य अल्पसंख्यकों और हरिजनों के बारे में यह मांग की गई कि प्रषासन ऐसे कदम उठाये जिससे मुसलमान, अन्य अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्ग के अधिकार सुरक्षित रह सके। छूआछूत कानून को मजबूत बनाया जाये और जो इन वर्गों पर अत्याचार करते हंै, उनको दण्ड देने की सख्त व्यवस्था हो। दषम्, विदेष नीति के बारे में दल ने यह व्यक्त किया कि भारत की साम्राज्यवाद विरोधी नीति को मजबूत किया जाये। विदेषी अड्डों, विषेषकर डियगोगर्सिया के विरू विष्व जनमत जाग्रत किया जाये। असंलग्नता की नीति को दष्ढ़ किया जाये और आर्थिक संबंधों में उत्तरोत्तर वष् िकी जाये। अंत में, भारतीय साम्यवादी दल ने मतदाताओं से अनुरोध किया कि वे दल के प्रत्याषियों को मत और अन्य प्रजातांत्रिक और प्रगतिषील षक्तियों को समर्थन द।ें13
३य७ माक्र्सवादी साम्यवादी दल का घोषणा पत्र:-
माक्सर्व ादी साम्यवादी दल न ेअपन ेचनु ाव घाष्ेाणा पत्र म ंेआपातस्थिति
को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं करने, आंतरिक सुरक्षा कानून को जारी रखने, अदालतों को अधिकारों से वंचित रखने, प्रेस को नियंत्रित करने, 42वंे संविधान संषोधन द्वारा सघ्ं ाीय स्वरूप का े क्षतिग्रस्त करन,े जीवनापे यागे ी वस्तुआ ंे क े मल्ू य ब
यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेस ने 20 सूत्री कार्य म को लागू नहीं किया।14
चुनाव घोषणा पत्र में दल के 12 सूत्रीय कार्य म का भी उल्लेख
किया गया। सभी वामपंथी और प्रजातांत्रिक षक्तियों को संगठित होकर कांग्रेस की नीतियों को पराजित करने का आव्हान किया। इसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर जोर दिया गया। प्रथम, आपातकाल को हटाया जावे। सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाये। आन्तरिक सुरक्षा कानून और 42वंे संविधान संषोधन को समाप्त किया जाये। आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाषन पर प्रतिबन्ध समाप्त किया जाये। द्वितीय, यह दल विदेषी पंूजी का राष्टश्ीयकरण करेगा और भारतीय व्यापार में बहुराष्टश्ीय व्यापार संस्थाओं और व्यक्तिगत पंूजी पर प्रतिबन्ध लगायेगा। तष्तीय, विदेषी ऋण की अदायगी पर सीमा बाध्ंाी जायगे ी। चतथ्ु ार्, एकाधिकारवादी सस्ं थाआ ंेका राष्टीश्यकरण किया जायगे ा और चीनी, कपडा़, पटसन, सीमटंे और औषधि उद्यागे ा ंे का राष्टश्ीयकरण किया जायेगा। मध्यम और छोटे उद्योगों को उचित सहायता दी जायेगी। पंचम्, विदष्े ाी व्यापार का ेसरकार अपन ेहाथ म ंेलगे ी। षष्ठम,् सावर्ज निक क्षत्रे म ंेअफसरषाही और भ्रष्टाचार को समाप्त किया जायेगा। सप्तम्, मजदूर संघों को यह अधिकार दिया जायेगा कि वे सामूहिक सौदेबाजी से अपने अधिकारों को प्राप्त करें और इन संघों के प्रतिनिधित्व का निर्णय गुप्त मतदान से किया जायेगा। सभी मजदूरों के लिए आवष्यकतानुसार न्यूतनम मजदूरी तय की जायेगी और जीवन स्तर से मंहगाई का बराबर मुआवजा दिया जायेगा। हाल ही में पारित बोनस कानून को समाप्त कर दिया जायेगा। अष्ठम्, जमींदारों की सारी भूमि सरकार अधिग्रहित करके जमींदारी प्रथा को समाप्त कर देगी और उसका वितरण भूमिहीन मजदूरों और किसानों में कर दिया जायेगा। उन्हे ं कम से कम आठ रूपये प्रतिदिन की मजदरू ी निष्चित रूप से दी जायेगी। गरीब किसानों के सभी ऋण माफ कर दिये जायेंगे और गांवों में रहने वाले गरीब किसानों, मजदूरों और भूमिहीनों के लिए आसान ऋण की व्यवस्था की जायेगी। उन्हें खेती में काम आने वाली कच्ची सामग्री और उपकरण सस्ते दामों पर उपलब्ध कराये जायंेगे। इन लोगों के उत्पादन से उन्हें उचित दाम मिले, इसके लिए सरकार उचित दामों पर किसानों का उत्पादन खरीदेगी। किसानों पर कर कम करेगी तथा हरिजनों के विरू अत्याचार करने वालों के विरू सख्त कदम उठायेगी। नवम्, आवष्यक वस्तुओं पर भारी कर तथा लेवी हटाकर मूल्यों को गिराने का प्रयास किया जायेगा। अनाज के थोक व्यापार को सरकार अपने हाथ में लेगी। जन समितियों के निर्देषन में आवष्यक वस्तुओं का वितरण किया जायेगा। जमींदारों के अतिरिक्त अनाज की आवष्यक रूप से सरकारी खरीद की जायेगी। दषम्, काम करने के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकारों मे षामिल किया जायेगा और बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था की जायेगी। ग्यारहवें, 14 वर्ष तक की आयु तक निःषुल्क षिक्षा आवष्यक मानी जायेगी और निरक्षरता को समाप्त कर दिया जायेगा। विदेषनीति के सम्बन्ध में सतत साम्राज्यवादी विरोधी तथा समाजवादी देषों के साथ सहयोग की नीति अपनाई जायेगी।
घोषणा पत्र में यह भी संकल्प व्यक्त किया गया कि दल ने जहां
तक संभव हो सके, कांगे्रस के विरू अन्य दलों से समझौता कर विपक्षी मतों के विभाजन को रोकने का निर्णय किया है। यह दल उन सभी दलों और गुटों के साथ सहयोग करने के लिए तैयार है, जो प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए कांग्रेस से संघर्ष कर रहे थे।15
३र७ क्षेत्रीय दलों के घोषणा पत्र:-
पंजाब में अकाली दल और तमिलनाडु में द्रमुक और अन्ना द्रमुक
ने भी अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी किये। पिछले संसदीय चुनावों की तुलना में इस बार इन दलों के घोषणा पत्र का महत्व इसलिए अधिक था कि पहली बार ये दल राष्टश्ीय स्तर के राजनीतिक दलों के सहयोगी बनकर चुनाव लड़ रहे थे। अतः इन दलों का राष्टश्ीय परिप्रेक्ष्य में सोचना अपरिहार्य था परन्तु अपनी क्षेत्रीय प्रकष्ति को ध्यान में रखकर इन दलों ने प्रमुख रूप से क्षेत्रीय समस्याओं तक ही अपने को सीमित रखा जिन अन्य प्रमुख क्षेत्रीय दलों द्वारा घोषणा पत्र जारी किये गये, उनमें से प्रमुख थे - जम्मू कष्मीर में नेषनल कां ेस, पष्चिमी बंगाल में फारवर्ड ब्लाॅक आरै महाराष्टश् म ें पीजन्ेट एण्ड वकर्स पाटीर्। इनक े अलावा रिपब्लिकन पार्टी ३खाबे रगडे़ गुट७ रिपब्लिकन पार्टी, गवई गुट और मुस्लिम लीग ने भी अपने चुनाव घोषणा पत्र प्रकाषित किये।
उपर्युक्त विष्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि विपक्षी दलों ने
आपातकाल के 19 महीनों मंे हुई कथित ज्यादतियों के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस की भत्र्सना करते हुए देष के लोकतंत्रीय और संघीय स्वरूप को पुनः बहाल करने का स्पष्ट आष्वासन और संकल्प भारतीय मतदाओं के सम्मुख प्रस्तुत किया। साथ ही उनके घोषणा पत्रों में नागरिक अधिकारों को पुनः बहाल करने उनकी सुरक्षा को सुनिष्चित करन े वाल े प्रावधाना ंे का नियमन करन े आन्तरिक सुरक्षा काननू का े समाप्त करने, न्यायपालिका की स्वतत्रंता और निष्पक्षता को पुनः प्रतिष्ठित करने, स्वैच्छिक आधार पर परिवार नियोजन को लागू करने का आष्वासन दिया गया। दूसरी तरफ सत्तारूढ ़ कागं से्र न े षक्तिषाली कन्ेदी्रय सरकार की स्थापना करन,े विपक्षी अराजकता को रोकने और देष के आर्थिक विकास को आगे ब16 इन नारों ने घोषणा पत्र के महत्व को नगण्य बना दिया। इन घोषणा पत्रों का विष्लेषण करने से एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि विदेषनीति के क्षेत्र में सभी दलों ने असंलग्नता की नीति का पुरजोर समर्थन किया, यद्यपि विपक्षी दलों ने ‘‘विषु असंलग्नता’’ की नीति को अपनाने का संकल्प व्यक्ति किया। क्षेत्रीय दलों के घोषणा पत्र में भी देष की अखण्डता को सुरक्षित रखने की वचनबता का स्वर विद्यमान था।
;प्प् विभिन्न पार्टियों द्वारा प्रत्या िायों का चयन:-
३अ७ जनता पार्टी द्वारा प्रत्या िायों का चयन:- जब जनता पार्टी के नेता जेल से रिहा हो गये और उन्होंने 21 जनवरी 1977 को प्रत्या िायों का चयन और घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए 9 सदस्यीय समिति का गठन किया गया। चैधरी चरण सिहं ३लोकदल का नेता७ को जम्मू क मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदे ा, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदे ा, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदे ा का संयोजक बनाया गया । संगठन कांग्रेस के नेता नीलम संजीव रेड्डी को दक्षिण भारत के राज्यों आंध्रप्रदे ा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडू का उत्तरदायित्व सोंपा । भारतीय जनसंघ और सो ालिस्ट पार्टी के किसी भी नेता को चुनाव अभियान की बागडोर नहीं सौंपी गयी।
जनता प्रत्या िायों के चयन मापदण्डों के बारे में अनेक अभिमत सामने आये। इसमें दल बदलुओं को दल का प्रत्या ाी नहीं बनाये और युवकों को प्रत्या ाी बनाने पर जोर दिया गया। एक विचार ये भी था । ऐसे प्रत्या िायों का चयन करो जो कांग्रेस को चुनौती दे सके। दल में ऐसे प्रत्या िायों को प्राथमिकता दी जाये जो आपातकाल के समय जेल गये थे। इसके अलावा जिन नेताओं ने कांग्रेस से विद्रोह किया और चुनाव घोषणा के बाद कांग्रेस छोडने वालों को टिकट दिया गया । आपातकाल का विरोध करने वाले बुजिीवियों को भी टिकट दिया गया और यह भी कहा गया कि चरित्रवान और निष्ठावान लोगों को ही चुना जाये ।
३ब७ कांग्रेस द्वारा प्रत्या िायों का चयन:- आपातकाल में उसकी राजनैतिक गतिविधियां चरम सीमा में पहुंच गयी। सारे देष में स्थान-स्थान पर सभाएं और सम्मेलन आयोजित किये गये। देष के लगभग सभी समाचार पत्र ३इण्डियन एक्सप्रेस और स्टेट्समेन को छोड़कर७ और पत्र-पत्रिकाऐं उसका खुलकर समर्थन कर रहीं थी। वित्तीय साधनों की दष्ष्टि से उसके पास कोई कमी नहीं थी।
2 फरवरी 1977 तक दल की केन्द्रीय चयन समिति को अपने प्रत्याषियों का चयन करना था। इस समिति के सदस्यों में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, देवकान्त बरूआ, जगजीवनराम, यषवंत चव्हाण, सिार्थ षंकर राय, सी.सुब्रहमण्यम के मलप्पा, बष्हमानंद रेडडी और षंकरदयाल सिहं षामिल थे।
कांग्रेस दल की विजय की संभावनाओं को देखते हुए दल के टिकट
प्राप्त करने के लिए जबरदस्त होड लगी हुई थी। प्रादेषिक स्तर पर कांग्रेस का टिकट प्राप्त करने वाला ें ने भारी सख्ं या म ें अपने आवेदन पत्र प्रस्तुत किये। आध्ं ा्रप्रदेष कांग्रेस कमेटी के पास 42 स्थानों के लिए 200, बम्बई षहर के 6 संसदीय क्षेत्रों के लिए 135 और कर्नाटक के 28 स्थानों के लिए 750 आवेदन पत्र प्राप्त हुए।17
संजय गाँधी द्वारा तैयार सूची को रद्द करना पड़ा और युवक कांग्रेस के बहुत कम सदस्यों को टिकट प्रदान किये गये। अधिकांषतः वर्तमान सदस्यों को दल का प्रत्याषी बनाया गया। केन्द्रीय चयन समिति ने भंग लोकसभा के 252 सदस्यों को पुनः टिकट प्रदान किये। इस तरह 103 सदस्यों को टिकट नहीं दिया गया। कांग्रेस के प्रत्याषियों की सूची में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी उनके वरिष्ठ मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों और संजय गाँधी का नाम उल्लेखनीय था। संजय गाँधी की उम्मीदवारी को ब्रिटिष समाचार पत्रों ने प्रमुखता के साथ प्रकाषित किया। कुछ समाचार पत्रों ने उनके चित्र प्रकाषित किये।18 इनके अलावा राजस्थान और आंध्रप्रदेष के राज्यपालों जोगिन्दर सिहं और आर.डी. भंडारे को भी दल का प्रत्याषी चुना गया ।
;प्प्प् कांग्रेस और गैर-कांग्रेस का मोर्चा:- लोकसभा का यह चुनाव अत्यधिक उत्तेजना और प्रतिस्पर्धा के वातावरण मंे लड़ा गया और गैर-कांग्रेस की तुलना में कांग्रेस की स्थिति अधिक सुविधाजनक थी। कांग्रेस को यह विष्वास था कि उसकी विजय निष्चित है और सरकार निर्माण में सफल हो जायेगी। आपातकाल में विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उन पर लगाये गये प्रतिबंधों से मनोबल गिर गया था।
३अ७ गैर कांग्रेसवाद की चुनौतियाँ:- 23 जनवरी 1977 को चार गैर साम्यवादी विपक्षी दलों ३भारतीय जनसंघ, संगठन कांग्रेस, भारतीय लोकदल और सोषलिस्ट पार्टी७ ने जनता पार्टी के नाम से नये दल का गठन किया। इसके साथ यह निष्चय किया कि दल क े सभी प्रत्याषी एक ही चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडगे़ ।ंे परिणामस्वरूप जनता पार्टी और लोकतंत्री कांग्रेस के प्रत्याषियों ने भारतीय लोकदल के चुनाव चिन्ह हलदर को अपने तमिलनाडू में, जनता पार्टी के प्रत्याषियों ने संगठन कांग्रेस के चुनाव चिन्ह चरखा काटती हुई महिला पर चुनाव लड़ रहे थे।
प्रभुत्व क्षेत्रीय दलों में अकाली दल, तमिलनाडू में द्रमुक और अन्ना
दुमुक, महाराष्टश् में पीजेन्ट एण्ड वर्कस पार्टी, जम्मू कष्मीर में नेषनल कांफ्रेंस, गोवा में गोयान्तक पार्टी, केरल में केरल कांग्रेस और मुस्लिम लीग, पष्चिम बंगाल में
फाॅरवर्ड ब्लाॅक और आर एम जी और नागालेंड यूनाइटेड फ्रंट चुनाव लड़ रहे थे।
निर्वाचन आयोग ने 39 ऐसे राजनीतिक दलों की एक सूची जारी की
गयी जो आयोग में पंजीकष्त तो थे, किन्तु उन्हें मान्यता प्राप्त नहीं थी ।
विपक्षी दलों की रणनीति कांग्रेस को प्रबलतम चुनौती देने की थी । उन्होंने निष्चय किया कि कांग्रेस के विरू अपने मतों के विभाजन को रोकेंगे और वो कांग्रेस के विरू एक ही प्रत्याषी खडा करना चाहते थे । इसलिए उन्होंने कांग्रेस के विरू विजय प्राप्त करने के लिए विपक्षी दलों ने गठबंधन कर लिया।
३ब७ मोर्चा:- पहला मोर्चा जनता पार्टी और लोकतंत्री कांग्रेस वाला मोर्चा था । इस मोर्चे में माक्र्सवादी, साम्यवादी दल, अकाली दल, द्रमुक, रिपब्लिकन पार्टी ३खोवरगडे गुट७ पीजेन्ट एण्ड वर्कस पार्टी और झारखण्ड पार्टी प्रमुख थे। माक्र्सवादी साम्यवादी दल और जनता पार्टी में समझौता सत्ता की साझेदारी पर नहीं हुआ। जनता पार्टी के अध्यक्ष मोरारजी देसाई ने यह स्पष्ट कर दिया कि जनता पार्टी माक्र्सवादी साम्यवादी दल का सहयोग तो लेगी लेकिन विजयी होने पर सरकार में षामिल नहीं करेगी। दूसरा मोर्चा:- कांग्रेस और सहयोगी दलों का था । इस दल ने राष्टश्ीय स्तर पर किसी भी राजनीतिक दल से समझौता नहीं किया । कांग्रेस ने तमिलनाडू में अन्ना द्रमुक, केरल में मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस, हरियाणा में विषाल हरियाणा पार्टी तथा जम्मू कष्मीर में नेषनल कांग्रेस के साथ चुनाव समझौता किया । भारतीय साम्यवादी दल के साथ राष्टश्ीय स्तर पर कोई समझौता नहीं किया । केवल पष्चिम बंगाल और तमिलनाडू के लिए 15 लोकसभा स्थानों के लिए भी यह समझौता किया गया ।
कांग्रेस के नेताओं की यह धारणा इसलिए उत्तरदायी रही राष्टश्ीय स्तर पर भारतीय साम्यवादी दल के साथ किया गया समझौता उनके लिए घाटे का सौदा रहेगा क्योंकि भारतीय साम्यवादी दल का पष्चिम बंगाल केरल और तमिलनाडू में ही प्रभाव है। यदि राष्टश्ीय स्तर पर समझौता किया गया तो दल को हानि उठानी पड़ सकती है।
३स७ संघर्ष:- इस संसदीय चुनाव में कांग्रेस और जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों में सीधा संघर्ष था । जनता पार्टी ने 384 प्रत्याषी खडे़ किये जबकि इस सहयोगी दल लोकतंत्री कांग्रेस ने 39 प्रत्याषी खडे किये ।
जनता पार्टी और लोकतंत्री कांग्रेस में चुनाव में समझौता किया लेकिन
कुछ स्थानो ं पर दोनो ं ही दलो ं मे ं मैत्रीपणर््ू ा सघ्ं ार्ष था कागं ्रेस ने 493 स्थानो ं पर अपने प्रत्याषी खड़े किये और 50 स्थान सहयोगी दलों और व्यक्तियों के लिए छोड़ दिये।
चुनाव गठबंधनों से प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में खड़े हुए प्रत्याषियों की संख्या स्पष्ट हुई। इसके अनुसार 100 निर्वाचन क्षेत्रों में सीधा, 115 में त्रिकोणीय, 106 में चतुष्कोणीय, 66 में पंचकोणीय, 61 में षठकोणीय, 38 में सप्तकोणीय, 2 में बारहकोणीय, 2 में तेरह कोणीय और 2 में चैदह कोणीय संघर्ष था । महाराष्टश् में सर्वाधिक रूप से 15 स्थानों के लिए सीधा संघर्ष था, इसके बाद महाराष्टश् में 11, उत्तरप्रदेष, केरल और पष्चिम बंगाल में 9 स्थानों पर, कर्नाटक और उडीसा में 8 स्थानों पर और बिहार में 1 स्थान के लिए सीधा संघर्ष था।19
;प्ट निर्वाचन आयोग की भूमिका:- भारत क े ससं दीय निवार्च ना ंे का े सफलतापवू र्क सम्पन्न कराने में निर्वाचन आयोग की भूमिका रही है। आयोग को विपक्षी दलों के मन में इस भावना और विष्वास को संचार करना था कि इसमें सत्तारूढ़ दल द्वारा अनियमितताओं और भ्रष्ट तरीकों से चुनाव जीतने का प्रयास नहीं किया जायेगा। आपातकाल की पष्ष्ठभूमि में निर्वाचन आयोग की उत्तरदायित्व को बढ़ा दिया था।
1971 की जनगणना के बाद निर्वाचन क्षेत्रों का पुनः परिसीमन किया गया। छठी लोकसभा की सदस्य संख्या 542 निर्धारित की गई, नवीन परिसीमन में राज्यों से निर्वाचित सदस्यों की संख्या में 19 और केन्द्र षासित प्रदेषों में 1 प्रतिषत की वष् िकी गई । फलस्वरूप मध्यप्रदेष, महाराष्टश् और राजस्थान में तीन-तीन सदस्य बढ़े। जबकि गुजरात और पष्चिम बंगाल में दो-दो आंध्रप्रदेष, बिहार, हरियाणा, कर्नाटक, केरल औरे उडीसा में 4-1 सदस्य की वष् िहुई । अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित स्थान 77 से ब20
३अ७ आचार संहिता:- निर्वाचन आयोग चुनाव अभियान और मतदान को षांतिपूर्ण 21
1. किसी दल या उम्मीदवार को कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए। जिससे विभिन्नजातियों और समुदायों, धर्मों या भाषा भाषियों के बीच वर्तमान मतभेद उभरे या उनमें परस्पर घष्णा अथवा तनाव पैदा हो ।
2. अन्य राजनीतिक दलों की आलोचना उनकी नीतियों, कार्य मों और अतीत केकार्यों के आधार पर की जानी चाहिए यह भी आवष्यक है कि किसी नेता या कार्यकर्ताओं की आलोचना में उसकी निजी जीवन के ऐसे पहलू को षामिल नहीं किया जाना चाहिए। जिसका संबंध उसके सार्वजनिक जीवन से हो। अप्रमाणित आरोपों के आधार पर दलों या उनके कार्यकर्ताओं की आलोचना नहीं की जानी चाहिए।
3. राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को यह आष्वासन देना चाहिए कि उनकेसमर्थन दलों द्वारा आयोजित सभाओं प्रदर्षनों में बाधा पहुॅचाने या उन्हें भंग करने की कोषिष नहीं करेंगे । एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता या उनके समर्थकों द्वारा आयोजित सभाओं में मौखिक अथवा लिखित प्रष्न पूछकर और अपने दल के प्रचार-पत्रक बांटकर बाधा नहीं पहुॅचानी चाहिए जिस स्थान पर एक दल की सभा हो रही है। उसके पास से होकर दूसरे दल को जुलूस नहीं निकालना चाहिये। एक दल द्वारा जारी किये गये पोस्टरों को दूसरे दल के कार्यकर्ताओं द्वारा नहीं हटाया जाना चाहिये ।
4. किसी पुलिस वाले के खिलाफ षिकायत रहने पर पुलिस अधीक्षक के पास भेजीजानी चाहिए या उसके बाद उच्च पुलिस अधिकारी जो कार्यवाही करे, उससे संतुष्ट न होने पर ही षिकायत को सार्वजनिक रूप से उठाया जाना चाहिये।
5. सत्तारूढ़ दल को यह ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी षिकायत का मौका न मिलेकि उसने अपनी सरकारी स्थिति का उपयोग चुनाव अभियान के लिए किया है।
6. मत प्राप्त करने के लिए जाति या समुदाय के आधार पर कोई अपील नहीं कीजानी चाहिए। मस्जिदों, चर्चों, मंदिरों या पूजा के दूसरे स्थानों का उपयोग चुनाव प्रचार के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
7. सभी दलों और उम्मीदवारों को चुनाव के लिए तैनात अधिकारियों का सहयोगकरना चाहिए ताकि मतदान षांतिपूर्ण और व्यवस्थित
8. समस्त राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को इस बात पर सहमत होना चाहिएकि वे मतदाता को जो परिचय पत्र देंगे, वे सादे ३सफेद७ कागज पर होंगे और उन पर कोई चुनाव चिह्न, उम्मीदवार का नाम और दल का नाम अंकित नहीं होगा।
9. समस्त राजनीतिक दलों को अपने अधिकष्त कार्यकर्ताओं को समुचित बैज यापरिचय पत्र दने े चाहिए । सभी दला ंे और उम्मीदवारा ंे का े निर्वाचन काननू क े अन्तर्गत भ्रष्ट तरीके और अपराधों जैसे मतदाताओं को रिष्वत देना, उन्हें डराना धमकाना, जाली मतदान, मतदान केन्द्र के 100 मीटर के भीतर चुनाव प्रचार, 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बदं कर दिय े जान े क े बाद सार्वजनिक सभाए ें करना और मतदाताआ ंे को आने-जाने के लिए सवारी प्रदान करना आदि से बचना चाहिए।
10. मतदान के दिन और उससे 12 घंटे पहले की अवधि में षराब न तो बेची जानीचाहिए और न बांटी जानी चाहिए।
11. किसी दल या उम्मीदवार को किसी प्रस्तावित सभा की सूचना पर्याप्त समयरहते स्थानीय पुलिस अधिकारियों को दे देनी चाहिए ताकि वे यातायात के नियंत्रण और षांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए समुचित व्यवस्था कर सके ।
12. दल को इस बात का पता होना चाहिए कि जहाँ वह सभा करने जा रहा है ।वहां कोई निषेधात्मक आदेष तो लागू नहीं है । यदि कोई ऐसा आदेष हो तो उसका पूरी तरह से पालन किया जाना चाहिए । ऐसे आदेष से यदि कोई छूट प्राप्त करना चाहता है तो उसी के लिए आवेदन करना चाहिए । इस प्रकार की अनुमति या लाइसेंस प्राप्त कर लेना चाहिए।
13. यदि लाउड स्पीकरों के प्रयोग या प्रस्तावित बैठक से संबंधित किसी दूसरीसुविधा के लिए अनुमति या लाइसेंस प्राप्त करना हो तो उसके लिए संबंधित अधिकारी के पास काफी पहले से आवेदन करना चाहिए। आयोजकों को ऐसे लोगों के खिलाफ स्वयं कार्यवाही नहीं करनी चाहिए।
14. सभा के आयोजकों को सभा में बाधा डालने वाला या दूसरी तरफ से अव्यवस्थापैदा करने वाले लोगों के खिलाफ कार्यवाही के लिए ड्यूटी पर तैनात पुलिस की सहायता लेनी चाहिए। आयोजकों को ऐसे लोगों के खिलाफ खुद कार्यवाही नहीं करनी चाहिए।
15. जुलूस निकालने वाले दल को जुलूस के चलने का समय, स्थान, मार्ग औरजुलूस समाप्त होने का समय और स्थान पहले तय कर लेना चाहिए । सामान्यतः कार्य म का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
16. व्यवस्थाओं के कार्य म की सूचना स्थानीय पुलिस अधिकारियों को देनी चाहिएताकि वे आवष्यक कार्यवाही कर सके।
17. जुलसू चलने से पहले मार्ग की स्थिति को देखते हुए व्यवस्थापका ें को जुलसू कीव्यवस्था के लिए ऐसे कदम उठाने चाहिए ताकि यातायात में कोई बाधा नहीं पड़े, यदि जुलूस बहुत बडा हो तो उसे ऐसे टुकड़ों में विभाजित करना चाहिए ताकि चैराहों आदि पर रूके हुए वाहनों को रास्ता दिया जा सके।
18. जुलूस को यथासंभव सड़क के दांयी ओर रखा जाना चाहिए और ड्यूटी परतैनात पुलिस के निर्देषन और परामर्ष का पालन किया जाना चाहिए।
19. यदि दो या दो से अधिक राजनीतिक दल एक ही मार्ग या उसके कुछ भाग सेलगभग एक ही समय जुलूस निकालना चाहे तो व्यवस्थापकों को इस बारे में पहले सम्पर्क करके समय रहते ऐसे उपाय तय कर लेने चाहिए कि यातायात में कोई बाधा न पड़े और न कोई अवांछनीय स्थिति पैदा हो, संतोषजनक प्रवेष के लिए स्थानीय पुलिस की हर संभव सहायता उपलब्ध होगी।
20. दलों को जुलूस में ऐसी चीजें ले जाने से यथासंभव बचना चाहिए जिनका कीअवांछनीय तत्व दुरूपयोग कर सके विषेषतया उत्तेजना के क्षणों में।
21. किसी भी राजनीतिक दल को किसी अन्य दल के सदस्यों और नेताओं कीअर्थियां नहीं निकालनी चाहिए और न ही उन्हें सार्वजनिक रूप से जलाना चाहिए। उनका अन्य प्रकार से प्रदर्षन भी नहीं करना चाहिए।
22. सभी राजनीतिक दलों को व्यक्ति के षांतिपूर्ण और निर्विध्न रूप से घरेलू जीवनका आदर करना चाहिये। भले ही वह उसके राजनीतिक विचारों और गतिविधियों से सहमत न हो। किसी के विचारों या गतिविधियों के विरोध में उसके घर के सामने या धरना देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
23. किसी भी राजनीतिक दल को अपने कार्यकर्ताओं को किसी के निजी भवन, मकान, दीवार आदि का उपयोग उनकी अनुमति के बिना ध्वज फहराने, बैनर लगाने, सूचनाऐं चिपकाने और नारे लिखने आदि की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इस प्रकार निर्वाचन आयोग ने यह आष्वासन दिया कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्षतापूर्वक सम्पन्न करायेगा। निर्वाचन आयोग की भूमिका ने ही देष में लोकतंत्र सषक्त किया।
;ट चुनाव प्रचार:- प्रत्येक चुनाव में प्रचार की बड़ी ही महत्वूपर्ण भूमिका होती है । इसके माध्यम से राजनीतिक दल अपने कार्य म और विचारधारा से मतदाताओं को अवगत कराते हैं। किसी भी राजनीतिक दल की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि अपने प्रचार तंत्र के माध्यम से अपनी बात को किस सीमा तक और कितने प्रभावषाली के ‘करिष्मे’ पर आधारित था। अपने दल के प्रचार करने के लिए राष्टश्व्यापी तूफानी दौरे करते हुए एक दिन में चुनावी सभाओं को संबोधित किया। उनकी चुनाव सभाओं में पहले की तरह ही भारी भीड़ सुनने के लिए आती रही। कांग्रेस के पास इंदिरा गाँधी को छोडकर कोई ऐसा नेता नहीं था जो मतदाताओं पर अपना प्रभाव जमा सकता। अतः दल को विजयी बनाने की सारी जिम्मेदारी इंदिरा गाँधी के कंधों पर ही थी । कांग्रेस दल ने इंदिरा गाँधी के बडे़-बडे़ पोस्टर और बैनर बनवाय।े चुनाव प्रचार में फिल्मी अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने भी खुलकर भाग लिया। जनता पार्टी के लिए फिल्मी कलाकारों सर्वश्री देवानंद, षत्रुध्न सिन्हा, विजयानंद, किषोर कुमार, अमोल पालेकर और डैनी ने कार्य किया । इन्होंने अपनी चुनावी सभाओं में सरकार की आपातकाल में सेंसरषिप संबंधी नीति और इस काल में फिल्म उद्योगों के लोगों को तंग करने का आरोप लगाते हुए जनता पार्टी के पक्ष में मतदान करने की अपील की। बम्बई और महाराष्टश् के कतिपय षहरों में इन कलाकारों ने जनता पार्टी के पक्ष में प्रचार किया।
दूसरी ओर कांग्रेस की तरफ से अनेक फिल्मी कलाकारों ने चुनाव प्रचार में भाग लिया। इनमें से उल्लेखनीय थे दिलीप कुमार, सुनील दत्त, श्रीमती नरगिस दत्त और अमिताभ बच्चन चुनाव प्रचार में लोक गायकों का भी खुलकर सहारा लिया गया।
चुनाव प्रचार के समय सभी संभव साधनों का प्रयोग किया गया।
प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और कांग्रेस दल के वरिष्ठ नेताओं को तो प्रचार कार्य करने के लिए हैलीकाॅप्टरों की सुविधाऐं प्राप्त थीं। जबकि विपक्षी नेताओं ने नियमित वायुयान सेवा, रेलसेवा और कार द्वारा ही प्रचार किया गया और अपनी कमजोर वित्तीय स्थिति का बार-बार उल्लेख करते हुए जनता से मुक्तहस्त से दान देने की अपील की। जनता पार्टी की चुनाव सभा की समाप्ति के बाद धन एकत्रित करने के लिए झोली भरो अभियान बहुत लोकप्रिय रहा। इसमें जनता रूपयों से लेकर छोटे-छोटे सिक्के तक दान में देती थी । जनता पार्टी द्वारा जेल में बंद जाॅर्ज फर्नाडीज की मूर्ति को हथकड़ियों और बेड़ियों में प्रदर्षित करके मतदाताओं की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयत्न भी किया गया।
जनता पार्टी के प्रचार में सामाजिक, सांस्कष्तिक और छात्र संगठन भी स िय था। छात्र संगठन, विद्यार्थी परिषद युवक जनता मोर्चा और स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता खुलकर जनता पार्टी का समर्थन कर रहे थे।
इस चुनाव में राष्टश्ीय स्तर के समाचार पत्रों की भूमिका का विष्लेषण करन े स े यह स्पष्ट हा े जाता है कि इण्डियन एक्सपस्रे समहू परू ी तरह स े जनता पार्टी और उनके सहयोगी दलों का खुला समर्थन कर रहा था। स्टेट्समैन ने भी विपक्षी नेताओं के भाषणों को प्रमुखता के साथ प्रसारित करना प्रारंभ कर दिया। इसके विपरीत हिन्दुस्तान टाईम्स प्रकाषन समहू ने कागं ्रेस का समर्थन करते हुए उनके पक्ष से संबंधित समाचारों को उजागर किया और नेषनल हेराल्ेड ने भी कांग्रेस का साथ दिया। पोटिश्याट और जनयुग ने भी कांग्रेस का विरोध किया। सेंसरषिप में छूट दिये जाने के कारण समाचार पत्र सभी पक्षों के समाचारों को प्रमुखता से प्रकाषित करने लग।े
इंदिरा गाँधी ने 17 फरवरी से 18 मार्च 1977 तक दिन-रात चुनाव प्रचार किया । वे जनता पार्टी को एक बेमेल अवसरवादी राजनीतिक गठबंधन कहकर संबोधित करती थी। उन्होंने अपने चुनाव भाषणों में आपातकाल की घोषणा को भी उचित ठहराया था। उन्होंने बार-बार इस संकल्प को दोहराया कि देष में स्थायित्व करने और लोकतंत्र की रक्षा करने में कांग्रेस ही सक्षम है। जनता पार्टी के केन्द्र में वैकल्पिक सरकार के गठन करने के दावे को मजाक बनाती हुई यह तर्क दिया कि विपक्ष का केन्द्र में सरकार बनाना तो दूर रहा, यह तो लोकसभा में सषक्त विपक्ष का रूप भी धारण नहीं कर सकता।22
इंदिरा गाँधी ने अपनी चुनाव सभाओं में बार-बार यह कहा कि उनका दल परिवार नियोजन को स्वैच्छिक आधार पर भी लागू करने के पक्ष में था और इसमें किसी भी तरह से जोर जबरदस्ती करने के पक्ष में नहीं था केन्द्र ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भेजे गये निर्देष में यह स्पष्ट कर दिया था कि इस कार्य म को
स्वैच्छिक आधार पर लागू किया जाना चाहिए न कि जोर जबरदस्ती से23
कांग्रेस ने विपक्षी दलों द्वारा आपातकाल के मुद्दों के चुनाव में उठाये जाने पर आपत्ति प्रकट की। 16 फरवरी, 1977 को विधि मंत्री हरिराम गोखले ने कहा कि आपातकाल के प्रष्न को चुनाव में नहीं उठाया जाना चाहिए।
इस तरह से कांग्रेस चुनाव प्रचार में मुख्यतः आपातकाल को उचित ठहराने, आपातकाल की उपलब्धियों का बखान करने, केन्द्र में स्थायित्व रखने, आर्थिक विकास की गति को ब
जनवरी 1977 में जारी तीन पष्ष्ठीय अपील के साथ ही प्रारम्भ हो गया था। इस अपील में उन्होंने भारतीय मतदाताओं से ‘‘लोकतंत्र और तानाषाही’’ के बीच में से चयन करने का अनुरोध किया। मतदाताओं के नाम से जारी इस अपील में यह स्पष्ट कहा गया है कि ‘‘अगर आप स्वतंत्र रहना चाहे हंै अपना सिर ¯ँचा रखना चाहते हंै तो स्वयं के और राष्टश्ीय हित में जनता पार्टी को विजयी बनाये24 और उन्होंने कहा अगर कांग्रेस जीत जाती है तो देष में तानाषाही स्थापित हो जायेगी। जनता पार्टी क े चुनाव प्रचार म ंे जगजीवनराम क े नते ष्त्व म ंे लाके तत्रं ी कागं स्रे की अत्यन्त प्रभावषाली की भूिमका रही है । उन्हानंे े अपनी चुनावी सभाआ ंे म ंे आपातकाल की ज्यादतियों और नागरिक अधिकारों का दमन करने के लिए इंदिरा गाँधी और कांग्रेस पार्टी की भत्र्सना करते हुए मतदाताओं से जनता पार्टी के पक्ष में मतदान करने को कहा।
श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा कि हमने हमारी व्यक्तिगत पार्टियों को छोड़ दिया है। हमने हमारी नावें और पुल जला दिये हैं । अब हम एक पार्टी मंे हैं। प्रधानमंत्री पर विष्वास मत कीजिये, अब यह महा गठबंधन नहीं है। चुनावी नारे:- भारतीय मतदाताओं की मनःस्थिति को प्रभावित करने में नारों की अहम भूमिका रही है। इस चुनाव में कुछ नारे बहुत लोकप्रिय हुए। सत्तारूढ़ कांग्रेस का प्रभुत्व नारा था। देष की नेता इंदिरा गाँधी जनता पार्टी का प्रमुख नारा था अंधेरों में एक प्रकाष, जयप्रकाष, जयप्रकाष, जयप्रकाष आपातकाल और परिवार नियोजन से संबंधित व्यक्तियों को इंगित करने वाला यह नारा भी जनता पार्टी के समर्थकों द्वारा काफी लगाया गया। नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा, संजय, बंषीलाल रायबरेली संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में राजनारायण के समर्थकों का यह नारा भी काफी गूंजा पहले हारी कोर्ट में अब हारेगी वोट में चुनाव प्रसार में हिंसा - सामान्यतया चुनाव प्रचार षांतिपूर्वक ही चलता रहा लेकिन कतिपय स्थानों पर छुटपुट हिंसक घटनाऐं भी घटित हुई। परन्तु दोनों ही पक्षों में इन घटनाओं से इनकार किया । इनमें कलकत्ता-काण्ड सबसे बडा था । कलकत्ता क्षेत्र में जनता पार्टी के प्रत्याषी प्रो0 दिलीप च वती को सिर की चोट खाकर अस्पताल जाना पडा । जगजीवनराम और जनता पार्टी के नेताओं ने चुनाव प्रचार के समय अपने समर्थकों को हिंसा से दूर रहने की सलाह दी। दिल्ली के वोट क्लब में इंदिरा गांधी की सभा में विघ्न उपस्थित करने पर अपना गहरा षोक व्यक्त करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था अगर आप कांग्रेस के भाषणों को नहीं सुनना चाहते तो उनकी सभाओं में न जाये, लेकिन अगर जाते हैं तो सभा में विघ्न हर्गिज नही ं डाल सकत े वाजपये ी न े कहा कि यदि सत्तारूढ ़ दल की सभाआ ंे म ंे विघ्न डालने की खबरें तीन दिन बाद भी आती रही तो मैं अनषन करूंगा।25
