फिर से भाषाई आग भड़का रहा विपक्ष? विधेयकों के “संस्कृत-हिंदी” नामों पर विरोध

पिछले दिनों संसद में सांसद ने अधिनियमों के संस्कृत और हिंदी नामों को लेकर जमकर शोर मचाया। सरकार ने जो अधिनियम पेश किये हैं, उनके नाम संस्कृतनिष्ठ हिंदी में है। इसी बात पर विपक्षी दलों को आपत्ति है। दक्षिण भारत के कई सांसदों और साथ ही तृणमूल कांग्रेस ने इस पर आपत्ति जताई। “भारतीय वायुयान […]

Dec 8, 2024 - 14:09
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फिर से भाषाई आग भड़का रहा विपक्ष? विधेयकों के “संस्कृत-हिंदी” नामों पर विरोध

पिछले दिनों संसद में सांसद ने अधिनियमों के संस्कृत और हिंदी नामों को लेकर जमकर शोर मचाया। सरकार ने जो अधिनियम पेश किये हैं, उनके नाम संस्कृतनिष्ठ हिंदी में है। इसी बात पर विपक्षी दलों को आपत्ति है।

दक्षिण भारत के कई सांसदों और साथ ही तृणमूल कांग्रेस ने इस पर आपत्ति जताई। “भारतीय वायुयान विधेयक-2024” के नाम को लेकर शोर मचा। यह नाम 90 वर्ष पुराने एयरक्राफ्ट एक्ट के स्थान पर बदला जा रहा है। इसी पर प्रश्न उठाते हुए वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के सांसद निरंजन रेड्डी ने कहा कि यह संवैधानिक बाध्यता है कि अधिनियमों के शीर्षक अंग्रेजी में हों। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 348 (1B) का हवाला देते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से यह अनिवार्य है कि संसद के किसी भी सदन में जो भी आधिकारिक टेक्स्ट हैं वे “अंग्रेजी” में होने चाहिए।

तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य सागरिका घोष ने संविधान की इसी धारा का हवाला देते हुए इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि लोकसभा 2024 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। सभी राज्यों में क्षेत्रीय दलों जैसे तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और डीएमके ने अपने-अपने राज्य जीते हैं। चुनाव नतीजे विविधता की बात करते हैं। एनडीए एक भाषा और संस्कृति को दूसरे राज्य पर नहीं थोप सकता है।

हिंदी विरोध का इतिहास डीएमके पार्टी का रहा है और उसने एक बार फिर से यही किया और भाषा की आलोचना की। कनिमोई का कहना था कि केंद्र सरकार को अधिनियमों के हिंदी नामों पर पुनर्विचार करना चाहिए और उन पर हिंदी नहीं थोपनी चाहिए, जो हिंदी नहीं समझते हैं। यह बहुत ही विचित्र बात है कि इन नेताओं को संस्कृतनिष्ठ हिंदी से समस्या है, जिसका मूल भारत में है। यदि नागरिक का अर्थ संस्कृत में नागरिक है, हिंदी में नागरिक है तो मराठी में भी नागरिक ही है और बांग्ला भाषा में भी नागरिक ही है।

भारत की भाषाओं में परस्पर शब्दों का प्रवाह होता रहा है और वे एक-दूसरे की निकटतम भाषाएं हैं, क्योंकि वे एक ही परिवार की भाषाएं हैं। अंग्रेजी औपनिवेशिक काल की भाषा है और यह अत्यंत पीड़ादायक है कि स्थानीय भाषा की राजनीति करने वाले लोग हिंदी का विरोध करके अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं, मगर औपनिवेशिक पहचान वाली भाषा को अपना सिरमौर बनाए हुए हैं।

किसी भी भाषा से बैर नहीं होना चाहिए और हो भी नहीं सकता है क्योंकि भाषा जहां पर जाती है, वहां के शब्दों से स्वयं को और समृद्ध करती है। अंग्रेजी में तमाम संस्कृतनिष्ठ शब्द भी मिलते हैं तो वहीं हिंदी सहित अन्य भाषाओं में अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के शब्द मिलते हैं।

संस्कृत का शब्द मां अंग्रेजी में मदर हो जाता है तो उर्दू में अम्मी हो जाता है। भाषाएं समाज को निकट लाती हैं, एक-दूसरे को सशक्त करती हैं। भारतीय भाषाओं का परस्पर ए- दूसरे से कैसे बैर हो सकता है, यह कोई भी भारतीय समझ नहीं पाता है। यदि वायु हिंदी में वायु है, तो बांग्ला में भी बायु है। वायु कहने से पूरे भारत में यह भाव जाता है कि यह अधिनियम भारत की ही आत्मा का शब्द है, इसमें जो भी प्रावधान होंगे वह भारत के अनुकूल होंगे।

यह भी हास्यास्पद है कि भाषाई आधार पर संविधान की बात करने वाले नेता अपने अनुसार ही संविधान का हवाला देते हैं। मगर संविधान के जो प्रावधान उनके अनुकूल नहीं हैं, उस पर वे बात नहीं करते हैं। संविधान की अपने अनुसार बात करना भारत के साथ छल है। भारत के नागरिकों के साथ छल है।

स्थानीय भाषाओं से प्रेम सभी को होना चाहिए और यही धर्म है, परंतु उसके आधार पर हिंदी से घृणा मात्र राजनीति है और कुछ नहीं। भाषा तो मां होती है, वही हमें जीवन का पाठ समझाती और सिखाती है, वही संस्कृति को पल्लवित और संरक्षित करती है, मगर वह अपने पल्लवित होने के कारण अपने ही परिवार की दूसरी भाषा से घृणा तो नहीं करती। जैसा “संस्कृतनिष्ठ” हिंदी के साथ लगातार होता आ रहा है।

भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष के आरोपों का प्रतिवाद करते हुए कहा कि इन विधेयकों को एक तेलुगु भाषी नेता केंद्रीय विमानन मंत्री किंजरापु राममोहन नायडू ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि हिंदी शीर्षकों के साथ विधेयक को प्रस्तुत करना संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार है और यह भी जोर दिया कि किसी भी भाषा के शीर्षक चुनने का अर्थ यह नहीं होता कि उस भाषा को थोपा जा रहा है।

उन्होंने विपक्ष पर औपनिवेशिक मानसिकता में रहने का आरोप लगाया। नायडू ने भी कहा कि अंग्रेजी से हिंदी में विधेयकों के नाम का उद्देश्य भारत की धरोहर और संस्कृति को दिखाना है। मगर भाषा की राजनीति करने वाले न ही उर्दू और न ही अंग्रेजी का विरोध करते हैं, हां संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिंदी का विरोध उन्हें अपनी राजनीति के लिए फायदेमंद लगता है।

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