समान नागरिक संहिता की आवश्यकता
राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल होने के बावजूद कुछ तत्वों में फूट डालो और राज करो की मंशा से देश हित वाले कानून और विचार आजादी के इतने दिनों बाद भी नेपथ्य में रहे।
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समान नागरिक संहिता की दिशा में उत्तराखंड कदम बढ़ा चुका है।
हालांकि संविधान बनाते समय संविधान सभा में व्यापक बहस के दौरान राष्ट्रहित में प्रबुद्ध वर्ग इसका प्रबल पक्षधर था।
कोई भी भूभाग, राष्ट्र तभी कहलाएगा जब न केवल प्रशासनिक तंत्र में एकजुटता हो, वरन् सांस्कृतिक मूल्य भी साझा हो। इसके लिए भावनात्मक एकता बहुत जरूरी है। भारतीय परिवेश में निरंतर गतिशील सनातनी रूपरेखा हिंदुत्व जीवन शैली से ओतप्रोत रही है। इसीलिए इस भूभाग को भारतीय उपमहाद्वीप भी कहा जाता है। यदि हम गौर करें, तो इस सांस्कृतिक परिवेश की विशालता समझ में आ जाएगी। यह सर्वविदित है कि भारत की वर्तमान आबादी का कुछ नहीं तो 95 फीसदी से भी अधिक के पूर्वज हिंदू थे।
इसका मतलब यह हुआ की थोड़ी सी संख्या ईरान, यूनान आदि से आए विभिन्न पंथों के अनुयायियों की रही। साथ ही अथाह प्राकृतिक ऊर्जा खनिजों का भंडार, हिमालय की तलहटी में फैली उपजाऊ भूमि तथा एक बहुत बड़ी आबादी वाला बाजार पूर्वकाल की विदेशी शक्तियों के लिए बड़े लालच का कारण बना। तत्कालीन परिस्थिति में भारतवर्ष छोटे-छोटे अनेक रजवाड़ों में बंटा था और सामूहिक रूप से केंद्रित शक्ति के दखल से खलल चलता रहा। रजवाड़ों की यही आपसी फूट विदेशी आक्रांताओं को इस भूभाग में अपने पैर जमाने में सहायक सिद्ध हुई।
वहीं भाव प्रधान राष्ट्र में आध्यात्मिकता की ओर रुझान से लोग सहनशील थे। इस दशा में मुस्लिम आक्रांताओं ने शातिर दिमाग से साजिश रची और ईसाइयों ने पैसे और अच्छे जीवन का लालच देकर अपने दायरे का विस्तार किया। इस तरह डर और लालच से जो छद्म परिस्थिति से आम जन किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और फिर आर्थिक प्रलोभन से लोगों को अच्छे जीवन की ओर बढ़ना आसान लगा। इस तरह सोने की चिड़िया भारत कई सदियों से विदेशी आक्रांताओं के आकर्षण का केंद्र बन गया। तब से चला कुचक्र कुछ कम ज्यादा आज भी जारी है। बस उन लोगों के रूप बदलते गए। जन भावनाओं के शोषण के लिए मजहबी पंथों पर आक्रांताओं ने अर्थ का अनर्थ करने वाला मुलम्मा चढ़ाया।
इस तरह इस्लाम और ईसाइयत विस्तार के क्रम में राष्ट्र में सबके अलग-अलग कानून हो गए। इसके अलावा हिंदुस्तान के विभाजन की विभीषिका और वोट बैंक की राजनीति ने ऐसे बीज बोए, जिनकी फसल काटकर शातिर लोगों ने वर्षों राज किया। इस शातिराना हरकत को लगाम देने का आधार है एक देश एक कानून। ऐसा कानून जो सभी पर बिना किसी भेदभाव के लागू हो। पर अफसोस की बात तो यह है कि राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल होने के बावजूद कुछ तत्वों में फूट डालो और राज करो की मंशा से देश हित वाले कानून और विचार आजादी के इतने दिनों बाद भी नेपथ्य में रहे। लेकिन अब समय आ गया है कि गुलामी की मानसिकता से बाहर आकर स्व के तत्वों को आत्मसात करना होगा। इसके लिए कुछ बिंदुओं पर अमल जरूरी है।
जैसे - भले ही पूजा पद्धति कैसी भी हो राष्ट्र प्रथम की अवधारणा को स्वीकारें। पूजा पद्धति के प्रतीक जैसे हैं, वैसा रहने दें। उसकी जड़ में जाकर अपनी आस्था से दूसरों को आहत न करें। जनतांत्रिक व्यवस्था में एक देश एक कानून पर अमल हो जब एक कानून व्यवस्था देश के नागरिकों पर समान रूप से लागू होगी, तो राष्ट्रीय एकता का भाव स्वीकारना भी सहज हो जाएगा। दुनिया के अनेक देशों में ऐसा चलन है कि उससे अलग व्यवस्था मांगने वालों के लिए बाहर का रास्ता है। किसी भी वर्ग की आस्था, मान्यताएं व्यक्तिगत होती हैं, इसका राष्ट्र के कानून पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इसलिए देशहित में समान नागरिक संहिता का होना कल्याणकारी है।
लेख - कृष्ण कुमार महेश्वरी निदेशक, पब्लिक न्यूज, नई दिल्ली
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