;टप् आपातकाल के बाद मतदान:- सन् 1977 का यह चुनाव असामान्य था इसके प्रति सम्पूर्ण देष में भारी उत्साह और उत्तेजना का वातावरण व्याप्त था। ज्यों-ज्यों प्रचार में तेजी आती गई, स्थिति स्पष्ट होती गई । प्रारंभ में आपातकाल की प्रतिछाया से लोग विपक्ष का साथ देने से कतराते थे। लेकिन धीरे-धीरे यह स्थिति समाप्त होती गई। आपातकाल और नसबंदी की घटनाओं ने इस संभाग में कांग्रेस विरोधी वातावरण बना दिया। 19 महीने के अधिनायकवादी षासन ने उन्हें विक्षुब्ध बनाकर दष्ढ निष्चयी बना दिया। उत्तर भारत में कांग्रेस विरोधी वातावरण अत्यन्त उग्र था। जनता पार्टी द्वारा खडा किया गया प्रत्याषी विजयी प्रत्याषी माना जा रहा था। मजाक में तो यहां तक कहा जा रहा था कि जनता टिकट पर खडा किया जानेवाला लैम्प पोस्ट भी निर्वाचित हो जायेगा। जगजीवनराम ने भी कहा था कि इस बार हम चुनाव नही ं लड ़ रहे थे। अपितु जनता स्वय ं चुनाव लड ़ रही है।26 इस तथ्य की तरफ इंगित करते हुए लालकष्ष्ण आडवाणी ने कहा था यह हवा उत्तरी संभाग में बह रही है न कि सम्पूर्ण देष में27 आचार्य जे.बी.कष्पलानी का भी यही मत था कि कांग्रेस के विरू अब केवल एक ही हवा है, यह 1967 की तुलना में कहीं अधिक प्रबल है, इसकी कोई तुलना नहीं।28
उत्तरी भारत के सभी राज्यों में कांग्रेस विरोधी भावना अपनी चरम
स्थिति में पहुंच गई। यह आ ोष इतना प्रबल था कि यहां के अनेक गांवों में कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता चुनाव सभाऐं करना तो दूर अपितु अपने दल का झण्डा लेकर प्रवेष भी नहीं कर सकते थे। इस वातावरण की उग्रता को देखकर आपातकाल की
ज्यादतियों के लिए क्षमा मांगने लगे।
कांग्रेस विरोधी वातावरण की उग्रता को देखकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जनता का विष्वास अर्जित करने के लिए विभिन्न प्रकार की रियायतें देना प्रारंभ कर दिया। रिजर्व बैंक से ओवर डशफ्ट लेकर काम चलाने वाले मुख्यमंत्रियों राजकोष को खाली करने पर तुले हुए थे। राज्यों में भू-राजस्व, कष्षि आयकर को कम करने, सिंचाई की दरों में कमी करने बिजली की दरों में कमी करने, मकान किराया को रियायतें प्रदान करने, मंहगाई भत्तों, किराये और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं को प्रदान करने के लिए 2500 मिलियन राषि का उपयोग किया लेकिन रियायतों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।29 जनता पार्टी के नेताओं मतदाताआंे को प्रभावित करने के लिए आपातकाल में की गई प्रषासनिक ज्यादतियों की जांच कराने हेतु एक आयोग का गठन करने का
भी संकल्प व्यक्त किया गया।
३अ७ विजय के परस्पर दावे:- जयप्रकाष ने कहा था कि कांग्रेस की विजय प्राप्त होगी, लेकिन इसलिए नहीं कि वह लोकप्रिय है। बल्कि विपक्ष को अपने कार्यकर्ताआंे को संगठित करने, धन जुटाने और मतदाताओं को चुनाव से जुड़े हुए मुख्य मुद्दों को बताने के लिए बहुत कम समय दिया गया है।30 इंदिरा गाँधी को भी विष्वास था कि कांग्रेस को 280 स्थान प्राप्त हो जायेंगे।31
लालकष्ष्ण आडवाणी ने भी दो तिहाई बहुमत प्राप्त करने की भविष्यवाणी की थी।32 निर्वाचन आयोग ने मतदान के लिए चार दिनों 16 मार्च से 20 मार्च 1977 तक समय निर्धारित किया जिसमें 17 मार्च को अवकाष का दिन घोषित किया गया। बिहार, उत्तरप्रदेष और पष्चिम बंगाल के कुछ मतदान केन्द्रों को छोडकर सारे देष में षांतिपूर्ण मतदान हुआ इस चुनाव में 1971 की जनगणना के अनुसार 542 स्थानों के लिए मतदान हुआ इनमें से सिक्किम और अरूणाचल प्रदेष् के दो निर्वाचन क्षेत्रों से कांग्रेसी प्रत्याषी निर्विरोध रूप से निर्वाचित हुए। जम्मू कष्मीर और हिमाचल प्रदेष के दो निर्वाचन क्षेत्रों में हिमाच्छादित क्षेत्र होने के कारण बाद में मतदान होना था। 16 मार्च 1977 को मतदाताओं के 60 प्रतिषत भाग मंे 300 पूर्ण निर्वाचन क्षेत्रों और 52 निर्वाचन क्षेत्रों के 240 भागों में मतदान हुआ । 18 मार्च को 34 पूर्ण निर्वाचन क्षेत्र और 106 निर्वाचन क्षेत्रों के भागों में मतदान हुआ । 19 मार्च को 117 पूर्ण निर्वाचन क्षेत्रों और 36 निर्वाचन क्षेत्रों भागों में 20 मार्च को मतदान सम्पन्न हुआ है।33 इन चुनावों में भारी संख्या में मतदान हुआ । उत्तरी भारत के राज्यों में मतदान के नये कीर्तिमान स्थापित हो गये । पंजाब में 70.14, हरियाणा में 72.26, दिल्ली में 71.31, उत्तरप्रदेष में 54.44, बिहार में 60.76 मध्यप्रदेष में 54.92 और राजस्थान में 56.91 प्रतिषत मतदान हुआ । दक्षिण के राज्यों में आंध्रप्रदेष में 62.77, कर्नाटक में 63.20, केरल में 79.20, पांडिचेरी में 73.63 और तमिलनाडू में 67.13 प्रतिषत मतदान हुआ।34
;टप्प् गैर-कांग्रेसवाद की जीतः- 20 मार्च 1977 को सांय 5 बजे से आकाषवाणी और दूरदर्षन ने अपने नियमित और विषेष चुनाव प्रसारणों से चुनाव परिणाम घोषित करने प्रारंभ किये । 22 मार्च तक प्रायः सभी परिणाम घोषित कर दिये थे। चुनाव परिणाम इतने अप्रत्याषित, अविष्सनीय और अकल्पनीय थे कि किसी को संभलने का अवसर नहीं दिया गया इसे देखकर लोग स्तब्ध हो गये। इन चुनाव में साधन, संगठन और षक्ति सम्पन्न कांग्रेस को न केवल महापराजय का सामना करना पडा अपितु देष का सर्वाधिक लोकप्रिय और षक्तिषाली प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी तक पराजित हो गई । वास्तविकता यह है कि कांग्रेस को रावी तट से लेकर हुगली तक लोकसभा की सीट प्राप्त करने के लिए लाले पड गये थे । विष्व के संसदीय इतिहास में यह पहली घटना थी । जब कोई प्रधानमंत्री लोकसभा के चुनाव में पराजित हुआ हो । इंदिरा गाँधी के पुत्र संजय गांधी भी अमेठी निर्वाचन क्षेत्र से जनता पार्टी के प्रत्याषी रविन्द्र प्रताप सिहं से भारी बहुमत से पराजित हो गये।
इंदिरा गाँधी के अनेक मंत्रिमण्डलीय सहयोगी भी चुनाव में पराजित हो गये । इनमें से प्रमुख थे, रक्षामंत्री बंषीलाल, जहाजरानी और परिवहन मंत्री गुरूदयाल सिहं 3ि5
अनेक प्रमुख कांग्रेसजनों को भी करारी पराजय का सामना करना पड़ा।
राज्यपाल पद से त्यागपत्र देकर कांग्रेस से चुनाव लड़ा। राज्यपाल पद से त्यागपत्र देकर कांग्रेस से टिकट पर चुनाव लड़ने वाले जोगिन्दर सिहं और आर.पी.भण्डारे भी पराजित हुए। इनके अलावा सेठ अचल सिहं, बी.पी.मोर्य, षषि भूषण, श्रीमती सुभद्रा जोषी, राजबहादुर, दिनेष सिहं, गंेदा सिहं, श्रीमती षीला कौल, अषोक सेन, श्रीमती तारकेष्वरी सिन्हा, डाॅ. रामसुभग सिहं, भागवत का आजाद, डाॅ0 फूलरेणुगुहा, प्रिय रंजनदास मुंषी, डां. षंकर दयाल षर्मा, डाॅ. कालूलाल श्रीमाली, सरदार स्वर्ण सिंह राव वीरेन्द्र सिहं और गुकराने आजम जैसे कांग्रेसी नेता भी पराजित हुए। बिहार के तीनों भूतपूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री, सर्वश्री केदार पाण्डेय, अब्दुल गफूर और दारोग प्रसाद राय को भी पराजय का सामना करना पडा। दल के लिए यह बहुत बड़ा आघात था।36 उत्तरी भारत में पूर्ण पराजयः- उत्तरी भारत में कांग्रेस की लगभग पूर्ण पराजय हुई । उत्तरी भारत में कांग्रेस की पराजय का आभास इसी से लगाया जा सकता है । कि उसे उत्तर प्रदेष के 85, बिहार के 54, पंजाब के 13, हरियाणा के 11 और दिल्ली के 6 लोकसभा स्थानों में से एक भी स्थान प्राप्त नहीं हुआ। इन सभी राज्यों में सभी स्थानों पर जनता पार्टी, लोकतंत्री कांग्रेस या उनके द्वारा समर्पित निर्दलीय प्रत्याषी विजय रहे। ये सभी राज्य कांग्रेस के गढ रहे थे और यहीं से प्रधानमंत्री उनके अधिकांष मंत्रिमंडलीय सहयोगी और कांग्रेसजनों ने चुनाव लडा और वे पराजित हुए मध्यप्रदेष, राजस्थान, पष्चिम बंगाल और उडीसा में भी इस दल को षोचनीय पराजय का सामना करना पडा और इन राज्यों में इसे मषः
1,1,3 और 4 स्थान ही प्राप्त हुए। निष्चित रूप से इन चुनाव परिणामों से भारतीय मतदाताओं की राजनीतिक परिपक्वता और दक्षता सामने आई, उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि भारत में लोकतंत्र ही षासन का एकमात्र विकल्प है और यहां वंषानुगत राजवंष के लिए कोई स्थान नहीं है। चुनावी परिणामों को स्वीकार करते हुए इंदिरा गाँधी ने दल की पराजय के लिए स्वयं को उत्तरदायी बताया। 11 वर्षों तक प्रधानमंत्री पद का दायित्व निर्वहन करने वाली इंदिरा गाँधी ने बिना किसी हिचक के इस लोकसभा चुनाव में दल की पराजय के लिए स्वय ं को उत्तरदायी बताते हुए कागं ्रेसाध्यक्ष को लिखे गये अपने पत्र में स्पष्ट किया कि जहां तक मेरा प्रष्न है मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूॅ मैंने सरकार का नेतष्त्व किया। अतः मैं बिना किसी हिचक के पराजय का पूर्ण उत्तरदायित्व स्वीकार करती हूँ। 37
;टप्प्प् कांग्रेस की पराजय के कारण:-
उत्तरी, पूर्वी और मध्य भारत के राज्य पिछले संसदीय चुनावों में
कांग्रेस को भारी समर्थन प्रदान करते रहे और काग्रेस इन्हें अपना प्रभाव क्षेत्र मानती रही। लेकिन इन चुनावों में कांग्रेस को षोचनीय पराजय का सामना करना पड़ा। कांग्रेस की इस पराजय के अनेक कारणों का योगदान रहा। राजनीतिक विष्लेषकों और अध्ययेताओं के मत में आपातकाल का खुला दुरूपयोग और उसके दौरान की गई ज्यादतियाँ दल की पराजय का प्रमुख कारण थीं। इसके कारण समाज के सभी वर्गों के लोग दल से रूष्ट हो गये। आपातकाल के निरंकुष वातावरण ने महानगरों में रहने वाले प्रबु नागरिकों को दल से नाराज कर दिया तो परिवार नियोजन कार्य म को अत्यधिक तेजी से लागू करने में होने वाली ज्यादतियों ने कांग्रेस के सबसे ठोस समर्थक वर्ग ‘किसान’ को दल से अलग कर दिया। सौन्दर्यीकरण कार्य म के अन्तर्गत झुग्गी-झोपड़ियों में निवास करने वाले लाखों मजदूरों और गरीब वर्गों के लोगों को बेघरबार कर दिया गया। फलस्वरूप ये लोग भी दल से नाराज हो गये। आपातकाल में राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियाँ, प्रेस सेंसरषिप और नागरिक स्वतन्त्रताओं के हनन ने कांग्रेस विरोधी वातावरण को जन्म दिया। आपातकाल में मूल अधिकारों और स्वतन्त्रताओं को समाप्त कर दिया गया। आन्तरिक सुरक्षा कानून ३मींसा७ का खुलकर प्रयोग किया गया। मीसा को मेन्टीनेन्स आॅफ इन्दिरा एक्ट कहा जाने लगा। 19 महीनों में 34600 लोगों को मीसा में बन्दी बनाया गया। आपातकालीन अधिकारों और षक्तियों का खुला दुरुपयोग किया गया। षासन का विरोध करने वालों को जेलों में ठूंस दिया गया।38 इस तरह से आपातकाल के वातावरण ने भी कांग्रेस की पराजय में महत्वपूर्ण
रूप से योगदान दिया।
द्वितीय, कांग्रेस की इस पराजय में आपातकाल में इंदिरा गाँधी के
इर्द-गिर्द रहने वाले व्यक्तियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। श्री हरिविष्णु कामथ ने कांग्रेस की पराजय के लिए उत्तरदायी, राजनीतिक क्षितिज्ञ पर चाण्डाल चैकड़ी के उदय को बताया। उन्होंने इस चैकड़ी में संजय गाँधी, बंसीलाल, विद्याचरण षुक्ल और ओम मेहता को षामिल किया।39 तष्तीय, प्रेस सेंसरषिप भी कांग्रेस की पराजय के लिए उत्तरदायी रही। इसके कारण समाचार पत्र प्रषासनिक और पुलिस ज्यादतियों को उजागर नहीं कर सके, जो अन्ततः कांग्रेस की पराजय के लिए उत्तरदायी बनीं। चतुर्थ, कांग्रेस की पराजय में सबसे निर्णायक भूमिका परिवार नियोजन कार्य म की अत्यधिक उत्साह और स ियता से लागू करने में हुई भूलों, ज्यादतियों और अमानवीय व्यवहार की रही। इसने उत्तरी भारत में कांग्रेस के परम्परागत समर्थक तत्वों को नाराज कर दिया।
इस सम्भाग का ‘किसान वर्ग’ कांग्रेस से बुरी तरह से रूष्ट हो
गया, जो कि पूर्ववर्ती संसदीय चुनावों में कांग्रेस के लिए मतदान करता रहा था। इसके अतिरिक्त परिवार नियोजन कार्य म में की गई ज्यादतियों का षिकार मुख्य रूप स े मजदरू , हरिजन, पिछडा़ वर्ग और सरकारी कमर्च ारी थ।े प्िरस पत्रकार इन्दर मल्होत्रा ने इसके गम्भीर परिणामों को विष्लेषित करते हुए कहा था कि ‘‘परिवार नियोजन को लागू करने में की गई ज्यादतियों ने वही कार्य किया जो कि 1857 के आन्दोलन में चर्बीयुक्त कारतूसों ने किया।’’40 इस कार्य म को अतिषय उत्साह से लागू करने के पीछे राज्यों के मुख्यमन्त्रियों द्वारा संजय गाँधी को प्रसन्न करना था, क्योंकि यह उनके पांच सूत्रीय कार्य म का प्रमुख अंग था। संजय गांधी को खुष करने के चक्कर में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने निर्धारित लक्ष्य से कहीं अधिक आॅपरेषन कराये। मध्यप्रदेष के लिए 2 लाख 67 हजार लक्ष्य निर्धारित किया गया था, वहाँ चन्द महीनों में 10 लाख नसबन्दी आॅपरेषन कर दिये गये। उत्तरप्रदेष का लक्ष्य 4 लाख का था, वहाँ 15 लाख आॅपरेषन कर दिये गये। हिमाचल प्रदेष के लिए निर्धारित लक्ष्य 30 हजार से बढ़कार वहाँ के मुख्यमंत्री ने एक लाख कर दिया। राजस्थान के मुख्यमंत्री ने 1.75 लाख के लक्ष्य को 3.50 लाख कर दिया। कर्नाटक में भी लक्ष्य से अधिक नसबन्दी आॅपरेषन किये गये लेकिन वहाँ इस प्रकार की जबर्दस्ती नहीं की गई, जैसी उत्तर भारत के राज्यों में की गई।41 इन लक्ष्यों को पूरा करना आसान कार्य नहीं था। उत्तरी भारत के ग्रामीण वर्ग को इस कार्य म को अपनाने के लिए प्रेरित करने के लिए जिस चेतना और षिक्षा की आवष्यकता थी, उसका सहारा नहीं लिया गया। अगर स्वैच्छिक आधार पर इसे अपनाये जाने पर जोर दिया जाता या इस कार्य म को लागू करने में सहिष्णुता और सदाषयता का परिचय दिया जाता तो लोग इसे सहर्ष रूप से अपना लेते लेकिन ऐसा नहीं किया गया। लक्ष्यों की प्राप्ति के चक्कर में प्रषासनिक अधिकारियों ने सभी संभव साधनों का सहारा लिया, अनेक जगहों पर जनता ने इसका विरोध भी किया। उत्तर प्रदेष के सुल्तानपुर और मुजफ्फर नगर में प्रतिरोध की ऐसी ही घटनाऐं घटित हुईं। इस कार्य म को लागू करने में किये गये अमानवीय लोगों को जबरन नसबन्दी और अनेक लोगों की एक से अधिक बार की गई नसबंदी की घटनाऐं भी प्रकाष में आईं। गांवों में परिवार नियोजन कार्य म से इस सीमा तक भय व्याप्त हो गया कि लोग सरकारी वाहनों को देखकर ही गांव छोड़कर भाग जाते थे। जो सरकारी कर्मचारी नसबन्दी के लिए लोगों को तैयार करने में असफल रहे, उनका वेतन रोक दिया गया। सरकारी कर्मचारियों को भी जबरन नसबन्दी कराने के लिए बाध्य किया गया। भारत जैसे परम्परावादी देष में इस प्रकार की स्थिति वांछनीय नहीं थी अतः जनमत काग्रेस के विरू हो गया। जनता में यह भय और आषंका व्याप्त हो गई कि अगर कांग्रेस पुनः विजयी हुई तो जबरन नसबन्दी के अत्याचारों से कोई सुरक्षित नहीं रह सकेगा। अतः कांग्रेस को पराजित करना अत्यावष्यक है। इस तरह से परिवार नियोजन कार्य म को लागू करने में की गई ज्यादतियों और अत्याचारों ने जनता को कांग्रेस विरोधी बना दिया।
पंचम्, कांग्रेस की पराजय में संजय गाँधी की भूमिका की काफी हद तक उत्तदायी रही। आपातकाल में संजय गाँधी का भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धूमकेतु के रूप में अभ्युदय हुआ और वे षीघ्र ही भारतीय राजनीति पर छा गये। षीघ्र ही वे भारतीय षासन व्यवस्था में ‘संविधानेत्तर सत्ता’ बन गये। परिवार नियोजन भी संजय गाँधी के पांच सूत्रीय कार्य म का ही एक सूत्र था। वे कांग्रेस के सत्ता स्तम्भ बन गये। उनके सामने कांग्रेसाध्यक्ष, केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और प्रषासनिक अधिकारियों की स्थिति गौण और महत्वहीन बन गई। षीघ्र ही भारतीय राजनीति की पहल और बागड़ोर उनके हाथ में आ गई। ‘‘इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी को राजनीति जगत में भाग लेने से पहले चलाना सिखा रही थी लेकिन उन्होंने तो उड़ना प्रारम्भ कर दिया।’’42 राज्यों की राजनीति में भी संजय गाँधी की भूमिका सर्वोच्च बन गई। उनका षिकार उन मुख्यमंत्रियों को बनना पडा, जा े उनका े प्रसन्न नही ं रख सक।े उत्तर प्रदष्े ा म ंे हमे वती नन्दन बहुगुणा और उडी़सा में श्रीमती नन्दिनी सत्पथी ऐसे ही मुख्यमंत्री थे। इन्हें अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस विधानमण्डलीय दलों से पूर्ण बहुमत होने के बावजूद भी मुख्यमंत्री पद से हटाया गया। उनके स्थान पर संजय गाँधी के विष्वस्त व्यक्तियों उत्तर प्रदेष में नारायण दत्त तिवारी और उड़ीसा में विनायक आचार्य को मुख्यमन्त्री पद पर सत्तारूढ़ किया गया। इस तरह से राज्यों में नेतष्त्व परिवर्तन करने में संजय गाँधी की अहम भूमिका रही।
न केवल दल में ही, अपितु सरकार के संचालन में भी संजय गाँधी की भूमिका अत्यन्त मुखरित हो गई थी। उद्योग मन्त्री टी.ए. पाई के षब्दों में, संजय गाँधी कांगे्रस दल के नेता बन गये थे। वे बिना किसी उत्तरदायित्व के किसी भी सरकारी फाइल को देख सकते थे। किसी भी मामले में मनचाहा निर्णय करवा सकते थ।े व े मन्त्रिया ंे की नियुक्ति और पदान्ेनति का निष्चय करत े थ।े43 कन्ेद्रीय मंित्रपरिषद् के सदस्य भी उनकी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में लगे रहते थे।
दल और सरकार में संजय गाँधी की निर्णायक भूमिका और इंदिरा गाँधी द्वारा उनको आगे बढ़ाने की प्रवष्ति से दल के अनेक वरिष्ठ नेता, मुख्यमन्त्री और समर्पित कार्यर्क ाा क्षुब्ध थे लेकिन वे सही बात कहने की स्थिति में नहीं थे अतः वे किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में थे। उनमें संजय गाँधी की नीतियों और कार्यप्रणाली का विरोध करने की स्थिति में नहीं थे। इस स्थिति का संजय गांधी और उनके समर्थकों ने पूरा लाभ उठाया और वे दल पर पूरी तरह से छा गये। संजय समर्थकों की गतिविधियों ने जनता दल की छवि और प्रतिष्ठा को धूमिल कर दिया और इससे दल को गहरी क्षति हुई। प्रसि पत्रकार गिरीलाल जैन के मत में यदि संजय गाँधी ने बंसीलाल, ज्ञानी जैल सिंह और नारायणद ा तिवारी के साथ मिलकर आतंक नहीं फैलाया होता तो इंदिरा गाँधी बहुमत प्राप्त कर सकती थी।44 कुछ केन्द्रीय मंत्रियों और कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने उनके चाटुकार बनकर उन्हें मनमानी करने की दिषा से हर संभव प्रोत्साहन दिया। संजय गाँधी की भूमिका वंषानुगत षासन का खतरा अनुभव किया गया।45
षष्ठम्, विरोधी दलों के प्रति व्याप्त जन सहानुभूति भी कांग्रेस की पराजय का कारण बनी। जिस समय इंदिरा गाँधी ने चुनावों की घोषणा की थी उस समय विपक्षी दलों के प्रमुख नेता और कार्यकर्ता जेलों मे बन्द थे। देष के जनमानस में यह भावना व्याप्त थी कि साधनहीन और मनोबल पस्त विपक्षी दलों को चुनावों की तैयारी करने के लिए बहुत ही कम समय दिया गया है। विपक्षी दलों ने चुनाव प्रचार के समय अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ जेलों में हुए व्यवहार का अत्यन्त ‘अतिरंजित और अतिष्योक्तिपूर्ण’ चित्रण जनता के सामने रखा और इससे भी जनता में उनके प्रति व्यापक सहानुभूति का वातावरण बना, जिससे कांग्रेस को
भारी पराजय का सामना करना पड़ा।
कांग्रेस की पराजय में जयप्रकाष नारायण की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। आपातकाल में जयप्रकाष नारायण की गिरफ्तारी से भी जनता क्षुब्ध थी। इस काल में ही उनके ‘गुर्दों’ के खराब होने के कारण वे अत्यधिक रूप से बीमार पड़ गये। जयप्रकाष नारायण की अस्वस्थता ने पूरे देष में चिन्ता का वातावरण बना दिया इससे भी कांग्रेस विरोधी वातावरण बन गया। इसके अलावा उनके प्रत्यनों और प्रेरणा के कारण ही चार गैर-साम्यवादी विपक्षी दलों ने संगठित होकर जनता पार्टी का निर्माण किया। जनता पार्टी के विभिन्न तत्वों को संगठित रखने, इसके नेताओं में सन्तुलन बनाये रखने, जनता पार्टी और लोकतन्त्री कांग्रेस के बीच चुनाव समझौते को सम्पन्न करने, देष के प्रबु लोगों को जनता पार्टी का समर्थन करने के लिए आगे लाने और इस दल के प्रति जन विष्वसनीयता को स्थापित करने में उनकी अहम और निर्णायक भूमिका रही। जयप्रकाष नारायण ने सन 1954 के बाद पहली बार जनता पार्टी के लिए चुनाव सभाओं को सम्बोधित किया। उन्होंने अपनी अस्वस्थ्यता के कारण जनता पार्टी के लिए चुनाव प्रचार नहीं कर पाने की विवषता को भी दोहराया। उन्होंने देष के मतदाताओं से जनता पार्टी के पक्ष में मतदान करने की अपील की। जयप्रकाष नारायण का यह नारा कि इसमें मतदाताओं को ‘लोकतन्त्र और अधिनायकवाद’ में से किसी एक का चयन करना है, काफी लोकप्रिय हुआ। जनता पार्टी ने भी ‘‘अन्धेरे में एक प्रकाष, जयप्रकाष, जयप्रकाष’’ का नारा लगाकर जन भावनाओं को उद्वेलित और आन्दोलित करने का प्रयत्न किया। पटना स्थित जयप्रकाष नारायण का निवास स्थान जनता पार्टी के नेताओं के लिए
‘‘तीर्थस्थल’’ बन गया।
सप्तम, कांग्रेस की पराजय का सबसे बड़ा कारण केन्द्र में गैर साम्यवादी विपक्षी दलों द्वारा ‘‘जनता पार्टी’’ के रूप में मतदाताओं के सम्मुख सषक्त विकल्प प्रस्तुत करना था। सन् 1952 से लेकर 1971 तक कांग्रेस मतदाताओं के 50 प्रतिषत से भी कम स्थान प्राप्त करने के बावजूद भी विपक्षी दलों के विभाजित होने और उनमें होने वाले मतों के विभाजन का लाभ उठाकर सत्ता में आती रही लेकिन इस बार अपने अस्तित्व की रक्षा करने और जयप्रकाष नारायण का समर्थन प्राप्त करने के लिए विपक्षी दलों के सामने संगठित होकर कांग्रेस का मुकाबला करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं था।
अतः चार प्रमुख गैर साम्यवादी विपक्षी दलों ने एक दल, एक चुनाव चिन्ह, एक झण्डे, एक घोषणा पत्र और एक नेता के नेतष्त्व में चुनाव लड़कर जनता का े यह विष्वास दिलान े म ंे सफलता प्राप्त की कि व े कन्ेद्र म ंे कागं ्रसे का एक सषक्त विकल्प बन सकते हंै। जनता पार्टी द्वारा माक्र्सवादी साम्यवादी दल, अकाली दल, द्रमुक, पीजेन्ट एण्ड वर्कर्स पार्टी तथा रिपब्लिकन पार्टी ३खोबरगड़े गुट७ के साथ चुनाव समझौता करके भी कांग्रेस विरोधी मतों को विभाजित होने से रोकने का प्रयास किया गया। इस तरह से इस बार कांग्रेस और विपक्षी दलों के बीच आमने सामने का संघर्ष था और इसमें कांग्रेस को पराजित होना पड़ा।
अष्ठम,् जगजीवनराम द्वारा चनु ावा ंे की घाष्ेाणा क े बाद कन्ेदी्रय मत्रं ीपरिषद् और कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से त्याग पत्र देकर ‘‘लोकतंत्री कांगे्रस’’ की स्थापना करने का निर्णय भी कांग्रेस को भारी क्षति पहुंचाने वाला महत्वपूर्ण कारण सि हुआ। निःसंदेह जगजीवनराम के त्यागपत्र के पूर्व भी देष में कांग्रेस विरोधी वातावरण बहुत ही उग्र था लेकिन इस घटना ने इसे और भी प्रबलतम बना दिया। राजनीति की पहल कांग्रेस के हाथ से निकलकर विपक्षी दलों के हाथ में आ गई। कांग्रेस का रूख आ ामक नहीं रहकर रक्षात्मक बन गया। चुनाव के समय अनेक प्रमुख कागं ्रेसजना ें द्वारा कागं ्रेस को छोडक़ र लोकतत्रं ी कागं ्रेस म ें षामिल होने का यह म अनवरत रूप से बना रहा। इस घटनाच से कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरना स्वाभाविक ही था। लोकतंत्री कांग्रेस में षामिल होने वाले कांग्रेसजनों द्वारा आपातकाल में होने वाली ज्यादतियों और भ्रष्टाचार की कटु आलोचनाऐं की जाती थीं। इस घटना च ने जनता पार्टी को अप्रत्याषित रूप से मनोबल प्रदान किया। इससे कांग्रेस की रणनीति अस्त व्यस्त हो गई और दल में अविष्वास और सष्ं ाय का वातावरण बन गया। कागं ्रेस को अपनी सारी नीति नये
महात्मा गाँधी की पुत्री श्रीमती सुमित्रा कुलकर्णी और पंडित जवाहर लाल नेहरू की विदुषी बहिन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित ने चुनाव में कांग्रेस और इंदिरा गाँधी का खुलकर विरोध किया। इसके फलस्वरूप विपक्षी दलों को संजीवनी सी प्राप्त हो गइ और उन्हें नया सबल प्राप्त हुआ। इस तरह से लोकतंत्री कांगे्रस का अभ्युदय जनता पार्टी की विजय में सहायक सि हुआ और नवम्, कांग्रेस दल की आन्तरिक गुटवादिता ने भी इस दल की पराजय में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। सभी राज्यों में कांग्रेसजनों के प्रतिद्वन्दी गुटों ने एक दूसरे को नीचा दिखाने और पराजित करने में कोई कसर नहीं रखी। उन्होंने अपने विरोधियों को पराजित करने के लिए न केवल उनको किसी तरह का कोई सहयोग ही नहीं दिया अपितु उनके विरोधियों को विजयी बनाने के लिए साधन भी जुटाये। इससे भी कांग्रेस को पराजय का मुँह देखना पड़ा।
३प्ग्७ दक्षिणी भारत में कांग्रेस की षानदार विजय:-
दक्षिणी भारत के राज्यों में कांग्रेस की बड़ी ही षानदार विजय प्राप्त
हुई। आन्ध्रप्रदेष, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के 129 स्थानों में से उसे 92 लाख मत प्राप्त हुए। इस सम्पूर्ण सम्भाग में जनता पार्टी को केवल 6 स्थान ही प्राप्त हुए यदि आन्ध्रप्रदेष और कर्नाटक में कांग्रेस को यह विजय अपने बलबूते पर प्राप्त हुई तो तमिलनाडु और केरल में इसकी विजय में इसके चुनाव गठबंधनों को प्रभावषाली योगदान रहा। जहाँ तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के साथ कांग्रेस के चुनाव गठबंधन ने इस दल को भारी सफलता प्रदान की, वहाँ केरल में इसकी विजय में साम्यवादी दल की भूमिका प्रमुख रूप से उत्तरदायरी रही। चुनाव परिणामों में विपक्ष की कमरतोड़ कर रख दी। इस संभाग में विपक्षी दल नहीं के बराबर थे जैसा कि जे.ए. नाईक ने भी लिखा है कि ‘जनता हवा’ जिसने उ ारी भारत में कांग्रेस को साफ कर दिया था, दक्षिण में प्रवेष भी नहीं कर सकी। पष्चिम में भी इसका प्रवाह नहीं हुआ और यह षहरों तक ही सीमित रही। कांग्रेस आन्ध्रप्रदेष और कर्नाटक में अत्यन्त षक्तिषाली थी और यह महाराष्टश् और गुजरात में भी प्रभावषाली थी। तमिलनाडु और केरल में कांग्रेस के चुनाव सहयोगी दल षक्तिषाली रहे।46 कांग्रेस ने अपनी प्रभावषाली विजय के कारण ही यह लोकसभा में विपक्षी दल के रूप में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त करने में सफल रही।
अब प्रष्न यह उठता है कि दक्षिण भारत में जनता पार्टी को बुरी तरह से पराजय का सामना करना और कांग्रेस को आषातीत से भी कहीं अधिक सफलता मिलने के पीछे किन कारणों का योगदान रहा है? परिस्थितियों का सही विष्लेषण करने पर निम्न स्थितियों को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। प्रथम, सगं ठनात्मक दष्ष्टि से जनता पार्टी की स्थिति दक्षिण मे बहुत कमजोर थी। आन्ध्रप्रदेष में नीलम संजीव रेड्डी में इतनी क्षमता नहीं थी कि वे कांग्रेस का मुकाबला कर पाते। इस प्रदेष में जनता पार्टी का संगठन नहीं के बराबर था। तेलांगना प्रजा समिति के कांग्रेस में विलय हो जाने के बाद इस प्रदेष में विपक्ष का अस्तित्व ही नहीं रहा। यह कांग्रेस का ऐसा सुदष्ढ़तम गढ़ था, जिसको भेदना किसी के बस की बात नहीं थी। यही स्थिति तमिलनाडु की थी।
तमिलनाडु में जनता पार्टी के संगठन कांगे्रस घटक का ही अस्तित्व था और भारतीय जनसंघ, सोषलिस्ट पार्टी और लोकदल का अस्तित्व भी नहीं था। कामराज नाडार क े दहे ावसान क े बाद सगं ठन कागं स्रे क े अनके प्रभावषाली नते ा और कार्यकर्ता कांग्रेस में षामिल हो गये थे। इससे संगठन कांग्रेस की षक्ति क्षीण हो गई थी। पी. रामचन्द्रन जैसा नेता कांगे्रस को चुनौती देने की स्थिति में नहीं थे। कर्नाटक में यद्यपि जनता पार्टी की स्थिति जनता पार्टी की स्थिति अन्य राज्यों से बेहतर थी, लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस की सुदष्ढ़ स्थिति को देखते हुए यह बहुत कमजोर नजर आती थी। मुख्यमन्त्री देवराज अर्स के प्रभावषाली व्यक्तित्व के सम्मुख जनता पार्टी नेताओं एस. निजीलिंगप्पा, वीरेन्द्र पाटिल और रामकष्ष्ण हेगड़े की राजनीतिक स्थिति और प्रभाव कमजोर ही था। देवराज अर्स और कांग्रेस की षक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता था किस सन 1971 में राज्य में वीरेन्द्र पाटिल के नेतष्त्व में संगठन कांग्रेस की सरकार के रहते हुए भी लोकसभा के सभी
27 स्थान इन्दिरा गाँधी के नेतष्त्व वाली कांग्रेस ने जीत लिए थे।
देवराज अर्स के नेतष्त्व में कांग्रेस बहुत षक्तिषाली थी। पाण्डिचेरी में जनता पार्टी का अस्तित्व ही नहीं था। केरल में भी जनता पार्टी की उपस्थिति नाममात्र ही थी। इसका केवल सोषलिस्ट घटक ही स िय था परन्तु सम्पूर्ण राज्य में जनता पार्टी का अस्तित्व नहीं था। इस प्रकार दक्षिण के राज्यों में जनता पार्टी का संगठनात्मक दष्ष्टि से कमजोर होना भी इसकी पराजय का मुख्य कारण बना।
द्वितीय, कांग्रेस की विजय में इसके सहयोगी दलों का भी भारी योगदान रहा। तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक के नेता एम.जी. रामचन्द्रन का करिष्मा कांग्रेस और अन्नाद्रमुक गठबंधन की विजय में प्रमुख रूप से उत्तरदायी रहा।
एम.जी. रामचन्द्रन के सामने द्रमुक नेता करूणानिधि कहीं नहीं टिक सके। अगर जनता पार्टी ने द्रमुक के स्थान पर अन्ना द्रमुक के साथ चुनाव गठबंधन किया होता तो इतिहास ही दूसरा होता। श्री करूणानिधि और द्रमुक के अन्य नेताओं पर लगाये जाने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों ने भी इस गठबंधन की पराजय में योगदान किया। अतः जनता पार्टी के लिए द्रमुक का सहयोग लाभप्रद सि होने के स्थान पर हानिकारक अधिक सि हुआ। केरल में कांग्रेस की विजय में अच्युत मेनन के नेतष्त्व वाली संयुक्त सरकार की जनता से प्रतिष्ठा विषेष रूप से सहायक सि हुई। अच्युत मेनन के परिपक्व नेतष्त्व में राज्य में कांग्रेस और साम्यवादी दल के गठबंधन को स्थायित्व प्रदान किया। फलस्वरूप केरल के मतदाताओं के राज्य में स्थिरता के तथ्य को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस और भारतीय साम्यवादी दल के गठबंधन के पक्ष में अपना अभूतपूर्व समर्थन दिया। यह गठबंधन स्वतन्त्रता के बाद पहली बार राज्य में 6 वर्षों तक स्थिर सरकार का संचालन करने में सफल हुआ। परिणामस्वरूप राज्य की जनता ने माक्र्सवादी साम्यवादी दल और जनता पार्टी के गठबंधन को अस्वीकार कर दिया। इस तरह से दक्षिण भारत में सभी प्रमुख और
षक्तिषाली विपक्षी दल जनता पार्टी के विरू कांग्रेस का समर्थन कर रहे थे।
तष्तीय, दक्षिण भारत कांग्रेस का सदैव से ही परम्परागत समर्थक रहा है।
सन 1971 के संसदीय चुनाव में भी इस संभाग से कांग्रेस को भारी विजय प्राप्त हुई अतः इस बार विजय सर्वथा अपेक्षित नहीं थी।
चतुर्थ, दक्षिण राज्यों के मुख्यमंत्री आपातकाल और संजयवादी की चकाचांैध से उतने प्रभावित नहीं हुए थे जितने की उत्तरी राज्यों के मुख्यमंत्री। उन्होंने न तो असंभव से लगने वाले परिवार नियोजन के लक्ष्य ही निर्धारित किये और न ही उसको लागू करने में ज्यादतियाँ ही कीं। उन्होंने षहरों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों को बेघरबार भी नहीं किया। इस तरह से आपातकाल की भयावहता से ये राज्य बहुत अधिक प्रभावित नहीं हुए।
पंचम्, दक्षिण राज्यों के मुख्यमंत्रियों की प्रषासनिक क्षमता और उनके द्वारा कमजोर वर्ग के उत्थान और कल्याण के लिए लागू की गई योजनाओं ने भी जनता को कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित किया। कर्नाटक में देवराज अर्स, आन्ध्रप्रदेष में जे. वेंगलराव और केरल में अच्युत मेनन के नेतष्त्व वाली सरकारों ने हरिजनों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के उत्थान की दिषा में भागीरथ प्रयास किये। भूमि सुधारों को लागू किया गया अतः कांग्रेस ने इन परम्परागत समर्थक वर्गों के दल के पक्ष में मतदान किया।
