कुदरत की मदद बढ़ाती उपज

खेत और किसान नरेन्द्र मोदी सरकार की चिंता के प्राथमिक आयामों में से हैं। शायद यही वजह है कि एक बार फिर ‘किसान आंदोलन’ के नाम पर राजधानी में अराजकता फैलाने पर आमादा आंदोलनजीवी तत्व सरकार के इस क्षेत्र में किए जा रहे सद्प्रयासों को जान-बूझकर अनदेखा करते हुए दुष्प्रचार ही करते दिखते हैं। उदाहरण […]

Dec 13, 2024 - 09:12
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कुदरत की मदद बढ़ाती उपज

खेत और किसान नरेन्द्र मोदी सरकार की चिंता के प्राथमिक आयामों में से हैं। शायद यही वजह है कि एक बार फिर ‘किसान आंदोलन’ के नाम पर राजधानी में अराजकता फैलाने पर आमादा आंदोलनजीवी तत्व सरकार के इस क्षेत्र में किए जा रहे सद्प्रयासों को जान-बूझकर अनदेखा करते हुए दुष्प्रचार ही करते दिखते हैं। उदाहरण के लिए, अभी 25 नवम्बर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने जिस ‘नेशनल मिशन आन नैचुरल फॉर्मिंग’ को स्वतंत्र केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में स्वीकृति दी है, वह सीधे—सीधे प्राकृतिक खेती के माध्यम से कृषि और किसान कल्याण के लिए ही है।

इस योजना में 15वें वित्त आयोग (2025-26) तक कुल 2,481 करोड़ रुपये के परिव्यय का लक्ष्य रखा गया है। यह वित्त पोषण दोतरफा होगा यानी भारत सरकार 1,584 करोड़ रुपये लगाएगी तो राज्यों को 897 करोड़ रुपये देने होंगे। योजना के तहत लक्ष्य रखा गया है आगामी दो साल में 15,000 ग्राम पंचायतों में 1 करोड़ किसानों तक पहुंच बनाते हुए 7.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की जाए। मदद के लिए 10,000 जैव-आदान संसाधन केंद्र बनाए जाने हैं, साथ ही 2000 मॉडल प्रदर्शन फार्म भी।

अगर हम प्राकृतिक खेती की बात करें तो मोटे तौर पर यही ध्यान आता है कि ऐसी खेती जो प्रकृति आधारित हो। लेकिन यह विषय इतना भर नहीं है। इसकी बारीकियों को समझना जरूरी है। आज भारत की 50 प्रतिशत आबादी की आय का प्राथमिक स्रोत खेती है। हमारे 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में विश्व का 15 प्रतिशत पशुधन पल रहा है। अनुमान है कि साल 2030 तक, भारत को अनुमानित 1.43 अरब लोगों के भोजन के लिए लगभग 31.1 करोड़ टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। साल 2050 तक, जब आबादी के लगभग 1.8 अरब होने का अनुमान है, तब खाद्यान्न की मांग बढ़कर लगभग 35 करोड़ टन हो जाएगी।

आधुनिक कृषि में रसायनों के अंधाधुंध उपयोग ने मिट्टी, पानी, और भोजन की गुणवत्ता को काफी हद तक प्रभावित किया है और पौधों, पशुओं और मानव स्वास्थ्य पर इसका दुष्प्रभाव पड़ा है। इन चुनौतियों से निबटने के लिए टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल प्रथाओं की आवश्यकता महसूस की गई, यही वजह है कि ‘प्राकृतिक खेती’ की पुरानी परंपरा को नए और संगठित तरीके से पुनर्जीवित किया गया है। यह एक रसायन-मुक्त खेती पद्धति है, जो भारतीय पारंपरिक ज्ञान और पारिस्थितिकीय सिद्धांतों पर आधारित है। इसे कृषि पारिस्थितिकी पर आधारित एक विविध खेती प्रणाली माना जाता है, जिसमें फसलों, पेड़ों और पशुधन को जैव विविधता के साथ जोड़ा जाता है।

भारत सरकार ने भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति के माध्यम से प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया है। वर्तमान में, यह 8 राज्यों में 4.09 लाख हेक्टेयर भूमि पर की जा रही है। प्राकृतिक खेती से पर्यावरण संरक्षण, किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में वृद्धि, उत्पादन लागत में कमी जैसे व्यापक पैमाने के लाभ हो सकते हैं। पद्मश्री सुभाष पालेकर ने प्राकृतिक खेती की अवधारणा को विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों के लिए एक कम लागत वाली कृषि तकनीक के रूप में लोकप्रिय बनाया है।

