जीवन में हम क्या यही बनने आए थे ?
यह समाज आपको उतनी ही इज्जत देगा जितना की आपकी सालाना कमाई है और हम भी इसी उधेड़बुन में लगे हुए हैं कि, जैसे ही हमारी कमाई में शून्य बढ़ता जाता है हम इस समाज के एक प्रमुख व्यक्ति होते जाते हैं।
विवेक पांडेय- एंकर, इंडिया न्यूज़
हां जी तो कैसे हैं आप लोग, व्यस्तता के बीच सब ठीक चल रहा है ना ? जैसा सोचा था सब वैसा ही चल रहा है ना। जो बीते दिनों आपके मन में आज के रूप को लेकर भावनाएं हिचकोले मारती थी क्या वही आपको मिल रहा है ? अच्छा नहीं तो फिर कैसा मिल रहा है ?
दोस्तों,
यकीन मानिए हर कोई अपने उम्मीद से ज्यादा की ही आकांक्षा करता है। यानी कि जो आपने सोचा उससे ज्यादा और आप इस बात को लेकर कई बार शिकायत भी करते हैं कि, हमें जीवन में उतना नहीं मिला जितना हम डिजर्व करते थे। जीवन ने हमें कम दिया। यह बात तो हो गई शिकवा-शिकायत की। जी हां, इस शिकवा-शिकायत की जिसके लिए आपने बीते रोज बहुत मेहनत की थी, मन्नत की थी कि...
ऐसा कुछ मिल जाए और मिलने के बाद आपने उसे भुला दिया। मैंने कई बार लोगों को सफल होने के बाद भी निराश ही देखा है। यानी की सफलता उनके मनो मस्तिष्क से उस निराशा को दूर नहीं कर पाई। जिस निराशा को उन्होंने कई वर्षों तक जिया और यह सोचकर कि जब सफलता मिलेगी तो इस निराशा की तिलांजलि दे दी जाएगी।
लेकिन यह क्या सफलता मिलने के बाद भी निराशा घोर निराशा यानी की, पुरानी निराशा पर भी यह निराशा भारी पड़ रही है। सबसे बड़ा सवाल... इस निराशा को आखिर इजाद किसने किया ? और हां जवाब सुनकर आप हैरान रह जाएंगे। आपने ही जनाब! आप ही ने इस निराशा को इजाद किया। आप ही वो शख्स हैं, जिसे यह निराशा मिली थी। आपने ही उसे इजाफे में बदल दिया।
नियति को समझें...
आप समझ ही नहीं पाए की नियति आपको क्या समझाना चाह रही थी। आपको तो लगा कि, सफलता मिलते ही निराशा दूर हो जाएगी। धन ऐश्वर्य की प्राप्ति भी हम इसीलिए करना चाहते हैं ताकि औरों को निराश कर सके। ताकि पड़ोसियों को जला सके। ताकि समाज में अपने रुतबे को अहंकारित कर सके और यह सब इसीलिए कि हम ही ने अपने इस अहंकार को फलने फूलने दिया। उसे रोज पोषण दिया। ईर्ष्या का सत्य का ढोंग किया और भी न जाने क्या-क्या।
और फिर जब हमें सफलता मिली तो हमने शिकायत भी करना शुरू कर दी। असफलता में तो हम शिकायत करते ही थे, अब सफलता में भी करने लगे की, अपेक्षाकृत कम सफल हुए थोड़ा ज्यादा डिजर्व करते थे। दरअसल यह सब इसलिए हुआ क्योंकि आपने तुलना शुरू कर दी और वह तुलना भी आपको बचपन से एक विरासत के तौर पर आपके स्कूल, आपकी सोसाइटी और आपके घर परिवार से मिली है।
चौंकिए नहीं क्योंकि....
बचपन में कभी किसी ने सेकंड आने का जश्न नहीं बनाया। फर्स्ट ना आने का मलाल और दुख उसके चेहरे पर खूब देखा गया। तब शायद कोई होता और यह बताता कि, यह अंक आपके जीवन को निर्धारित नहीं करते। आप सिर्फ अपना काम करते रहिए इसी में सार है।
लेकिन नहीं हमने तो समाज में रेखाएं खींची हमने तो बताया की फर्स्ट रैंक लाने वाले को देखो क्या कुछ मिलता है और यही आगे भी जारी रहा। अच्छी नौकरी वाले को अच्छा दहेज अच्छा घर अच्छी इज्जत और अगर आपके पास में बेहिसाब धन नहीं है तो आप समाज के दोयम दर्जे के व्यक्ति हैं।
यह समाज आपको उतनी ही इज्जत देगा जितना की आपकी सालाना कमाई है और हम भी इसी उधेड़बुन में लगे हुए हैं कि, जैसे ही हमारी कमाई में शून्य बढ़ता जाता है हम इस समाज के एक प्रमुख व्यक्ति होते जाते हैं।
वही दौड़ जो हमने बचपन में सही, अब अपने बच्चों को भी वही देंगे। क्योंकि हमने जो सीखा है, वही तो आगे देंगे। हमें जो बचपन में मिला वही तो आगे सिखाएंगे। भले ही वह कितना भी गलत क्यों ना हो। हम तो सिखाते चले जाएंगे और तब तक सिखाएंगे जब तक वह हमारा बच्चा हमारे बचपन के उन शब्दों को अंगीकार न कर ले। अपने व्यवहार में ना डाल ले।
जीवन का सार समझें...