षष्टम्, दक्षिण का मतदान प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी के ‘करिष्मे’ से
अभिभूत था। आंध्रप्रदेष का मतदाता इंदिरा गाँधी को ‘इन्दिराम्मा’ कहकर संबोधित करता था। कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के मतदाताओं पर भी इंदिरा गाँधी का गहरा प्रभाव था। उनका चुनाव सभाओं में भारी भीड़ उनकी विजय का स्पष्ट आभास देती थी। इनके विपरीत इंदिरा गाँधी की तुलना में विपक्ष का कोई भी नेता दक्षिणी भारत में मतदाताओं की भावनाओं को उद्वेलित नहीं कर सका। नीलम संजीव रेड्डी, एस. निजिलिंगप्पा और पी. रामचन्द्रन जैसे विपक्षी नेताओं का जनता पर कोई प्रभाव नहीं था। जयप्रकाष नारायण अस्वस्थ होने के कारण दक्षिण भारत में प्रचार नहीं कर सके। मोरारजी देसाई और जगजीवनराम की अपीलों का मतदाताआंे पर विषेष प्रभाव नहीं पड़ा। जामा मस्जिद के इमाम सैयद मौलाना अब्दुल्ला बुखारी की अपीलों से भी दक्षिण का मतदाता अप्रभावित रहा। इस तरह से इंदिरा गाँधी के धुंआधांर प्रचार की काट करने के लिए जनता पार्टी के पास कोई सषक्त विकल्प नहीं था। जनता पार्टी के नेताओं ने भी अपना ध्यान उत्तरी भारत की तरफ ही केन्द्रित किया।
सप्तम्, कांग्रेस और सहयोगी दलों ने दक्षिण भारत के मतदाताओं की भावनाओं को उभारने के भी प्रयत्न किये। उनमें इस बात का भी प्रचार किया गया कि जनता पार्टी उत्तरी भारत की पार्टी है और अगर यह सत्ता मंे आई गई तो नेहरू के त्रिभाषा फार्मूले को रद्द कर दिया जायेगा और उन पर हिन्दी लाद दी जायेगी। जनता नते ाआ ंे म ंे अटलबिहारी वाजपये ी, राजनारायण आरै मधुिलमय े समते जनसंिधयांे और सोषलिस्टों का हिन्दी प्रेम सर्वविदित था।
अतः हिन्दी विवाद को उभारकर के भी मतदाताओं का आकष्ष्ट करने का प्रयत्न किया गया। तमिलनाडु में हिन्दी का प्रष्न सदैव से ही संवेदनषील रहा है। इस तरह से दक्षिण भारत के राज्यों में कांग्रेस की विजय ने भी सभी भविष्यवाणियों को झुठला दिया।
उपर्युक्त विष्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ उ ारी भारत में जनता पार्टी को अप्रत्याषित सफलता प्राप्त हुई वहाँ दूसरी तरफ दक्षिणी भारत में कांग्रेस को इतनी विषाल और महत्वपूर्ण विजय की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इसके साथ ही जहाँ उ ार भारत में कांग्रेस को प्राप्त मतों और लोकसभा में प्राप्त स्थानों की संख्या में पर्याप्त अन्तर दष्ष्टिगत हुआ वहाँ दूसरी तरफ यहीं स्थिति जनता पार्टी के साथ घटित हुई। यद्यपि उसे मात्र 6 स्थानों पर ही विजय प्राप्त हुई लेकिन उसे पर्याप्त मात्रा में मत प्राप्त हुए। अतः ये चुनाव परिणाम उ ार दक्षिण की विभाजक रेखा खींचते थे।
2. जनता पार्टी का गठन एवं उसका प्रभाव:-
18 महीने आपातकाल की कटु आलोचना संजोए 18 जनवरी 1977 को
इन्दिरा गाँधी की सलाह पर राष्टश्पति द्वारा पांचवीं लोकसभा भंग करने एवं मार्च 1977 मंे छठे आम चुनाव होने की घोषणा ने विभिन्न प्रतिपक्षों दलों के समक्ष गहन चुनौती उत्पन्न कर दी और विलय की विचारणा को अनिवार्य बना दिया। चार विपक्षी दला ंे न े मिलकर ३सगं ठन कागं स्रे , जनसघ्ं ा, भारतीय लाके दल तथा समाजवादी दल७ जनता पार्टी का गठन किया। इसके लिए 23 जनवरी 1977 को एक 27 सदस्यीय राष्टश्ीय समिति की घोषणा की।
भूतपूर्व उपप्रधानमंत्री और संगठन कांग्रेस ने नेता मोरारजी देसाई को दल का अध्यक्ष तथा उत्तर प्रदेष के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एवं भारतीय लोकदल के अध्यक्ष चैधरी चरणसिंह को उपाध्यक्ष बनाया गया तथा जनसंघ अध्यक्ष लालकष्ष्ण आड़वाणी, समाजवादी पार्टी के महासचिव सुरेन् मोहन ओर कांग्रेस संसदीय दल के भूतपूर्व महासचिव जी रामधन दल के महासचिव बने। षान्तिभूषण ३संगठन कांग्रेस७ को दल का कोषाध्यक्ष मनोनीत किया। अषोक मेहता, चन्द्रभानु गुप्ता, नीलम संजीव रेड्डी, रामचन्द्रन, ष्याम नन्दन मिश्र, सिकन्दर बख्त, प्रफुल्ल चन्द्र सैन, अटल विहारी वाजपये ी, भैरं ाेिसहं षख्े ाावत, कष्ु ामाउ ठाकर,े नानाजी दख्े ामख्ु ा ३सभी जनसघ्ं ा७, बीज ू पटनायक, भानु प्रताप सिहं , चादं राय, एचएम पटेल, कर्पूरी ठाकुर ३सभी भारतीय लोकदल७, श्रीमती मष्णाल गोरे, नाना साहब गोरे, समर गुप्ता, एश्री धवन ३सभी समाजवादी पार्टी७ और चन्द्रषेखर ३निर्दलीय७ समिति के सदस्य रखे गये।47
चूँकि दल को कोई नया चुनाव चिन्ह मिलना कठिन था इसलिए उसने फैसला किया कि भारतीय लोकदल के चुनाव चिह्न ३हलधर७ को तमिलनाडु को
छोड़कर षेष देष में अपनाया जाये व तमिलनाडु में संगठन कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ३चर्खा चलाती महिला७ इस्तेमाल किया जाये। बाद में इस निर्णय को चुनाव आयुक्त की स्वीकष्ति प्राप्त हो गई। दिनांक 23 जनवरी 1977 को अपनी पहली बैठक में राष्टश्ीय समिति ने तीन प्रस्ताव पारित किये। उनम ें से एक म ें समिति ने यह माँग की। आथिर्क अपराधा ंेम ंेनजर बन्द व्यक्तिया ंेका े छाडे क़ र बाकी नजरबन्दा ंेका े अधिकाधिक तीन-चार दिन में रिहा किया जावे।
दूसरे प्रस्ताव में सरकार से अनुरोध किया गया कि वह आकाषवाणी और दूरदर्षन को अविलम्ब निर्देष दें कि इन पर सरकारी दल, जनता पार्टी, अन्य विपक्षी दलों की गतिविधियाँ और दष्ष्टिकोण की खबरें निष्पक्ष रूप से जाये। तीसरे प्रस्ताव में सरकार से अनुरोध किया गया कि वह प्रतिबंधित संगठनों पर रोक वापिस ले और अगर हमारी गलती है तो इनमें से किसी के भी खिलाफ न्यायिक जाँच बैठा दे।48 सर्वोदय नेता जयप्रकाष नारायण ने जनता पार्टी के समर्थन में 23 जनवरी 1977 को वक्तव्य देते हुए कहा कि वह सत्ता का विकेन्द्रीकरण करेगी ताकि दूर गांवों में रहने वाला व्यक्ति भी अपने को प्रभावित करने वाली बातों व योजनाओं का निर्णय करने भी भागीदार बन सकें।
उन्हांेने कहा कि पार्टी न्यायपालिका और समाचार-पत्रों जैसी स्वतंत्र संस्थाओं को इतना मजबूत बनायेगी कि वह कार्यपालिका को अपनी ताकत को दुरूपयोग करने में रोक सके और देष को तानाषाही षासन का खतरा कभी पैदा न हो। तब गाँधीवादी सिान्तों पर अपना सामाजिक आर्थिक कार्य म बनाने को प्रतिब है।
लोकसभा के मार्च 1977 के चुनाव परिणामों ने जिनके फलस्वरूप
जनता सरकार के रूप में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार केन्द्र में बनी।49
3. जनता राजनीति:-
चुनाव करने की प्रधानमंत्री की घोषणा पूर्व ही केन्द्रीय राज्यमंत्री
ओम मेहता ने उस वर्ष चुनाव कराये जाने के विचार को ‘हास्यापद’ बताते हुए कहा था कि संसद ने अपनी अवधि एक वर्ष बढ़ा दी है अतः मार्च में चुनाव कराये जाने का कोई विकल्प नहीं उठता है।तत्कालीन रक्षा मंत्री बंषीलाल और संजय गाँधी भी इस चुनाव क विरू थे।
10 फरवरी, 1975 ई. को जनता पार्टी के अपाध्यक्ष चरण सिंह ने
अपने दल या चुनाव घोषणा पर जारी किया।52 जे.ए. नायक ने लिखा है कि न केवल जेलों के अनुभवों ने बल्कि चुनावों की घोषणा ने भी नजरबंद और समाजवादी विपक्षी नेताओं को उनके व्यक्तिगत और वैचारिक मतभेदों को समाप्त करने के लिए विवष कर दिया।53
4. जनता पार्टी के आन्तरिक मतभेद व जनता सरकार का पतन:-
जिन परिस्थितियों में जनता पार्टी का गठन हुआ तथा उनमें
वैचारिक मतभेद होना कोई अस्वाभाविक नहीं था। किसी भी ऐसी पार्टी के लिए स्वस्थ परम्परा स्थापित करने का एकमात्र रास्ता मतभेद है, जो एक आकस्मिक व ान्तिकारी परिवर्तन से पैदा हुई, जो वैचारिक संघर्ष से ही एक सामूहिक व आर्थिक आधार तैयार हो सकता था, जो जनता पार्टी को एक षक्तिषाली विकल्प के रूप में विकसित करता। मगर इसके इस प्रकार के विकास को नैतिक जोड़-तोड़ तक समिति का गठन कर लिया गया। प्रारम्भ में जनता पार्टी षासित राज्यों में सत्ता का बटं वारा, उनके आपसी सबं ध्ं ाो ं मे ं अवष्यभावी कटुता, देसाई-चरण सिहं विवाद, चरण सिंह और राजनारायण का मंत्रिमण्डल से निष्कासन, मध्यस्थता का चलना, बन्द हाने ा, फिर चलना, किसान रैली की धमकियाँ और प्रदर्षन नय-े नय े समझौत-े फाॅर्मलू ,े दोहरी सदस्यता, आर.एस.एस., ांति देसाई का मामला आदि विवादास्पद व आन्तरिक मतभेद मंे ग्रस्त जनता पार्टी ने राजनैतिक नाटक का हश्र हुआ जैसा कि आषंका थी। निःसंदेह ही राजनीतिक के इस घटना म में सत्ता राजनीति का चरित्र आरै पच्र लन अपन े पतन क े अन्तिम बिन्दअु ा ंे पर पहँुच गयी। 12 जनू , 1979 का े जनता पार्टी की राष्टश्ीय कार्यकारिणी एवं राजनारायण की सदस्यता समाप्त करने, 23 जून को उसके द्वारा दल त्याग करने तथा उत्तर प्रदेष में रामनरेष यादव, हरियाणा में देवीलाल व बिहार में कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हटने को विवष होने के उपरान्त जब 9 जुलाई 1979 को संसद का मानसून सत्र आरम्भ हुआ तो कांग्रेस संसदीय दल के निर्णयानुसार विपक्ष के नेता बाई.बी. चव्हाण ३कर्नाटक के कुछ कांगे्रस ३ई७ सदस्यों तथा त्याग पत्र करने से सी.एम. स्टीफन को विपक्ष के नेता पद से हटना पड़ा क्योंकि अब कांग्रेस विपक्षी दल बन गया था७ ने 10 जुलाई को मोरार जी सरकार के विरू अविष्वास प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया। 16 जुलाई 1979 को मतदान होना निष्चित किया गया किन्तु इसी बीच जनता पार्टी के कुल 49 सदस्यों द्वारा त्याग पत्र दे दिए जाने के कारण लोकसभा मे ं 11 जुलाई को भी जनता सरकार अल्प मत में आ गई। 12 जुलाई को स्वास्थ्य मंत्री श्री रविराय, 13 जुलाई को पेटशेलियम और रसायनमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा, 14 जुलाई को इस्पात मंत्री श्री बीज ू पटनायक व 15 जुलाई का े उद्यागे मत्रं ी जाॅर्ज फर्नाडिष व पर्यटन मत्रं ी पुरूषो ाम कौषिक द्वारा मंत्रिमण्डल व संसदीय दल से त्याग पत्र दे दिये जाने पर मोरारजी देसाई ने 15 जुलाई 1979 की षाम को अपनी सरकार का त्याग-पत्र देते हुए पुनः सरकार बनाने का दावा भी पेष किया।
जनता पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रषेखर ने संकट के समय पार्टी छोड़कर जाने वाले की निंदा की, उन्हांेने कहा कि इन लोगों ने ऐसे समय पार्टी छोड़ी है जब सरकार अविष्वास प्रस्ताव का सामना कर रही थी। जयप्रकाष नारायण जिन्होंने 28 महीने की जनता पार्टी की सरकार को पिता समान स्नेह दिया, ने भी मोरारजी देसाई के त्यागपत्र पर गहरा दुःख प्रकट किया। जनता पार्टी से निकल कर आये सासं दा ंे स े बनी जनता पार्टी ३एस७ क े नते ा राजनारायण न े नई सरकार बनान े क े लिए दावा पेष किया। लोकसभा मे ं उसका दल उसका सबसे बडा़ दल है। सन् 1977 के चुनाव परिणामों के पष्चात, केन्द्र में प्रथम बार गैर कांग्रेसी सरकार, जनता सरकार उन दिनों नौ विधानसभाओं को भंग करने का निर्णय लिया। जिन राज्यों में मार्च के चुनावों में जनता ने कांग्रेस को बुरी तरह पराजित कर दिया था किन्तु कार्यवाहक राष्टश्पति जत्ती ने मंत्रिपरिषद की सलाह को तुरन्त मानने में झिझक दिखाई और अटक बतायी। उसके कारण ऐसा लगा कि देष में सर्वथा एक नये प्रकार का राजनीतिक संकट उपस्थित हो गया है। यह एक ऐसा मुद्दा था जिसके विपक्ष में देष का जनमत, सर्वोच्च न्यायालय का अनियत और संवैधानिक संहितायें असंदिग्ध और निर्विवाद थी और मंत्रिपरिषद ने सर्वानुमति से निष्पक्ष किया था जो राष्टश्पति के लिए सामान्यता मान्य था और 42वें संविधान संषोधन के अनुसार अनिवार्य रूप से बन्धनकारी था। 28 महीने की जनता पार्टी की सरकार यद्यपि फूट के कारण लोकसभा में अल्प मत में आ गयी और कोई भी अन्य दल अकेला वैकल्पिक सरकार का निर्माण करने की स्थिति में नहीं था। पहला राजनैतिक संकट 15 जुलाई 1979 को उत्पन्न हुआ जब भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई अपने मंत्रिमण्डल का त्यागपत्र दते हुए भी जनता पार्टी के संसदीय नेता पद पर बने रहे और उन्होंने राष्टश्पति से कहा कि अभी भी जनता संसदीय नेता दल के लिए लोकसभा में समान विचारधारा दलों का पर्यटन जुटा पाना ज्यादा आसान है तथा इस बात का दावा किया कि लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी का नेता होने के कारण इन्हें दुबारा सरकार निर्माण में निमंत्रण दिया जाना चाहिए किन्तु राष्टश्पति ने उसके दावे को स्वीकार नहीं किया। ३दष्ष्टव्य है कि सर आइवर जंैनिग्स ने अपनी रचना ‘केबिनेट गर्वनमेंट’ में यह विचार व्यक्त किया है कि सरकार आन्तरिक फूट के कारण त्याग-पत्र देती है। दूसरे यह आवष्यक नहीं कि विपक्ष को सरकार निर्माण के लिए आमंत्रित किया जाय।े ७
उन्होंने पहले विपक्ष को नेता यषवन्त राव चाव्हण को अपने 75
सदस्यों के विरू अविष्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए राष्टश्ीय र्क ाव्य निर्वाह का दावा किया था किन्तु चव्हाण ने सरकार में अपने असमर्थता व्यक्त की परन्तु साथ मंे उन्होंने जनता ३एस७ के नेता चरण सिंह को समर्थन देने की बात भी कही। राष्टश्पति ने भी देसाई और चरण सिंह दोनों को नई सरकार बनाने की संभावनाओं का पता लगन े क े लिए एक साथ निमत्रं ण दते े हुए दाने ा ंे का े समर्थका ंे की सूिचयाँ पष्े ा करने का आदेष दिया।54 निमंत्रण प्राप्त दोनों दल जनता पार्टी व जनता पार्टी ३एस७ अपनी संख्या षक्ति बढ़ाने तथा सरकार बनाने में अपने दावों की संख्या से पुष्टि करने में लग गये। राजनीतिक गठबंधन और सौदेबाजी का मानो कोहराम ही मच गया। कल तक की कट्टर राजनीतिक षत्रुताए ंे नई मैत्री सबं ध्ं ाा ंे म ंे
स्पष्ट है कि जिन परिस्थितियों एवं आधारों पर चरण सिंह पदासीन हुए, उनकी सरकार की अस्थिरता के संदेह उत्पन्न करने में काफी थे। निष्चय ही यह आषंका स्वाभाविक थी कि जिन विभिन्न दलों व व्यक्तिगत दलों ने उनके समर्थन दिया वे सब इनका मूल्य वसूल करेगें। जहाँ तक चरण सिंह का प्रष्न है, निष्चय ही वे प्रधानमंत्री पद पर बैठने की अपनी जीवन की महत्वांकाक्षा को पूरी करने में अवष्य सफल हो गये। पर उनके कारण राजनीतिक व्यवस्था एवं स्वयं राजनीति के प्रति भी जन अविष्वास बढ़ने लगा और जैसी की आषंका थी। दूसरा, राजनैतिक संकट 20 अगस्त 1979 को उत्पन्न हुआ जब चरण सिंह लोकसभा का विष्वास प्राप्त करने के स्थान पर त्याग पत्र दे दिया और राष्टश्पति को लोकसभा भंग करने तथा मध्यावधि चुनाव कराने की घोषणा की मंत्रणा की। सरकार के त्याग पत्र देने के लगभग एक घण्टे बाद विपक्ष के नेता जगजीवनराम ३जो कि मोरारजी देसाई द्वारा जनता पार्टी संसदीय दल के नेता पद से त्याग पद दे दिये जाने के बाद सर्वसम्मत से नेता चुन लिए गए थे७ राष्टश्पति से मिले और वैकल्पिक सरकार बनाने का अपना दावा पेष किया। उन्होंने लोकसभा को भंग करने के प्रस्ताव का विरोध किया क्योंकि चरण सिंह को ऐसी सिफारिष करने का अधिकार नहीं था।55 राष्टश्पति रेड्डी ने 205 सदस्यों वाली सबसे बड़ी जनता पार्टी के नेता जगजीवनराम को सरकार बनाने का अवसर देने के बजाय एक ऐसे सषर्त मंत्रिमंडल के परामर्ष के आधार पर लोकसभा को 22 अगस्त 1979 को भंग कर दिया तथा दिसम्बर में मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी, जो आलोचकों के अनुसार त्याग-पत्र देने के कारण मंत्रिमण्डल कहलाने योग्य नहीं था। राष्टश्पति ने चरणसिंह को चुनाव सम्पन्न होने तक कामचला¯ सरकार का प्रधानमंत्री बने रहने के लिए भी आदेष दिये।56
5. कांग्रेस व्यवस्था का पतन - एक विष्लेषण:-
कांग्रेस ३ई७ का जन्म जयप्रकाष नारायण ने सन् 1974 मंे युवा वर्ग के आन्दोलन को नेतष्त्व देकर तानाषाही और भ्रष्टाचार के विरू अभियान षुरू किया था। जब उन्होंने भ्रष्टाचार को राजनीतिक जीवन में ¯पर से लेकर नीचे तक व्याप्त बताया तो ¯पर के वर्गों ने इसे एक चिर-परिचित आरोप समझकर तिरस्कारपूर्वक टाल दिया। समीक्षको ं के अनुसार सन् 1977 के चुनावो ं मे ं 30 वर्ष के कागं ्रेस राज का व इसमें उत्पन्न हुई। ‘कांग्रेस व्यवस्था’ को एक झटके से हटाकर करोड़ों निरक्षर भारतीयों ने बताया कि न तानाषाही को बर्दाष्त करेंगे न भ्रष्टाचार को। उनके अनुसार यह घटना भारतीय जनता की अपनी स्वतत्रं पति का बहुत बडा़ प्रमाण है। 19 महीने के दमन के विरू इसी जनता ने दलों को एक होने और कांग्रेस का विकल्प देने को बाध्य किया। वे एक हुये क्योंकि उन्होंने वक्त का तकाजा पहचाना लेकिन अभी भी उन्हें जनता की आकांक्षाऐं पूरी तरह समझना बाकी था।
मार्च 1977 के संसदीय चुनावों व जून 1977 के 10 विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद की परिस्थितियों के संदर्भ मे कांग्रेस में आन्तरिक संकट उभरने लगा। पार्टी में सामूहिक नेतष्त्व की व्यवस्था, फिर अभिभाचन व देवराज अर्स के कर्नाटक मुद्द े और अन्ततागे त्वा अध्यक्ष पद क े मामल े पर अध्यक्ष ब्रªानदं रडे ्डी ३जो देवकान्त बरूआ के पदच्युत एवं अन्तरिम अध्यक्ष स्वर्ण सिंह के हटने पर इन्दिरा गाँधी के भी समर्थन से महासमिति द्वारा चुनाव में सिार्थ षंकर राय व डाॅ. कर्ण सिंह को हराकर विजयी हुये थे७
इन्दिरा गाँधी के बीच हुए मतभेदों के फलस्वरूप कांग्रेस में दूसरी बार विभाजन हो गया। कांग्रेस पार्टी को मजबूत बनाने के नाम पर एक व दो जनवरी 1978 के चुनाव सम्पन्न हुये। सम्मेलन ने इंदिरा गांधी को अध्यक्ष एवं इनके नेतष्त्व वाली कांग्रेस को कांग्रेस ३ई७ के नाम से असली भारतीय राष्टश्ीय कांग्रेस घोषित किया।58
6. कांग्रेस एस का जन्म:-
चिकमंगलूर कर्नाटक विजय के बाद इन्दिरा गांधी एवं कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स के बीच मतभेद उभरने लगे जिनकी परिणिति 25 जून 1979 को हुई जब देवराज अर्स ने कांग्रेस३ई७ से नाता तोड़कर कर्नाटक कांग्रेस के नाम से एक अलग दल की स्थापना कर ली।59 इससे पूर्व कांग्रेस३ई७ ने उन्हें 6 वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया था। राज्य के अधिकतर कांग्रेस३ई७ विधायक देवराज अर्स के साथ रहे। इस प्रकार कांग्रेस का एक और विभाजन हो गया। बाद में रेड्डी, चाव्हण, स्वर्ण सिंह वाली कांग्रेस तथा कर्नाटक कांग्रेस का विलय हो गया जिसके अध्यक्ष दवे राज अर्स बनाय े गय।े इसका े बाद म ंे कागं ्रसे ३एस७ नाम दिया गया, जिसक े अध्यक्ष
षरद पंवार बनाये गये।60
7. लोकतंत्रीय कांग्रेस ३कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी७:-
2 फरवरी 1977 को जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, नन्दिनीसतपथी तथा अनेक कांग्रेसी नेताओं ने दल में आन्तरिक लोकतंत्र के हनन का आरोप लगाते हुए कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और अपनी अलग लोकतंत्री कांग्रेस ३कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी७ के निर्माण की घोषणा की। यह नया दल बाबू जगजीवन राम की अध्यक्षता में स्थापित हुआ। 5 मार्च 1977 का इसका जनता पार्टी में औपचारिक तौर पर विलय हो गया, पर इसने तत्कालीन राजनीति में अत्यन्त ही महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित की और जनता पार्टी के चुनाव चिन्ह ‘‘च हलधर’’ से चुनाव लड़ा। बहुगुणा और श्रीमती सतपथी को लोकतंत्री कांग्रेस का महासचिव बनाया गया। लोकतंत्री कांग्रेस के गठन का मुख्य उद्देष्य भारतीय राजनीति की सर्वधिकारवादी और सर्वसत्तावादी प्रवष्तियों पर अंकुष लगाना घोषित किया गया। 21 फरवरी को लोकतंत्र कांग्रेस के महामंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा ने अपना घोषणा पत्र जारी किया जिसमें लगभग वे ही बातें थी जो जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में थी।61
8. लोकदल का निर्माण:-
जुलाई 1979 में जनता पार्टी के बहुमत से सदस्यों ने दल छोड़कर राजनारायण की अध्यक्षता में एक नया दल जनता ३एस७ अर्थात् सेक्यूलर अर्थात् धर्मनिरपेक्ष का गठन किया था। इसके नेता चैधरी चरण सिंह ने 29 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री पद की षपथ ली और कांगे्रस ३संगठन७ स ाा का एक मुख्य भागीदार बना। 26 सितम्बर 1979 को जनता ३एस७ सोषलिस्ट पार्टी तथा उड़ीसा की जनता पार्टी को मिलाकर नई दिल्ली में एक राजनीतिक सम्मेलन में एक नई पार्टी ‘लोकदल’ के गठन की घोषणा की गयी। प्रधानमंत्री चरण सिंह लोकदल के प्रथम अध्यक्ष और जनता३एस७ के अध्यक्ष राजनारायण सर्वसम्मति से उसके कार्यकारी अध् यक्ष चुने गये। केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा की कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी इन नई पार्टी में षामिल नहीं हुई। कांग्रेस ३संगठन७ का भी अपना अलग अस्तित्व बना रहा। इस बात के प्रयत्न चलते रहे कि कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी लोकदल में षामिल हो जाये, लेकिन हुआ यह कि प्रधानमंत्री चरण सिंह की माँग पर 19 अक्टूबर 1979 की बहुगुणा ने केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से इस्तीफा दे दिया। बहुगुणा के चरण सिंह सरकार से निकल जाने से चुनाव के पूर्व की राजनीतिक स्थिति अनिष्चित और उलझनपूर्ण हो गई। नवगठित लोकदल को आघात पहुँचा। नवगठित लोकदल ने गांधीवादी तरीकों से ग्रामीण बंैकों के आर्थिक उार के लिए बुनियादी परिवर्तन करने का आष्वासन दिया। उल्लेखनीय है कि लोकदल के रूप में पुराना भालोद ३भारतीय लोकदल७ भी पुनर्जीवित हुआ। सन् 1971 के आम चुनावों में विपक्षी मोर्चे की भारी पराजय के बाद भारतीय लोकदल का निर्माण चरण सिंह के भारतीय ांतिदल, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोषलिस्ट पार्टी का राजनारायण गुट तथा उड़ीसा में भी बीजू पटनायक के राजनारायण गुट को मिलाकर किया गया था। लोकदल में भी सभी राजनीतिक तत्व षामिल हुए जो इतना अन्तर जरूर है कि संसोपा का जो राजनारायण विरोधी गुट उस समय भारतीय लोकतंत्र में सम्मिलित नहीं हुआ था वह भी इस बार लोकदल के झण्डे के नीचे एकत्र हो गया।
2 नवम्बर 1979 का े चनु ाव आयागे न े अपन े इस फसै ल म ंेलाके दल जनताक े रूप म ंे मान्यता प्रदान की तथा चुनाव चिन्ह ३खते जाते त े हुए किसान७ का े बरकरार रखा। चुनाव आयोग के इस निर्णय के संदर्भ में लोकदल की लोकसभा का आगामी मध्यावधि चुनाव जनता ३एस७ के नाम और उसके चुनाव चिन्ह पर लड़ना पड़ेगा। मुख्य चुनाव आयुक्त ने जनता पार्टी और कांग्रेस३ई७ की इस दलील को स्वीकार नहीं किया कि चूंकि हल जोतता किसान उनके चुनाव चिन्ह से मेल खाता है।
इसलिए उक्त चुनाव चिन्ह जनता ३एस७ को नई दिषा दिया जाना चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त षकधर ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि जनता पार्टी और कांग्रेस३ई७ की आप िायों को खारिज कर दिया गया है क्योंकि वे यह नहीं सि कर सकी कि जनता पार्टी ३एस७ समाप्त हो गई है और लोकदल नाम की नई पार्टी बन गई है।
जनता३एस७ ने कहा कि वह कानून के अन्तर्गत वांछित सभी आवष्यक बातों की पूर्ति करेगी इसलिए आयेाग को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि चुनाव चिन्ह आदेष के क्षेत्र से बाहर पार्टिया क्या करती हंै। चुनाव आयोग का क्षेत्र सिर्फ चुनाव चिन्ह आदेष तक समिति है। आदेष में यह भी नहीं माना गया है कि उक्त चुनाव चिन्ह जनता पार्टी के चुनाव चिन्ह ३हलधर७ अथवा मान्यता प्राप्त दूसरे राजनीतिक दल के एक गुट को मिले ‘‘बैलांे की गाड़ी’’ के चुनाव चिन्ह से मिलता जुलता है इसलिए भ्रम पैदा कर सकता है।62
6 नवम्बर 1979 को प्रकाषित समाचारों के अनुसार इस दल के चुनाव घोषणा पत्र में पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों जिसमें अखिल भारतीय सेवायें भी षामिल थीं। 25 प्रतिषत आरक्षण देने की बात कही थी। घोषणा-पत्र जिसे लोकदल के नेता अन्तिम रूप दे रहे थे। भूमि सुधारों के लिए संविधान के 7वें अनुच्छेद में संषोधन करने का वादा किया गया जिसमें भूमि कानूनों को पूरी तरह लागू करने के मार्ग की बाधाओं को दूर किया जा सके। 34 पष्ष्ठों के घोषण पत्र में कहा गया है कि लोकदल में अन्त्योदय कार्य म को प्रोत्साहन देना तथा लड़कियों को बढ़ावा देने के लिए विषेष ध्यान दिया जायेगा। कष्षक, मजदूरों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के कानून को तत्परता से लागू किया जायेगा। घोषणा पत्र के प्रारूप में लघु तथा सीमान्त किसानों को सस्ते दर पर बंैकों से ऋण उपलब्ध कराने का वादा किया गया था। इसके अतिरिक्त स्वरोजगार में लगे लोगों को कम ब्याज पर वाणिज्यिक ऋण दिलाने का भी वादा किया गया।
घोषणा पत्र में गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विषमता को समाप्त करने का संकल्प दोहराया गया था। घोषणा पत्र में कहा गया था कि सार्वजनिक क्षेत्र में लगे कारखानों की व्यवस्था को चुस्त, दुरूस्त किया जायेगा तथा बेरोजगारी समाप्त करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक पूँजी नियोजन करने की बात कही गयी थी और कष्षि तथा औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्रों में व्याप्त असमानता को समाप्त करने का वादा किया था। कष्षि को उद्योग मानकर सिंचाई पर अधिक धनराषि व्यय करने की बात कही गयी थी। घोषणा पत्र के प्रारूप में हरिजन तथा आदिवासी, महिला तथा अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए उन्हें विषेष अवसर देने का वादा किया गया था। उन्हें अपने विकास के लिए अलग षैक्षणिक संस्थाऐं खोलने तथा प्रषासन में स्वायत्ता का उपयोग करने के अधिकार प्रदान करने का भी वादा किया गया था। कानून एवं व्यवस्था में सुधार के लिए प्रषासनिक 63
9. भाजपा के निर्माण की परिस्थितियाँ:-
25 जून 1975 को पूरे देष पर आपातकाल भारतीय संविधान की धारा 352 के अन्तर्गत ‘आंतरिक आपातकाल’ के रूप में थोपा गया। देष के सभी बड़े नेता
या तो नजरबंद कर दिये गये अथवा जेलों में डाल दिये गये। समाचार-पत्रों पर ‘सेंसर’ लगा दिया गया। राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ समेत अनेक संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हजारों कार्यकर्ताओं को मीसा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। देष में लोकतंत्र का खतरा मंडराने लगा। जनसंघर्ष को भी तेज किया जाने लगा भूमिगत गतिविधियाँ तेज हो गईं। 8 जनवरी 1977 को लोकसभा भंग कर दी तथा नये जनादेष प्राप्त करने की इच्छा व्य की। जयप्रकाष नारायण के आव्हान पर एक नया राष्टश्ीय दल ‘जनता पार्टी’ का गठन किया गया विपक्षी दल एक मंच से चुनाव लड़े तथा चुनाव में कम समय देने के कारण ‘जनता पार्टी’ का गठन पूरी तरह से राजनीतिक दल के रूप में नहीं हो पाया। आम चुनावों में कांग्रेस की करारी हार हुई तथा जनता पार्टी एवं विपक्षी पार्टियाँ भारी बहुमत के साथ स ाा में आईं। पूर्व घोषणा के अनुसार 1 मई 1977 को भारतीय जनसंघ ने करीब 5000 प्रतिनिधियों के एक अधिवेषन में अपना विलय जनता पार्टी में कर दिया। जनता पार्टी का प्रयोग अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। दो ढ़ाई वर्षों से भी आन्तरिक अंतर्विरोध स्तर पर आने लगा। कांग्रेस ने भी जनता पार्टी को तोड़ने में राजनीतिक दांव-पेंच खेलने से परहेज नहीं किया। भारतीय जनसंघ से जनता पार्टी में आये सदस्यों को अलग-थलग करने की दोहरी सदस्यता का मामला उठाया गया। राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ से संबंध रखने पर आप िायाँ उठाई जाने लगी। यह कहा गया कि जनता पार्टी के सदस्य राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य नहीं बन सकते। 4 अप्रेल 1980 को जनता पार्टी की राष्टश्ीय कार्यसमिति ने अपने सदस्यों के राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य होने पर प्रतिबंध लगा दिया। पूर्व के भारतीय जनसंघ के संब सदस्यों ने इसका विरोध किया और जनता पार्टी से अलग होकर 6 अप्रेल 1980 को एक नया संगठन भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई।
10. भारतीय जनता पाटी के विचार एवं दर्षन:-
भारतीय जनता पार्टी एक सुदष्ढ़, सषक्त, समष् समर्थ एवं स्वावलम्बी भारत के निर्माण के लिए निरन्तर स िय है। भारतीय जनता पार्टी की नीति अनेक बातों के संबंध में पुराने जनसंघ दल से मिलती हुई है और इस आधार पर सामान्यतया यह समझा जाता है कि भारतीय जनता पार्टी केन्द्र-राज्य संबंधों में केन्द्रीय सरकार को आर्थिक षक्तिषाली बनाने के पक्ष में है। इस विचार की इस तथ्य से पुष्टि होती है कि 6 मई 1980 को जारी किये गये आधारभूत नीति का एक अन्य पक्ष यह भी है कि यह दल राज्य सरकारों पर केन्द्र पर अनुचित नियंत्रण का विरोध करता है। अटल बिहारी वाजपेयी के षब्दों में ‘‘वह एक मजबूत केन्द्र के पक्ष में है जो देष के अनुचित नियंत्रण का विरोध करता रहा है। अटल बिहारी ने कहा कि उसे राज्यों के संविधान प्रद ा अधिकारों के हनन का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। राज्यों को और अधिक वि ाीय अधिकार दिया जाना एक उचित बात है ताकि वे जनता के प्रति अपने बढ़ते हुए दायित्य को पूरा कर सकें।64
अटल बिहारी वाजपेयी को इस नवीन दल का अध्यक्ष और लालकष्ष्ण आडवाणी, सिकन्दर बख्त तथा मुरली मनोहर जोषी को दल का महासचिव नियुक्त किया गया। भूतपूर्व जनसंघ दल से सम्बन्धित जनता पार्टी सदस्य तो इसमें षामिल हुए ही इसके साथ श्री सिकन्दर बख्त, राम जेठमलानी, षान्तिभूषण और के.एसहेगड़े जैसे व्यक्ति जिनका जनसंघ या राष्टश्ीय स्वयंसेवक से कोई संबंध नहीं रहा भी इस पार्टी में षामिल हुए। पार्टी ने जयप्रकाष नारायण की सम्पूर्ण ान्ति तथा गाँधीवादी अर्थदष्ष्टि को अपना आदर्ष बनाया और 6 मई 1980 को जारी किये गये अपने आधारभूत नीति र्क ाव्य में पार्टी के 5 निष्ठाओं से प्रतिब किया। ये निष्ठाऐं- राष्टवश् ाद आरै राष्टीश्य समन्वय, लाके तत्रं , पभ््राावकारी धर्मिनरपक्ष्े ाता, गाध्ँाीवादी समाजवाद और सिान्तों पर आधारित साफ सुथरी राजनीति नीति वाक्य में दोहरी सदस्यता के सबं ध्ं ा मे ं कहा गया है कि जो सामाजिक व सास्ं कष्तिक सगं ठन राजनीति गतिविधि में संलग्न नहीं है, उनके सदस्यों का भारतीय जनता पार्टी स्वागत करती है। जब तक वे पार्टी की विचारधारा और कार्य म में आस्था रखेगें, उन संगठनों की सदस्यता को पार्टी की सदस्यता के प्रतिकूल नहीं समझा जायेगा। वक्तव्य में देष की मलू भतू समस्याओ ं के सबं ध्ं ा राष्टश्ीय सहमति को अपनाने की आवष्यकता पर बल दिया गया। पार्टी ने बड़े राज्यों के स्थान पर नियोजित विकास और कुषल प्रषासन की दष्ष्टि से छोटे राज्यों की स्थापना की आवष्यकता पर बल दिया लेकिन साथ ही घोषणा की गयी कि इसके बाद राजनीतिक गतिविधियों और चुनाव का मुद्दा नहीं बनायेगी।65
11. भारतीय जनता पार्टी का सामाजिक आधार और राजनीतिक उपलब्धि-
भारतीय जनता पार्टी में राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ में लोगों का आधिक्य है। पार्टी को छोटे व्यापारियों, षहरी मध्यम वर्ग, युवकों तथा बुजिीवियों का समर्थन प्राप्त है। लोकसभा के सन् 1984 के चुनावों के अवसर पर भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में वायदा किया कि वह कोई नया टैक्स नहीं लगायेगी, आयकर की सीमा बढ़ाकर 30,000 रू. कर देगी। चुंगी और बि ीकर को समाप्त कर देगी, देष की अखण्डता और हर नागरिक की सुरक्षा का करेगी। आकाषवाणी और दूरदर्षन को पूर्ण स्वायत्ता देने का भी आष्वासन दिया गया। दल ने नैतिक प्रभुत्व को बहाल करने, धर्म निरपेक्षता की सकारात्मक विचारधारा को आगे बढ़ाने, व्यापक चुनाव सुधार करने, कष्षि और छोटे उद्योगों को उच्च प्राथमिकता देने का भी वायदा किया।66 भारतीय जनता पार्टी ने 221 स्थानों पर प्रत्याषी खड़े किये और मात्र 2 प्रत्याषी की आठवीं लोकसभा के लिए चुने गये। उसे 7.4 प्रतिषत मत प्राप्त हुये।67