यह पद्धति मुख्य रूप से खेत पर उपलब्ध बायोमास के पुनर्चक्रण पर आधारित है। प्राकृतिक खेती न केवल पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में सहायक है, बल्कि यह छोटे और सीमांत किसानों के लिए आजीविका का स्थायी साधन भी है। यह दृष्टिकोण भारतीय कृषि को टिकाऊ और आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

प्राकृतिक खेती के प्रमुख घटक

  •  बायोमास मल्चिंग यानी मिट्टी की सतह को जैविक अवशेषों से ढक कर नमी बनाए रखना और मिट्टी के कटाव को रोकना।
  •  गाय के गोबर और मूत्र से बने फॉमूर्लेशन का उपयोग यानी जीवामृत और बीजामृत जैसे समाधान तैयार कर मिट्टी की उर्वरता और बीज की सुरक्षा को बढ़ाना।
  •  मिट्टी में वायु संचार बनाए रखना यानी गहरी जुताई से बचाव और प्राकृतिक तरीके से मिट्टी की संरचना को सुरक्षित रखना।
  •  सिंथेटिक रासायनिक ‘इनपुट’ का पूर्णत: निषेध यानी किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग न करना।

भारत के कई राज्य पहले से ही प्राकृतिक खेती को अपना चुके हैं और इसमें सफल मॉडल विकसित कर चुके हैं। इनमें आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और केरल जैसे अग्रणी राज्य शामिल हैं। वर्तमान में, प्राकृतिक खेती की प्रणालियों को अपनाने की प्रक्रिया शुरुआती चरण में तो है, लेकिन धीरे-धीरे किसानों के बीच तेजी से लोकप्रियता और स्वीकृति प्राप्त कर रही है।

जैसा बताया गया है, प्राकृतिक खेती का मुख्य उद्देश्य है मिट्टी के स्वास्थ्य को बहाल करना, जैव विविधता बनाए रखना, पशु कल्याण सुनिश्चित करना, स्थानीय संसाधनों के कुशल उपयोग पर जोर देना और पारिस्थितिक संतुलन को बढ़ावा देना। यह एक पारिस्थितिक खेती प्रणाली है, जो प्राकृतिक जैव विविधता के साथ काम करती है और मिट्टी की जैविक गतिविधि को प्रोत्साहित करती है। साथ ही, यह खाद्य उत्पादन प्रणाली में पौधों और जानवरों की जटिलता को कुशलतापूर्वक प्रबंधित करती है।

प्राकृतिक खेती में प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशक-

  •  नीमास्त्र: इसे किण्वित स्थानीय गाय के मूत्र (5 लीटर), गाय के गोबर (5 किलो) और नीम के पत्तों तथा गूदे (5 किलो) से बनाया जा सकता है। इसका उपयोग चूसने वाले कीटों और मिली बग के शमन के लिए किया जाता है।
  • अग्नि अस्त्र : यह देशी गाय के 10 लीटर मूत्र, 1 किलो तंबाकू, 500 ग्राम हरी मिर्च, 500 ग्राम देशी लहसुन और 5 किलो कुचले हुए नीम के पत्तों से बनता है। 2 लीटर ब्रह्मास्त्र को 100 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव किया जाता है। यह पत्ती रोलर, स्टेम बोरर, फल बोरर और फली बोरर जैसे कीटों के खिलाफ कारगर है। इसका उपयोग फसलों को चूसने वाले कीटों, जैसे कैटरपिलर और लीफ रोलर को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है।
  •  ब्रह्मास्त्र : इसे नीम और शरीफे के पत्तों, अमरूद के पत्ते, लालटेन कमीलया के पत्ते, अनार के पत्ते, पपीते के पत्ते और सफेद धतूरे के पत्तों को पीसकर और मूत्र में उबालकर तैयार किया जाता है। इसका उपयोग फल छेदक और फली छेदक सहित सभी चूसने वाले कीटों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है।
  •  दशपर्णी: यह बनता है नीम की 5 किलो पत्तियां, 2 किलो विटेक्स नेगुंडो की पत्तियां, 2 किलो अरिस्टोलोचिया की पत्तियां, 2 किलो पपीता (कैरिका पपीता), 2 किलो टिनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया की पत्तियां, 2 किलो एनोना स्क्वामोसा (कस्टर्ड सेब) की पत्तियां, 2 किलो पोंगामिया पिनाटा (करंजा) की पत्तियां, 2 किलो रिसिनस कम्युनिस (कैस्टर) की पत्तियां, 2 किलो नेरियम इंडिकम पत्तियां, 2 किलो कैलोट्रोपिस प्रोसेरा की पत्तियां, हरी मिर्च का पेस्ट 2 किलो लहसुन का पेस्ट 250 ग्राम, गाय के गोबर की खाद (3 किग्रा), गोमूत्र (5 लीटर) और पानी (200 लीटर) से। इसे पत्तों पर छिड़कने से कीट नहीं लगते।
  •  पंचगव्य : यह बनता है गाय के दूध, दही, गोमूत्र, गोबर, गुड़, नारियल पानी से। इस सामग्री को 5-7 दिन तक मिलाकर रखा जाता है। पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और पोषण प्रदान करने में यह बहुत कारगर है।
  • जीवामृत : गाय के गोबर, गोमूत्र, बेसन, गुड़ और मिट्टी को पानी में मिलाकर 3-5 दिन तक रखा जाता है। मिट्टी में सूक्ष्मजीव गतिविधि को बढ़ावा देने और फसलों को पोषण देने के लिए यह अचूक दवा है।
  •  फेरोमोन ट्रैप: कीट-आकर्षक फेरोमोन, प्लास्टिक का ट्रैप। हानिकारक कीटों को आकर्षित कर पकड़ने या मारने के लिए।
  •  तंबाकू अर्क (तम्बाकू घोल): तंबाकू पत्तियों को पानी में उबालकर उसमें गोमूत्र मिलाया जाता है। इसे चबाने वाले और चूसने वाले कीटों को नियंत्रित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
  •  लहसुन-अदरक का अर्क: लहसुन और अदरक को पीसकर गोमूत्र में मिलाकर रखा जाता है। पौधों पर रोग और उसे कीट के हमलों से बचाने के लिए इसे प्रयोग किया जाता है।
    प्राकृतिक कीटनाशकों का उपयोग फसलों को हानिकारक रसायनों से बचाने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में मदद करता है।