क्योंकि बताया भी यही जा रहा है कि, एक करोड़ की गाड़ी सबसे अच्छी है। यह गाड़ी लेने के बाद समाज में आपकी इज्जत का आंकड़ा बहुत बढ़ जाता है। बंगला प्राप्त होते ही सब आपकी जय जयकार करने लगते हैं और जो अकाउंट में करोड़ों हो तो फिर तो क्या ही कहने और जो आपके पास कई एकड़ में जमीन हो तो फिर तो आप दयालु हो जाते हैं। आप समाजसेवी हो जाते हैं। आप गरीबों के मसीहा भी बन सकते हैं। यह पूरी दौड़ हमें निर्धारित करने की है।
क्योंकि हम ही ने बताया कि, दो रोटी खाने वाला तो गरीब है। वह तो किसी को भी मिल जाती है। बड़ी बात तो तब है जब तुम्हारे खुद के दो बंगले, दो आलीशान कार, कम से कम 2 करोड़ फिक्स्ड डिपॉजिट हों, तभी तुम बड़े आदमी हो। अन्यथा अपने आप को बड़ा आदमी कहना छोड़ दो।
यही भौतिकता हम दूसरों में भी डाल रहे हैं इसी भौतिकता से हम सभी का आंकलन करते हैं। जिसे निमंत्रण देना है, उसमें कितना प्रेम भाव रखना है। यह सब हमें पता है, क्योंकि यह हमने बचपन से सीखा है। इस दौड़ में आज भी हम मौजूद हैं। हम शरीर से तो बड़े हो रहे हैं, लेकिन दिमाग वही बचपन वाला है...प्रतियोगिता वही बचपन वाली, कहने को हम करोड़ों कमा रहे हैं, लेकिन हम अपने बच्चों को अपने से छोटों को वही दे रहे हैं जो हमें मिला।
बहुत लोग कह सकते हैं कि, सफलता के लिए तो होड़ करनी ही होगी। क्योंकि, सफलता तो उन्हें ही मिलती है जो होड़, प्रतिस्पर्धा करना जानते हैं। जो दूसरों को गिराना जानते हैं। जो खुद तेज चलना जानते हैं। आप बिल्कुल सही हैं, लेकिन अपनी जगह।
प्रतियोगिता अवश्य करो...
लेकिन, क्योंकि मैं कहता हूं अगर तुम प्रतियोगिता करना ही छोड़ दो तो भी तुम अपनी जिंदगी के विजेता होकर और भी ज्यादा दौड़ जीतोगे। जितना तुम प्रतियोगिता में रहकर जीतते उससे भी ज्यादा जीत सकोगे।क्योंकि तुम्हें तो बचपन से संघर्ष सिखाया गया है तुम संघर्ष से सफलता का निर्धारण करते हो। तुम कहते हो, स्थिति कैसी भी हो अड़े रहो, अडिग रहो चाहे कुछ भी हो जाए, सर ही क्यों ना कट जाए लेकिन यहीं डटे रहो। क्योंकि सवाल संघर्ष का है। पर मैं कहता हूं संघर्ष के समय समर्पण कर दो।
अपने आप को समर्पित कर दो, अपने आप को पूरी तरह से समर्पित कर दो। आत्मसमर्पित कर दो। बुरे से बुरे वक्त में आत्मा समर्पित कर दो अच्छे से अच्छी वक्त में आत्मसमर्पित कर दो। तुम देखोगे ना अच्छा है, ना बुरा है। तुम अच्छाई और बुराई से बहुत आगे निकल जाओगे। जीवन में तुम्हारे लिए कुछ भी अच्छा और बुरा नहीं रह जाएगा।
यह जीवन ही शेष रह जाएगा और मैं यही कहता हूं कि, बिना तुलना के अपना जीवन जीना। बिना तुलना के अपना जीवन जियो, बिना तुलना के अपना जीवन जियो....धन्यवाद।।
(आपके सुझाव सादर आमंत्रित है।)
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