12. भारतीय जनता पार्टी का कार्य म:-
सन ् 1952 स े 1977 तक क े चनु ावा ंेम ंे1977 स े 1980 तक कन्े ीय सरकार
में भागीदारों के अनुभवों के आधार पर जनसंघ नेतष्त्व में निर्मित भारतीय जनता पार्टी को राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ की संकीर्णता और समिति सांस्कष्ति आधार से ¯पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। जनता काल मंे जनसंघ के बार-बार यह दोहराने के बावजूद कि उसके सदस्य साम्प्रदायिकता से किसी प्रकार जुड़े हुए नहीं हैं और विषेष रूप से आपातकालीन स्थिति के अनुभव के बाद वह लोकतंत्र और ध् ार्मनिरपेक्षता के प्रति पूरी तरह कटिब है। जनता पार्टी के कुछ समय अन्य घटकों, विषेष रूप से समाजवादियों ने, उनमें परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। वास्तव में जनसंघ के सदस्यों, विषेष रूप से उसके राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ के साथ संबंधों के प्रति जनता पार्टी के अन्य सदस्यों द्वारा सार्वजनिक आलोचना जनता पार्टी के विघटन और असफलता का एक प्रमुख कारण थी। विघटन के बाद भारतीय जनता पार्टी ने धर्मनिरपेक्षता, संस्कष्ति के स्थान पर आर्थिक और राजनीतिक प्रष्नों को प्राथमिकता तथा सभी वर्गों और क्षेत्रों के लिए अपनी चिंता को अधिक प्रचारित किया। अपने इस रूप को प्रस्तुत करने के लिए दल ने अपने कार्य म को गाँधीवादी समाजवादी का नाम देकर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया।68
13. दलों की आन्तरिक गुटबंदी और दल विभाजन:-
भारत की दल प्रणाली की एक प्रमुख विषेषता विभिन्न दलों की आन्तरिक गुटबंदी है। लगभग सभी राजनीतिक दलों में जाति क्षेत्र या अन्य हितों के आधार पर छोटे-छोटे गुट पाये जाते हंै। इनमें एक गुट वह होता है जो सत्ता में है या प्रभावी है और षेष असंतुष्ट गुट होते हंै। इन गुटों में पारस्परिक मतभेद इस सीमा तक पाया जाता है कि प्रायः चुनाव में अपने ही दल उम्मीदवार को स्वयं उसी दल के दूसरे गुट हराने का भरसक प्रयास करते हंै। प्रत्येक गुट के अलग-अलग नेता होते हंै जिनके नाम से बस गुट बनता है। दल की आन्तरिक गुटबंदी का दुष्प्रभाव स्वयं दल के निकाय, उसकी प्रभावषाली छवि और चुनाव में उसके निष्पादन पर पड़ता है। इस प्रकार की गुटबंदी के कारण, दलों में अनुषासनहीनता तेजी से बढ़ रही है जो राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है और दल विभाजन तथा दल परिवर्ततन की ओर ले जाती है।
सन ् 1977 क े बाद दल परिवतर्न न े एक नया रूप धारण किया। अभी तक जो भी दल परिवर्तन हुए थे। वे किसी एक या कुछ विधायकों द्वारा भी किए गए थे लेकिन सन् 1977 और 1980 में सम्पूर्ण सरकार द्वारा दल परिवर्तन की दो घटनाऐं हुई जो अत्यधिक आष्चर्यजनक थी। सन् 1977 में जिस समय केन्द्र में ‘जनता पार्टी’ ने सरकार का निर्माण किया, सिक्किम सरकार ने अपनी निष्ठा ‘जनता पार्टी’ के पक्ष म ें बदलकर स्वय ं को जनता सरकार होने की घोषणा कर दी। सन् 1980 म ें जब फिर केद्र में कांग्रेस ३ई७ की सरकार आयी तो कांग्रेस दल के प्रति अपनी निष्ठा हस्तान्तरित करने की घोषणा की। इस प्रकार जनता सरकार पुनः कांग्रेस सरकार में बदल गई। यह भी आष्चर्यजनक तथ्य है कि इन दोनों ही अवसरों पर का लेंडूप मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे।69
14. दल-बदल के कारण:-
अनेक राज्यों में कांग्रेस और विपक्ष के सदस्यों की संख्या इतनी अधिक असंतुलित हो गयी। स ाारूढ़ कांग्रेस दल में फूट लम्बे समय से चली आ रही थी। फरवरी 1969 के चैथे आम चुनावों के बाद भारतीय राजनीति पर कांग्रेस दल का एकाधिकार समाप्त हो गया तो दल के असंतुष्ट सदस्यों को यह अवसर हाथ लगा कि वे दूसरे दलों से मिलकर मंत्रिपद अथवा अन्य वांछित लाभ प्राप्त करें।
कांग्रेस तथा विपक्ष के सदस्यों की संख्या असंतुलित होने से एक अथवा दो विधायकों को इधर-उधर मिलने मात्र से सरकार का पतन और निर्माण संभव हो गया। ऐसी स्थिति में प्रत्येक विधायक स्वयं मंत्रिमण्डल का सूत्रधार समझने लगा। उसक े सामन े स्वार्थपूिर्त क े रास्त े खुल गय।े अपन े दल-बदल क े लिए विधायक ¯ँची से ¯ँची ‘कीमत’ मांगने लगे। इस प्रकार राजनीतिक निष्ठा और सिान्त व्यापार की वस्तु बन गया। जब कभी किसी वरिष्ठ अथवा अन्य सदस्य को चुनाव लड़ने के लिए अपने दल से टिकट न मिला तो उसने दल-बदल का आश्रय लिया। मार्च 1977 के चुनवों में मतदाता ने दल बदलुआंे के प्रति अपना आ ोष प्रकट किया और जनता पार्टी ने भी इस संबंध में कुछ मर्यादाऐं रखी किन्तु व्यक्ति मतभेदों और महत्वकांक्षाओं ने दल बदल का सिलसिला फिर तेज कर दिया। जनता पार्टी भी दल-बदल पर रोक लगाने संबंधी अधिनियम नहीं बना सकी। जनता पार्टी मे भी अनुषासनहीनता एव ं दल-बदल का ऐसा अभियान चला कि आखिर जनता पार्टी को सत्ताच्युत होना पड़ा।
दल-बदल क े लिए काफी हद तक आपातकाल जिम्मदे ार ह।ै आपातकाल के कारण भी जनता पार्टी सत्ता में आयी और बाद में उसका पतन हुआ। आपातकाल में जनता ने इतनी भीषण यातनाऐं सहीं की उनका पार्टी और नेताओं से भरोसा उठ गया।
15. राष्टश्ीय लोकतांत्रिक गठबंधन का गठन:-
लगभग 3 वर्ष बाद विभिन्न स्तरों पर विचार विमर्ष होने के बाद अन्ततः 8 अगस्त 1983 का े भारतीय जनता पार्टी एव ं लाके दल न े मिलकर राष्टश्ीय लाके तांित्रक गठबंधन का गठन विपक्षी दलों के संयुक्त मोर्चे बनने का मार्ग प्रषस्त कर दिया। दोनों दलों का मिलन एक सीमित उद्देष्य एवं कार्य म के आधार पर हुआ था। यह दलों का मिलनभर है। विलय नही है। अतः दोनों दलों का पष्थ्क अस्तित्व व पहचान यथावत बनी रहेगी। विरोधी दलों के विलय से एकता स्थापित होना संभव नहीं है अतः दूसरा विकल्प यही रह जाता है कि वे अपने पष्थ्क अस्तित्व को बनाए रखते हुए ‘‘संयुक्त मोर्चा’ बना कर मैदान में उतरें। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी पार्टी की राष्टश्ीय कार्यकारिणी को संयुक्त मोर्च के प्रस्ताव पर सहमत होने को राजी कर लिया जो पहले इस प्रस्ताव को मानने की मन स्थिति मे ं नही ं थी। इसके बाद उन्होनं े साम्यवादियांे और मुस्लिम लीग को छोड़कर अन्य सभी राजनीतिक दलों को इस बारे में लिखा। उन्होंने अपने पक्ष में लिखा ‘‘भारत आज एक बहुआयामी संकट से गुजर रहा है। कानून और व्यवस्था लड़खड़ा रही है। देष में गड़बड़ी है, संस्थान और मूल्य पराभूत होते जा रहे हंै। देष की एकता के लिए खतरा उपस्थित हो रहा ह।ै उन्हांेने साझे कार्य म के आधार पर एक मोर्चे गठित करने समेत चुनावी व्यवस्था का सुझाव दिया ताकि लोगों को संकट से आगाह किया जा सके और इस दष्ष्टि से सत्तारूढ़ दल के दायित्व को उसके दावों के खोखलेपन से उन्हें अवगत कराया जा सके। जगजीवनराम ने इस पत्र की प्राप्ति स्वीकार तक नहीं की जो उन्हें चरण सिंह के कहने पर भेजा गया था। एन.टी. रामाराव ने भी इस पत्र पर मात्र इतना कहने के अलावा और कोई अनुकूल प्रति िया नहीं दर्षायी कि वे इस पत्र को अपनी पार्टी तेलगूदेषम के समक्ष पेष करेगें। चन्द्रषेखर ने अस्पष्ट उत्तर भेजते हुए कहा, ‘‘आप मुझसे इस बात पर सहमत होगें कि केवल प्रस्ताव मात्र जे.पी. पर्याप्त नहीं है। सहयोग की भावना उसकी अपेक्षा कहीं अधिक जरूरी है। मुझे आषा है कि हम वातावरण बना सकेगें। श्रीमती मेनका गाँधी ने अपने उ ार में कहा ‘‘राष्टश्ीय मोर्चे का विचार तो अच्छा है किन्तु चुनावों के अलावा और किस आधार पर यह गठित होगा? और फिर चुनाव हो जाने और जीत जाने के बाद यह मोर्चा एक जुट कैसे रहेगा? विजयवाड़ा का सम्मेलन इस प्रकार मेरा पहला अनुभव था और मंै गलत हो सकती हूँ किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि वहाँ जो भी सुस्थापित दल थे उनमें से कोई भी सामान्य मुद्दों को छोड़कर और किसी बात पर मोर्चे में षामिल होगा। आष्चर्य की बात यह है कि लोकदल की एकमात्र पार्टी सामने आयी जिसने मोर्चे को स्वीकार कर उस पर अमल किया और इसके लिए भारतीय जनता पार्टी को बधाई दी थी।70
भारतीय जनता पार्टी व चरण सिंह के लोकदल के मिलन की बात जनता पार्टी की टूट के संदर्भ में भले ही आष्चर्य लगे, पर राजनीति में अवसर व हालत की बाध्यता ऐसी बनती है जैसी कुछ भी अप्रत्याषित नहीं रहता। दोहरी सदस्यता का नारा लगाकर चरण सिंह ने जनता पार्टी की पहल की थी और अब वे भाजपा के साथ संयुक्त मोर्चे में सबसे पहले आये। चरण सिंह के आने से संयुक्त मोर्चे के विचार को आकार व आधार मिला तथा अन्य दलों की इस दिषा में विचार करने का मार्ग प्रषस्त किया क्योंकि अब पुरानी झिझक व संकोच के 71
गठबंधन में षामिल दोनों पार्टीयाँ की एक समन्वय समिति गठित की गयी जिसके अध्यक्ष चरण सिंह तथा दोनों के संयुक्त संसदीय दल के अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी बनाये गये। जिसकी घोषणा 17 अक्टूबर 1983 को की गयी। इस प्रकार दोनों दलों ने संसद और विधानसभाओं में संयुक्त दल एवं एक नेता के नीचे काम करने का निष्चय किया तथा संसद के भीतर और बाहर के कार्यों के संचालन के लिए समन्वय समिति का निर्माण किया। यह गठबंधन यदि प्रमाणिकता से चलता है तो दोनों दलों को लाभ होगा। लोकदल का उत्तर भारत के गाँवों व विषेषतः किसानों मंे प्रभाव था। वही भाजपा मुख्यतः नगरों और व्यापारी व मध्यम वर्ग की संयुक्त षक्ति बनेगी जो उत्तर प्रदेष, बिहार, मध्य प्रदेष, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेष आदि राज्यों में कांग्रेस३ई७ के लिए चुनौती बन सकती है। चरण सिंह व लालकष्ष्ण आडवाणी मषः लोकसभा व राज्यसभा में गठबंधन के होगें।
16. संयुक्त मोर्चा:-
विपक्ष एकता की दष्ष्टि से भाजपा लोकदल गठबंधन ३एन.डी.ए.७ के प्रति
जनता पार्टी की पहली प्रति िया, विक्षोभकारी उसको लेकर जनता पार्टी के अतिरिक्त मतभदे उभरकर आन े लग।े जब राष्टश्ीय कार्यकारिणी क े सदस्य गौरीषकं र राय ने पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रषेखर ने ‘लोकतांित्रक गठबध्ं ान’ को कागं ्रेस३ई७ से अधिक खतरनाक बताये जाने वाले वक्तव्य की आलोचना करते हुए कहा कि उनका वक्तव्य विपक्षी दलों को एक जुट करने में पार्टी के अहमदाबाद प्रस्ताव की भावना के विरू है। वस्तुतः जनता पार्टी लोकतांत्रकि गठबंधन बन जाने से एक विचित्र दुविधा मंे आ गयी प्रतीत हुयी। विपक्षी दलों के बीच एकता स्थापित करने के प्रारम्भिक प्रयासों से चन्द्रषेखर स िय थे और चण्डीगढ़ सम्मेलन का आयोजन उन्हीं के प्रयासांे का परिणाम था। बस सफल नहीं हुआ। यह दूसरी बात है लेकिन भाजपा लोकदल के गठबंधन ने जनता पार्टी को इस दिषा में पहल का अवसर छीन लिया। चन्द्रषेखर के क्षोभ का कारण षायद यही था, तभी तो उन्होंने इस गठबंधन को विपक्षी एकता में सहायक होने के स्थान पर बाधक बताया इससे जो स्थिति बनी, उसमें जनता पार्टी क्या करे और किसके साथ ऐसा गठबंधन करे, यह प्रष्न टेढ़ा बन गया। अन्ततः चन्द्रषेखर के नेतष्त्व में देष की चार बड़ी गैर कम्यूनिष्ठ, विपक्षी पार्टियों द्वारा
4 सितम्बर 1983 को ‘संयुक्त मोर्चा’ के नाम से एक ओर गठबंधन बना लिया गया।72
इस मोर्चे में जनता पार्टी, कांग्रेस३एस७, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी
और राष्टश्ीय कांग्रेस षामिल हुयी। मोर्चे का गठन का निर्णय चारों पार्टियों के अध्यक्ष चन्द्रषेखर, षरद पंवार, हेमवतीनन्दन बहुगुणा और रत्तूभाई अड़ानी की बैठक में किया गया। राष्टश्ीय लाके तांित्रक मार्चे ेकी भांित इस मार्चे ेन े भी ससं द व विधानसभाआंे के भीतर व बाहर संयुक्त रूप से कार्य करने का निष्चय किया तथा अन्य लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष व प्रगतिषील दलों की एकता का प्रयास करने का संकल्प व्यक्त किया। मोर्चे के सूत्रों ने बताया कि मोर्चा कम्युनिष्ठ पार्टियों से किसी भी संभावित तालमेल के लिए भी दरवाजे खुले रखेगा और साथ ही क्षेत्रीय पार्टियों से भी सम्पर्क बनाये रखेगा। मोर्चे की भागीदार पार्टियों ने आर्थिक कार्य म संयुक्त मोर्चे के सचिव भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री व रूस में रहे भारत के राजदूत इन्द्रकुमार गुजराल बनाये गये। इस संयुक्त मोर्चाे में एक ओर दल - चन्द्रजीत यादव वाली ‘जनवादी पार्टी’ तथा भूतपूर्वक केन्द्रीय मंत्री मीर कासीम सितम्बर 1983 में कांग्रेस से त्याग पत्र देकर भी षामिल हो गया। इसी प्रकार 16 अक्टूबर 1983 को तमिलनाडू की गाँधी कामराज राष्टश्ीय कांग्रेस पार्टी जनता पार्टी में विलीन हो गयी। यह भी सयं ुक्त मोर्चो का स्वतः ही अगं बन गयी। नवम्बर 1983 म ें रिपब्लिक पार्टी ३खोपरगडे़ गुट७ के षामिल हो जाने से मोर्चे में षामिल दलों की संख्या 6 हो गयी। बहुगुणा को ‘‘मोर्चाे’’ के संसदीय दल ३समोसद७ का अध्यक्ष बनाया गया तथा मधु दण्डवते लोकसभा में व ए.जी. कुलकर्णी राज्यसभा में ‘समोसद’ के नेता रहेगें।
इस सयं ुक्त मार्चे ा े क े गठन स े विपक्षी राजनीति की वास्तविकता पुनः पुष्ट हो जाती है कि दल व नेता अपनी पष्थ्क पहचान त्यागने और एक राष्टश्ीय मोर्चे में षामिल होने की तैयार नहीं हंै। जनता पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रषेखर प्रारम्भ में सन् 1977 की ‘जनता भावना’ क े नाम पर जनता पार्टी म ंे दला ंे क े विलय क े प्रबल पक्षधर थे और अन्त तक वे प्रयासरत थे। पर हार मानकर उन्हें मोर्चे के विचार को स्वीकार करना पड़ा। भाजपा और लोकदल के गठबंधन ने जनता पार्टी व अन्य दलों को इस दिषा में प्रेरित किया।
प्रगतिषील दलों की एकता स्थापित करने के प्रयास का संयुक्त मोर्चो का संकेत कम्युनिष्ठ व अन्य वामपक्षीय दलों की ओर तथा क्षेत्रीय पार्टीयों में तले गदू ष्े ाम व नष्े ानल कां से आदि की आरे है। विपक्षी दला ंे क े एक स े अधिक मार्चे ाे का गठन विपक्षी राजनीति की यथार्थता और विवषता है और इस प्र िया से विपक्षी राजनीति को कितना बल मिलता है। यह आगे की बात है, पर गठबंधन व ‘मोर्चा’ बनने से विपक्षी दलों के बिखराव व टूट के स्थान पर संयुक्त होने की प्र िया व अवसर अवष्य बने हंै।
17. बैठक एवं विपक्ष एकता:-
भारतीय जनता पार्टी एवं लोकदल के राष्टश्ीय लोकतांत्रिक गठबंधन की समन्वय समिति ने आयोजित विपक्षी दलों की बैठक ३अक्टूबर 5 से 7, 1983७ में भाग लेने के देर से प्राप्त निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। ‘गठबंधन’ को पहले निमंत्रण नहीं दिया गया और आन्ध्र प्रदेष के मुख्यमंत्री रामाराव के जोर देने पर बाद में दिया गया। निमंत्रण अस्वीकार करने के कारणों का विवरण बैठक में संयोजक डाॅ. फारूक अब्दुल्ला को चरण सिंह व अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लिखे पत्रांे में दिया गया लेकिन जिस 73
इस प्रकार विजयवाड़ा बैठक में जो सभा बनी थी, वह आगे नहीं रही, दिल्ली बैठक में टूट सामने आ गयी थी और श्रीनगर में आगे बढ़ी। दिल्ली बैठक के बाद विपक्षी दलों के दो मोर्चे बने और इस प्रकार विजयवाड़ा में सभी विपक्षी दलांे का एक संयुक्त मोर्चो बनने की प्र िया टूट गयी तथा विपक्षीदलों के बीच आपसी मतभेद, ठहराव एवं विरोधाभाव तीव्रता के साथ उभरे और परिभाषित हुये।74
जनता पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रषेखर ने भाजपा व लोकदल के गठबंधन को कांग्रेस३ई७ से अधिक खतरनाक कह दिया। ३यद्यपि काफी समय बाद उन्होंने इस कथन का खण्डन कर दिया७ संयुक्त मोर्चे में षामिल बहुगुणा ने भाजपा को श्रीनगर की बैठक में आमंत्रित न करने का अभियान जारी रखा। कम्यूनिष्ठ ने भी ‘गठबंधन’ से कोई सरोकार न करने की घोषणा कर दी और श्रीनगर बैठक के संयोजक कष्मीर के मुख्यमंत्री डाॅ. फारूख अब्दुल्ला भी इसी विचार कर रहे और कांग्रेस३ई७ छोड़कर बाहर आये। मीर कासिम ने भी इस नीति का खुला समर्थन किया लेकिन दिल्ली की बैठक को बचाने मे ं जिस प्रकार रामाराव अन्तिम क्षण आगे आये। इस बार भी उन्हीं के कारण अन्ततः डाॅ. अब्दुल्ला ने भाजपा और लोकदल को निमंत्रण भेजा। इस परिप्रेक्ष्य में दिया गया निमंत्रण अस्वीकष्त होगा। ऐसी आषंका बन गयी थी। निमंत्रण की विधि व पष्ष्ठभूमि के अतिरिक्त श्रीनगर बैठक में मुख्य विचारणीय केन्द्र राज्य सम्बन्ध रखा इस विपक्ष को लेकर विपक्षी दलों में मतभेद रखा है और है जैसे क्षेत्रीय दल राज्यों के के लिए अधिकाधिक स्वायत्ता की मांग करते रहे हंै। भाजपा व लोकदल केन्द्र व राज्य दोनों के बीच सत्ताधिकार के संतुलन एवं मजबूत केन्द्र के पक्षधर रहे हंै। अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत कष्मीर की विषेष संवैधानिक हैसियत का भी भाजपा विरोध करती आयी है तथा ‘कष्मीर’ पुर्नवास विधेयक के लोकदल व भाजपा दोनों ही विरोधी हंै। श्रीनगर की बैठक में अकाली दल व मुस्लिम लीग भी षामिल थी। पंजाब के अकाली आंदोलन और आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव की मांग तथा पंजाब में हिंसा व आतंक के वातावरण को लेकर लोकतांत्रिक गठबंधन की नीति अकाली दल के विरू हंै जिसकी घोषणा चरण सिंह व वाजपेयी सभाओं में भी कर चुके हंै।75 भाजपा को साम्प्रदायिक बताकर बैठक में बाहर रखे जाने की बात की जाती है पर अकाली दल व मुस्लिम लीग जैसे प्रमाणित साम्प्रदायिक दलों को उत्साह व आग्रह के साथ बुलाया जाता है। इस प्रकार विजयवाड़ा की बैठक में विपक्षी दलों की जनता और श्रीनगर की बैठकों व उनके बाद पिछड़ गयी प्रतीत होती है।
इसके अतिरिक्त चरण सिंह व वाजपेयी ने डाॅ. फारूख को अपने पत्रों में लिखा कि ‘‘अगर विचारों पर सहमति के आधार पर दलों की बैठक में बुलाने का निर्णय लिया जाता है तो विपक्षी दलों की बैठक के विचार को समाप्त करना भी अच्छा होगा। तर्कसंगत कहा जा सकता है क्योंकि इस समय विपक्षी राजनीति के समक्ष मुख्य विचारणीय विषय ‘विवादाग्रस्त’ मुद्दों का विचार करना नहीं होकर आगामी चुनावों को दष्ष्टिगत रखने हुए चुनाव रणनीति तय करना तथा संगठित विरोध व वैकल्पिक षक्ति का संयोजन करना है और इसी का सामयिक महत्व है।
18. विपक्ष एकता, चुनाव रणनीति और स ाारूढ़ दल को चुनौती:-
इसी प्रकार विपक्षी दलों व नेताओं के विजयवाड़ा सम्मलेन से जो सागर
मंथर षुरू हुआ उससे विपक्षी दलों के दो मोर्चे उपजे हंै। राष्टश्ीय लोकतांत्रिक गठबंधन और संयुक्त मोर्चा साम्यवादी पार्टियों व अन्य वामपक्षीय दलों का वाम मोर्चा पहले से स्थापित है जो पष्चिम बंगाल व केरल में सफलतापूर्वक कार्यरत हंै। इस प्रकार अब विपक्षी दलों के तीन संयुक्त मोर्चे और कांग्रेस३ई७ सहित भारतीय दलीय राजनीति के चार विभिन्न समूह बन गये हंै।
विपक्षी दलों की इस नयी हलचल एवं गठबंधन व मोर्चाबन्दी की प्र िया होने का मुख्य कारण कांग्रेस३ई७ की आन्तरिक हलचलों व स ियता के सन्दर्भ में लोकसभा के आगामी चुनाव थे।76
19. आपातकाल के बाद कांग्रेस में विभाजन व उनसे निकले राजनीतिक दल:-
1- सन् 1977 के जगजीवन राम द्वारा कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी का निर्माण जिसका बाद में जनता पार्टी में विलय।
2- सन् 1978 में आठ विधानसभाओं के चुनावों में कांग्रेस की पराजय के कारण कांग्रेस में असंतोष तथा विभाजन कांग्रेस रेड्डी ३ब्रªानन्द रेड्डी७ तथा कांग्रेस का निर्माण किया।
3- सन् 1995 में अर्जुन सिंह व नारायण दत्त तिवारी को कांग्रेस से निष्कासित किया गया तो उन्होंने कांग्रेस तिवारी नाम से नये दल का गठन किया।
4- सन् 1999 में षरद पंवार, तारिक अनवर तथा पी.ए. संगमा ने कांग्रेस से निष्काषित किये जाने के पष्चात राष्टश्वादी कांग्रेस का गठन किया।
सन्दर्भ -
1- भाम्यरी, सी.पी. ‘जनता पार्टी एण्ड प्रोफाइल ३नेषनल दिल्ली७’ 1980, पष्ष्ठ सख्ं या-16
2. दि इण्डियन एक्सप्रेस, नई दिल्ली, फरवरी 11, 1997, पष्ष्ठ संख्या-6 एवं 7
3. दिनमान, फरवरी 20-26, 1977 ३टाइम्स आॅफ इण्डिया प्रकाषन, नई दिल्ली७ पष्ष्ठ संख्या-11
4. दि इण्डियन एक्सप्रेस, नई दिल्ली, फरवरी 11, 1977, पष्ष्ठ संख्या-1
5. तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-6
6. दिनमान, तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या- 11 एवं 12
7. दि इण्डियन एक्सप्रेस, उपर्युक्त, पष्ष्ठ संख्या-7
8. षकधर, एस.एल., ‘सिक्सथ् जनरल इलेक्षन टू लोकसभा ३एडीटेड७’ 1977
३लोकसभा सचिवालय प्रकाषन, नई दिल्ली७, पष्ष्ठ संख्या-44
9. तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-46-8
10. दिनमान, फरवरी, 13-19, 1977 ३टाइम्स आॅफ इण्डिया प्रकाषन, नई दिल्ली७, पष्ष्ठ संख्या-18-9
11. तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-8-9
12. षकधर, एस.एल., तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-49-55
13. तत्रैव, पष्ष्ठ, 71-73 एव ं दिनमान, फरवरी 20-26, 1977 ३टाइम्स आॅफ इण्डिया प्रकाषन, नई दिल्ली७ पष्ष्ठ संख्या-12-3
14. दिनमान, फरवरी 13-19, 1977 ३टाइम्स आॅफ इण्डिया प्रकाषन, नई दिल्ली७, पष्ष्ठ संख्या-20
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24. अय्यर, एस.पी., राजू, एस.पी., तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-287
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30. तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-163
31. तत्रवै ।
32. अय्यर, एस.पी., राजू, एस.पी.; तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-391
33. षकधर, एस.एल.; ‘सिक्सथ जनरल इलक्े षन ट ू लाके सभा ३एडीटडे ७’ ३लाके सभा सचिवालय प्रकाषन, नई दिल्ली, 1977७ पष्ष्ठ संख्या-18
34. अय्यर, एस पी; राजू, एस.पी; उपर्युक्त, पष्ष्ठ संख्या-401
35. नायर, कुलदीप, ‘दि जजमेन्ट; इन साइड स्टोरी आॅफ दि इमरजेन्सी इन इण्डिया’ ३विकास पब्लिषिंग हाउस, 1977७ पष्ष्ठ संख्या-179
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42. दि टाइम्स आॅफ इण्डिया, नई दिल्ली, मई 6, 1977, पष्ष्ठ संख्या-1
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45. तत्रवै
46. नाईक, जे.ए; तत्रैव, पष्ष्ठ संख्या-52
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48- तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-127
49- तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-128
50- गप्ुता, अनिरू ‘रिवाल्े यष्ू ान थ ू्र बलै ट: इण्डिया’, जनवरी मार्च अकं रु पब्लिकष्े ान हाउस, नई दिल्ली 1977
51- नायर, कुलदीप ‘‘द जजमेन्ट: इन साइड स्टोर आॅफ इमरजेंसी इन इण्डिया’’ पब्लिषिंग हाउस, 1977 पष्ष्ठ संख्या-155
52- द इण्डियन एक्सप्रेस, नई दिल्ली, फरवरी-2 सन् 1977 पष्ष्ठ संख्या 6-7
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71-ज्ीमपत ।ससपंदबम ;ज्ीम स्क् ठश्रच् ।ससपंदबम ूपसस दवज वदसल इम जीम पितेज ेंपक बसनेजमत जव मउमतहम इनज उंल जतपहहमत जीम वितउंजपवद व िवजीमत बसनेजमत ंे ूमसस जीे ंससपंदबम पे कपििमतमदज तिवउ ंसस जीम ंससपंदबम पद ंज समंेज जीतमम ूंले ;पितेज ूमसस ेजतनबजनतमक ेजमच उवतम पकमवसवहपबंससल बवदमतमदज जींद ंदल वजीमत ंदक ींे इममद ंइसम जव ेवतजवनज जीम चतवइसमउ ंदक समंकमतेीपच श्रण्ठण् ैमजीप . प्इपक
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. च्तंइीन ब्ींूसं ष्त्मजनतद व िजीम चतवकपहंसेष् प्दकपं ज्वकंलए छवअण् 30 1983
अध्याय-षष्ठ
कांग्रेसवाद और गैर-कांग्रेसवाद की अवधारणा की विवेचना तथा आपातकाल के बाद राजनीतिक चेतना पर सर्वेक्षण
सन् 1885 में जिस राष्टश्ीय कांग्रेस की स्थापना हुई। वह दिसम्बर 1969 में विभाजन से पूर्व तक भारतीय राजनीतिक रंगमंच पर सबसे बड़ी षक्ति के रूप में कार्य करती रही पर कागं ्रेस के वरिष्ठ नेताआ ें और आन्तरिक गुटा ें म ें मतभेद भी ब
1962 में 43.61 प्रतिषत, सन 1967 में 40.73 प्रतिषत, सन 1971 में 40.64 प्रतिषत।
25 जून 1975 के आपात उद्घोषणा और फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के 20 सूत्रीय आर्थिक कार्य म के विन्यास के बाद तेजी से निरंकुषता के मार्ग पर बढ़ता गया। लोकसभा के चुनाव जो मार्च 1976 में होने थे एक वर्ष के लिए आगे सरका दिये। सन 1977 में इंदिरा गाँधी ने एकाएक ही लोकसभायी चुनाव कराने की घोषणा कर दी। इंदिरा गाँधी को यह विष्वास था कि विरोधी दल इतने कुचले जा चुके हंै और जनता भी इतनी भया ान्त है कि कांग्रेस की एकाधिकारी स्थिति पर कोई आँच नहीं आयेगी।1
1. एकदलीय प्रभुत्व व्यवस्था का प्रभाव:-
बहुदलीय व्यवस्था के बावजूद भारत में चैथे आम चुनाव के बाद कुछ
समय को छोड़कर कांग्रेस एकदलीय प्रभुत्व व्याप्त रहा जिसकी समाप्ति मार्च 1977 के ऐतिहासिक आम चुनावों में हुई। इन चुनावों से पूर्व केन्द्र में तो कांग्रेस दल निरन्तर स ाारूढ़ रहा। राज्यों में कभी-कभी गैर कांग्रेसी सरकारें बनी और संविद सरकारों का भी बोलबाला रहा। सन 1967 के चुनावों के पूर्व राज्य राजनीति का एक स्तम्भ रहा। दूसरा स्वरूप 1967 के चुनावों के उपरान्त उभरा और तब मार्च 1971 के मध्यावधि लोकसभायी चुनावों में तीसरा नया नक्षा प्रस्तुत किया। 1967 के चैथे आम चुनावों से पूर्व केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस का प्रचण्ड बहुमत रहा2 और नेहरू सर्वमान्य नेतष्त्व देष पर छाया रहा। उस समय राज्य सरकारों की स्थिति, केन्द्र की तुलना में कमजोर और नगण्य सी रही। लालबहादुर षास्त्री और तत्पष्चात इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व के प्रारम्भिक वर्षों में केन्द्र उतना सबल नहीं रहा सका। राज्य उभरे, मुख्यमंत्री अधिक महत्वपूर्ण हो गए। सन 1967 के आम चुनाव, कांग्रेस के भीतर चल रहे स ाा संघर्ष के कारण, कांग्रेस के लिए दुःखदायी रहे। केन्द्र में स ाारूढ़ कांग्रेस की षक्ति दुर्बल हो गई और बहुत से राज्यों में उसकी कुर्सी छिन गयी। राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों ने अनेक मसलों पर केन्द्र के साथ सहयोग करने से इन्कार कर दिया। मार्च 1971 के मध्यावधि चुनावों ने फिर पासा पलट दिया। केन्द्र में कांग्रेस को प्रबल बहुमत मिला और इंदिरा गाँधी सर्वमान्य नेता के रूप में उभरी। तत्पष्चात् राज्यों में चुनाव हुए और गैर कांग्रेसी सरकारें धराषायी हो गयी। संयुक्त सरकारों को जनता ने ठुकरा दिया। षक्ति के मद में आकर कांग्रेस दल लोकतांत्रिक आचरण से दूर होता गया। 25 जून 1975 में आपातकाल की आड़ में भारत की जनता पर तानाषाही थोप दी गई और मार्च 1977 के चुनावों ने इस तानाषाही को समाप्त कर जनता पार्टी को स ाारूढ़ कर दिया।3
2. संयुक्त मोर्चा:- संयुक्त मोर्चा गठित किया गया ये दल हंै:- जनता दल, माक्र्सवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल, द्िरवड ़ मनु त्रे कडग़ म, तमिल मनीला कागं से्र , तले गदू ष्े ाम, असम गण परिषद, कांग्रेस ३तिवारी७, फाॅरवर्ड ब्लाॅक, आर.एस.पी., एम.पी.वी.सी., केसी.पी., स.पा. आदि।
न्यूनतम सांझा कार्य म तैयार किया गया। सभी राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी अतिवादी नीतियों को कुछ समय के लिए छोड़ने का वायदा किया। एच.डी. देवगोड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया। ये सहमति तथा समझौते के प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस के बाह्य समर्थन से यह सरकार चली पर 30 मार्च 1997 को कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने संयुक्त मोर्चा सरकार से समर्थन वापिस ले लिया। ये नौ महीने पुरानी संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए मौत का परवाना था।4 कांग्रेस देवगौड़ा को हटाना चाहती थी। अन्ततः इन्द्र कुमार गुजराल के नाम पर सहमति हो गई यद्यपि इससे तमिल कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी के मन में जबरदस्ती नाराजगी उपजी। बहरहाल इन्द्रकुमार गुजराल ने कांटो भरा ताज पहना। प्रष्न उठा कि सयं ुक्त मोर्चे के बाद कलहप्रिय और अति महत्वाकाक्ष्ं ाी नेताओ ं की अवसरवादी जमात क्या ‘भलेमानस’ की छवि वाले इस नेता को कुछ दिखाने का अवसर देगी।5
ग्यारहवीं लोकसभा भंग हो गई। नये चुनाव के पष्चात 12वीं लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी ने सहयोगी दलों के साथ स ाा की बागड़ोर संभाली। यह सरकार भी 17 अप्रेल 1990 को सत्ता से हट गई। 13वीं लोकसभा में भी राष्टश्ीय जनतांत्रिक गठबंधन के रूप में कई दलों के मिले जुले गठबंधन ने भी स ाा संभाली। इस गठबंधन में सर्वाधिक भारतीय जनता पार्टी के थे।
3. राष्टश्ीय जनतांत्रिक गठबंधन ;छण्क्ण्।ण्:-
11वीं तथा 12वीं लोकसभा के चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और सरकारों का जल्दी-जल्दी पतन होने लगा तो ऐसी स्थिति में 13वीं लोकसभा चुनाव के पूर्व भी 1999 में भारतीय जनता पार्टी के नेतष्त्व में राष्टश्ीय जनतांत्रिक गठबंधन का गठन किया गया। गठबंधन ने अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता घोषित किया। भाजपा सहित गठबंधन के भागीदार दलों ने अपने अलग घोषणा पत्र जारी करने के बजाय ‘राजग’ के घोषणा-पत्र के आधार पर 13वीं लोकसभा का चुनाव लड़ा। घोषणा पत्र में भूख, भय और भ्रष्टाचार से मुक्त सुदष्ढ़ भारत बनाने का संकल्प लिया गया। घोषणा-पत्र में राष्टश्ीय सुरक्षा, राष्टश्ीय पनु निर्म ाण, गतिषील कटू नीति, सकं ीय समरसता, आथिर्क आधुिनकीकरण, सक्े यलू रवाद, सामाजिक न्याय और षुचिता इन आठ बिन्दुओं पर विषेष जोर दिया गया तथा कहा गया कि अगली सदी में बाँटने वाली बातों को त्यागकर आपसी विष्वास की भावनाओं और बातों पर बल दिया जायेगा। चुनाव के बाद वाजपेयी के नेतष्त्व में राजग सरकार का गठन हुआ तथा इस सरकार ने राजनीतिक स्थायित्व के साथ आर्थिक विकास की दिषा म ंे कुछ कदम आग े ब6
14वीं लोकसभा ३2004७ में इसने ‘फीलगुड’ और ‘इण्डिया षाइनिंग’ के नारों के साथ चुनाव लड़ा लेकिन अन्ततः पराजय का सामना करना पड़ा और विपक्ष में बैठना पड़ा। इसी प्रकार 15वीं लोकसभा ३2009७ में भी इस गठबंधन को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और पहले से अधिक स्थिति खराब हो गई और इसके सहयोगी दल
टूट-टूटकर अलग होने लगे।
4. संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन ;न्ण्च्ण्।ण्:-
यू.पी.ए. का पूरा नाम ‘यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाइन्स’ है। 14वीं लोकसभा
में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस पार्टी के नेतष्त्व में 14 दलों का संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन बनाया गया जिसकी अध्यक्षा सोनिया गाँधी को चुना गया। गठबंधन की सरकार बनी जो फिर से 15वीं लोकसभा में चुनकर आयी थी। गठबध्ंान के इकाई दलों को दो भागों में 1. सरकार में षामिल दल 2. बाहर से समर्थन देने वाले दलों में बाँटा गया है जिसमें विभिन्न घटक दलों का चुनाव घोषणा-पत्रों को आधार बनाया गया। साझा न्यूनतम कार्य म की घोषणा ‘संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन’ से सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की बैठक में व्यापक विचार विमर्ष के बाद 27 मई 2004 को की गयी थी। साझा कार्य म के 6 बुनियादी सिान्त इस प्रकार बताए गए:- सामाजिक सदभाव, रोजगार, किसानों की भलाई, महिला सषक्तिकरण, सबको समान अवसर और प्रतिभा को प्रोत्साहन। वस्तुतः लोकतंत्र की आत्मा व प्राण, राजनीतिक दल में लोकतांत्रिक पति का अभाव देखा गया । राजनीतिक दल व्यक्ति विषेष के ईद गिर्द घूमते रहते हैं। दल महत्वपूर्ण नहीं होता। व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है। दल के सगं ठन क े चनु ाव लम्ब े समय तक नही ं हाते ।े वर्षा ंेबाद कागं से्र सगं ठन क े चनु ाव 1992 में हुए दल न केवल अलोकतांत्रिक पति से कार्य करते हंै अपितु सर्वाधिकार की पति भी पाई जाती है।7 राजनीतिक दलों में लगातार खण्डित तथा विखण्डित होने की प्रवष्ति रही है। कोई भी राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं है। व्यक्ति विषेष की भावनाओं के आधार पर दल बन जाते हंै। कोई भी महत्वपूर्ण राजनेता ऐसा नहीं है जो दल बदलता न रहा हा।े मतदाता का नते ाआ ंे पर स े विष्वास उठन े लगा है। अनष्ु ाासनब समझे जाने वाले साम्यवादी दल तथा भाजपा भी इसका अपवाद नहीं है। वस्तुतः दल-बल कानून को सरल बनाना आवष्यक है। यदि कोई दल बदलना चाहता है तो उसे सीधे जनता से अधिकार प्राप्त करना चाहिए।8