विस्तार और सशक्तिकरण

हरियाणा में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार ने कई योजनाएं और कार्यक्रम शुरू किए हैं। इनका उद्देश्य किसानों को रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम करने के लिए प्रोत्साहित करना और मिट्टी की गुणवत्ता सुधारना, पर्यावरण संतुलन और किसानों की आय बढ़ाना है।

हरियाणा सरकार ने पद्मश्री सुभाष पालेकर द्वारा विकसित प्राकृतिक खेती तकनीकों को अपनाने के लिए किसानों को प्रशिक्षित करने की शुरुआत की है। इसमें जीवामृत, बीजामृत और अच्छादान जैसी विधियों का प्रशिक्षण दिया जाता है। कृषि एवं किसान कल्याण विभाग विभिन्न जिलों में किसानों के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित करता है। इस प्रशिक्षण के माध्यम से किसानों को कम लागत में जैविक खेती और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग सिखाया जाता है।

जैविक खेती को प्रोत्साहन योजना के तहत किसानों को जैविक और प्राकृतिक खेती अपनाने पर सब्सिडी दी जाती है। खेती में गोबर और गोमूत्र जैसे देशी संसाधनों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए सहायता प्रदान की जाती है। हम जानते ही हैं कि प्राकृतिक खेती में मिट्टी के पोषक तत्वों की जानकारी महत्वपूर्ण होती है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के तहत किसानों को उनके खेत की मिट्टी की गुणवत्ता का विश्लेषण कर कार्ड प्रदान किया जाता है ताकि वे जैविक खाद और प्राकृतिक विधियों का सही उपयोग कर सकें।

राज्य में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए इसे पायलट प्रोजेक्ट के रूप में कुछ जिलों में लागू किया गया। सरकार की योजना है कि इन परियोजनाओं के सफल परिणामों के आधार पर पूरे राज्य में इस तकनीक को व्यापक रूप से लागू किया जाए।

आंध्र प्रदेश: समुदाय-प्रबंधित प्राकृतिक खेती

प्रदेश में समुदाय-प्रबंधित प्राकृतिक खेती कार्यक्रम का क्रियान्वयन रायथु साधिकार संस्था द्वारा किया जा रहा है। यह संस्था आंध्र प्रदेश सरकार के कृषि विभाग द्वारा स्थापित एक गैर-लाभकारी कंपनी है। इसका मुख्य उद्देश्य किसानों के सशक्तिकरण और उनके समग्र कल्याण के लिए विभिन्न योजनाओं को तैयार करना और उन्हें लागू करना है।

गुजरात: प्राकृतिक खेती, विशेष सहायता

गुजरात सरकार ने 2020-21 के बजट में गुजरात आत्मनिर्भर पैकेज के अंतर्गत प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए विशेष वित्तीय सहायता की घोषणा की थी। राज्य ने इसके अंतर्गत 17 सितंबर 2020 को दो योजनाएं शुरू की थीं।