5. सन 1977 का मध्यावधि चुनाव और जनता सरकार की स्थापनाः-
प्रधानमंत्री- मोरारजी देसाई ३जनता दल७
३कार्यकाल- 21 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979७
सन 1977 का लोकसभा का चुनाव अत्यधिक असाधारण परिस्थितियों में कराया गया और उसके परिणाम भी असाधारण महत्व के निकले। यह चुनाव देष में उद्घोषित आपात स्थिति के दौरान कराए गए। परिणामों की दष्ष्टि से इतना अधिक अनिष्चित चुनाव इससे पहले कोई भी नहीं हुआ था। सन 1977 में जिस राजनीतिक वातावरण में लोकसभा के चुनाव कराए गए, उस वातावरण का प्रारम्भ 1974 में जय प्रकाष नारायण द्वारा चलाये गये आन्दोलन से हुआ और इसीलिए 1974 को ‘जयप्रकाष नारायण वर्ष’ कहा गया है। जय प्रकाष नारायण द्वारा बिहार में जो आन्दोलन चलाया गया, वह मुख्य रूप से देष में व्याप्त भ्रष्टाचार और बढ़ती हुई मँहगाई के खिलाफ था। जयप्रकाष नारायण ने ‘सम्पूर्ण ांति’ का नारा दिया और कर न देने, जिला अधिकारियों का घेराव करने तथा विद्यार्थियों से एक वर्ष के लिए स्कूल काॅलेजों को छोड़कर इस आन्दोलन में भाग लेने की अपील की। उन्होंने सेना से भी यह अपील की कि वह सरकार के ऐसे आदेषों का पालन नहीं करे जो अनुचित तथा अवैधानिक हो। 14 अक्टूबर, 1974 को जयप्रकाष नारायण ने यह घोषणा की कि जल्द ही प्रषासकीय स्तरों पर समानान्तर सरकारों की स्थापना की जाएगी। 14 नवम्बर को जयप्रकाष नारायण ने पटना में एक रैली का नेतष्त्व किया जिस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया और जय प्रकाष नारायण को भी चोटें आईं। भ्रष्टाचार के विरू आरम्भ किए गए इस आन्दोलन ने ांति का रूप धाारण कर लिया और बिहार में लूटमार और उपद्रव का वातावरण उत्पन्न हो गया। इंदिरा सरकार की ओर से जयप्रकाष नारायण आन्दोलन की घोर आलोचना की गई और यह प्रचार किया गया कि इस आन्दोलन के पीछे फासिस्टवादी षक्तियाँ हंै जो जनतंत्र का अन्त कर देना चाहती हंै। जून 1975 में भारतीय राजनीति ने एक नया मोड़ लिया, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गाँधी के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित करते हुए उन्हें 6 वर्षों के लिए किसी भी चुनाव से अनर्ह घोषित किया। इस निर्णय के पष्चात विपक्षी दलों ने इंदिरा गाँधी से त्यागपत्र देने की मांग की और यह धमकी दी कि 29 जून से राष्टश्ीय स्तर पर आन्दोलन चलाएँगें। इसी बीच इंदिरा गाँधी ने सर्वोच्च न्यायालय से उक्त निर्णय के विरू एक स्थगन आदेष प्राप्त कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि स्वयं कांग्रेस दल में भी कुछ वरिष्ठ नेता इस पक्ष में थे कि इंदिरा गाँधी को त्यागपत्र देना चाहिए। इन राजनीतिक परिस्थितियों में 25 जून 1975 की रात्रि में देष में आंतरिक आपात स्थिति की घोषणा पर राष्टश्पति ने हस्ताक्षर कर दियें और 26 जून को प्रातः देष में आंतरिक संकट की घोषणा कर दी गयी। इसके तुरंत बाद जयप्रकाष नारायण सहित विपक्ष के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। आपात स्थिति की उद्घोषणा के साथ ही पूरे देष में बड़े स्तर पर उन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, जो इंदिरा कांग्रेस के विरोधी अथवा आलोचक थे। प्रेस पर पूर्ण सेंसर लगा दिया गया। नागरिक स्वतंत्रताओं को स्थगित कर दिया गया। इंदिरा गाँधी ने दमन की राजनीति द्वारा देष में व्याप्त राजनीतिक असंतोष सामयिक रूप से कुचल तो दिया लेकिन आंतरिक रूप से जन साधारण में कांगे्रस सरकार के विरू घष्णा बढ़ती रही। फरवरी 1976 में लोकसभा ने अपना कार्यकाल मार्च 1977 तक ब
18 जनवरी 1977 को नाटकीय
घोषणा की गयी यद्यपि विधि अनुसार अभी लोकसभा की कार्यावधि समाप्त होने में लगभग 15 महीने बाकी थे। यह निष्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि किन कारणों से इंदिरा गाँधी ने चुनाव कराने का निर्णय लिया। चुनाव घोषणा के पष्चात विपक्ष के नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया। प्रेस पर लगाए गए प्रतिबन्धों को
20 जनवरी, 1977 को मोरारजी देसाई ने एक नई पार्टी ‘जनता पार्टी’ के
निर्माण की घोषणा की गई। इस पार्टी मे ं कागं ्रेस सगं ठन, भारतीय ांितदल, जनसघ्ं ा और सोषलिस्ट पार्टी सम्मिलित हुईं। नवनिर्मित जनता पार्टी ने कांग्रेस के विरू देष के समक्ष एक विकल्प प्रस्तुत किया और अधिनायकवाद का अन्त करने और जनतंत्र को पुनर्जीवित करने का नारा दिया। इंदिरा गाँधी द्वारा चुनाव कराए जाने की घोषणा जितनी आष्चर्यजनक थी, उससे कहीं ज्यादा आष्यर्चजनक घटना, कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और इन्दिरा मंत्रिमण्डल के एक वरिष्ठ सदस्य जगजीवनराम द्वारा कांग्रेस छोड़ने का निर्णय था। 2 फरवरी 1977 का े एक पस्रे कान् से म ंे जगजीवनराम न े कागं स्रे स े त्यागपत्र दने े का और एक नया राजनीतिक दल ‘कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी-सी.एफ.डी. ३लोकतांत्रिक कांग्रेस७ बनाने की घोषणा की। जगजीवन राम के साथ ही उत्तर प्रदेष के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एच.एन. बहुगुणा, उड़ीसा की भूतपूर्व मुख्यमंत्री नंदनी सत्पथी और भूतपूर्व केन्द्रीय राज्यमंत्री के. आर. गणेष तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण नेताओं ने भी कांग्रेस छोड़ने की घोषणा की इस प्रकार चुनाव की घोषणा के दो सप्ताहों के अन्दर भारत में दो राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ जिनका सामान्य उद्देष्य कांग्रेस सरकार के तानाषाही षासन का अन्त करना था। अपने इस उद्देष्य की पूर्ति के लिए विपक्षी नेता इस बार अत्यधिक सतर्क थे और वे सयं ुक्त रूप से चुनाव लडक़ र कागं ्रेस को पराजित करना चाहते थे। सी.एफ.डी. के निर्माण के साथ ही उसके चेयरमैन जगजीवनराम ने यह घोषणा की कि वह अगामी चुनाव में त्रिकोणात्मक संघर्ष से बचने का प्रयत्न करेंगे ताकि कांग्रेस को कोई लाभ न पहुंचने पाए। षीघ्र ही जनता पार्टी और सीएफडी के बीच एक चुनाव समझौता हो गया जिसमें इन दोनों राजनीतिक दलों ने एक ही चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। इस प्रकार 1977 के चुनाव में कांग्रेस को अनेक राजनीतिक दलों के स्थान पर छठी लोकसभा के चुनाव हुए। वास्तविकता यह है कि इस चुनाव के परिणामा ें ने विष्व के सभी देषा ें को चांैका दिया। लोकसभा के कुल 542 स्थानों में कांग्रेस को केवल 154 स्थान प्राप्त हो सके ओर जनता पार्टी व सीएफडी को 295 स्थान प्राप्त हुए। इस चुनाव के साथ ही कांग्रेस दल के 30 वर्षीय षासन और राजनीतिक एकाधिकार का अन्त हो गया। लोकसभा में विभिन्न राजनीतिक दलों को निम्नलिखित स्थान प्राप्त हुए।
राजनीतिक दल
कुल प्राप्त
प्राप्त स्थानों
प्राप्त मतों का
स्थान
का प्रतिषत
प्िरतषत
कांग्रेस ३आई७
154
28.41
34.52
भारतीय लोकदल
295
54.43
41.32
कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इण्डिया
7
1.29
2.82
कम्युनिस्ट पार्टी ३माक्र्सवादी७
22
4.06
4.29
कागं स्रे ३सगं ठन७
3
0.55
1.72
राज्य राजनीतिक दल
49
9.04
8.81
सन 1977 का लोकसभा चुनाव ३6वीं लोकसभा७9
रजिस्टर्ड राजनीतिक दल
3
0.55
1.02
निर्दलीय
9
1.67
5.50
योग
542
100.00
100.00
सन 1977 क े इस चुनाव म ंे न कवे ल कागं स्रे पार्टी पराजित हुई वरन कुछ राज्यों में उसका सफाया हो गया। उत्तर प्रदेष, बिहार, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली में उसे कोई स्थान न मिल सका और राजस्थान में उसे एक स्थान प्राप्त हुआ। दक्षिणी भारत में कांग्रेस की स्थिति कुछ अच्छी रही, षायद इसलिए कि आपातकाल में वहाँ ज्यादा अत्याचार नहीं किए गए थे। इस चुनाव में जनता पार्टी को 50 प्रतिषत से अधिक स्थान प्राप्त हुए, किन्तु उसे कुल मतों के 41.32 प्रतिषत मत ही मिले। कांग्रेस को 1971 के चुनाव में 43.68 प्रतिषत मत मिले थे, जबकि इस बार उसे 34.52 प्रतिषत ही मत प्राप्त हो सके जो कांग्रेस की लोकप्रियता के घटने के द्योतक हंै।
1977 का चुनाव कुछ मह वपूर्ण मुद्दों के आधार पर लड़ा गया। इसमेंमुख्य रूप से ‘स्थायित्व बनाम अराजकता’ के मुद्दों ने निर्णायक भूमिका अदा की। जनता पार्टी की तरफ से अधिनायकवाद का अन्त करने और जनतंत्र को पुनर्जीवित करने का नारा दिया। इसके विरू कांग्रेस की ओर से यह दावा किया गया कि विरोधी राजनीतिक विचारधाराओं वाले विभिन्न राजनीतिक दलों का गठजोड़ ३जनता पार्टी७ देष में एक स्थायी सरकार की स्थापना करने में सक्षम नहीं है अतः जनता पार्टी की जीत राजनीतिक अराजकता को जन्म देगी।
ऐसा लगता है कि इस चुनाव में मतदाताओं की मूल रूचि इस बात में थी कि इन्दिरा षासन का अन्त होना चाहिए। उनकी रूचि इस बात में कम थी कि जनता पार्टी के सिान्त या कार्य म क्या हैं? इसलिए उसे ‘नकारात्मक चुनाव’ निर्णय का नाम दिया गया। देष के षिक्षित मतदाता संविधान में किए गए 42वंे संषोधन, मूल अधिकारों के स्थगन, आपातकाल के किए गए अत्याचार, राजनीति में विकसित होती हुई अधिकनायकवादी प्रवष् िायों तथा राजनीति में संजय गाँधी के प्रवेष से ज्यादा दुखी थे, जबकि साधारण और अषिक्षित जनता इस मुद्दों से ज्यादा नसबंदी के लिए किए गए अत्याचार के कारण अत्यधिक रूष्ट थी और वह किसी भी तरह इन्दिरा षासन का अन्त करना चाहती थी। चूँकि यह चुनाव कुछ निष्चित मुद्दों के आधार पर हो रहा था, अतः
पिछले सभी चुनावों के विपरीत चुनाव में उम्मीदवारों के व्यक्तिगत गुणों को महत्व देने की बजाय जनसाधारण ने जनता पार्टी के नाम पर वोट दिया। परिणामस्वरूप यह चुनाव दल उन्मुख मतदान व्यवहार को परिलक्षित करता है। यह उल्लेखनीय है कि इस बार केवल 7 निर्दलीय उम्मीदवार निर्वाचित हो सके।
1977 के चुनाव ने भारतीय राजनीति के धर्म निरपेक्षीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। गत सभी चुनावों के विपरीत इस चुनाव में धर्मजाति के आधार पर मतदान की अपीलें अप्रभावी हुईं और हरिजन तथा मुस्लिम जो अब तक कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े समर्थ रहे थे, इस बार कांग्रेस से अलग हो गए। दल प्रणाली की दष्ष्टि से 1977 का चुनाव राजनीतिक दलों के धु्रवीकरण की दिषा में एक मह वपूर्ण कदम था। देष की चार बड़ी पार्टीयों के एक राजनीतिक दल में संगठित हो जाने से भारत में द्विदलीय व्यवस्था के विकसित होने की संभावना उत्पन्न हो गई। मई 1977 की बी.एल.डी., जनसंघ, कांग्रेस३स७, सोषलिस्ट पार्टी तथा सी.एफ.डी. ने औपचारिक रूप से अपने विघटन और जनता पार्टी में विलय हो जाने की घोषणा की। लोकसभा में कांग्रेस के बुरी तरह से पराजित होने के पष्चात जनता पार्टी के नेताओं तथा उसके समर्थकों ने यह दष्ष्टिकोण प्रतिपादित किया कि जनसाधारण का कांग्रेस सरकार और उसकी नीतियों और कार्य मों पर से विष्वास उठ चुका है। अतः राज्यों में भी कांग्रेस दल के स ाारूढ़ रहने का कोई औचित्य नहीं रहा। अप्रेल 1977 को तत्कालीन गष्हमंत्री ने 9 राज्यों ३तमिलनाडु में पहले से ही राष्टश्पति षासन था७ के मुख्यमंत्रियों से यह अपील की कि वे स्वयं राज्यपाल से अनुरोध करके विधानसभा को विघटित करा दे ताकि उन राज्या ें म ें नए चुनाव कराए जा सकें इस अपील को कांग्रेस षासित राज्यों ने अस्वीकार कर दिया और इसके विरू राज्यों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा किया गया कि गष्हमंत्री का यह कदम असंवैधानिक है उन्हें अनुच्छेद 356 का प्रयोग करने से रोका जाए। सर्वोच्च न्यायालय से इस रिट को खारिज कर दिया। परिणामस्वरूप अनुच्छेद 356 के अधीन 9 राज्य विधान सभाओं का विघटन कर दिया गया। जून 1977 में भारत के दस राज्यों में विधानसभा के चुनाव कराए गए और इस चुनाव में भी 3 राज्यों के अतिरिक्त सभी में जनता पार्टी को भारी सफलता मिली।10
प्रधानमंत्री- चैधरी चरण सिंह ३जनता दल७
३कार्यकाल- 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980७
6. कांग्रेस आधिपत्य की पुनस्र्थापना 1980 और 1984 के चुनाव:-
1977 के चुनाव के बाद बनने वाली जनता पार्टी की सरकार आपसी फटूके कारण लगभग दो वर्ष और कुछ महीने ही जीवित रह सकी। इन दो वर्षों में दो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और चैधरी चरण सिंह हुए। चरण सिंह ने सरकार बनने के तीन सप्ताह बाद ही त्यागपत्र दे दिया और राष्टश्पति को लोकसभा भंग करने का परामर्ष दिया। चूँकि कोई अन्य दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था इसलिए राष्टश्पति ने 22 अगस्त 1979 को लोकसभा को भंग करने की घोषणा कर दी औेर जनवरी 1980 में 7वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए।
-
प्रधानमंत्री- इंदिरा गांधी ३काॅग्रेस-आई७
३कार्यकाल- 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर, 1984७
अ. काँगे्रस ३अर्स७ का घोषणा-पत्र:-
कांग्रेस ३अर्स७ चरणसिंह मंत्रिमण्डल में साझेदार दल था। प्रारम्भ में
लोकदल कांग्रेस ३अर्स७ दोनों ही दलों द्वारा संयुक्त रूप से चुनाव घोषणापत्र जारी करने का निष्चय किया गया था। लेकिन समान घोषणा पत्र और समान चुनाव चिन्ह के साथ लोकसभा का चुनाव लड़ने का लोकदल से किया गया समझौता टूट जाने के कारण कांग्रेस ने अलग से घोषणा पत्र जारी किया। 7 दिसम्बर 1979 को कांग्रेस को महासचिव मोहम्मद युनुस सलीम ने दल का घोषणा पत्र जारी किया। दल ने अपने चुनाव अभियान घोषणा पत्र में निजी पंूजी को संतुलित करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को प्रोत्साहन देने, बेरोजगारी गारण्टी योजना को लागू करने तथा अलीगढ़ विष्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र को बहाल करने तथा उर्दू को बढ़ावा देने का आष्वासन दिया। दल न ेअल्पसख्ं यक आयागे की सवं ध्ैाानिक स्तर पद्र ान करन,े अल्पसख्ं यकांे के धार्मिक स्थानों में सरकारी हस्तक्षेप कम से कम करने उनके व्यक्तिगत कानूनों के हस्तक्षेप नहीं करने और साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए प्रषासनिक कदम उठाने का आष्वासन दिया गया। घोषणा पत्र में कहा गया कि कांग्रेस ३अर्स७ का पहला काम मजदूरों, किसानों, उद्योगपतियों, बुजिीवियों तथा सार्वजनिक क्षेत्र के लोगों और सरकारी कर्मचारियों का सहयोग लेकर आर्थिक स्थिति को सुव्यवस्थित करना होगा।
घोषणा-पत्र में उद्योग, व्यापार और अन्य सेवाओं में गाँवों, कस्बों और षहरों, सबके लिए रोजगार के अवसर देने का भी आष्वासन दिया गया। इसके लिए षिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाने का भी विचार प्रकट किया गया। घोषणापत्र में कष्षि के वैज्ञानिकीरण और आधुनिकीकरण पर जोर देकर षहरी और भारत में आमदनी को सन्तुलित रखने का भी उल्लेख किया गया। कष्षि पर आधारित उद्योगों के विकास करने का भी वचन दिया गया लेकिन इसमें यह भी कहा गया कि यह सब करते हुए इस पर ध्यान दिया जायेगा कि खेत मजदूरों के आधार पर बड़े किसान लाभ न उठा पायें। छोटे किसानों को भी बेहतर कीमतें देने का विचार भी रखा गया। घोषणा पत्र में भूमि सुधारों पर जोर दिया गया साथ ही मुहरबंदी को कठोरता से लागू करने का वचन दिया गया।11 ब. जनता पार्टी का चुनाव घोषणा-पत्र:- जनता पार्टी का चुनाव घोषणा पत्र बहुत विस्तष्त था। इसमें लगभग
उन्हीं बातों को दोहराया गया था जो 1977 की अविभाजित जनता पार्टी के घोषणा पत्र में सम्मिलित थी। इसमें मुख्य रूप से लोकतंत्र की पुनस्र्थापना करने, प्रेस की स्वतंत्रता को कायम रखने, विधि के षासन को प्रतिष्ठित करने, अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय क ेअल्पसख्ं यक चरित्र का ेबहाल करन,े आथिर्क षक्तिया ंेक ेकन्ेदी्रयकरण को रोकने, नीति निर्देषक सिान्तों की तुलना में मौलिक अधिकारों को महत्व देने, उपद्रव विरोधी पुलिस की व्यवस्था करने, राष्टश्पति षासन लागू करने से संबंधित प्रावधानों के दुरूपयोग को रोकने से संबंधित आष्वासन दिये गये थे। दल के घोषणा-पत्र में प्रत्येक परिवार के कम से कम एक सदस्य को सरकारी सेवा प्रदान करने का भी आष्वासन दिया गया था।12 इस तरह से जनता पार्टी के घोषणा पत्र में बहुत अधिक नवीनता की भावना विद्यमान नहीं थी। स. कांग्रेस३ई.७ का घोषणा पत्र:- कांग्रेस ३ई.७ के घोषणा पत्र में इन्दिरा गाँधी की दल और देष के लिए अपरिहार्यता और महत्व का प्रदर्षन करते हुए कहा गया था कि ‘‘कांग्रेस३ई.७ ही अकेला दल है, इंदिरा गाँधी ही अकेली नेता है। इसका स्पष्ट रूप से आषय यही था कि इंदिरा गाँधी के नेतष्त्व में कांग्रेस३ई.७ ही देष को स्थायित्व और कुषल षासन प्रदान करने में सक्षम है। वह ही देष बचाने में सक्षम हंै। कांग्रेस३ई.७ द्वारा अपने घोषणा पत्र में इस प्रकार के नारे का उल्लेख करना स्पष्ट रूप से इस बात का प्रतीक था कि यह दल इंदिरा गाँधी के नेतष्त्व में स्थायित्व का नारा लगाकर बड़े ही आत्मविष्वास के साथ चुनाव संघर्ष में उतरा था। दल के घोषणा पत्र में विपक्षी दलों की कड़ी आलोचना करते हुए यह कहा गया था कि ये दल देष का षासन संचालित करने के योग्य नहीं है। घोषणा-पत्र की उल्लेखनीय बातों में उर्दू की द्वितीय भाषा बनाने, प्रेस सेंषरषिप लागू नहीं करने, आपातकाल लागू नही करने, न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सम्मान करने, परिवार नियोजन कार्य म को लागू करन े म ंे जारे जबर्दस्ती नही ं करन,े बि ीकर का े समाप्त करन े क े सम्बन्ध म ंे पुनर्विचार करने, कमजोर वर्गों को न्याय प्रदान करने तथा बीस सूत्रीय कार्य म को लागू करने सम्बन्धी प्रावधान मुख्य थे।13
द. भारतीय साम्यवादी ३माक्र्सवादी७ दल का घोषणापत्र:-
25 सितम्बर, 1979 को माक्र्सवादी साम्यवादी दल के पोलिट ब्यूरो के सदस्य टी. रणदिवे ने दल का चुनाव घोषणा पत्र जारी किया। घोषणा पत्र के मुख्य जोर वामपंथी और लोकतांत्रिक षक्तियों को संगठित करने तथा तानाषाही एवं साम्प्रदायिक षक्तियों को पराजित करने पर दिया गया था। घोषणा पत्र में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि दल कांग्रेस३ई.७ और जनता पार्टी को पराजित करने में कांग्रेस३अर्स७ और लोकदल का सहयोग करेगा।14
य. भारतीय साम्यवादी दल का घोषणा पत्र:-
भारतीय साम्यवादी दल के चुनाव घोषणा पत्र में भी भारतीय साम्यवादी दल ३माक्र्सवादी७ के समान ही साम्प्रदायिक और तानाषाही षक्तियों को पराजित करन े और वामपथ्ं ाी तथा लाके तांित्रक षक्तिया ंे की एकता का े सुदष्ढ ़ करन े का सकं ल्प व्यक्त किया गया था। घोषणा पत्र में भारतीय मतदाताओं से यह अपील की गई थी कि वे कांग्रेस३ई.७ और जनता पार्टी को पराजित कर के देष में धर्म निरपेक्ष और वामपंथी दलों के प्रत्याषियों को विजयी बनायें। र. अन्य दलों के चुनाव घोषणा पत्र:-
प्रमुख क्षेत्रीय दलों पंजाब में अकाली दल, जम्मू कष्मीर में नेषनल
कां ेस, तमिलनाडु में द्रमुक ने भी अपने अपने राज्यों में चुनाव घोषणा पत्र प्रसारित किये। इनमें राज्यों को स्वायत्ता प्रदान करने तथा और अधिक अधिकार प्रदान करने की मांग की गई। कतिपय प्रमुख वामपंथी दलों सोषलिस्ट यूनिटी सेन्टर आॅफ इण्डिया, फाॅरवर्ड ब्लाॅक और माक्र्सवादी समन्वयक समिति ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वामपंथी एकता पर बल दिया। ल. निर्वाचन अभियान:- सन 1977 के आम चुनावों की तुलना में इस चुनाव में उत्साह और उत्तेजना की भारी कमी थी। साधारण जनमानस में चुनाव के प्रति निष् ियता और उदासीनता की भावना थी। सन 1977 में उन्होंने जिस जोष के साथ सरकार की बदलने के लिए जनता पार्टी को समर्थन दिया था, वह जनता पार्टी के विघटन और सत्ता की लड़ाई के घटनाच के कारण ठण्डा पड़ गया था। इस घटना म ने भारतीय मतदाताओं को बुरी तरह से निराष करते हुए उन्हें इस हद तक उदासीन और क्षुब्ध बना दिया कि ये कहने लग गये कि वे सभी नेता और दल एक समान हंै और सभी जनता को धोखा देते हंै। यह मानसिकता लोकतंत्र के लिए षुभ लक्षण नहीं थी फिर भी राजनीतिक दलों ने अपने चुनाव प्रचार के चुनाव घोषणा पत्र, आमसभाओं, नुक्कड़ सभाओं, पम्पलेट, पोस्टरों, आकाषवाणी और दूरदर्षन का सहारा लिया। इस चुनाव में भी विभिन्न दलों द्वारा मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए विभिन्न नारों का सहारा लिया गया। कांग्रेस३ई.७ के तीन प्रमुख नारे थेः-
1. इन्दिरा लाओ, देष बचाओ।
2. चुनिए उन्हें, जो सरकार चला सके।
3. न जांत न पांत पर, इन्दिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर। लोकदल ३जनता एस७ का प्रमुख नारा था - गरीबी मिटाने का निषान। हल जोतता हुआ किसान। इसके अलावा ‘लोगों का दल, लोकदल’ भी इस दल का प्रमुख नारा
था। जनता पार्टी के नारों में प्रमुख थे:-
1. सदियों का कलंक मिटाना है। जगजीवनराम को लाना है।
2. तानाषाही पनप न पाये। हर दलबदलू, मुँह की खाए।
3. नया जाल, पुरानी चाल
इन्दिरा, संजय, बंषीलाल।
4. माँ, बेटे से देष बड़ा।
5. इन्दिरा हटाओ, देष बचाओ।
6. इन्दिरा का है एक ही ख्वाव, संजय बेटा बने नवाब।
7. गरीबों, हरिजनों और षोषित वर्ग के मसीहा बाबू जगजीवनराम।
1980 के चुनाव में लोकसभा के 542 स्थानों पर चुनाव होना था लेकिन
चुनाव 525 स्थानों पर ही हुआ। दो स्थानों पर निर्विरोध चुनाव हुआ। इस निर्वाचन में कांग्रेस सहित किसी भी राजनीतिक दल ने सारे स्थानों के लिए चुनाव नहीं लड़ा। कांग्रेस ३आई७ 491 और जनता पार्टी ने 431 सीटों के लिए उम्मीदवार खड़े किए।
1977 के चुनाव में बुरी तरह पराजित होने वाले दल, इन्दिरा कांग्रेस के
बारे मे ं यह सोचा भी नही ं जा सकता था कि केवल दो वर्षों के बाद ही वह पुनः सत्ता में आ जाएगी, लेकिन हुआ यही। 1980 के इस मध्यावधि में जिस 527 स्थानों के लिए चुनाव हुआ। उसमें कांग्रेस ३आई७ को 352 स्थान प्राप्त हुए, जो कुल स्थानों का 66.79 प्रतिषत था। सन 1980 के लोकसभा चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों का निष्पादन निम्नाकित तालिका में देखा जा सकता है।15
राजनीतिक दल
कुल प्राप्त प्राप्त स्थानों
प्राप्त मतों का
स्थान
का प्रतिषत
प्िरतषत
कांग्रेस ३आई७
352
66.79
42.68
कागं ्रेस ३अर्स७
13
2.47
5.29
जनता पार्टी
31
5.88
18.93
जनता पार्टी ३सेक्युलर७
41
7.78
9.42
कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इण्डिया
11
2.09
2.59
कम्युनिस्ट पार्टी ३माक्र्सवादी७
36
6.83
6.16
राज्य राजनीतिक दल
34
6.45
7.69
रजिस्टर्ड राजनीतिक दल
01
0.19
0.82
सन 1980 का लोकसभा चुनाव ३7वीं लोकसभा७
निर्दलीय
08
1.52
6.42
योग
527
100.00
100.00
1980 के चुनाव में कांग्रेस का दो तिहाई बहुमत से वापिस आना एक राजनीतिक चमत्कार था। कांग्रेस की अप्रत्याषित विजय के दौ मालिक कारण बताए जा सकते हंै - प्रथम, जनता सरकार का अत्यधिक निराषाजनक निष्पादन और द्वितीय, इंदिरा गाँधी का प्रभावषाली व्यक्तित्व। सन् 1977 के चुनाव के अवसर पर भारत के मतदाता कांग्रेस षासन से ¯ब चुके थे, वे एक विकल्प की तलाष में थे और कांग्रेस सरकार को हटाने के लिए व्याकुल थे। विभिन्न राजनीतिक दलों के गठजोड़ से निर्मित जनता पार्टी एक विकल्प के रूप में सामने आई। बड़ी आषाओं के साथ मतदाताओं ने भारी बहुमत से जनता पार्टी को विजयी बनाया। ऐसा लगता था कि अब केन्द्र में कांग्रेस पार्टी कुछ दिनों तक सत्ता में न आ सकेगी। लेकिन ढ़ाई वर्ष के षासनकाल में जनता पार्टी में आंतरिक रूप में इतने मतभेद हो गये कि मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। उनके उत्तराधिकारी के रूप में चैधरी चरण सिंह एक महीने से भी कम दिनों के लिए प्रधानमंत्री रह पाए। विभिन्न धटकों की बीच संघर्ष और उपर्युक्त राजनीतिक उतार-चढ़ाव से जनता पार्टी की छवि धूमिल हो गई और आम जनता में यह भावना तेजी से विकसित हो गई कि राष्टश्ीय स्तर पर कांग्रेस के अतिरिक्त कोई अन्य दल स्थिर सरकार बनाने की क्षमता नहीं रखता। अपने षासनकाल में ढ़ाई वर्षों में जनता पार्टी ने विभिन्न तरीकों से इंदिरा गाँधी की छवि बिगाड़ने की कोषिष की। उन्हें गिरफ्तार किया गया, षाह कमीषन का गठन किया गया और तरह-तरह की यातनाऐं दी गई। इंदिरा गाँधी ने इन परिस्थितियों का दष्ढ़ता से मुकाबला किया। इससे जनता की सहानुभूति इंदिरा गाँधी के साथ हो गईं और उन्हें यह लगा कि जनता पार्टी और इंदिरा गाँधी के बीच चल रहा संघर्ष केवल स्वार्थ और सत्ता के लिए है, इसके मूल में सिान्त या आदर्ष नहीं हंै। दूसरी ओर स्वयं जनता पार्टी अपने आन्तरिक मतभेदों के कारण अपनी कार्यकुषलता का परिचय न दे सकी और सामान्य स्थिति कागं ्रेस षासन काल से भी ज्यादा खराब होती गई अतः मतदाता जल्दी ही जनता सरकार और उसकी कार्यप्रणाली से असन्तुष्ट हो गए।16 सन 1980 के चुनाव में इंदिरा गाँधी ने बड़े ही विष्वास और संयम के साथ चुनाव लड़ा। इतना व्यापक चुनाव अभियान षायद इससे पहले नहीं किया था। इंदिरा गाँधी ने 384 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का दौरा किया और रात दिन मेहनत की। वास्तविकता यह है कि इस चुनाव में कांग्रेस की विजय, दल की जीत नहीं, इंदिरा गाँधी की व्यक्तिगत जीत थी। मतदाताओं ने सिान्त या आदर्ष के नाम पर नहीं, केवल इंदिरा गाँधी के नाम पर वोट दिया।
जनता पार्टी में विभाजन होने के फलस्वरूप पहले की तरह कांग्रेस
विरोधी को पुनः गैर कांग्रेसी दलों में विभाजित हो गए और इसका लाभ वास्तविक रूप स े कागं स्रे का े मिला। अन्य कारणा ंे स े अतिरिक्त 1980 क े चनु ाव म ंे कागं से्र ३आइर्७ का दा े तिहाई बहुमत प्राप्त कर लने ा, इंिदरा गाँधी क े चमत्कारी नते ष्त्व का सबस े बडा़ प्रभाव था।
राज्य विधानसभाओं के चुनाव -
सातवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिलने के पष्चात कांग्रेस सरकार ने भी जनता सरकार द्वारा अपनाई गई नीति का अनुसरण किया और नौ राज्य विधानसभाओं का विघटन कर दिया जिनमें जनता पार्टी बुरी तरह पराजित हुई। ये राज्य थे - उत्तरप्रदेष, मध्यप्रदेष, बिहार, राजस्थान, महाराष्टश्, गुजरात, उड़ीसा, तमिलनाडु और पंजाब। मई 1980 में इन 9 राज्यों में मध्यावधि चुनाव हुए जिनमें केवल तमिलनाडु में अन्ना डी.एम.के. को सफलता मिली, षेष आठ राज्यों में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ। इस प्रकार 1980 में एक बार फिर कांग्रेस दल का राजनीतिक एकाधिकार स्थापित हो गया। मई 1982 में चार राज्यों - हरियाणा, हिमाचल प्रदेष, केरल और पष्चिमी बंगाल विधानसभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में पष्चिमी बंगाल में माक्र्सवादी दल सत्ता में आया, षेष तीन राज्यों में कांग्रेस दल ने सरकार का निर्माण किया। जनवरी 1983 में तीन अन्य राज्यों ३आन्ध्रप्रदेष, कर्नाटक और त्रिपुरा७ के
चुनाव हुए। इन निर्वाचनों में कांग्रेस को हानि हुई। आन्ध्रप्रदेष से कांग्रेस षासन का अन्त हो गया और एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल ‘तेलगुदेषम’ ने सरकार का निर्माण किया। कनार्टक में कुछ विपक्षी दलों के सहयोग से जनता पार्टी ने सरकार का निर्माण किया और त्रिपुरा में माक्र्सवादी दल पूर्ण बहुमत के साथ विजयी हुआ।
7. 1984-85 का लोकसभा चुनाव -
प्रधानमंत्री- राजीव गांधी ३काॅग्रेस-आई७
३कार्यकाल- 31 अक्टूबर, 1984 से 1 दिसम्बर, 1989७
दिसम्बर 1984 में 8वीं लोकसभा चुनाव कुछ असाधारण परिस्थितियों का परिणाम था। 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उसी दिन राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की षपथ दिला दी गयी। नये प्रधानमंत्री ने लोकसभा के यथासंभव षीघ्र चुनाव कराने का निर्णय लिया। 20 नवम्बर को चुनाव आयोग द्वारा यह घोषणा कर दी गयी कि 24 दिसंबर को लोकसभा के चुनाव कराए जाएंगे। तद्नुसार दिसम्बर 1984 में 20 राज्यों और 9 केन्द्रषासित प्रदेषों में चुनाव सम्पन्न हुए। पंजाब और असम में व्याप्त आन्तरिक अषान्ति के कारण चुनाव नहीं कराये जा सके। जून 1984 में स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेष के बाद पंजाब की स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण थी। इंदिरा गाँधी की उनके सिक्ख बाॅडीगार्ड द्वारा हत्या किए जाने से स्थिति और भी खराब हो गई। देष के कुछ अन्य भागों, विषेषकर असम में भी स्थिति खराब थी। इस वातावरण में कांग्रेस ३आई७ की ओर से यह नारा दिया गया कि देष की एकता और अखण्डता खतरे में है और इसे केवल कांग्रेस दल ही सुरक्षित रख सकता है।17 पूरा देष इंदिरा गाँधी की दुःखद हत्या से दुःखी था और जनता के दिल में राजीव गाँधी के लिए स्वाभाविक रूप से दया और सहानुभूति जाग उठी थी। विपक्षी दलों के पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं था जो मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर पाता। दिसम्बर 1984 में 508 निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव सम्पन्न हुए। सात स्थानों के लिए जनवरी 1985 में चुनाव हुए। इस चुनाव में इन्दिरा कांग्रेस को 515 स्थानों मे ं से 405 स्थान प्राप्त हुए जो कुल स्थानो ं का लगभग 80 प्रतिषत स्थानो ं के लगभग था। 1984 के चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों का निष्पादन निम्नलिखित तालिका में देखा जा सकता है।18 सन 1984-85 का लोकसभा चुनाव ३8वीं लोकसभा७
राजनीतिक दल कुल प्राप्त प्राप्त स्थानों प्राप्त मतों का
स्थान का प्रतिषत प्िरतषत
कांग्रेस ३आई७
405
78.64
49.10
51.90
कांग्रेस ३सोषलिस्ट७
4
0.78
1.52
जनता पार्टी
10
1.94
6.89
भारतीय जनता पार्टी
2
0.39
7.74
लाके दल
3
0.58
5.97
कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इण्डिया
6
1.16
2.71
कम्युनिस्ट पार्टी ३माक्र्सवादी७
22
4.27
5.87
राज्य राजनीतिक दल
58
11.27
11.56
रजिस्टर्ड राजनीतिक दल
-
-
0.72
निर्दलीय
0.5
0.97
7.92
योग
515
100.00
100.00
सन 1984 के लोकसभा के चुनाव परिणामों से निम्नलिखित महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हंै।
1. 1952 से अब तक पहली बार कांग्रेस को इतना बड़ा बहुमत प्राप्त हुआ था। 2. इस चुनाव में पहली बार बहुमत प्राप्त दल को देष में पड़े हुए कुल मतों के 50 प्रतिषत से अधिक मत मिले। इससे पहले किसी भी चुनाव में सरकार बनाने वाले दल को, चाहे वह कांग्रेस दल रहा हो या जनता पार्टी, 50 प्रतिषत मत नहीं मिले थे। इन अर्थों में 1984 के चुनाव के बाद बनने वाली कांग्रेस सरकार देष की पहली सरकार थी जिसे देष के कुल मतदाताओं का पूर्ण विष्वास और समर्थन मिला। 3. 1984 के चुनाव में सात राज्यों में सभी चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस दल को सफलता मिली और विपक्ष को कोई भी सीट न मिल सकी। यह राज्य थे - हरियाणा, हिमाचल प्रदेष, मध्यप्रदेष, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड और राजस्थान। इनके अतिरिक्त आठ केन्द्र षासित प्रदेषों में भी कांग्रेस को समस्त स्थान प्राप्त हुए। 4. कुछ राज्यों में जैसे पष्चिमी बंगाल, केरल और कर्नाटक जो विपक्षी दलों के गढ़ समझे जाते थे उनमें भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली।
5. इस चुनाव में समस्त गैर कांग्रेसी दलों को प्राप्त कुल मतों को यदि जोड़ दिया जाए तो भी कांग्रेस को प्राप्त हुई सीटों में लगभग 20 स्थानों की ही कमी हो पाती। 6. पिछले सभी चुनावों में यह कहा गया था कि कांग्रेस की सफलता हरिजन और मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन के कारण हुई थी। इस चुनाव ने इस तर्क को भी असत्य सि कर दिया क्योंकि को जिस बड़ी संख्या में मत प्राप्त हुए, वह समाज के सभी वर्गों के समर्थन के कारण ही मिल सके थे।
7. 1984 के चुनाव मतदाताओं ने इंदिरा गाँधी के नाम पर वोट दिया और वे भावनात्मक
धर्म और जाति जैसे महत्वपूर्ण कारक बड़ी हद तक अप्रभावी से प्रतीत हुये।
8. सन 1989 का लोकसभा चुनाव -
प्रधानमंत्री- वी.पी. सिंह ३जनता दल७
३कार्यकाल- 2 दिसम्बर,1989 से 10 नवम्बर, 1990७
प्रधानमंत्री- चन् षेखर ३जनता दल-सो७
३कार्यकाल- 11 नवम्बर, 1990 से 21 जून, 1991७ नवम्बर 1989 में नवीं लोकसभा का चुनाव हुआ जिसमें आठ राष्टश्ीय
दलों, 33 राज्य दल और 301 रजिस्टर्ड पार्टियों ने भाग लिया। इस चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों का निष्पादन निम्न रहा।19
सन 1989 का लोकसभा चुनाव ३9वीं लोकसभा७
राजनीतिक दल
कुल प्राप्त
प्राप्त स्थानों
प्राप्त मतों का
स्थान
का प्रतिषत
प्िरतषत
अ- राष्टश्ीय दल
कागं से्र
197
37.24
39.53
जनता दल
143
27.03
17.79
भारतीय जनता पार्टी
85
16.07
11.36
साम्यवादी
12
2.27
2.57
साम्यवादी ३माक्र्सवादी७
33
6.24
6.55
कांग्रेस समाजवादी
1
0.19
0.33
जनता पार्टी
-
-
1.01
लोक दल ३बी७
-
-
0.20
ब- राज्य दल
27
5.10
9.28
स- रजिस्टर्ड दल
19
3.59
6.13
द- निर्दलीय
12
2.27
5.25
योग
515 100.00 100.00
उपर्युक्त तालिका से यह स्पष्ट होता है कि 1989 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को मिले कुल स्थानों का प्रतिषत उसे मिले कुल मतों से कम रहा। ऐसी स्थिति 1977 के चुनाव में भी उत्पन्न हुई थी जब कांग्रेस को प्राप्त मतों के प्रतिषत के मुकाबले में लोकसभा में 6.11 प्रतिषत कम स्थान प्राप्त हुए थे। 1952 से 1971 तक के सभी चुनावों में कांग्रेस पार्टी के प्राप्त कुल मतों के प्रतिषत से लगभग दो गुना अधिक स्थान प्राप्त हुए थे।
1989 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को सबसे अधिक क्षति उठानी पड़ी, लोकसभा में इसकी सदस्य संख्या आठवी लोकसभा की तुलना में आधे से भी कम हो गई और मतों का प्रतिषत भी 10 प्रतिषत से कम हो गया। कांग्रेस दल में उत्पन्न हुई अव्यवस्था, आन्तरिक गुटबन्दी, पारस्परिक वैमनस्य और मुख्य रूप से राजीव गाँधी के खिलाफ स्वयं कांग्रेस के सदस्यों द्वारा लगाये गये भ्रष्टाचार के आरोप कांग्रेस के पतन का मूल कारण बन गये। दूसरी ओर कतिपय गैर कांग्रेसी दलों के विलय से बनने वाली राजनीतिक दल जनता दल ने सुसंगठित रूप से कांग्रेस को
भारी टक्कर दी।
इस चुनाव की एक प्रमुख विषेषता तथाकथित साम्प्रदायिक राजनीतिक दल ‘भारतीय जनता पार्टी’ का सषक्त रूप से उभरकर आना था। 1980 के चुनाव में भाजपा को लोकसभा में केवल दो स्थान और देष में पड़े हुए कुल मतों का मात्र 7.74 प्रतिषत मत प्राप्त हुए थे। उक्त चुनाव में भाग लेने वाले सात राष्टश्ीय राजनीतिक दलो ं मे ं भाजपा को सबसे कम ३केवल दो७ स्थान मिले थे। इसके विपरीत 1989 के चुनाव में भाजपा को तीसरा स्थान प्राप्त हुआ और लोकसभा में इसे 85 स्थान प्राप्त हुए। यदि इस बात को मान लिया जाये कि भाजपा एक साम्प्रदायिक दल है तो उपयुक्त चुनाव परिणामों से यह निष्कर्ष निकालना गलत न होगा कि 1989 के बाद से राष्टश्ीय राजनीति में साम्प्रदायिक षक्तियों को बहुत ज्यादा बल मिला। यह बात निर्विवाद है कि भाजपा अयोध्या जैसे विवादास्पद, धार्मिक मुद्दों का े उठाकर और भावनात्मक उत्तजे ना पैदा करक े धर्म क े नाम पर जनसमर्थन जुटाने में सफल हुई।
संक्षेप में 1989 के चुनाव से भारतीय राजनीति में कांग्रेस के पतन और भाजपा के उत्कर्ष का युग प्रारम्भ होता है। यहीं से देष में ‘‘एक दलीय सरकार’’ के युग की समाप्ति और ‘‘साझा सरकारों का युग’’ प्रारम्भ हुआ है जिसने देष में राजनीतिक स्थायित्व के नाम पर अस्थायित्व को जन्म दिया।
1989 के चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं
मिला। कांग्रेस पार्टी 197 सीटें जीतकर लोकसभा में सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में आई। कांग्रेस ने किसी अन्य दल के सहयोग से सरकार बनाने से इंकार किया। फलस्वरूप नेषनल ंट ने जिसे 143 स्थान मिले थे, भाजपा और वामपंथी मोर्चे द्वारा बाहर से दिए गए समर्थन से 2 दिसम्बर 1989 को वीपी सिंह के नेतष्त्व में सरकार का गठन किया किन्तु इस सरकार के एक वर्ष पूरा होने से पहले ही भाजपा ने सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से चन्द्रषेखर ने केवल 61 सांसदों वाले नेता की हैसियत से सरकार बनाई यह सरकार स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की दया की पात्र थी। केवल 224 दिनों के बाद ही कांग्रेस ने चन्द्रषेखर सरकार से अपना समर्थन वापिस लेकर सरकार को भंग करा दिया और इस प्रकार 9वीं लोकसभा केवल दो वर्ष ही जीवित रह पाई।20
9. 1991 का लोकसभा का चुनाव -
प्रधानमंत्री- पी.वी.नरसिम्हाराव ३काॅग्रेस-आई७
३कार्यकाल- 21 जून, 1991 से 16 मई, 1996७
1991 म ंे दसवी ं लाके सभा क े चुनाव हुए। इस चुनाव म ंे 9 राष्टश्ीय दल, 39 राज्य दल और 301 रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों ने भाग लिया। यह पहला चुनाव था जिसमें नेहरू परिवार से कोई चुनाव मैदान में न था किन्तु राजीव गाँधी की हत्या के कारण मतदाताओं का सहानुभूति मत कांग्रेस को मिला। 1991 के चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों का निष्पादन निम्नलिखित तालिका में देखा जा सकता है।21
सन 1991 का लोकसभा चुनाव ३10वीं लोकसभा७
राजनीतिक दल
कुल प्राप्त
प्राप्त स्थानों
प्राप्त मतों का
स्थान
का प्रतिषत
प्िरतषत
अ- राष्टश्ीय दल
कागं से्र
232
44.53
36.50
भारतीय जनता पार्टी
120
23.03
20.08
साम्यवादी
14
2.69
2.49
साम्यवादी ३माक्र्सवादी७
35
6.72
6.10
कांग्रेस सोषलिस्ट
01
0.19
0.36
जनता दल
59
11.32
11.88
जनता दल ३एस७
-
0.00
0.08
जनता पार्टी
05
0.96
3.30
लोक दल
-
0.00
0.06
ब- राज्य दल
50
9.61
12.98
स- रजिस्टर्ड दल
04
0.56
2.19
द- निर्दलीय
01
0.19
3.92
योग
521 100.00 100.00
उपरोक्त चुनाव परिणामों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस दल को मिलाने वाले मतों का प्रतिषत तो घटा किन्तु लोकसभा में लगभग 7 प्रतिषत अधिक स्थान मिले।1989 के चुनाव में कांगे्रस को 39.53 प्रतिषत मत और 37.24 प्रतिषत स्थान मिले थे। 1991 के इसका मत प्रतिषत घटकर 36.50 प्रतिषत हो गया किन्तु स्थान बढ़कर 44.53 प्रतिषत हो गए। यह स्थिति संभवतः समान स्तरीय राजनीतिक दलों की संख्या बढ़ने और उनके बीच मतों के बँटवारे के कारण उत्पन्न हुई।
1991 के चुनाव में भाजपा को लोकसभा में तीसरे के बजाए दूसरा स्थान मिला और यह 85 ३1989७ के स्थान पर 120 सीटें प्राप्त करके सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभर कर आयी। भाजपा की इस विजय का कारण साम्प्रदायिक षक्तियों का बढ़ता हुआ प्रभाव बताया गया। इस चुनाव में सबसे अधिक क्षति जनता दल को हुई जो पिछले चुनाव में लोकसभा में दूसरे स्थान पर था किन्तु इस चुनाव में जनता दल की सीटें 143 ३1989७ से घटकर केवल 59 रह गईं। साम्यवादी दलों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। जनता दल की पराजय का मुख्य कारण उसका आन्तरिक विभाजन तथा उसकी सरकार का असंतोषजनक निष्पादन था।22
1991 के चुनाव में राज्य स्तरीय दलांे को लाभ पहुँचा। विगत चुनाव में
प्राप्त 27 स्थानों के मुकाबले में इस चुनाव में उन्हें 50 सीटें मिली। यह स्थिति राज्य राजनीतिक दलों के बढ़ते हुए प्रभाव की ओर इंगित करती है। इस चुनाव की एक अन्य विषेषता निर्दलीय प्रत्याषियों का मतदाताओं द्वारा तिरस्कार करना था। 1989 के चुनाव में 12 निर्दलीय प्रत्याषी विजयी हुए थे। 1991 में केवल एक निर्दलीय प्रत्याषी ही लोकसभा में प्रवेष पा सका इससे मतदाताओ ं की ब
10वीं लोकसभा ने अपनी पाँच वर्ष की अवधि पूरी की जिसका श्रेय कांग्रेस प्रधानमंत्री नरसिंह राव को जाता है। अल्पमत मंे होने के बाद भी उन्होंने अपनी राजनीतिक सूझबूझ से अपनी सरकार को विघटन से बचाए रखा।
10. 1996 का लोकसभा का चुनाव -
प्रधानमंत्री- अटल बिहारी वाजपेयी ३भाजपा७
३कार्यकाल- 16 मई, 1996 से 1 जून 1996७
प्रधानमंत्री- एच.डी. देवगौड़ा ३जनता दल संयुक्त मोर्चा७
३कार्यकाल- 1 जून 1996 से 21 अप्रैल,1997७
प्रधानमंत्री- इन् कुमार गुजराल ३जनता दल संयुक्त मोर्चा७
३कार्यकाल- 21 अप्रैल,1997 से 18 मार्च 1998७
1996 के चुनाव अत्यधिक अस्थिरता की स्थिति म ें हुए। सत्ता के दावेदार तीन मुख्य राजनीतिक दल थे - कांग्रेस ३इन्दिरा७, भारतीय जनता पार्टी तथा राष्टश्ीय मोर्चा। राष्टश्ीय मोर्चे में सम्मिलित थे - जनता दल, दोनों साम्यवादी दल, रिवोल्यूष्नरी सोषलिस्ट पार्टी तथा फार्वर्ड ब्लाॅक आदि। इस नेषनल न्ट में कुछ नवनिमिर्त क्षत्रे ीय राजनीतिक दल जसै े - तले गदु ष्े ाम, तमिलमनिला कागं से्र , असमगण परिषद, मध्य प्रदेष विकास पार्टी, इन्दिरा कांग्रेस ३तिवारी७, डी.एम.के. तथा कर्नाटक कांग्रेस आदि भी सम्मिलित हो गए। इस प्रकार नेषनल न्ट का आकार पहले की तुलना में काफी बड़ा हो गया।
1991-96 के बीच विभिन्न राष्टश्ीय दलों में आन्तरिक गुटबंदी इतनी बढ़ गई कि उनमें से अनेक का विभाजन हो गया। कांग्रेस ३इंदिरा७ का एक गुट जो दल अध्यक्ष की नीतियों से असंतुष्ट था, वह अर्जुन सिंह के नेतष्त्व में अलग हो गया और एक नया दल इन्दिरा कांग्रेस ३तिवारी७ अस्तित्व में आया। इस दल का अध्यक्ष उत्तर प्रदेष के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को बनाया गया। तमिलनाडु में डीएमके के विभाजन के फलस्वरूप मूपनार के नेतष्त्व में एक नया दल ‘‘तमिल मनिला कांगे्रस’’ अस्तित्व में आया। मध्यप्रदेष में माधवराज सिंधिया ने एक विषेष निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का टिकट न पाने पर रूष्ट होकर अलग दल ‘‘मध्यप्रदेष विकास पार्टी’’ का निर्माण किया। गुजरात में भाजपा की आन्तरिक लड़ाई जोरों पर थी और चुनाव के बाद षंकर सिंह बघेला ने एक नई पार्टी ‘‘महा गुजरात पार्टी’’ की स्थापना की। एक अन्य राष्टश्ीय दल जनता दल ने 1994-95 के बीच दो बार विभाजन हुआ। राष्टश्ीय दलों ने इस टूट-फूट का परिणाम यह हुआ कि अन्य राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दल मजबूत हुए। चुनाव के कुछ दिनों पूर्व जैन हवाला स्कैण्डल सामने आया जिसमें भाजपा अध्यक्ष एल.के. आडवाणी सहित 29 वरिष्ठ राजनीतिज्ञों ३जिनमें 8 केन्द्रीय मंत्री थे और दो पूर्व राज्यपाल भी थे७ के विरू चार्जषीट जारी की गई। भ्रष्टाचार के इस गम्भीर मामले का प्रभाव लगभग सभी राष्टश्ीय राजनीतिक दलों की स्थिति पर पड़ा।
यह थी वह राजनीतिक परिस्थितियाँ जिनमें 1996 में 11वीं लोकसभा के
चुनाव हुए। यह चुनाव कुछ अर्थों में विगत चुनावों से भिन्न था। इसकी सबसे प्रमुख विषेषता मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. षेषन द्वारा चुनाव की नयी आचार संहिता जिसने चुनाव में होने वाले असीमित व्यय और चुनाव अभियान में अपनाए जाने वाले प्रचार के तरीकों को इस प्रकार प्रतिबंधित कर दिया कि यह लगा ही नहीं कि देष में चुनाव हो रहे हंै। इस चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थिति निम्न थी।23
राजनीतिक दल
कुल प्राप्त
प्राप्त स्थानों
प्राप्त मतों का
अ- राष्टश्ीय दल
स्थान
का प्रतिषत
प्िरतषत
भारतीय जनता पार्टी
161
29.65
20.29
कागं से्र
140
25.78
28.80
सन 1996 का लोकसभा चुनाव ३11वीं लोकसभा७
जनता दल 46
8.74
8.08
साम्यवादी 12
2.20
1.97
साम्यवादी ३माक्र्स७ 32
5.80
6.12
समता पार्टी 08
1.47
2.17
आॅल इण्डिया इन्दिरा कांग्रेस३तिवारी७04
0.74
1.46
जनता पार्टी
00
0.00
0.19
ब- राज्य राजनीतिक दल
127
23.38
21.34
स- रजिस्टर्ड दल
04
0.73
3.29
द- निर्दलीय
09
1.65
6.28
योग
538
100.00
100.00
1996 क ेचनु ाव म ंेभारतीय जनता पार्टी लाके सभा म ंेसबस ेबड े़राजनीतिक दल के रूप में उभर कर सामने आयी। इसे 120 ३1991७ के मुकाबले में 161 स्थान मिले। कांगे्रस 141 स्थान प्राप्त करके दूसरे स्थान पर रही। यह उल्लेखनीय है कि 1989 के चुनाव से भाजपा की षक्ति लगातार बढ़ती रही। 1984 में इसे केवल 02 स्थान मिले थे। जो बढ़कर 1989 में 85, 1991 में 120 और 1996 में 161 हो गये। इससे स्पष्ट है कि एक दषक में भाजपा ने अप्रत्याषित लोकप्रियता प्राप्त की। राजनीतिक पर्यवेक्षका ें का कहना है कि राम मंिदर जैसे कुछ धार्मिक मुद्दा ें ने भाजपा को बल प्रदान किया। और धर्म का कार्ड ही मूल रूप से उसकी बढ़ती हुयी लोकप्रियता के लिए उत्तरदायी था। दूसरी ओर कांगे्रस पार्टी में आंतरिक गुटबंदी और तोड़फोड़ तथा अन्य दलों में हुये विभाजन के कारण जनसाधारण का विष्वास उन दलों पर और कम हो गया। भाजपा की छवि एक अनुषासित पार्टी की थी और इसका लाभ भी उसको मिला। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का मुद्दा भावनात्मक आकर्षण के रूप में अत्यधिक प्रभावी सि हुआ।इस धार्मिक भाव में राष्टश्ीय और अन्तर्राष्टश्ीय मुद्दे और नीतियाँ गौण बन गयी।24
इस चुनाव म ंे कागं ्रेस का े सबस े ज्यादा नुकसान पहुँचा। लाके सभा म ंे उसे केवल 140 स्थान मिले जो अब तक हुये चुनावों में से उसे मिले स्थानों की तुलना में सबसे कम थे। 1989 के चुनावों में कांग्रेस को 197 तथा 1991 में 232 स्थान मिले थे। यही नहीं कांग्रेस को मिलने वाले मतों का प्रतिषत भी 36.50 प्रतिषत ३1991७ से घटकर 28.80 प्रतिषत हो गया। उसके लोकसभा में प्राप्त स्थानों का प्रतिषत भी 44.53 प्रतिषत ३1991७ से घटकर 25.78 प्रतिषत हो गया। आष्चर्य की बात यह है कि हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस का सफाया हो गया। इसके द्वारा जीते गये 140 स्थानों में से 100 स्थान गैर हिंदी भाषी राज्यों में मिले। उत्तरप्रदेष में कांग्रेस को 85 स्थानों में से केवल 5 और बिहार में 54 में से केवल 4 स्थान प्राप्त हुये। ऐसा लगता है कि धार्मिक मुद्दे हिंदी भाषी राज्यो ंमें ज्यादा आकर्षक सि हुये। जबकि अन्य राज्यो ंमें मंदिर-मस्जिद विवाद का ज्यादा प्रभाव नहीं हुआ।
कांग्रेस की भारी पराजय का मुख्य कारण उसके परम्परागत वोट बैंक ३अल्पसंख्यक और अनुसूचित जाति तथा पिछड़ा वर्ग७ का कमजोर होना था। बाबरी मस्जिद विवाद ने मुसलमानों को कांग्रेस से बहुत दूर कर दिया। वहीं दूसरी ओर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी ने पिछड़े वर्गों और अनूसूचित जातियो ंपर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। इस प्रकार हुये वोट विभाजन ने स्वयं इन दलों को बहुत लाभ भले ही ना पहुचाया हो किन्तु कांग्रेस पार्टी को भारी नुकसान पहुचं ा।
1996 के संसदीय चुनाव से भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। क्षेत्रीय दलों का प्रभावी रूप से उभरना। इस चुनाव में राज्य स्तर के राजनीतिक दलों को 127 तथा रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों को 4 स्थान मिले जबकि 1991 में यह सख्ं या 50$04 ३ मषः राज्य दल तथा रजिस्टर्ड दल७ 1989 म ंे 27$19, 1984 म ंे 58, 1980 में 34$01 और 1977 में 40$13 थी। यह उल्लेखनीय है कि 1952 से 1991 तक राज्य स्तरीय, राजनीतिक दलों की अधिकतम संख्या 58 थी जो कि 1996 के चुनाव में दुगुनी से अधिक हो गई। यूनाइटेड ंट को प्राप्त हुए कुल 176 स्थानों में से 117 स्थान इसके घटक क्षेत्रीय दलों को मिले। इन 117 स्थानों में से केवल तीन दलों डी.एम.के. तमिल मनिला कांग्रेस और तेलगूदेषम को 53 स्थान मिले थे। परिणाम यह हुआ कि केन्द्र सरकार के बनाने और गिराने में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने निर्णायक भूमिका अदा की। वर्तमान स्थिति यह है कि क्षेत्रीय दलों के समर्थन के बल पर सरकार का जीवन निर्भर करता है। क्षेत्रीय दलों के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण अब कन्ेद ्रसरकार उतनी षक्तिषाली नही ंहा ेसकती जितनी कागं से्र षासनकाल में थी।25
11. 1998 का लोकसभा का चुनाव:-
प्रधानमंत्री- अटल बिहारी वाजपेयी ३एन.डी.ए.७
३कार्यकाल- 19 मार्च 1998 से 13 अक्टूबर, 1999७
11वीं लोकसभा के चुनाव 1996 में हुए थे जिसमें किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और पहली सरकार अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 मई, 1996 को बनायी जो 13 दिनों तक ही जीवित रह सकी। मई 1996 से जनवरी 1998/मार्च 1998 तक तीन सरकारें बनीं और टूटी और अन्तोतगत्वा 4 दिसम्बर 1997 को लोकसभा की तरह इस चुनाव म ें भी किसी एक राजनीतिक दल को अकेले अथवा उसके सहयोगी दलों की सदस्य संख्या मिलकर भी पूर्ण बहुमत न मिल सका। फिर भी भाजपा सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में लोकसभा में वापिस आयी।
1998 के लोकसभा चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थिति निम्न प्रकार
थी।26
सन 1998 का लोकसभा चुनाव ३12वीं लोकसभा७
राजनीतिक दल कुल प्राप्त प्राप्त स्थानों प्राप्त मतों का
स्थान का प्रतिषत प्िरतषत
अ- राष्टश्ीय दल
भारतीय जनता पार्टी
179
32.96
25.38
कागं से्र
141
25.96
25.72
साम्यवादी दल ३माक्र्स७
32
5.89
5.21
समता पार्टी
12
2.20
1.77
साम्यवादी दल
09
1.65
1.74
जनता दल
06
1.10
3.20
बहुजन समाज पार्टी
05
0.92
4.66
ब- राज्य दल
97
17.86
18.21
स- रजिस्टर्ड दल
58
10.68
9.62
द- निर्दलीय
04
0.73
2.22
योग
543
100.00
100.00
चुनाव परिणामों से यह स्पष्ट होता है कि 1998 के चुनाव में भाजपा की संख्या 161 ३1996७ से बढ़कर 179 हो गई लेकिन कांग्रेस की स्थिति 1996 जैसी रही बल्कि उसे एक सीट का लाभ हुआ। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि भाजपा का समर्थन आधार कांग्रेस के मुकाबले में कमजोर हुआ। भाजपा को कुल मतों का 25.38 प्रतिषत मिला जबकि कांग्रेस को 25.72 प्रतिषत मत प्राप्त हुआ। इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत न होगा कि भाजपा कांग्रेस के मुकाबले में ज्यादा लोकप्रियता नहीं प्राप्त कर सकी। इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई एक राजनीतिक दल कांग्रेस के अतीत का षायद मुकाबला न कर सकेगा।
1996 के चुनाव परिणामों की तुलना में 1998 के चुनाव में बिहार,
गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेष, उत्तरप्रदेष में भाजपा को मिलने वाली सीटों में वष् िहुई। आंध्र प्रदेष ३04७, हिमाचल प्रदेष ३03७,उड़ीसा ३07७, पंजाब३03७,तमिलनाडु और यहां तक की पष्चिम बंगाल३01७ में भाजपा को 1996 के चुनाव में एक भी स्थान नहीं मिला। इस बार लोकसभा में प्रतिनिधित्व मिला। इस प्रकार 12वीं लोकसभा चुनाव में भाजपा हिन्दी भाषी राज्यों से निकालकर दक्षिण के राज्यों में अपना परिचय बनाने मे ं सफल रही। पिछले चुनाव की तुलना मे ं 1998 के चुनाव मे ं कागं ्रेस ने असम, महाराष्टश्, मध्यप्रदेष, राजस्थान तथा कुछ अन्य राज्यों में अपनी स्थिति को सुधारा किन्तु सबसे अधिक लाभ उसे महाराष्टश् में पहुँचा, जहाँ लोकसभा के 48 स्थानों में से 33 स्थान कांग्रेस को मिले। राजस्थान में इसे 25 में से 18 स्थान मिले। असम में कुल 14 स्थानों में से 10 स्थान कांग्रेस को प्राप्त हुए। आष्चर्य की बात यह है कि उत्तर प्रदेष में कांग्रेस को 85 में से एक भी स्थान नहीं मिला जबकि 1996 के चुनाव में ये संख्या 5 थी।27
1998 के चुनाव की तुलना में यह पता चलता है कि 12 राज्यों में ३जिनमें केरल के अतिरिक्त अधिकांषतः छोटे-छोटे राज्य थे७ भाजपा को लोकसभा में एक भी स्थान नहीं मिला। कांग्रेस की स्थिति भी यही रही। 12 राज्यों में इसे भी कोई
स्थान नहीं मिला लेकिन ऐसे राज्यों में उत्तर प्रदेष और पंजाब भी सम्मिलित था।
1996 के चुनाव की तुलना में भाजपा की स्थिति में कुल मिलाकर सुधार हुआ। 20 प्रतिषत के मुकाबले में इसे 25 प्रतिषत वोट मिले जबकि कांग्रेस का मतदान प्रतिषत 28 से घटकर 25 प्रतिषत हो गया। लोकसभा मे ं भाजपा को मिलने वाली सीटों का प्रतिषत भी बढ़ गया। जैसा पहले लिखा जा चुका है, इस चुनाव में दक्षिण के राज्यों में, भाजपा ने अपनी पैठ बनाई और कर्नाटक में लोकषक्ति के साथ चुनाव लड़कर इसने भारी सफलता प्राप्त की। हरियाणा, गुजरात और महाराष्टश् जहाँ भाजपा सत्ता में थी, उसे हार का सामना करना पडा़ जो भाजपा षाासन के प्रति जन रोष का द्योतक है। नेषनल ंट जिसके दो प्रधानमंत्री रह चुके थे, 1998 के चुनाव में बुरी तरह
पराजित हुआ। तमिलनाडु में एआईडीएमके को भारी सफलता मिली।
12. 12वीं लोकसभा का विघटन और 1999 का चुनाव-
,
प्रधानमंत्री- अटल बिहारी वाजपेयी ३एन.डी.ए.७
३कार्यकाल- 13 अक्टूबर, 1999 से 21 मई, 2004७
1998 के चुनाव में भाजपा को 179 स्थान मिले और उसने एक दर्जन सेअधिक राजनीतिक दलों के सहयोग से मिश्रित सरकार का निर्माण किया था। यह सरकार केवल 13 महीनों तक जीवित रही। सरकार के घटक राजनीतिक दलों ने छोटी-छोटी माँगों को लेकर प्रधानमंत्री पर दबाव डालना षुरू किया जिनको एक सीमा तक ही पूरा किया जा सकता था। सबसे बड़ी समस्या ए.आई.डी.एम.के. की नेता जयललिता थी। उन्होंने हर कदम पर प्रधानमंत्री की कमजोर दलीय स्थिति का लाभ उठाना चाहा। जयललिता चाहती थी कि उनके विरू भ्रष्टाचार के जो मुकदमे हंै, वह किसी तरह खत्म करा दिया जायें अन्त में उन्होनें समर्थन जारी रखने की षर्त यह रखी कि प्रधानमंत्री तमिलनाडु की डी.एम.के सरकार को अनुच्छेद 356 का प्रयोग करके भंग कर दें जिसे प्रधानमंत्री स्वीकार न कर सके। अन्तोगत्वा 14 अप्रेल 1999 को जयललिता ने सरकार द्वारा विष्वास प्राप्त करने का प्रस्ताव रखा जिस पर 17 अप्रले 1999 का े विवादापे रान्त मतदान हुआ। भाजपा सरकार कवे ल एक मत से सदन में पराजित हो गई और उसका अंत हो गया।28 लोकसभा में भाजपा सरकार द्वारा विष्वास मत प्राप्त न कर सकने के बाद कांगे्रस ने वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए स िय रूप से बातचीत षुरू की किन्तु विभिन्न गैर कागं ्रेसी दलो ं के पारस्परिक मतभेद उन्हे ं एकता के सत्रू मे ं न बाध्ं ा सके। परिणामस्वरूप 26 अप्रेल 1999 को लोकसभा विघटित कर दी गई और अक्टूबर 1999 में 13वीं लोकसभा के चुनाव हुए। नवम्बर 1998 म ंे दिल्ली, राजस्थान, मध्यपद्र ष्े ा आरै मिजारे म विधानसभाआंे के चुनाव में भाजपा को भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। मिजोरम ने नेषनल ंट तथा षेष तीनों राज्यों में कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत मिला और उसने सरकार का निर्माण किया। इस चुनाव परिणामों से भाजपा विरोधी लहर का संकेत मिल रहा था। यह भी अनुमान लगाया जा रहा था कि सोनिया गाँधी के दल अध्यक्ष के रूप में स िय राजनीति में प्रवेष करने से षायद 1971 या 1980 जैसा कोई राजनीतिक चमत्कार हो सकता है।
1999 के चुनाव में भाजपा ने कुछ क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी समझौतेकरके नेषनल डेमो ेटिक अलायंस के मैनीफेस्टो पर चुनाव लड़ा। उसने केवल 239 स्थानों पर ही अपने उम्मीदवार खड़े किए जबकि कांग्रेस ने 453 स्थानों पर चुनाव लड़ा। 1998 के विधानसभा चुनाव परिणामों से कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में भी भारी सफलता मिलने की उम्मीद थी इसलिए उसने अकेले ही चुनाव लड़ा।
1999 के लोकसभा चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों का निष्पादन निम्न प्रकार था।29
सन 1999 का लोकसभा चुनाव ३13वीं लोकसभा७
राजनीतिक दल कुल प्राप्त प्राप्त स्थानों प्राप्त मतों का
स्थान का प्रतिषत प्िरतषत
अ- राष्टश्ीय दल
भारतीय जनता पार्टी
182
33.51
23.75
बहुजन समाज पार्टी
14
2.57
4.16
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
04
0.73
1.48
कम्युनिस्ट पार्टी ३माक्र्स७
33
6.72
5.40
इण्डियन नेषनल कांग्रेस
114
20.99
28.30
जनता दल ३एस७
01
0.18
0.91
जनता दल ३अर्स७
21
3.86
3.10
ब- राज्य राजनीतिक दल
158
29.09
26.93
स- रजिस्टर्ड दल
10
1.84
3.22
द- निर्दलीय
06
1.10
2.74
योग
543
100.00
100.00
यह उल्लेखनीय है कि 1998 और 1999 दोनों ही चुनावों में भाजपा को मषः 179 और 182 स्थान मिले जिससे यह स्पष्ट होता है कि राष्टश्ीय स्तर पर भाजपा के समर्थन आधार में कोई अंतर नहीं आया। राज्य राजनीति में भले ही उसकी स्थिति में बदलाव आया हो। अनुमान के बिल्कुल विपरीत इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को भारी क्षति पहुँची। 1998 के चुनाव में कांग्रेस को 141 स्थान मिले थे जबकि 1999 में उसकी संख्या घटकर 114 हो गई। सोनिया गाँधी ने प्रियंका गाँधी के साथ चुनाव अभियान में बड़ी स ियता के साथ भाग लिया लेकिन परिणाम षून्य रहा। राज्य दलों की स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार हुआ। 1998 में इनकी सदस्य संख्या 97 थी, 1999 में यह संख्या 158 हो गई जो क्षेत्रीय दलों के बढ़ते हुए प्रभाव का प्रतीक है। लोकसभा में सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने के कारण भाजपा ने अपने सहयोगी दलों ३एन.डी.ए७के साथ मिलकर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतष्त्व में सरकार का निर्माण किया। देष की यह पहली साझा सरकार थी जो पारस्परिक गतिविरोधों के बाद भी अपनी पांच वर्ष की अवधि पूरी करने में सफल रही।
13. 2004 का लोकसभा का चुनाव -
प्रधानमंत्री- डाॅ. मनमोहन सिंह ३यू.पी.ए.७
३कार्यकाल- 22 मई, 2004 से 22 मई, 2009७
14वी ं लाके सभा क े लिए अपल्रे मई 2004 म ंे चुनाव हुए। भाजपा द्वारा दिए गए फील गुड और इंडिया षाइनिंग के नारों से जो चुनावी माहौल उत्पन्न हुआ उसमें एन.डी.ए. सरकार की वापिसी निष्चित थी। सभी एक्जिट पोल और बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित भाजपा की सफलता का दावा कर रहे थे लेकिन चुनाव परिणाम अत्यधिक अप्रत्याषित रहे। सभी पूर्वानुमानों के विपरीत इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में लोकसभा में वापिस आई और अटलबिहारी वाजपेयी के नेतष्त्व वाली राजग सरकार को जनता ने नकार दिया। 2004 के चुनाव में प्रमुख राजनीतिक दलों का निष्पादन निम्न प्रकार था।30
2004 का लोकसभा चुनाव ३14वीं लोकसभा७
राजनीतिक दल
कुल प्राप्त
प्राप्त स्थानों
प्राप्त मतों का
स्थान
का प्रतिषत
प्िरतषत
अ- राष्टश्ीय दल
1. इंडियन नेषनल काँग्रेस
145
26.69
2. भारतीय जनता पार्टी
138
22.16
3. कम्यूनिस्ट पार्टी ३माक्र्स७
43
5.69
4. कम्यूनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया
10
1.40
5. बहुजन समाज पार्टी
19
5.35
6. राष्टश्ीय काॅग्रेस पार्टी
09
1.78
ब- राज्य स्तरीय दल
156
28.77
स- रजिस्टर्ड दल
15
3.97
द- निर्दलीय
04
4.18
योग
539
उपर्युक्त चुनाव में चुनाव पूर्व के गठबंधनों के अनुसार 543 स्थानों में से
सबसे ज्यादा सीटें ३218७ कांग्रेस के नेतष्त्व वाले गठबंधन को तथा 187 सीटें राष्टश्ीय जनतांत्रिक गठबंधन ३एनडीए७ को मिलीं। इसमें कांग्रेस की 145 सीटें और राष्टश्ीय जनता दल को 24 स्थान प्राप्त हुए। उल्लेखनीय है कि 1997 के चुनाव में कांग्रेस को 114 स्थान मिले थे। इस प्रकार कांग्रेस को 31 स्थानों का लाभ हुआ। दूसरी ओर भाजपा की 182 सीटें घटकर 138 रह गईं और एन.डी.ए. गठबंधन को भारी नुकसान हुआ। षेष 136 स्थानों में से सबसे ज्यादा सीटें 61 वामपंथी दलों की थी। राज्य
स्तर दलों में समाजवादी पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें 36 प्राप्त हुईं। चुनाव के बाद वामपंथी दलों के अतिरिक्त कुछ अन्य पंथ निरपेक्ष राजनीतिक दलों, जैसे समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी आदि ने भी कांग्रेस गठबंधन को बाहर से समर्थन देने की घोषणा की। इन दलों के सहयोग से एक नया गठबंधन संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन ३यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाइन्स ‘यू.पीए.’७ अस्तित्व में आया जिसने डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतष्त्व में 22 मई 2004 को मंत्रिपरिषद का निर्माण किया।31
14. 2009 का लोकसभा चुनाव -
प्रधानमंत्री- डाॅ. मनमोहन सिंह ३यू.पी.ए.७
३कार्यकाल- 22 मई, 2009 से 26 मई, 2014७
यपू ीए सरकार का पाँच वर्ष का कार्यकाल परू ा हाने े पर मई 2009 म ंे 15वीं लोकसभा का चुनाव हुआ। इस चुनाव में भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। चुनाव से पहले और चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद का राजनीतिक परिदष्ष्य बड़ा ही रोचक रहा। समस्त नैतिक मूल्यों और मान्यताओं का त्याग करके मात्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए लोग एक दल को छोड़कर दूसरे दल में षामिल होने लगे। जैसे जैसे चुनाव करीब आते गए विभिन्न राजनीतिक दलों के रिष्ते तेजी से बदलने लगे। यूपीए और एनडीए दोनों ही गठबंधनों के बंधन
एनडीए से चन्द्रबाबू नायडू के नेतष्त्व वाली तेलगूदेषम पार्टी ने सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने भाजपा से नाता तोड़ लिया जो राजनीतिक दल यूपीए और एनडीए से अलग हो गए उन्होंने और अन्य छोटे-छोटे दलों को मिलाकर तीसरे और चैथे मोर्चे के नाम से दो नए गठबंधनों का निर्माण किया। साम्यवादी दलों ने अलग होकर बसपा, बीजू जनता दल, एआईडीएमके, तेलगदू ेषम तथा कुछ अन्य दलो ं के साथ मिलकर तीसरे मार्चे का गठन किया। लालू प्रसाद यादव, रामबिलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, कुछ अन्य छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ मिल गए और अपने को चैथे मोर्चे का नाम दिया। ऐसा लगता है कि सभी प्रमुख क्षेत्रीय दलों ने काँग्रेस को कमजोर समझते हुए उसके साथ चुनावी समझौते के मामले में अपना बर्चस्व बनाये रखना चाहा। उन सबको यह विष्वास था कि चुनाव के बाद यही क्षेत्रीय दल किंगमेकर होंगे और उनका समर्थन पाने के लिए काँग्रेस को उनके सामने गिड़गिड़ाना पड़ेगा लेकिन चुनाव ने नक्षा ही बदल दिया। काँग्रेस भारी संख्या के साथ लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आई।32
15वी ंलाके सभा क ेचनु ाव म ंे364 राष्टश्ीय, क्षत्रे ीय आरै रजिस्टर्ड राजनीतिक
दला ंे न े सामूिहक रूप स े अथवा अलग-अलग चुनाव लडा़। राजनीतिक दला ंे क े चार समूह एनडीए, यूपीए, तीसरा मोर्चा और चैथा मोर्चा मैदान में थे। इनके अतिरिक्त बहुत से छोटे दल और स्वतंत्र प्रत्याषी भी अपना-अपना भाग्य आजमा रहे थे।
2009 का लोकसभा चुनाव ३15वीं लोकसभा७
2009 के लोकसभा चुनाव में विभिन्न गठबन्धनों का निष्पादन निम्न प्रकार रहा33-
राजनीतिक दल
कुल प्राप्त स्थान
1. यू.पी.ए.
262
2. एन.डी.ए.