  •  सात पगला खेदुत कल्याण: इस योजना के तहत प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को एक गाय के रखरखाव के लिए 900 रुपये मासिक की सब्सिडी दी जाती है।
  •  प्राकृतिक खेती पगला योजना: किसानों को जीवामृत तैयार करने के लिए किट खरीदने पर 1248 रुपये की सब्सिडी प्रदान की जाती है।

हिमाचल प्रदेश: प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना

हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना शुरू की गई है। इसका उद्देश्य खेती की लागत को कम करना और किसानों की आय बढ़ाना है। 2018-19 में 500 किसानों को शामिल करने का लक्ष्य रखा गया, जो 2019-20 में बढ़कर 54,914 किसान और 2,451 हेक्टेयर भूमि तक पहुंच गया। इस योजना के तहत 20,000 हेक्टेयर भूमि को लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।

राजस्थान: प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन

राजस्थान सरकार ने वित्त वर्ष 2019-20 के बजट में सशक्त किसान कार्यक्रम के तहत किसानों को सशक्त बनाने और इनपुट लागत को कम करने के उद्देश्य से प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की घोषणा की थी। इसे पायलट प्रोजेक्ट के रूप में टोंक, सिरोही और बांसवाड़ा जिलों में लागू किया गया था। दो दिवसीय कार्यशालाओं में 18,313 किसानों को प्रशिक्षित किया गया था। 10,658 किसानों को जैविक इनपुट तैयार करने के लिए उपकरण खरीदने पर 50 प्रतिशत सब्सिडी दी गई (अधिकतम 600 रुपये प्रति किसान)।

इन योजनाओं ने भारत में प्राकृतिक खेती के विस्तार और किसान सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नीति आयोग ने प्राकृतिक खेती के संवर्धन और अनुसंधान के लिए बड़ा काम किया है। विभिन्न राज्यों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए मॉडल तैयार किए गए हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और नीति आयोग ने देशभर में प्राकृतिक खेती की संभावनाओं और चुनौतियों का आकलन करने के लिए बहु-स्थान अध्ययन को प्राथमिकता दी है।

राज्यों की पहल

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा: इन राज्यों में बासमती धान और गेहूं के किसानों द्वारा प्राकृतिक खेती को अपनाया गया है। आईसीएआर ने इन स्थानों पर उत्पादकता, मिट्टी के स्वास्थ्य, कार्बनिक कार्बन और आर्थिक प्रभाव का मूल्यांकन शुरू किया है। 7 जुलाई 2022 को, आंध्र प्रदेश ने इंडो-जर्मन ग्लोबल एकेडमी फॉर एग्रो इकोलॉजी रिसर्च एंड लर्निंग का शुभारंभ किया था। यह केंद्र प्राकृतिक खेती के दीर्घकालिक प्रभावों का अध्ययन कर रहा है।

प्राकृतिक खेती की पद्धतियां

प्राकृतिक खेती के लिए कई महत्वपूर्ण प्रथाएं अपनाई जाती हैं, जिनमें बाहरी इनपुट का निषेध, स्थानीय किस्मों के बीजों का उपयोग, बीज उपचार के लिए खेत पर उत्पादित सूक्ष्मजीवी निर्माण (जैसे बीजामृत), मिट्टी की समृद्धि के लिए जीवामृत जैसे सूक्ष्मजीवी इनोक्युलेंट का उपयोग, पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण हेतु फसलों को हरे और सूखे जैविक पदार्थों से ढककर गीली घास डालना शामिल है। इसके अतिरिक्त मिश्रित फसल, खेत पर पेड़ों के एकीकरण द्वारा विविधता प्रबंधन, देसी नस्ल के पशुओं को इनपुट के रूप में गोबर और गोमूत्र के लिए शामिल करना और जल एवं नमी संरक्षण की पद्धतियां भी इस प्रणाली का हिस्सा हैं। प्राकृतिक खेती सिंथेटिक इनपुट की आवश्यकता को कम करती है और खेती का एक ऐसा रूप प्रदान करती है जो वित्तीय दृष्टि से कम लागत वाला और स्थानीय जलवायु के अनुकूल होता है।

हालांकि देश में प्राकृतिक खेती का भविष्य उज्ज्वल है, लेकिन इसे अपनाने में कुछ बाधाएं भी हैं। संतोष की बात है कि प्राकृतिक खेती को अब संस्थागत समर्थन भी मिल रहा है। प्राकृतिक खेती का विस्तार न केवल पर्यावरणीय संरक्षण में योगदान देगा, बल्कि इसे अपनाने वाले किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को भी बेहतर बनाएगा।
(लेखक सीसीसीएसएचएयू कृषि महाविद्यालय,
रेवाड़ी में सहायक प्रोफेसर हैं)

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