159
3. वामपंथी - तीसरा न्ट
79
4. चैथा न्ट - ३सपा,राजद तथा अन्य७
43
योग
543
सभी पूर्वानुमानों के विपरीत 15वीं लोकसभा चुनाव में काँग्रेस पार्टी काफी बढ़त के साथ बड़े राजनीतिक दल के रूप में, लोकसभा में वापिस आई। 2004 के चुनाव में कांग्रेस को 145 स्थान मिले थे जबकि इस चुनाव में काँग्रेस को 201 स्थान प्राप्त हुए। यह उल्लेखनीय है कि विगत 25 वर्षों में लोकसभा में किसी एक राजनीतिक दल का े 201 सीट ंे नही ं मिली। कुछ राज्या ंे म ंे कागं ्रसे का निष्पादन अपक्ष्े ाा से कहीं ज्यादा अच्छा रहा। उदाहरण के लिए केरल में कांगे्रस को 20 स्थानों में 13 स्थान मिले जबकि पिछले चुनाव में उसे एक भी सीट नहीं मिली थी। दिल्ली की सभी 07 सीटों पर कांग्रेस विजयी रही। आंध्रप्रदेष में 42 में से 33 सीटें कांग्रेस को मिली। हरियाणा में कांग्रेस को पिछली बार की तरह 10 में से 9 स्थानों पर सफलता मिली। राजस्थान में काँग्रेस को 25 में से 20 स्थान प्राप्त हुए। उ ार प्रदेष जहाँ कांग्रेस की स्थिति अत्यधिक निराषाजनक थी, इसके भारी सफलता मिली। 2004 के चुनाव म ंे यपू ी म ंे कागं ्रसे का े 9 स्थान मिल े जबकि इस बार सख्ं या ब यह संख्या 03 थी।
2009 के चुनाव में एनडीए का नेतष्त्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी का े सबस े ज्यादा नुकसान हुआ। इसका एक महत्वपणर््ू ा कारण राजनैतिक परिदष्ष्य से अटलबिहारी वाजपेयी की अनुपस्थिति थी। पिछले चुनाव में भाजपा को 138 स्थान मिले थे किन्तु इस बार उसके केवल 121 स्थान प्राप्त हुए। मध्यप्रदेष, कर्नाटक, छ ाीसगढ़ तथा कुछ अन्य छोटे राज्यों में भाजपा का निष्पपादन ठीक रहा। झारखण्ड में पिछले चुनाव में भाजपा को एक भी स्थान नही ं मिला था जबकि इस चुनाव म ंे उस े 14 म ंे स े 8 स्थाना ंे पर सफलता मिली। उ ार प्रदेष मे ं भाजपा की स्थिति लगभग 2004 जैसी ही रही इसे 80 मे ं से 11 सीटे ं मिली।ं
2004 क े चुनाव क े मुकाबल े म ंे इस बार भाजपा का े 17 सीटा ंे का नुकसान हुआ लेकिन उसे अपनी सीटें घटने से ज्यादा काँग्रेस को इतनी ज्यादा सीटें मिलने से दुःख हुआ। अगर कांग्रेस को इतनी सीटें न मिलतीं तो भाजपा क्षेत्रीय दलों के सहयेाग से सरकार बनाने में सफल हो सकती थी और लालकष्ष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हो सकता था।
15वीं लोकसभा के चुनाव में सबसे बड़ा धक्का साम्यवादी दलों को पहुँचा। पष्चिमी बंगाल जो कई दषकों से साम्यवाद का गढ़ था, इस चुनाव में उस पर तष्णमूल कांग्रेस का कब्जा हो गया। साम्यवादी दलों को केवल 15 स्थान मिले जबकि 2004 में उनकी संख्या 35 थीं। इसके विपरीत मामला ममता बनर्जी की तूष्णमूल काँग्रेस को एक सीट की जगह 19 स्थान प्राप्त हुए। साम्यवादी दलों का दूसरा किला केरल था जहाँ 2004 के चुनाव में उन्हें 20 में से 15 स्थान मिले थे किन्तु इस बार उन्हें केवल 4 स्थान मिल सके और 13 सीटें कांग्रेस को मिलीं। कारण जो भी रहे हों किन्तु 2009 के चुनाव में भारत में साम्यवादी दलों के अस्तित्व के लिए प्रष्न चिह्न लगा दिया।
क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को अलग-अलग भले ही घाटा हुआ हो लेकिन इससे राष्टश्ीय दलों की सीटों में कोई अन्तर नहीं आया। संभवतः इसका कारण कुछ गैर मान्यता प्राप्त स्थानीय दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या बढ़ना था। 2004 के चुनाव के मुकाबले में 2009 के चुनाव में गैर मान्य प्राप्त राजनीतिक दलों की संख्या 140 प्रतिषत अर्थात् ज्यादा थी। उल्लेखनीय है कि 2004 के चुनाव में राष्टश्ीय दलों को कुल मिलाकर 345 स्थान मिले थे जबकि इस बार उन्हें 343 स्थान मिले इसलिए काँग्रेस को भारी विजय और यपू ीए की सख्ं या ब
ऐसा लगता है कि 2009 के चुनाव में मुस्लिम मतदाता किसी एक राजनीतिक दल का वोटबंैक न रहकर विभिन्न गैर साम्प्रदायिक दलों में विभाजित हो गए। काँग्रेस से टूटने के बाद विगत दो दषकों में मुसलमान समाजवादी दल का वोटबंैक बन गया था लेकिन कई कारणों से इस चुनाव में मुसलमानों पर से समाजवादी दल का एकाधिकार समाप्त हो गया और उनका बहुत बड़ा प्रतिषत काँग्रेस से पुनः जुड़ गया। मुसलमान समाजवादी दल से कितना नाखुष था इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि उ ार प्रदेष में समाजवादी पार्टी के कुल 12 मुस्लिम उम्मीदवारों में से एक मुसलमान भी चुनाव नहीं जीत सका।
जनता पार्टी ने इस चुनाव में भी 2009 के चुनाव में भी काँग्रेस पार्टी की अप्रत्याषित सफलता के अनेक कारण बताए जाते हंै लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अपने पाँच साल के कार्यकाल में कांग्रेस नेतष्त्व में और विषेषकर डाॅ. मनमोहन सिंह ने हर संकट के मौके पर जिस गंभीरता, सौम्यता और सहनषीलता का प्रदर्षन किया उसने कहीं न कहीं मतदाताओं में यह उम्मीद जगा दी कि कांग्रेस नेतष्त्व ही देष को एक स्थायी सरकार प्रदान कर सकता है। भाजपा की मस्जिद-मन्दिर मुद्दा उन्हें आकर्षित न कर सका। उन्हें एक ऐसी सरकार की तलाष थी जो उनकी जान-माल की हिफाजत कर सके जो गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी जैसी मौलिक समस्याओं का हल निकाल सके तथा जो आतंकवाद और आर्थिक मंदी से छुटकारा दिला सके। कांग्रेस पार्टी के पांच वर्ष के षासन ने मतदाताओं पर यह छाप अवष्य छोड़ी की कांग्रेस विकास और स्वच्छ तथा पारदर्षी प्रषासन की पक्षधर है। गैर काँग्रेसी दलों, विषेषकर साम्यवादी दलों ने डाॅ. मनमोहन सिंह की सरकार क े कार्य सचं ालन म ंे जिस तरह की अडच़ न ंे पैदा की ं उसस े आम मतदाता का उन पर विष्वास कम होता गया। यही नहीं चुनाव अभियान के दौरान गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों ने एक दूसरे के खिलाफ जिस प्रकार की अष्लील भाषा का प्रयोग और प्रोपगंडे के घटिया तरीकों का इस्तेमाल किया उसका मतदाताओं पर बहुत खराब प्रभाव पड़ा। इसके विपरीत कांग्रेस ने षालीनता का परिचय दिया। चुनाव से कछु दिन पहल े स े जिस पक्र ार विभिन्न राजनीतिक दल और दल परिवतर्न हएु उससे भी मतदाताओं को यह संदेष गया कि यह सभी राजनीतिक दल और उनके नेता स्वार्थों, अवसरवादी और स ाा के भूखे हंै और उन पर विष्वास नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत 2004 के चुनाव के बाद सोनिया गाँधी ने जिस तरह प्रधानमंत्री के पद को ठुकराया, उसको भी मतदाता नहीं भूले थे।
सन्दर्भ:-
1. राॅय, एम.पी. भारतीय सरकार एवं राजनीति काॅलेज बुक डिपों, जयपुर 1980 पष्ष्ठ संख्या-686
2. तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-638
3. तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-639
4. इंडिया टूडे, अप्रैल 1997, पष्ष्ठ संख्या 42
5. इंडिया टूडे, 5 मई 1997, पष्ष्ठ संख्या 28
6. चतुर्वेदी, गीता भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पंचषील प्रकाषन, जयपुर 2010 पष्ष्ठ संख्या-382
7. तत्रैव पष्ष्ठ 383
8. इदं ्रजीत पाॅलिटिकल होलोस्टश्ी द टाइम्स आॅफ इंिडया नबम्बर 18,1996 पष्ष्ठ सख्ं या-12
9. भारत के लोकसभा के छठें साधारण निर्वाचन की रिपोर्ट ‘‘भारत निर्वाचन आयोग, नई दिल्ली’’
10. सईद, प्रो. एस.एम. ‘भारतीय राजनीतिक व्यवस्था’ भारत बुक सेन्टर, लखन¯, 2009, पष्ष्ठ संख्या-282
11. नवभारत टाइम्स 9, 1979 पष्ष्ठ संख्या-1-5
12. प्रसाद, अनिरू ‘‘सप्तम संसदीय निर्वाचन ३घोषणा पत्र, मतदान एवं लोकतंत्र का भविष्य७ लोकतंत्र समीक्षा, पष्ष्ठ संख्या-12
13. तत्रैव पष्ष्ठ-13 एवं दि हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली दिसम्बर 3, 1979
14. दि टाइम्स आॅफ इण्डिया, नई दिल्ली, सितम्बर 26, 1979
15. भारत में लोकसभा के 7वें निर्वाचनों की रिपोर्ट ‘भारत निर्वाचन आयोग, नई दिल्ली’।
16. सईद प्रो.एस.एम.तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-284
17. सईद, प्रो.एस.एम.तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-285
18. ‘भारत में लोकसभा के 8वें साधारण निर्वाचनों की रिपोर्ट’ भारत निर्वाचन आयोग, नई दिल्ली’
19. ‘भारत में लोकसभा के 9वें साधारण निर्वाचनों की रिपोटर्’ भारत निर्वाचन आयोग, नई दिल्ली’
20. सईद, प्रो.एस.एम.तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-288
21. ‘भारत में 10वें साधारण निर्वाचनों की रिपोर्ट’, भारत निर्वाचन आयोग, नई दिल्ली।
22. सईद, प्रो.एस.एम.तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-290
23. भारत में लोकसभा के 11वें साधारण निर्वाचनों की रिपोर्ट ‘‘भारत निर्वाचन आयोग, नई दिल्ली’’
24. सईद, प्रो.एस.एम. तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-292
25. तत्रवै
26. ‘भारत में लोकसभा के 12वें निर्वाचनों की रिपोर्ट’ भारत निर्वाचन आयोग, दिल्ली।
27. सईद, प्रो.एस.एम. तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-294
28. सईद, प्रो.एस.एम. तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-295
29. ‘भारत में लोकसभा के 13वें निर्वाचनों की रिपोर्ट’ भारत निर्वाचन आयोग, दिल्ली’’।
30. ‘भारत में लोकसभा के 14वें निर्वाचनों की रिपोर्ट’ भारत निर्वाचन आयोग, दिल्ली।
31. सईद, प्रो.एस.एम.तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-297
32. सईद, प्रो.एस.एम.तत्रैव पष्ष्ठ संख्या-298
33. ‘भारत में लोकसभा के 15वें निर्वाचनों की रिपोर्ट’ भारत निर्वाचन आयोग, दिल्ली।
अध्याय सप्तम् - मूल्यांकन
25 जून 1975 के आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों का मूल्यांकन
भारत में आपातकाल तीन बार लगाया गया है। आपातकाल राष्टश्पति की संकटकालीन षक्तियों के अन्तर्गत आता है जिसका उल्लेख अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत किया गया है। प्रथम आपातकाल सन् 1962 में भारत पर चीन के आ मण के कारण
लगाया गया था। अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल दूसरी बार सन 1971 में लागू किया गया था। 3 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर आ मण कर दिया। उस समय भारत के राष्टश्पति ने संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर दी। अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत तीसरी बार 25 जनू 1975 को लाग ू किया गया था जो कि 21 मार्च 1977 तक रहा। यह आपातकाल अन्य दो आपातकाल से भिन्न था। 1962 तथा 1971 का आपातकाल बाह्य आ मण के कारण लगा था। लेकिन तीसरी बार आपातकाल आन्तरिक कारणों से लगाया गया था। सन 1975 में आपातकाल में संकटकालीन षक्तियों का दुरूपयोग किया गया था। 25 जून 1975 को राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद ने आतंरिक संकटकालीन स्थिति की घोषणा की। यद्यपि माना जाता है कि आपातकाल की घोषणा रेडियो पर पहले कर दी गई तथा बाद में सुबह मंत्रिमण्डल की बैठक के बाद उस पर राष्टश्पति ने हस्ताक्षर किये। यद्यपि संवैधानिक प्रावधान है कि मंत्रिमण्डल की बैठक के बाद उसकी अनुषंषा पर राष्टश्पति हस्ताक्षर कर देते हैं तब आपातकाल की घोषणा की जा सकती है।
25 जून 1975 को तत्कालीन राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद ने आतंरिक संकटकाल स्थिति की घोषणा की दी। उसके पष्चात स्वतंत्रता सम्बन्धी मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिये।
1971 म ंेइंिदरा गाँधी अपन े प्िरतद्वन्दी राजनारायण ३उस समय समाजवादी
ने और बाद में राष्टश्ीय जनता पार्टी के नेता७ को एक लाख से भी अधिक मतों से पराजित करके रायबरेली ३उ.प्र.७ लोकसभा के लिए विजयी घोषित की गई। राजनारायण ने 24 अप्रेल 1971 में याचिका दायर की जिसमें उन्होंने कि इन्दिरा गाँधी पर निम्नलिखित आरोप लगाए -
1-
इन्दिरा गाँधी ने चुनाव पूर्व मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए उन्हें कम्बल,
धोतियाँ आदि बांटी।
2-
चुनाव पर लगभग 15 लाख रू. खर्च किये जबकि चुनाव खर्च 75,000 रू. से अधिक नहीं होना चाहिए।
3-
स्थल सेना और वायु सेना के विमानों और हेलीकाॅप्टरों का चुनाव अभियान के दौरान प्रयोग किया गया।
4-
मतदाताओं को मतदान केन्द्रों पर लाने के लिए सरकारी वाहनों का प्रयोग किया गया।
5-
सरकारी कर्मचारी को चुनाव अभियानों में षामिल किया गया।
6-
धार्मिक चित्र गाय और बछड़ों को पार्टी चिन्ह बनाया गया। चुनाव कार्याें के लिए सरकारी अधिकारिया ें की सेवाआ ें के दुरूपयोग के सम्बन्ध में मुख्य आरोप यह लगाया था कि इन्दिरा गाँधी ने यषपाल कपूर की सेवाऐं ली जबकि वे केन्द्रीय सरकार के एक कर्मचारी थे और वे प्रधानमंत्री के सचिवालय में विषेष ड्यूटी पर नियुक्त अधिकारी के रूप में कार्य करते थे।
7-
24 जनू 1975 को उच्चतम न्यायालय के अवकाष पीठ ने प्रधानमत्रं ी की अपील
पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को स्थगित करने के लिए एक आदेष जारी कर दिया जिसमें कहा गया कि इंदिरा गाँधी की अपील या निर्णय तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर सकती है और संसद की कार्यवाही में भाग ले सकती है। पर मतदान में भाग नहीं ले सकती। 25 जून 1975 को जयप्रकाष क े नते ष्त्व म ंे साम्यवादी दल का े छाडे क़ र अन्य विराध्े ाी दल ३सगं ठन कांग्रेस, जनसंघ समाजवादी दल और भारतीय लोकदल इत्यादि७ ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए बड़ा व्यापक आंदोलन छेड़ने की घोषणा की। स्थिति बड़ी गम्भीर थी। इस पर प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपने सहयोगी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और अन्त में राष्टश्पति से विचार किया और 25 जून 1975 को आंतरिक आपातकाल लगा दिया गया जो कि 21 मार्च 1971 तक लगभग 21 महीने तक रहा। इंदिरा गाँधी ने 1 जुलाई 1975 का प्रगतिषील सामाजिक, आर्थिक रूपान्तरणों के अन्तर्गत 20 सूत्रीय कार्य म की जांच मूलतया भूमि सुधार कार्य म को तेज करने खेतिहर मजदूरों की घोषणा की स्थिति में सुधार करने ऋणदासता आदि का उन्मूलन करने की ओर निर्देषित था। आपातकाल की अवधि में भारतीय साम्यवादी पार्टी ने सरकार की नीतियों की समर्थन की घोषणा की और 20 सूत्रीय कार्य म के ियान्वयन में सरकार के साथ सहयोग करने का निर्णय लिया गया। किसान सभा तथा खेत मजदूर संघ ने यह निर्णय लिया गया कि सन 1975-76 में 20 सूत्रीय कार्य म के ियान्वयन का े सुनिष्चित करन े क े लिए पदयात्राए ंे की जाय ंे ताकि पता चल सक े कि अधिकांष ग्रामीणों की स्थिति घोषित कार्यवाहियों से प्रभावित हुई या नहीं। इसमें एक कार्य म नसबंदी कार्य म था इमरजेंसी इतनी खराब थी और उसमें अत्याचार हुए नवयुवकों को पकड़-पकड़ कर नसबंदी की गई। दरअसल संजय गाँधी और इंदिरा गाँधी को लगा कि जिस प्रकार चीन में सख्ती के साथ विकास को धार दी गई उसी प्रकार भारत में यह चमत्कार करके दिखा दें। गांव में डाॅक्टरों ने नसबंदी के आंकड़ें को पूरे करने के लिए जिस प्रकार फर्जी तरीके से नसबंदी की और झूठे आंकड़े पेष किए उसी से लोगों में गुस्सा और कांग्रेस के खिलाफ नफरत फैली ऐसा नहीं है कि इमरजेंसी का पूरे देष में एक जैसा विरोध हुआ सन् 1977 में चुनाव में कांगे्रस का उ ार भारत में सफाया हो गया। वहीं दक्षिण के प्रदेषों में कायम रही इंदिरा गांधी रायबरेली में राजनारायण के हाथों पराजित होने के बाद दक्षिण भारत में चुनाव जीत गई। इमरजेन्सी का यह पहलू आज भी हमें याद है कि और उस पर हर साल चर्चा होती है और कहते हंै कि वह खराब थी। लोकतंत्र की हत्या थी लेकिन उस पहलू को कोई याद नहीं रखना चाहता जिसने देष की कानून व्यवस्था प्रषासन और सरकारी कामकाज को उस वक्त करने की सख्ती अपनायी आज के माहौल में यदि हम उसी पहलू की विवेचना करें तो गलत नहीं होगा। 20 सूत्रीय कार्य म के अन्तर्गत मैने 1977 के जनता पार्टी से भरतपुर लोकसभा सांसद पण्डित रामकिषन
एवं प्राध्यापक ओमप्रकाष गुप्ता जी का साक्षात्कार लिया है। आपातकाल की घोषणा के साथ ही भारतीय राजनीति में नये युग का श्री गणेष हुआ। देष के प्रमुख विपक्षी नेताओं और इन दलों के स िय कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। आन्तरिक सुरक्षा कानून और संेसरषिप लागू कर दी गई। आपातकाल के दौरान विपक्ष पार्टी के नेताओं पर जो अत्याचार हुए इतिहास के काले पन्ने को आज भी याद किया जाता है। इस पर समय≤ पर विभिन्न लेख प्रकाषित होते हंै जिनमें विपक्षी पार्टी के नेताओं के साथ जो व्यवहार कांग्रेस पार्टी
द्वारा किया गया। उसका विस्तार से वर्णन किया जाता है। आपातकाल के दौरान अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा जेल में रहते हुए कविता लिखी गई। आपातकाल लागू होने के बाद पुलिस ने ज्यादतियाँ करना षुरूकर दिया। राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता खेमचन्द की गिरफ्तारी को पुलिस पीछे पड़ी थी। जब खेमचन्द जी नहीं मिले तो उनके भाई लक्ष्मण सिंह को भी उठा लिया। इसी तरह विष्व हिन्दू परिषद के षीर्ष नेता आचार्य गिरिराज किषोर की गिरफ्तारी के लिए उनके परिजनों पर दबाव बनाया गया। वयोवष् भाजपा नेता गेंदालाल गुप्ता बताते हंै कि जो लोग जेल चले गये। उनके परिजन पुलिस उत्पीड़न से मुक्त रहते थे जो भूमिगत थे। उनके परिवारों में आए दिन दबिषें पड़ती थीं। पुलिस लोकतंत्र के प्रहरियों से षातिर अपराधी की तरह व्यवहार करती
थी।
आपातकाल का नाम सुनते ही प्रसि कवि देवकीनन्दन कुम्हेरिया की
बूढ़ी आँखों में लाल डोरे पड़ गये। उन्होंने बताया कि देष के सिपाहियों ने बेदर्द तरीके से बन्दूकों की बंटों और लाठी डण्डों से पिटाई करते हुए सड़कों पर घुमाया जेल में प्रताड़ित किया। डाॅ. फूलचन्द जैन बताते हंै कि नारेबाजी करते हुए थाने पहचुं े ता े पुलिस वाल े डडं े पीटत े हुए दानघाटी मंिदर तक लाय े और वहाँ स े थान े तक ले गये फिर करीब तीन घंटे तक थाने में पिटाई की और मरणासन्न स्थिति से पहुँचा दिया। नेमीचन्द अग्रवाल बताते हंै कि जितने नारे लगाए उतने ही डंडे पड़े। महीनों तक षरीर के अंगों ने कार्य करना छोड़ दिया। सुरीर के आर.एस.एसकार्यकर्ता 84 वर्षीय बष्जकिषोर वाष्र्णेय ने इमरजेंसी की काली यादें ताजा करते हुए कहा कि इमरजेंसी के दौरान पुलिस तरह-तरह की यातनाऐं दे रही थीं। उनके पकड़ने के लिए पुलिस घूम रही थी। कई बार घर पर दबिषें दी इससे बचने के लिए टी.बी. सेनेटियम अस्पताल वष्न्दावन में जाकर भर्ती हो गये। यहीं पर 6 माह तक मरीज के रूप में पड़े रहे। आपातकाल के दौरान जेल में रहे गांव मुसमुना निवासी चै. योगेन्द्र सिंह ने बताया कि आपातकाल की घोषणा होते ही वह खुद भगत भकरेलिया निवासी चै. चतुर सिंह के नेतष्त्व में, चै. लटुर सिंह फिरोजपुर, चै. हुकम सिंह सीगोनी, बंषो सिंह मुसमुना के साथ प्रदर्षन के लिए नौहझील आये। यहीं पर उन्हें गिरफ्तार कर मथुरा जेल भेज दिया। कतरा बी आरजू लेखक राही मासूम रजा ने अपनी इस पुस्तक के
माध्यम से आपातकाल की आलोचना की।
मिडनाइट्स चिल्डश्न बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखक सलमान रूष्दी के इस चर्चित उपन्यास का एक नायक सलीम सिनाई नाम का एक व्यक्ति है। आपातकाल के दौरान किस प्रकार तक सरकारी योजनाओं से प्रभावित होता है। उपन्यास में इसका जि है।
फाइन बैलेन्स व सच -अ लोग जनी रोहिटन मिस्त्री ने अपनी पुस्तकों में आपातकाल में लोगों के ¯पर हुए ज्यादतियों का किस्सा बयां किया है। पुस्तक पारसी संस्कष्ति के नजरिये से लिखी गई है। इंडिया अ टूडेड सिविलाइजेंषन - बी.एस. नायपाल की यह पुस्तक आपातकाल के दौरान देष का हाल बयान करती है। बहुत से लोग यह मानते हंै कि जम्मू कष्मीर की विधानसभा का कार्यकाल छह साल का सिर्फ अलग संविधान और धारा 370 के कारण हंै लेकिन यह आधा सच है। आपातकाल के दौरान ही इंदिरा गाँधी ने छह साल की विधानसभा और संसद का कानून लगाया था। उस समय कांग्रेस की मदद से षेख मुहम्मद अब्दुल्ला की सरकार चल रही थी। षेख अब्दुल्ला ने यह कहकर की हम पूरे देष के साथ चलना चाहते हंै सन 1977 राज्य विधानसभा में संषोधन प्रस्ताव लाया और उसके बाद से अब तक छह वर्ष की विधानसभा है। आपातकाल के दौरान रामबाबू भाटिया कई स्थानों पर छिपते रहे पीछे से उनकी घर की कुर्की हो गई। इसके बाद उनकी भाटिया वाॅच कम्पनी की दुकान को कुर्की हो गई। तब पुलिस इस दुकान से 12 टन घड़ियों का माल ले गई थी।
र्डी.आइ.आर. क ेविरू पर्वू नगरपालिका अध्यक्ष वीरन्ेद ्र अगव्र ाल इमरजसंे ी
के दौरान षांति मार्केट में बैठे थे तभी पुनेठा नाम का दरोगा आया उसे कोतवाली में ले जाकर विभिन्न धाराओं में पाबन्द कर जेल भेज दिया। लोकतंत्र सेनानियों के कोतवाली में नाखून और सिर के बाल तक नोचें गये। आपातकाल का विरोध मींसा और डी.आई.आर. के तहत जेलों में बंद रहे थे। ऐसे नेताओं में ज्यादातर राष्टश्ीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ से जुड़े हुए थे। अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू होन के बाद इंदिरा गाँधी को असाधारण षक्तियाँ मिल गयी। विपक्षी नेताओं जयप्रकाष नारायण, लालकष्ष्ण आडवाणी, चरण सिंह, मोरारजी देसाई, राजनारायण के अलावा सैकड़ों नेताओं, कार्यकर्ताओं को मींसा एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया। तमिलनाडु में एमकरूणानिधि सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। कई राजनीतिक दलों को प्रतिबंधित कर दिया गया। राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया। लोकतंत्र की मजबूती के लिए मीडिया की आजादी से सीधा संबंध है। स्वस्थ लोकतंत्र की धमनियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रक्त की तरह बहती है और निष्पक्ष मीडिया लोकतंत्र का दय है जो सुनिष्चित करता है कि रक्त संचार सुचारू रूप से होता रहे। यही कारण है कि जब भी लोकतत्रं को कमजोर या उसकी हत्या करने की कोषिष की गयी। पहला बार मीडिया की आजादी पर किया गया। कोई भी तानाषाह स्वतंत्र मीडिया का पक्षधर कभी नहीं हो सकता। तानाषाही में भय और आतंक के विरू डटकर खड़ी होने वाली मीडिया को बेरहमी से कुचला जाता है। भारत में भी आपातकाल के बहाने तानाषाही का ऐसा भी रूप देखा है। ठीक 40 वर्ष पहले 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने भारत में आपातकाल लगाया। आपातकाल के लगते ही प्रेस पर सेंसरषिप लागू हो गया। प्रेस को साफ संदेष दिया गया था कि उनको इंदिरा इज इंडिया एण्ड इण्डिया इज इंदिरा मानना होगा। कुछ ने झुकने से साफ इंकार कर दिया। कई ऐसे भी थे जो रंेगने लगे फिर क्या था भारतीय मीडिया के इतिहास को सबसे काला अध्याय बन गया। आपातकाल का वह दौर। आपातकाल की घोषणा के साथ ही प्रेस पर सेंसरषिप लागू कर दी गई। स्वतंत्रता के बाद ऐसा पहली बार हुआ था। प्रेस पर पूर्ण सेंसरषिप लगाई गई थी। सभी अखबारों के सम्पादकों पर आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों की खबर ना छापने के लिए दबाव बनाया गया। बड़ी संख्या में पत्रकार इस दबाव के आगे नतमस्तक हो गये। मीडिया में स ाा की चापलूसी करने वाले पत्रकारों ने
भारतीय पत्रकारिता को हमेषा के लिए षर्मिन्दा कर दिया। अधिकतर अखबारों में केवल सरकारी विज्ञप्तियों को ही खबर की तरह छापा जा रहा था। मीडिया में आपातकाल और सरकार विरोधी खबरों के लिए कोई जगह नहीं थी। खबरों को छापने से पहले सरकारी अधिकारी को दिखाना आवष्यक
था। किसी भी खबर को बिना सूचित किये नहीं छापा जा सकता था। इससे कई अखबारों ने मजबूरी में आपातकाल का विरोध नहीं किया। 9 जुलाई 1975 को दिल्ली के 47 सम्पादकों ने देष में समाचार पत्रों पर लगाये गये सेंसरषिप और इंदिरा गाँधी की नीतियों पर अपना समर्थन व्यक्त किया। इन सरकारी षिकंजे के बावजूद बड़ी संख्या में ऐसे भी पत्रकार थे जिन्होंने अपने जमीर पर दाग नहीं लगने दिया। प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करते हुए कुलदीप नैयर, सूर्यकान्त बाली, वि मराव, वीरेन्द्र कपूर, ष्याम खोंसला, देवेन्द्र स्वरूप, रतन मलकायी और दीनानाथ मिश्र जैसे पत्रकारों ने जेल की यातनाऐं झेलीं। कुल 327 पत्रकारों को मींसा कानून के अन्तर्गत जेल में बंद कर दिया गया। कई अखबारों और पत्रकारों ने अपने तरीके से प्रेस पर सेंसरषिप का विरोध किया। कुछ संपादकों ने संपादकीय का स्थल खाली छोड़कर सरकार का विरोध किया। कुछ ने संपादकीय के स्थान पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में महापुरुषों की उक्तियों को छापा। सरिता में 6 महीने तक कोई सम्पादकीय काॅलम नहीं छपा। सरिका ने जुलाई 1975 के अंक में संपादकीय को सेंसर अधिकारी द्वारा काला किए गए वाक्यों और षब्दों सहित हूबहू प्रकाषित कर दिया। इस अंक में 27-28 संख्या के पष्ष्ठ लगभग पूरी तरफ काले थे। प्रेस में प्रतिबंध को लेकर ऐसा भय का वातावरण बना कि सेमिनार और अधिनियम जैसे अनेक पत्र-पत्रिकाओं को अपने प्रकाषन बंद करने पड़े। सरकार ने 3801 समाचार-पत्रों के डिक्लेरेषन जब्त कर लिये गये और 290 अखबारों के विज्ञापन बंद कर दिये गये।
आपातकाल से पहले देष में चार समाचार समितियाँ थीं। पीटीआई, यूएनआई, समाचार भारती और हिन्दुस्तान समाचार। सरकार ने इसे मिलाकर एक समिति समाचार का गठन किया। जिससे यह पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में रहे। 18 दिसम्बर 1975 को अध्यादेष द्वारा प्रेस परिषद को समाप्त कर दिया गया। आपातकाल के दौरान आकाषवाणी और दूरदर्षन पर जनता का ऐसा विष्वास उठा कि लोग बीबीसी और वाॅयस आॅफ अमेरिका सुनते थे।
ऐसा नहीं था कि सरकार ने विदेषी पत्रकारों को परेषान ना किया। ब्रिटेन के टाइम और गार्जियन के समाचार प्रतिनिधयों को भारत से निकाल दिया गया। रायटर सहित अन्य एजेन्सियों टेलेक्स और टेलीफोन काट दिये गये।
7 विदेषी संवाददाताओं को भारत छोड़ने का हुक्म सुनाया। विरोध प्रदर्षन का तो सवाल नहीं उठता था क्योंकि जनता को जगाने वाले लेखक, कवि और फिल्म कलाकारों को नहीं छोड़ा गया। कहते हंै मीडिया, कवियों और कलाकारों को मुँह बंद करने के लिए नई बल्कि इनसे सरकार की प्रषंसा करवाने के लिए विद्याचरण षुक्ल सूचना प्रसारण मंत्री बनाये गये थे। उन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रषंसा में गीत लिखने और गाने पर मजबूर किया। ज्यादातर झुक गये लेकिन किषोर कुमार ने आदेष नहीं माना। उनके गान े रेिडया े पर बजन े बदं हा े गय।े उनक े घर पर आयकर क े छाप े पड।े़ अमष्त नाहटा की फिल्म ‘‘किस्सा कुर्सी का’’ को सरकार विरोधी मानकर उनके सारे प्रिंट जला दिये गये। गुलजार की आवाज पर भी पाबन्दी लगाई गई। आपातकाल का यह दौर लगभग 21 माह अर्थात् 25 जून 1975 से 21 मार्च,1977 तक रहा। छठे आम चुनाव कराये जाने की आकस्मिक घोषणा ने विभिन्न प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों के समक्ष गहन चुनौती उत्पन्न कर दी गई और आपसी विलय की विचारणा को अनिवार्य बना दिया। आपातकाल के दौरान प्रतिपक्षी नेताओ ं को आपसी विचार विमर्ष का अनायास अवसर मिल गया था। जेल से छूटकर बाहर आये नेताओं के लिए यथार्थ को टालने या बंटे बिखरे रहने के कारण स्वयं अपने अस्तित्व का विलोप का खतरा साफ था अतः उनके अपने पष्थक अस्तित्व को समाहित करने तथा देष में व्याप्त राजनीतिक अभिषाप की स्थिति को समाप्त की प्रेरणा सबल बन गई। सौभाग्य से जयप्रकाष नारायण जैसे प्रभावी नेताओं का नेतष्त्व भी सुलभ हुआ और जो कार्य वर्षों में नहीं हो पाया वह अवसरजन्य स्थिति के कारण कुछ दिनों में संभव हो गया। अन्ततः चार विपक्षी दलों ३संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल समाजवादी दल७ ने मिलकर मोरारजी देसाई के नेतष्त्व में जनता पार्टी का गठन किया। इसी बीच कष्षि मंत्री श्री जगजीवनराम ने मंत्रिमण्डल व कांग्रेस की सदस्यता से इतनी लम्बी सेवा करने के बाद अचानक त्याग-पत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन करके जनता पार्टी के सहयोग से चुनाव लड़ने की घोषणा की। विभिन्न पार्टीयों द्वारा घोषणा पत्र जारी किये। इसमें जनता पार्टी का घोषणा पत्र, भारतीय साम्यवादी दल का घोषणा पत्र, माक्र्सवादी साम्यवादी दल का घोषणा पत्र, क्षेत्रीय दलों के घोषणा पत्र।
10 फरवरी, 1977 को जनता पार्टी के उपाध्यक्ष चैधरी चरण सिंह ने अपने का चुनाव घोषणा पत्र जारी किया। घोषणा पत्र में आपातकाल के दमनच , परिवार नियोजन की ज्यादतियाँ, स ाा के केन्द्रीयकरण और मौलिक अधिकारों के हनन के लिए सरकार की निन्दा की गई।
21 फरवरी 1977 को लोकतत्रं ी कागं ्रेस महासचिव हेमवती नन्दन बहुगुणा
न े अपन े दल का घाष्ेाणा पत्र जारी किया। 10 पष्ष्ठीय इस घाष्ेाणा पत्र म ंे आपातस्थिति को तत्काल समाप्त करने, आतंरिक सुरक्षा कानून को वापिस लेने, राजनीतिक बंदियों को तत्काल रिहा करने, आप िाजनक सामग्री के प्रकाषन पर प्रतिबंध समाप्त करने आदि की घोषणा की गई।
9 फरवरी 1977 को भारतीय साम्यवादी दल का चुनाव घोषणा पत्र जारी किया। घाष्ेाणा पत्र म ंेचनु ाव का महत्व, आपातकालीन स्थिति का समथर्न , आपातकाल के बाद उभरती नकारात्मक प्रवष् िायों का विरोध किया। माक्र्सवादी साम्यवादी दल ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में आपातस्थिति को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं करने, आतंरिक सुरक्षा कानून को जारी रखने, अदालतों को अधिकारों से वंचित रखने, प्रेस को नियंत्रित करने, 42वें संविधान संषोधन द्वारा सघ्ं ाीय स्वरूप का े क्षतिग्रस्त करन,े जीवनापे यागे ी वस्तुआ ंे क े मल्ू य ब
एक साक्षात्कार - पंडित रामकिषन के साथ
३आपातकाल के दौरान विरोधी दल के नेता के साथ षोधार्थी योगेन्द्र सिंह का साक्षात्कार७
नाम - पंडित रामकिषन
1975 - विधायक ३संयुक्त सोषलिस्ट पार्टी७, विधानसभा-भरतपुर 1977 - सांसद ३जनता पार्टी७, लोकसभा क्षेत्र भरतपुर
जन्म - संवत 1983 फागुन, जाति - ब्राªण
आपातकाल में विरोधी दल के नेता पंडित रामकिषन के साथ मेरी
बातचीत हुई। मंैने उनसे कुछ प्रष्न पूछे। उन्होंने मेरे द्वारा पूछे गये प्रष्नों के उत्तर भी दिये। इस प्रकार हमारे मध्य बातचीत का जो म रहा, वह इस प्रकार है:- प्रष्न - आपातकाल के दौरान 20 सूत्री कार्य मों के ियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा सरकार के सामने क्या थी ? उत्तर - बाधा यह थी कि सिनसियरिटी नहीं थी। सरकार में इच्छा षक्ति नहीं थी। आपातकाल के बाद जो कार्य म बनाया गया था उसे रोकने वाला कोई नहीं था। विरोध नाम की कोई चीज नहीं थी। जैसे भूमि का बंटवारा, कई चीज ऐसी थी जो आवष्यक थी। जमींदारी उन्मूलन के उद्देष्य को पूरा नहीं किया गया। उनके बाद उम्मीद यह थी कि भूमि का बंटवारा कार्य म को पूरा नहीं किया गया। सरकार की इच्छा षक्ति और सिनसियरिटी नहीं थी। प्रष्न - समस्या के निवारण के लिए क्या प्रभावी कदम उठाये ? उत्तर - समस्या के समाधान के लिए कार्य म की समीक्षा होती रही। सरकार के विभाग, उनके बाद मंत्रालय बनाया गया। मंत्री इस बात को देखते थे कि कार्य म किस सीमा तक पूरा हो रहा है। किस सीमा तक पूरा नहीं हो रहा है। समस्या तो हर कार्य म में आती है। हर काम मंे आती है। समीक्षा के बाद भी यह हो रहा है। इसका मतलब समीक्षा भी सही
प्रष्न - जन-जन स्वास्थ्य के तहत बनाई गई नीतियों की पालना क्या आपातकाल के दौरान अधिक प्रबलता से की गई थी ? उत्तर - परिवार नियोजन पर जोर दिया गया। परिवार नियोजन पर जो जबरदस्ती थी। उसकी वजह से लोगों में नाराजगी थी। यदि इसे समझा बुझाकर करते तो यह कार्य म आज भी अच्छा है। बहुत बड़ी जरूरत है। इस कार्य म की आज भी जरूरत है।चाहे आपातकाल में लागू किया हो। परिवार नियोजन देष की सबसे बड़ी जरूरत है। हर वर्ग पर हर समाज पर इसका असर होना चाहिए तभी इसका लाभ समाज को मिलेगा। प्रष्न - 20 सूत्री कार्य मों में पंचायतों की भागीदारी का स्तर क्या था ? उत्तर - पंचायतों को धीरे-धीरे अधिकार दिये जा रहे हंै। आपातकाल में पंचायतों की कोई भागीदारी नहीं थी। केवल सरकारी कार्य म थे जिससे जनता में भय था तथा जनता की सहभागिता थी। प्रष्न - किसान मित्र एवं श्रमिक कल्याण की योजनाओं में ियान्वयन आपातकाल के दौरान कितनी सुनिष्चित हो पायी थी? उत्तर - किसानों को लोन की सुविधा मिली थी। बैंकों का राष्टश्ीयकरण हुआ जिससे किसानों को, छोटे व्यवसायी को हिस्सा तय कर दिया गया था। प्रष्न - आपातकाल के दौरान षिक्षा, चिकित्सा, रोड़वेज व अन्य सरकारी सेवाओं की स्थिति क्या थी ?
उत्तर - षुरू में जैसे आपातकाल में लोगों में भय था। सरकारी दफ्तरों में हाजिरी टाइम पर होने लगी। टश्ेनें चलने लगी। रोडवेज समय पर चलने लगी। जैसे-जैसे समय बीतता गया। जैसे देष का
प्रष्न - 20 सूत्री कार्य म क्या आपातकाल के नकारात्मक स्वरूप को खत्म करने के लिए था? उत्तर - कार्य म जल्दी में बनाया गया। आलोचना हो रही थी। जो नसबन्दी थी। यह दिखाने के लिए कि मंै गरीबों की पक्षधर हूँ और ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया गया उसके तहत गरीबों में यह मैसेज जाये। प्रष्न - 20 सूत्रीय कार्य म में स्वच्छता के नाम पर सरकार ने क्या कार्यवाही की? उत्तर - दिल्ली में झुग्गी झोपड़ियों को हटाया गया। जो मुस्लिम बस्तियां थी। आपातकाल में दो कार्य म थे। नसबंदी और झुग्गी झोपड़ियाँ। झुग्गी झोपड़ियों को हटाने की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं थी।
एक साक्षात्कार - ओमप्रकाष गुप्ता के साथ
३आपातकाल के दौरान आम नागरिक के साथ षोधार्थी
योगेन्द्र सिंह का साक्षात्कार७
नाम - श्री ओमप्रकाष गुप्ता उम्र - 77 वर्ष जाति - वैष्य अग्रवाल 1975 - प्राध्यापक पता - भरतपुर आपातकाल के दौरान आम नागरिक ओमप्रकाष गुप्ता के साथ मेरी बातचीत हुई। मंैने उनसे कुछ प्रष्न पूछे। उन्होंने मेरे द्वारा पूछे गये प्रष्नों के उत्तर भी दिये। इस प्रकार हमारे मध्य बातचीत का जो म रहा, वह इस प्रकार है:- प्रष्न - आपातकाल के दौरान 20 सूत्री कार्य मों के ियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा सरकार के सामने क्या थी ? उत्तर - इसमें मुख्य था नसबन्दी करना। वैसे देखा जाये तो नसबन्दी कार्य म ठीक था परन्तु सरकारी अधिकारियों ने गैर जिम्मेदार तरीकों से इसे गलत दिषा में मोड़कर गलत रूप दे दिया एवं वाहवाही लूटने के प्रयास में अविवाहित व्यक्तियों, बच्चों व बूढ़ों तक की नसबन्दी कर दी गई जिससे पूरा देष पूर्ण रूप से इंदिरा गाँधी सरकार के विरू हो गया।
प्रष्न - समस्या के निवारण के लिए क्या प्रभावी कदम उठाये ? उत्तर - श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए
‘‘गरीबी हटाओ’’ का नारा दिया। प्रष्न - आपातकाल में सरकार, प्रषासन और जनता के बीच समन्वय की स्थिति कैसी थी ? उत्तर - सरकार की तरफ से छूट मिलने के कारण प्रषासन ने भी जनता के ¯पर मनमाने तरीके से अत्याचार किये। विरोधी पार्टियों से सम्बन्ध बनाये रखने वाले सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निलम्बित किया गया। उनको बर्खास्त किया गया। गैर कांग्रेसी व्यापारी वर्ग पर छापे मारे गये। जनता में प्रषासन द्वारा भय का माहौल बनाया गया। प्रष्न - सामाजिक सुरक्षा के लिए नीतिगत षासन द्वारा सामाजिक सुरक्षा के नाम पर किसी प्रकार का नीतिगत ूठे आकं ड ें़ बूठे आंकड़ों को सही मानकर अधिकारियों द्वारा जनता के पैसे को खूब लूटा जाता था। किये गये कार्य होते ही नहीं थे।
प्रष्न - किसान मित्र एवं श्रमिक कल्याण की योजनाओं में ियान्वति आपातकाल के दौरान कितनी सुनिष्चित हो पायी थी ? उत्तर - किसान मित्र एवं श्रमिक कल्याण कार्य मों की रूप रेखा बनाई जाती थी इन योजनाआंे का खूब प्रचार-प्रसार किया जाता था विज्ञापनों पर खूब धन खर्च किया जाता था। ‘गरीबी हटाओ देष बचाओ’ का नारा खूब जोर से दिया जाता था परन्तु इसके विपरीत गरीब और गरीब होता चला गया। मजदूर एवं किसानों को रोजगार मिलना कठिन हो गया। केवल सरकारी फाइलों एवं कागजों एवं विज्ञापन में ही श्रमिक एवं किसानों का उत्थान दिखाया जाता था। उस समय की सरकार ने भी यह माना था कि देष में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर व्याप्त है तथा जो धन श्रमिक कल्याण एवं किसानों के हित के लिए दिया जाता है वह गरीबों तक पहुँचता ही नहीं है उस धन को बड़े-बड़े अधिकारी अपनी जेबों में डाल लेते थे। प्रष्न - आपातकाल के दौरान षिक्षा, चिकित्सा, रोडवेज व अन्य सरकारी सेवाओं की स्थिति क्या थी ? उत्तर - आपातकाल के दौरान, षिक्षा, चिकित्सा, रोड़वेज एवं अन्य सेवाओं पर अच्छा प्रभाव पड़ा था यह प्रभाव केवल भय के कारण था, अध्यापक समय पर विद्यालय पहुँचते थे उनको परीक्षा परिणाम की चिन्ता लगी रहती थी। परीक्षा परिणाम खराब होने पर सेवा रिकाॅर्ड खराब होने का डर बना रहता था तथा स्थानान्तरण का डर बना रहता था इसी कारण अध्यापक विद्यालय में समय पर आकर छात्रों को नियमत रूप से मन से पढ़ाया करते थे तथा अधिकारी भी स्कूलों का निरीक्षण करते रहते थे। अन्य सेवाओं जैसे रोड़वेज आदि समय पर संचालित होने लगी थी। सरकारी कार्यालयों में कर्मचारी एवं अधिकारीगण समय पर कार्यालय पहुँचने लगे थे। इसका कारण यह था कि प्रत्येक कर्मचारी एवं अधिकारी के मन में एक भय व्याप्त था कि उनके खिलाफ कोई कार्यवाही न हो जाये इस कारण सभी अपना अपना कार्य सुचारू रूप से करने लगे थे। प्रष्न - 20 सूत्री कार्य म क्या आपातकाल के नकारात्मक स्वरूप को खत्म करने के लिए था ? उत्तर - आपातकाल के कुछ दुष्परिणाम भी थे उनको दूर करने के लिए एवं जनता को राहत देने के लिए तत्कालीन सरकार ने 20 सूत्री कार्य म की योजना प्रारम्भ की थी परन्तु सरकारी अधिकारियों की लापरवाही नासमझी एवं अयोग्यता के कारण जनता को इन योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल सका। यह योजनाऐं केवल कागजों में ही सिमट कर रह गई। प्रष्न - 20 सूत्री कार्य मों ने स्वच्छता के नाम पर सरकार ने क्या कार्यवाही की? उत्तर - बीस सूत्री कार्य म के अन्तर्गत स्वच्छता अभियान के रूप में कोई खास प्रगति नहीं हुई। न तो नगर निगम, नगर पालिका आदि को कोई सहायता नहीं दी गई और न कचरा हटाने एवं जलाने के लिए कोई प्रबन्ध किया गया। स्वच्छता के नाम पर गरीब नागरिकों की झुग्गी झोपड़ियों को हटा तो दिया परन्तु पुनर्वास के लिए कोई प्रबन्ध नहीं किया गया।
स ा र ा ं ष् ा
षोध का उद्देष्य:- प्रस्तुत षोध ‘भारत में आपातकाल 25 जून 1975 और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों की विवेचना ३सन 1975 से 2012 तक७’ अपनी प्रकष्ति में विष्लेषणात्मक एवं उद्देष्य परक अध्ययन है। इस षोध अध्ययन का मुख्य उद्देष्य यह जानना है कि सन 1975 मंे आपातकाल क्यों लगाया गया? और उसके बाद राजनीति में क्या परिवर्तन आये? राष्टश्ीय स्तर पर आपातकाल लागू करने की क्या परिस्थितियाँ थीं? आपातकाल के दौरान संघीय षासन व्यवस्था को सुदष्ढ़ करने, स्वच्छ एवं संकल्पनात्मक सुषासन किस प्रकार प्रभावी सि हुए हंै। आपातकाल की पुनरावष्ति को रोकने में इनका क्या योगदान रहा? आपातकाल के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों के अस्तित्व, संगठन एवं महत्व के लिए राजनीतिक दलों के सामने एक चुनौती थी और राजनीतिक दलों के लिए इन प्रष्नों से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने में राजनीतिक दलों में क्या बदलाव परिलक्षित होता है। आपातकाल में देष का राजनैतिक परिदष्ष्य क्या हो जाता है? क्या आपातकाल का प्रयोग तात्कालीन कांग्रेस सरकार के समक्ष एक मात्र विकल्प था? इसे टाला जा सकता था? आपातकाल के बाद आम चुनाव हुए, जनता पार्टी स ाा में आयी कुछ महीनों के बाद जनता पार्टी की सरकार ने बहुमत खो दिया व जनता पार्टी का विभाजन हो गया।
जनता पार्टी न ेबहमु त क्या ंेखा ेदिया? भाजपा का निमाणर्् ा किन परिस्थितियांे में हुआ व कांग्रेस की कांग्रेस ३आई७ हो गयी। यह क्यों हुआ बाद में जनता दल, कांग्रेस तिवारी, राष्टश्वादी कांग्रेस, यूनाइटेड और राष्टश्ीय धु्रवीकरण के रूप में एन.डीए. ३नेषनल डेमो ेटिव अलाइन्स७ और यूपीए ३यूनाइटेड प्रोग्रेषिव अलाइन्स७ बने? इनके अलावा और भी पार्टियाँ बनीं और बिगड़ी उन सभी का इस षोध प्रबन्ध में विचारधारा और कार्य म के आलोक में षोध करने का प्रयास किया गया है।
अध्याय-प्रथम
३अ७ सामान्य परिचय
३ब७ भारत में 1975 के आपातकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ और उनके निर्णय का अध्ययन
३अ७ सामान्य परिचयः- आपातकाल का सामान्य अर्थ ऐसी परिस्थितियों से लिया जाता है। कि विषेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए विषेष संवैधानिक प्रावधान प्रयुक्त किये जाए आपातकाल के प्रावधान को जर्मनी के संविधान से लिया गया है। सविधांन के 18वें भाग मे अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकाल का वर्णन किया गया है।
आपातकाल के दौरान राजनैतिक व्यवस्था संघीय से एकात्मक हो जाती है। भारत या उसके किसी एक भाग मंे सषस्त्र विद्रोह हो जाये या भारत किसी यु मे फँस जाये तो उस समय राष्टश्पति 352 के अन्र्तगत संकटकाल की घोषणा कर सकता है। इन्ही प्रावधानो का सहारा लेते हुए भारत में 25 जून 1975 मे आपातकाल लागू किया गया। पहला आपातकाल 1962 में लगाया गया। दूसरा आपातकाल 1971 में लगाया गया। तीसरा आपातकाल 25 जून 1975 मंे लगाया गया। जो कि 21 मार्च 1977 तक रहा।
३ब७ भारत में 1975 के आपातकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ और उनके निर्णय का अध्ययनः- जून 1975 में भारतीय राजनीति मे एक नया मोड उत्पन्न हुआ। राजनैतिक नारेबाजी तथा आर्थिक दाब-पेचों की असफलता के बाद इन्दिरागाँधी ने उदारवादी लोकतंत्र मे प्राप्त आखिरी अधिकार का प्रयोग, आपात स्थिति की घोषणा और निरंकुष षासन स्थापित करने की कार्यवाही की।
मार्च 1971 में राजनारायण ३समाजवादी नेता७ ने इन्दिरागाँधी के
विरू रायवरेली ३उ ारप्रदेष७ से चुनाव लडा था उसमे वह बुरी तरह पराजित हुआ था। उसके बाद उसने अप्रेल 1971 में प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के विरू इलाहबाद उच्च न्यायालय में एक चुनाव याचिका दायर की थी जिसमें प्रधानमंत्री के विरू भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था। 12 जून 1975 को इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायधीष श्री जगमोहन सिन्हा ने राजनारायण की याचिका पर हाई कोर्ट का निर्णय प
लिए पूर्ण स्थगनादेष ;।इेनसंजम ैजंल भी जारी कर दिया क्योकि प्रधानमंत्री का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसके बाद इन्दिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए साम्यवादी दल को छोडकर अन्य विरोधी दलो ने आन्दोलन छेडने का निष्चय किया उन्होने 13 जून 1975 को राष्टश्पति भवन के सामने धरना दिया।
18 जून 1975 को कांग्रेस संसदीय दल ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें इन्दिरा गाँधी के नेतष्त्व में अटूट विष्वास प्रकट किया और कहा गया कि उनका नेतष्त्व देष के हित के लिए अनिवार्य है 20 जून 1975 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के विरू उच्चतम न्यायालय से अपील की। इस अपील में इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय कों उस समय तक पूर्ण रूप से तथा बिना षर्त के स्थगित रखने के लिए प्रार्थना की गई। जब तक उच्च न्यायालय अन्तिम रूप से अपील पर कोई निर्णय नही लेता।
24 जून 1975 को उच्चतम न्यायालय के अवकाष पीठ ने प्रधानमंत्री की अपील पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को स्थगित करने के लिए एक आदेष जारी कर दिया जिसमें कहा गया कि इन्दिरा गाँधी की अपील या निर्णय तक प्रधानमंत्री के रूप मे कार्य कर सकती है। और संसद की कार्यवाही में भाग ले सकती है पर मतदान मे भाग नही ले सकती है। 25 जून 1975 को जयप्रकाष के नेतष्त्व में साम्यवादी दल को छोडकर अन्य विरोधी दल ३संगठन कांग्रेस, जनसंघ, समाजवादी दल और भारतीय लोकदल इत्यादि७ ने इन्दिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए बडा व्यापक आन्दोलन छोडने की घोषणा की। स्थिति बडी गंम्भीर थी। इस पर प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने अपने सहयोगी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियो और अन्त में राष्टश्पति से विचार किया। इन्दिरा गांधी के विचार में कानून तथा व्यवस्था के टूटने और अराजकता फैलने की पूरी-पूरी संभावना थी इसलिए उन्होने तत्कालीन राष्टश्पति फखरूद्दीन अली अहमद स े आन्तरिक सकं टकालीन स्थिति की घाष्ेाणा करवा दी। बाहरी सकं टकालीन स्थिति 3 दिसम्बर 1971 से पहले की चल रही थी। इसके बाद आन्तरिक आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक लगभग 21 महीने तक रहा।
अध्याय द्वितीय
आपातकाल के दौरान 20 सूत्रीय कार्य मों का ियान्वयन और प्रभाव की विवेचना ३साक्षात्कार, सर्वे७ पर आधारित
३अ७ बीस सूत्रीय कार्य म:-
1. गरीबी हटाओ।
2. जनषक्ति ३लोगों का अधिकार७
3. किसान मित्र ३किसानों को सहायता७
4. श्रमिक कल्याण,
5. खाद्य सुरक्षा
6. सबके लिए आवास
7. षु पेयजल
8. जन-जन स्वास्थ्य
9. सबके लिए षिक्षा
10. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्प संख्यक एवं अन्य पिछड़ा वर्ग कल्याण
11. महिला कल्याण
12. बाल कल्याण
13. युवा विकास
14. बस्ती सुधार
15. पर्यावरण संरक्षण एवं वन वष्
ि
16. सामाजिक सुरक्षा
17. ग्रामीण सड़क
18. ग्रामीण ¯र्जा
19. पिछड़ा क्षेत्र विकास
20. ई-षासन
३ब७ 1975 में विधायक एवं 1977 में सांसद पंडित रामकिषन जी का साक्षात्कार
३स७ 1975 में प्राध्यापक ओमप्रकाष गुप्ता जी का साक्षात्कार
अध्याय-तष्तीय
आपातकाल के दौरान गैर कांग्रेस राजनीतिक दलों की स्थिति की विवेचना
विपक्ष की आवाज बंद:-
आपातकाल की घोषणा हुई और जो कहने के पूर्व सभी विरोधी दलों ३सी.पी.आई. को छोड़कर७ के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। न उम्र का लिहाज रखा गया न स्वास्थ्य का 120 से अधिक बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई जिनमें जयप्रकाष नारायण, विजयाराजे सिंधिया, राजनारायण मोरारजी देसाई, चरण सिंह, कष्पलानी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकष्ष्ण आडवाणी, सत्येन्द्र नारायण, जार्ज फर्नाडिष, मधु लिमये ज्योति बसु, सुमर गुहा, चन्द्रषेखर, बाला साहेब देवरस और बड़ी संख्या मे सांसद, विधायक षामिल थे। राष्टश्ीय स्तर के नेता आंतकवादियों की तरह रात के अंधेरे में घर से उठा लिए गए और मींसा के तहत अनजाने स्थान पर कैद कर लिए गए।
राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ का पूर्व दमनः-
आपातकाल में अगर किसी एक संगठन का सबसे अधिक दमन हुआ तो वह था राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ, संघ के स्वयंसेवक कार्यकर्ता और प्रचारक गिरफ्तार किए गए। पुलिस ने गिरफ्तार करने में उम्र का भी ख्याल नहीं रखा। आपातकाल के दौरान गिरफ्तार और प्रताड़ित होने के लिए स्वयंसेवक का विरोध कर रहे 90 फीसदी लोग किसी न किसी तरह से संघ से जुड़े थे। वाराणसी के बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय के छात्रसंघ पर उस समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कब्जा था। पुलिस ने आपातकाल की घोषणा होते ही पंडित मदन मोहन मालवीय ने आरएसएस को लाॅ काॅलेज के परिसर में दो कमरों का एक भवन कार्यालय के लिए दिया था पर प्रषासन ने उसे एक ही रात में बुलडोजर लगा कर ध्वस्त करा दिया। आपातकाल के विरू राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ ने जन आंदोलन को सफल बनाने के लिए बहुत बड़ी भूमिका निभाई।14 नवम्बर 1975 से 14 जनवरी 1976 तक पूरे देष में हजारों स्थानों पर सत्याग्रह हुए जिसमें 1,54,860 सत्याग्रही षामिल हुए। इन सत्याग्रहियों में 80,000 संघ के स्वयंसेवकों का समावेष था। सत्याग्रह के दौरान कुल 44,963 संघ से जुड़े लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से 35,310
स्वयंसेवक थे।
अध्याय-चतुर्थः
आपातकाल में प्रेस/मीडिया की प्रेस क्लिपिंग का अध्ययन
अ. प्रेस पर लागू हुआ सेंसरषिप:-
आपातकाल की घोषणा के साथ ही पे्रस पर सेंसरषिप लागू कर दी गई। स्वतंत्रता के बाद ऐसा पहली बार हुआ था। प्रेस पर पूर्ण सेंसरषिप लगाई गई थी। सभी अखबारों के सम्पादको पर आपातकाल के दोरान हो रही ज्यादतियां की खबर ना छापने के लिए दबाव बनाया गया। बड़ी संख्या में पत्रकार इस दबाव के आगे नतमस्तक हो गये। मीडिया में सत्ता की चापलूसी करने वाले पत्रकारों ने भारतीय पत्रकारिता को हमेषा के लिए षर्मिन्दा कर दिया।
अधिकतर अखबारों में केवल सरकारी विज्ञप्तियों को ही खबर की तरह छापा जा रहा था। मीडिया में आपातकाल और सरकार विरोधी खबरांे के लिए कोई जगह नहीं थी। खबरों को छापने से पहले सरकारी अधिकारी को दिखाना आवष्यक था। किसी भी खबर को बिना सूचित किये नहीं छापा जा सकता था। जैसे कई अखबारों ने मजबूरी में आपातकाल का विरोध नहीं किया। 9 जुलाई 1975 को दिल्ली के 47 संपादकों ने देष में समाचार पत्रों पर लगाये गये सेंसरषिप और इंदिरागाँधी की नीतियों पर अपना समर्थन व्यक्त किया।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका ने खुलकर सरकार की तरफदारी की। पत्रिका न े 6 फरवरी 1977 का े ‘राजनीतिक षतरजं क े पुरान े खिलाडी़ और नए माहे र’ंे षीर्षक से एक लेख प्रकाषित किया जिसमें आने वाले चुनाव में कांग्रेस का पलड़ा भारी होने की बात कही गई थी जबकि देषभर में काॅग्रेस के खिलाफ माहौल था। अन्ततः 1977 के चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह हार भी हुई।
निष्चित तौर पर कई अखबारों और पत्रिकाओं को अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए झुकना पड़ा पर पत्रकारों की बड़ी जमात जिस तरह से रेंगने के लिए तैयार हो गयी उससे भारतीय पत्रकारिताओं पर कभी न मिटने वाला दाग लग गया।
ब. जो झुकने को नहीं हुए तैयार:-
इन सरकारी षिंकजे के बावजूद बड़ी संख्या में ऐसे भी पत्रकार थे जिन्हांेने अपने जमीर पर दाग नहीं लगने दिया। प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करते हुए कुलदीप नैयर, सूर्यकान्त बाली, वि मराव, वीरेन्द्र कपूर, ष्याम खोंसला, देवेन्द्र स्वरूप, रतन मलकायी और दीनानाथ मिश्र जैसे पत्रकारो ं ने जेल की यातनायें झेली। कुल 327 पत्रकारों को मीसा कानून के अन्तर्गत जेल में बंद कर दिया गया। कई अखबारों और पत्रिकाओं ने अपने तरीके से प्रेस पर लगे सेंसरषिप का विरोध किया। कुछ संपादकों ने संपादकीय का स्थल खाली छोड़कर सरकार का विरोध किया। कुछ ने संपादकीय के स्थान पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में महापुरूषों की उक्तियों को छापा।
सरिता में 6 महीने तक कोई संपादकीय कालम नहीं छपा। सरिका ने जुलाई 1975 क े अकं म ंे सपं ादकीय का े ससें र अधिकारी द्वारा काला किए गए वाक्यांे और षब्दों सहित हुबहू प्रकाषित कर दिया। इस अंक में 27-28 संख्या के पष्ष्ठ लगभग पूरी तरह काले थे।
प्रेस में प्रतिबंध को लेकर ऐसा भय का वातावरण बना कि सेमिनार और अधिनियम जैसे अनेक पत्र पत्रिकाओं को अपने प्रकाषन बंद करने पड़े। सरकार ने 3801 समाचार पत्रों के डिक्लेरेषन जब्त कर लिये और 290 अखबारों के विज्ञापन बंद कर दिये गये।
आपातकाल लगने से पहले देष में चार समाचार समितियाँ थीं - पीटीआई, यूएनआई, समाचार भारती और हिन्दुस्तान समाचार। सरकार ने इसे मिलकर एक समिति समाचार का गठन किया जिससे यह पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में रहे। 18 दिसम्बर 1975 को अध्यादेष द्वारा पे्रस परिषद को समाप्त कर दिया गया। आपातकाल के दौरान आकाषवाणी और दूरदर्षन पर जनता का ऐसा विष्वास उठा कि लोग बीबीसी और वाॅयस आॅफ अमेरिका सुनते थे।
ऐसा नहीं था कि सरकार ने विदेषी पत्रकारों को परेषान ना किया हो। ब्रिटेन के टाइम और गार्जियन के समाचार प्रतिनिधियों को भारत से निकाल दिया गया। रायटर सहित अन्य एजेन्सियों टेलेक्स और टेलीफोन काट दिये गये। 7 विदेषी संवाददाताओं को भारत छोड़ने का हुक्म सुनाया गया।
आपातकाल के चालीस साल बीत चुके हंै। पर भारतीय पत्रकारिता के उस काले दौर को हमेषा याद रखने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ियों को प्रेस की स्वतंत्रता, के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले पत्रकारों से सीख मिलती रहे।
स. बाॅलीवुड पर भी चला सरकारी डण्डा -
विरोध प्रदर्षन का तो सवाल नहीं उठता था क्योंकि जनता को जगाने वाले लेखक, कवि और फिल्मी कलाकारों तक को नहीं छोड़ा गया। कहते हंै - मीडिया, कवियों और कलाकारों का मुँह बंद करने के लिए नहीं बल्कि इनसे सरकार की प्रषंसा करवाने के लिए विद्याचरण षुक्ल सूचना प्रसारण मंत्री बनाये गये थे।
उन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रषंसा में गीत लिखने गाने पर मजबूर किया। ज्यादातर लोग झुक गये लेकिन किषोर कुमार ने आदेष नहीं माना। उनके गाने रेडिया पर बजने बदं हो गये। उनके घर पर आयकर के छापे पडे़। अमष्त नाहटा की फिल्म ‘‘किस्सा कुर्सी का’’ को सरकार विरोधी मानकर उसके सारे प्रिंट जला दिये गये। गुलजार की आवाज पर भी पाबंदी लगाई गई।
३1७ हजारों ख्वाहिषें ऐसी 2005:-
निर्देषक सुधीर मिश्रा की यह फिल्म आपातकाल की पष्ष्ठ भूमि पर बनी
है। फिल्म में उस दौरान बढ़ रहे नक्सलवाद पर भी प्रकाष डाला गया है।
३2७ नसबन्दी 1978:-
सरकार द्वारा चलायें गये नसबंदी अभियान पर कटाक्ष करती आइ एसजौहर की इस फिल्म की रिलीज को प्रतिबंधित कर दिया गया क्योंकि इसमें इंदिरागाँधी सरकार को दिखाया गया था।
३3७ किस्सा कुर्सी का 1977:-
अमष्त नाहटा की इस फिल्म में षबाना आजमी ने भोली-भाली जनता का किरदार निभाया है। आपातकाल पर बनी फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया और सभी प्रिन्ट जला दिये गये।
३4७ आँधी 1975:-
गुलजार की इस फिल्म को प्रति बंधित कर दिया गया, क्योंकि यह
इंदिरा गाँधी पर आधारित थी।
अ ध् य ा य - प ं च म
आपातकाल के बाद भारत का राजनीतिक परिदष्ष्य, राजनीतिक परिवर्तन, राजनीतिक दलों पर उसका प्रभाव, राजनीतिक चेतना और बनती-बिगडती राजनीतिक पार्टियों की विवचेना।
छठें आम चुनाव कराये जाने की आकस्मिक घोषणा ने विभिन्न प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों के समक्ष गहन चुनौती उत्पन्न कर दी और आपसी विलय की विचारणा को अनिवार्य बना दिया। आपातकाल के दौरान प्रतिपक्षी नेताओं को आपसी विचार विमर्ष को अनायास ही अवसर मिल गया था। जेल से छूट कर बाहर आये नेताओं के लिए यर्थाथ को टालने या बंटे-बिखरे रहने के कारण स्वयं अपने अस्तित्व के विलोप का खतरा साफ था अतः उनके अपने अपने पष्थक अस्तित्व को समाहित करने तथा देष में व्याप्त राजनीतिक अभिषाप की स्थिति को समाप्त करने की प्रेरणाऐं सबल बन गईं। सौभाग्य से जयप्रकाष नारायण जैसो प्रभावी नैतिक नेतष्त्व भी सुलभ हुआ और जो कार्य वर्षों में नहीं हो पाया वह अवसरजन्य स्थिति कारण कुछ दिनों में संभव हो गया अन्ततः चार विपक्षी दलों ३संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोकदल, समाजवादी दल७ ने मिलकर मोरारजी देसाई के नेतष्त्व में जनता पार्टी का गठन किया। लोकसभा के मार्च 1977 के चुनाव परिणामों ने जिनके फलस्वरूप जनता सरकारक े रूप में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार केन् में बनी।
३अ७ जनता पार्टी का गठन:-
चार विपक्षी दला ंे सगं ठन कागं स्रे , जनसघ्ं ा, भारतीय लाके दल, समाजवादी दल ने मिलकर मोरारजी देसाई के नेतष्त्व में जनता पार्टी का गठन किया।
३ब७ लोकतंत्र कांग्रेस का गठन:- इसी बीच कष्षि मंत्री जगजीवन राम ने मंत्रिमण्डल व कांग्रेस की
प्राथमिक सदस्यता से इतनी लम्बी सेवा करने के बाद अचानक त्याग-पत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन किया और जनता पार्टी के सहयोग से चुनाव लडा़।
३स७ कांग्रेस ३एस७ का गठन:-
25 जून 1979 को श्री देवराज अर्स ने काॅग्रेस ३ई७ से नाता तोड़कर कर्नाटक कांग्रेस नाम से एक नये दल की स्थापना कर ली। बाद में रेड्डी, चाव्हण, स्वर्णसिंह वाली कांग्रेस तथा कर्नाटक कांग्रेस का विलय हो गया। इसको बाद में कांग्रेस ३एस७ का नाम दिया गया।
३द७ लोकतंत्रीय कांग्रेस ३कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी७:-
2 फरवरी 1977 को जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, नन्दनी सतपथी तथा अनेक कांग्रेसी नेताओं ने दल में आन्तरिक लोकतंत्र के हनन का आरोप लगाते हुए कांग्रेस से त्याग-पत्र दे दिया और अपनी अलग लोकतंत्रीय कांग्रेस ३कांग्रेस फाॅर डेमो ेसी७ का गठन किया।
३य७ लोकदल का निर्माण ३जनता एस७:-
जुलाई 1979 में जनता पार्टी की बहुमत से सदस्यों ने दल छोड़कर राजनारायण के नेतष्त्व में जनता एस का निर्माण किया।
३र७ भाजपा:-
4 अप्रैल 1980 को जनता पार्टी की कार्य समिति ने अपने सदस्यो के राष्टश्ीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य होने पर प्रतिबंध लगा दिया। पूर्व के भारतीय जनसंघ के सदस्यों ने इसका विरोध किया। जनता पार्टी से अलग होकर 6 अप्रैल
1980 को एक नया संगठन भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की।
३व७ कांग्रेस ३तिवारी७:-
1975 में अर्जुन सिंह व नारायण द ा तिवारी को कांग्रेस से निष्कासित किया गया तो उन्होंने कांग्रेस तिवारी नाम से नये दल का गठन किया।
३क्ष७ राष्टश्वादी कांग्रेस:-
1999 में षरद पंवार, तारिक अनवर, पी.ए.संगमा ने कांग्रेस से निष्कासित किये जाने के पष्चात राष्टश्वादी कांग्रेस का गठन किया।
३त्र७ एन.डी.ए. - 1998:- 11वीं तथा 12वीं लोकसभा के चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और सरकारों का जल्दी-जल्दी पतन होने लगा तो ऐसी स्थिति में 13वीं लोकसभा चुनाव के पूर्व भी 1999 में भारतीय जनता पार्टी के नेतष्त्व में राष्टश्ीय जनतांत्रिक गठबंधन का गठन किया गया। गठबंधन ने अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता घोषित किया। भाजपा सहित गठबंधन के भागीदार दलों ने अपने अलग घोषणा पत्र जारी करने के बजाय ‘राजग’ के घोषणा-पत्र के आधार पर 13वीं लोकसभा का चुनाव लड़ा। घोषणा पत्र में भूख, भय और भ्रष्टाचार से मुक्त सुदष्ढ़ भारत बनाने का संकल्प लिया गया। घोषणा-पत्र में राष्टश्ीय सुरक्षा, राष्टश्ीय पुनर्निमाण, गतिषील कूटनीति, संकीय समरसता, आर्थिक आधुनिकीकरण, सेक्यूलरवाद, सामाजिक न्याय और षुचिता इन आठ बिन्दुओं पर विषेष जोर दिया गया तथा कहा गया कि अगली सदी में बाँटने वाली बातों को त्यागकर आपसी विष्वास की भावनाओं और बातों पर बल दिया जायेगा। चुनाव के बाद वाजपेयी के नेतष्त्व में राजग सरकार का गठन हुआ तथा इस सरकार ने राजनीतिक स्थायित्व के साथ आर्थिक विकास की दिषा में कुछ कदम आगे बढ़ाये लेकिन 6 फरवरी 2004 को 13वीं लोकसभा समय से पूर्व भंग करके 14वीं लोकसभा के चुनाव की घोषणा कर दी।
14वीं लोकसभा ३2004७ में इसने ‘फीलगुड’ और ‘इण्डिया षाइनिंग’ के नारों के साथ चुनाव लड़ा लेकिन अन्ततः पराजय का सामना करना पड़ा और विपक्ष में बैठना पड़ा। इसी प्रकार 15वीं लोकसभा ३2009७ में भी इस गठबंधन को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और पहले से अधिक स्थिति खराब हो गई और इसके सहयोगी दल टूट-टूटकर अलग होने लगे।
३ज्ञ७ यूपीए - 2004:- यू.पी.ए. का पूरा नाम ‘यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाइन्स’ है। 14वीं लोकसभा में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस पार्टी के नेतष्त्व में 14 दलों का संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन बनाया गया जिसकी अध्यक्षा सोनिया गाँधी को चुना गया। गठबंधन की सरकार बनी जो फिर से 15वीं लोकसभा में चुनकर आयी थी। गठबध्ंान के इकाई दलों को दो भागों में 1. सरकार में षामिल दल 2. बाहर से समर्थन देने वाले दलों में बाँटा गया है जिसमें विभिन्न घटक दलों का चुनाव घोषणा-पत्रों को आधार बनाया गया। साझा न्यन्ूातम कार्य म की घाष्ेाणा ‘सयं ुक्त प्रगतिषील गठबध्ं ान’ स े सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की बैठक में व्यापक विचार विमर्ष के बाद 27 मई 2004 को की गयी थी। साझा कार्य म के 6 बुनियादी सिान्त इस प्रकार बताए गएः- सामाजिक सदभाव, रोजगार, किसानों की भलाई, महिला सषक्तिकरण, सबको समान अवसर और प्रतिभा को प्रोत्साहन। वस्तुतः लोकतंत्र की आत्मा व प्राण, राजनीतिक दल में लोकतांत्रिक पति का अभाव देखा गया। राजनीतिक दल व्यक्ति विषेष के ईद गिर्द घूमते रहते हैं। दल महत्वपूर्ण नहीं होता। व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है। दल के सगं ठन क े चनु ाव लम्ब े समय तक नही ं हाते ।े वर्षा ंेबाद कागं से्र सगं ठन क े चनु ाव 1992 में हुए दल न केवल अलोकतांत्रिक पति से कार्य करते हंै अपितु सर्वाधिकार की पति भी पाई जाती है।
अध्याय षष्ठः
कांग्रेसवाद और गैर-कांग्रेसवाद की अवधारणा की विवेचना तथा आपातकाल के बाद राजनीतिक चेतना पर सर्वेक्षण।
३अ७ 1977 का लोकसभा चुनाव :-
मोरारजी देसाई -
जनता पार्टी
कार्यकाल -
21 मार्च 1977 से 28 जुलाई, 1979
कागं से्र -
154 सीट
चैधरी चरण सिंह-
जनता पार्टी
कार्यकाल -
28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980
३ब७ 1980 का लोकसभा चुनाव -
इंदिरा गांधी
-
काॅग्रेस ३आई७
कार्यकाल
-
14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984
कागं से्र
-
352 सीट
३स७ 1984 का लोकसभा चुनाव - राजीव गांधी - काॅग्रेस ३आई७ कार्यकाल - 31 अक्टूबर 1984 से 1 दिसम्बर 1989 तक काॅगसे्र - 405 सीट
३द७ 1989 का लोकसभा चुनाव -
वी.पी.सिंह
-
जनता दल
कार्यकाल
-
2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990 तक
काॅगसे्र
-
197 सीट
चन् षेखर
-
जनता दल ३सो0७
कार्यकाल
-
11 नवम्बर 1990 से 21 जून 1991 तक
३य७ 1991 का लोकसभा चुनाव -
पी. वी. नरसिम्हाराव - काॅग्रेस ३आई७
कार्यकाल - 21 जून 1991 से 16 मई 1996 काॅगसे्र - 232 सीट
३र७ 1996 का लोकसभा चुनाव - अटलबिहारी बाजपेयी - भाजपा
कार्यकाल -
16 मई 1996 से 1 जून 1996 तक
काॅगसे्र -
140 सीट
एच.डी. देवगोड़ा -
जनता दल संयुक्त मोर्चा
कार्यकाल -
1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997
इन् कुमार गुजराल-
जनता दल संयुक्त मोर्चा
कार्यकाल -
21 अप्रैल 1997 से 18 मार्च 1998
३ल७ 1998 का लोकसभा चुनाव - अटलबिहारी बाजपेयी - एन.डी.ए.
कार्यकाल - 19 मार्च 1998 से 13 अक्टूबर 1999 काॅगसे्र - 141 सीट
३व७ 1999 का लोकसभा चुनाव - अटलबिहारी बाजपेयी - एन.डी.ए.
कार्यकाल - 13 अक्टूबर 1999 से 21 मई 2004 काॅगसे्र - 114 सीट
३क्ष७ 2004 का लोकसभा चुनाव -
मनमोहन सिंह
-
यू.पी.ए.
कार्यकाल
-
22 मई 2004 से 22 मई 2009
काॅगसे्र
-
145 सीट
३त्र७ 2009 का लोकसभा चुनाव -
मनमोहन सिंह
-
यू.पी.ए.
कार्यकाल
-
22 मई 2009 से 26 मई 2014
यपू ीए
-
262 सीट
अध्याय-सप्तमः
मूल्यांकन 25 जून, 1975 के आपातकाल और उसके बाद के राजनीतिक परिवर्तनों का मूल्यांकन
आमधारणा के विपरीत यह प्र िया नेहरू के दिनों ने ही षुरू हो गई थी। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने राजनीति में दिलचस्पी लेनी षुरू कर दी थी और सन् 1950 के दषक में आखिरी वर्षों में नेहरू ने उन्हें कांग्रेस का आ ामक रूप से संविधाने ार गतिविधियों में दखल 1970 के दषक में देखने को मिला। तब युवक कांग्रेस के अध्यक्ष संजय गाँधी ने कंेद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को आदेष देने षुरू कर दिये थे। षासन की यह पति आपातकाल के दौरान तमाम हदें पार कर गईं। अपनी माँ प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा प्रेरित संजय गांधी ने संघीय स्तर पर और राज्यों में समानान्तर स ाा केन्द्र स्थापित कर लिया था। केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के पर कतर दिए गए थे और पूरे भारत में भय का षासन कायम कर दिया गया था। इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी के कारनामों से इस कदर अभिभूत हुई थीं कि उन्होंने अपने प्रचण्ड बहुमत के बल पर सन् 1971-76 के लोकसभा के कार्यकाल को एक वर्ष का विस्तार दे दिया था। यह भयावह दौर तब खत्म हुआ जब लोगों ने चुनाव में कांग्रेस को उखाड़ फेंका। इंदिरा गांधी ने यह चुनाव इन खुफिया रिपोर्टों के बाद कराया था कि जनता उनका समर्थन करगे ी।
यह कांग्रेस के षासन का इतिहास है, किन्तु बहुत से कांगे्रसी दिखावा करते हंै कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं या फिर वह लोगों की स्मष्ति से लोप हो गया है, किन्तु वे लोग जिनका लोकतंत्र में अटल विष्वास है, फिर से ऐसा नहीं होने देना चाहते। आतंक के दिनों को भूलना मुसीबतों को फिर से न्यौता देने के समान है। इसलिए लोकतंत्र की खातिर आपातकाल की वर्षगांठ 25 जून पर इनके स्याह दिनों को याद करना जरूरी है।
इसी आलोक में कुछ संगठनों व व्यक्तियों पर समानान्तर स ाा खड़ी करने संबंधी केन्द्रीय मंत्रियों के आरोपों की भत्र्सना करना जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए, भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान करने क अनिच्छुक सरकार प्रधानमंत्री और सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने से पैर खींच रही है। यह ऐसा है जो नागरिकों के कड़े तबके को परेषान कर रहा है। नेहरू के दिनों से ही कांग्रेस भ्रष्टाचार पर अंकुष लगाने के कदम उठाने से हिचकिचाती रही है। उदाहरण के लिए आजादी के बाद से ही कांग्रेस पार्टी के वफादार सदस्यांे को ही राज्यपाल के रूप में नियुक्त करती रही है। इसी प्रकार उसने हमेषा प्रयास किया है कि चुनाव आयुक्त ऐसा व्यक्ति न बन जाये जो स्वतंत्र रूप से फैसले कर सकता हो। आपातकाल के दौरान कांग्रेस खुलेआम स्वतंत्र मीडिया और न्यायपालिका के खिलाफ अभियान चलाती रही है। संविधान में 42वें संषोधन पर संसद में हुई बहस से ही साफ हो जाता है कि कांग्रेस न्यायपालिका, मीडिया और स्वतंत्र विचारों वाले नौकरषाहों के किस कदर खिलाफ है। सीएम स्टीफेन जैसे लोगों ने खुलेआम ‘समर्पित न्यायपालिका’ की वकालत की थी। यह समर्पण संविधान के प्रति न होकर कांग्रेस के प्रति अभीष्ट था। इसके बाद भी हालात में कोई परिवर्तन नहीं आया। हमेषा यह प्रयास किया जाता रहा है कि पार्टी के समर्थक या फिर दागदार छवि वाले व्यक्ति संवैधानिक पदों पर तैनात कर दिये जायें। इसकी सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है चुनाव आयुक्त के रूप में नवीन चावला की तैनाती, जिन्हें षाह जांच आयोग किसी भी सार्वजनिक पद को अयोग्य ठहरा चुका है। इसका दूसरा उदाहरण है कांग्रेस द्वारा मानकों को धज्जियाँ उड़ाते हुए भ्रष्टाचार के एक आरोपी को केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त ३सीवीसी७ के तौर पर तैनात करना।
इस परिप्रेक्ष्य में कपिल सिब्बल और पी. चिदम्बरम जैसे कुछ केन्द्रीय मंित्रया ंे क े प्रवचन सुनना अजीब लगता है, जा े सन् 1980 क े दषक म ंे मीडिया विराध्े ाी बिल लाने के कर्णधार थे। कुछ दिन पहले उन्होंने संयुक्त रूप से मीडिया को संबोधित करते हुए मजबूत लोकपाल बिल लाने की पक्षधर सिविल सोसायटी के सदस्यों पर हमला किया कि बाहरी लोगों द्वारा किए गए फैसलों के आधार पर सरकार चलाना सही नही है। मजबूत लोकसभा के खिलाफ एक अन्य दलील यह थी कि सरकार के समानान्तर एक और
आपातकाल की वर्षगांठ पर हमें उन भयावह संवैधानिक संषोधनों पर भी नजर डालनी चाहिए जो कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान किए थे। इनमें प्रधानमंत्री को संविधान से ¯पर स्थापित करना, सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट की षक्तियों को कम करना और राष्टश्पति को कार्यकारी आदेषों के माध्यम से संविधान संषोधन की षक्ति प्रदान करना षामिल था। इन संषोधनों ने संविधान के मूलभूत सिान्तों को ही ध्वस्त कर दिया था। कांग्रेस के रवैये में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं आया है, इसलिए अधिक सावधान रहने की आवष्यकता है। हमें 25 जून को खुद यह याद दिलाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए कि कांग्रेस अथवा उसके नेतष्त्व वाली सरकार क्या-क्या षरारतें करने में समर्थ है? हमें विरोध से घष्णा करने वाली कांग्रेस द्वारा आपातकाल के दौरान मारे गए, सताए गए और जेल में ठंूस दिए गए लाखों लोगों का स्मरण करना चाहिए।
साधारण व्यक्तियों ने अपने मताधिकार से यह सि कर दिया कि वे
समय आने पर ऐतिहासिक और ांतिकारी निर्णय ले सकते हंै। कांग्रेस के लिए यह 1977 का चुनाव परिणाम वज्रपात बनकर सामने आया। इससे न केवल भारतीय राजनीति पर तीस वर्षों से चला आ रहा कांग्रेस का एकाधिकार ही समाप्त हो गया अपितु केन्द्र में गैर कांग्रेस षक्तियों का विजय एक नये युग का श्री गणेष कर दिया। जनता पार्टी की जीत के बाद जनता पार्टी की सरकार ने बहुमत खो दिया और जनता पार्टी का विभाजन हो गया। भाजपा का निर्माण हुआ। कांग्रेस की कांग्रेस ३ई७ हो गयी अनेक पार्टी बनीं और बिगड़ी आज केन्द्र की राजनीति एन.डीए. ३नेषनल डेमो ेटिव अलाइन्स७ और यू.पी.ए. ३यूनाइटेड प्रोगेषिव अलाइन्स७ के बीच है।
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