रामधारी सिंह 'दिनकर 24 अप्रैल 1974 को निधन आज हुआ था उनकी BOOK के नाम

वीर रस के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की प्रेरणादायक जीवन यात्रा, उनकी रचनाएं रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र और भारत की सांस्कृतिक चेतना में उनके योगदान को जानिए। 24 अप्रैल को उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि Ramdhari Singh Dinkar died on 24 April 1974 today is the name of his book, रामधारी सिंह 'दिनकर 24 अप्रैल 1974 को निधन आज हुआ था उनकी BOOK के नाम

Apr 24, 2025 - 04:57
Apr 24, 2025 - 05:12
 0  139
रामधारी सिंह 'दिनकर 24 अप्रैल 1974 को निधन आज हुआ था उनकी BOOK के नाम

रामधारी सिंह 'दिनकर' (24 अप्रैल 1974 को निधन) – जीवन परिचय

रामधारी सिंह 'दिनकर' हिंदी साहित्य के एक महान कवि, निबंधकार और राष्ट्रभक्त लेखक थे, जिन्हें विशेषकर वीर रस के कवि के रूप में जाना जाता है। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सामाजिक जागरूकता और सांस्कृतिक चेतना से गहराई से जुड़ा रहा।


जन्म और प्रारंभिक जीवन

  • जन्म: 23 सितंबर 1908

  • स्थान: सिमरिया गाँव, बेगूसराय जिला, बिहार

  • उनका जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया, जिससे उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा।


शिक्षा

  • प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई।

  • आगे की पढ़ाई मुजफ्फरपुर कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय से की।

  • उन्होंने इतिहास, राजनीति विज्ञान और संस्कृत का गहरा अध्ययन किया, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकता है।


साहित्यिक में योगदान दिनकर जी का 

दिनकर की कविताएं राष्ट्रीयता, आत्मबल, संघर्ष और संस्कृति के स्वर से भरपूर हैं। उन्होंने सामाजिक अन्याय, दमन और उत्पीड़न के खिलाफ अपनी कलम को एक हथियार के रूप में प्रयोग किया।

प्रमुख काव्य कृतियाँ:

  1. “रश्मिरथी” – कर्ण के चरित्र पर आधारित, यह महाभारत की पृष्ठभूमि में एक प्रेरणादायक महाकाव्य है।

  2. “कुरुक्षेत्र” – युद्ध और शांति पर आधारित एक विचारशील काव्य।

  3. “संस्कृति के चार अध्याय” – भारतीय संस्कृति के इतिहास का गहन विश्लेषण।

  4. “परशुराम की प्रतीक्षा”, “उर्वशी”, “हुंकार”, “धूप और धुआं”, आदि भी बेहद चर्चित रचनाएँ हैं।


 राष्ट्रवादी सोच और स्वतंत्रता संग्राम

दिनकर स्वतंत्रता संग्राम के समय युवाओं के प्रेरणा स्रोत बने। उनकी कविताओं ने लोगों में जोश और चेतना भर दी। उन्हें “राष्ट्रीय कवि” की उपाधि इसी वजह से दी गई।


राजनीतिक जीवन

  • वे कुछ समय तक संसद सदस्य (राज्यसभा) भी रहे।

  • उन्होंने शिक्षा मंत्रालय में भी कार्य किया और सरकारी सेवा में रहते हुए भी साहित्य सृजन को नहीं छोड़ा।


सम्मान और पुरस्कार

  • पद्म भूषण (1959)

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार – “संस्कृति के चार अध्याय” के लिए

  • ज्ञानपीठ पुरस्कार – उनकी रचना “उर्वशी” के लिए (1972)


️उनका  निधन आज के दिन हुआ था दिन था 24 अप्रैल 1974 को एक महान व्यक्ति का जाना हुआ था 

  • मृत्यु: 24 अप्रैल 1974 को उनका निधन हुआ।

  • उनकी मृत्यु के बाद भी उनका साहित्य आज भी लोगों को प्रेरणा देता है।

रामधारी सिंह 'दिनकर' केवल एक कवि नहीं, बल्कि एक विचार थे। वे अपने युग की चेतना थे, जिन्होंने कलम के माध्यम से भारत की आत्मा को स्वर दिया। उनका योगदान हिंदी साहित्य और भारतीय समाज में अमिट है।

अगर आप चाहें तो मैं इस जानकारी को एक लेख या कविता के रूप में भी तैयार कर सकता हूँ।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 5 कविताएं
– जयंती विशेष लेख –

रामधारी सिंह दिनकर का नाम हिंदी कविता में गर्व से लिया जाता है। वे ऐसे कवि थे जिनकी रचनाएं न केवल साहित्य के विद्वानों को पसंद आईं, बल्कि आम लोगों के दिल में भी बस गईं। वे 'राष्ट्रकवि' भी कहलाए और 'जनकवि' भी, जो बहुत कम लोगों को नसीब होता है। दिनकर जी की कविताएं आज भी उतनी ही असरदार लगती हैं, जितनी पहले थीं। उनके शब्द आज भी मन को झकझोर देते हैं।

दिनकर जी का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था। उन्होंने 'उर्वशी', 'रश्मिरथी', 'रेणुका', 'हुंकार' जैसी कई प्रसिद्ध रचनाएं दीं। उनका निधन 24 अप्रैल 1974 को हुआ।

यहां पेश हैं उनकी पांच प्रसिद्ध कविताएं, जो आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं –


1. "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"

यह कविता एक चेतावनी है सत्ता में बैठे लोगों के लिए, कि अगर वे जनता की आवाज नहीं सुनेंगे, तो एक दिन जनता खुद अपनी ताकत से सब कुछ बदल देगी।

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
तुम मुठ्ठियाँ बंद किए बैठे हो, आंधियाँ आती हैं।
अब तक तुम्हारे सिंहासन पर धूल पड़ी है,
उठाओ, उस धूल को, तुम्हारी तक़दीर बदलती है।

मंच से वाणी ध्वनित हुई, ताली बजाने की वाणी है,
चमकते खजाने, अब पंख फैलाने की पराक्रम है।
अरे! किरण, अब तुम अपने सोने को बुरे से उठा लेती हो,
जिधर तकड़ों वाले अंधकार होते हो, उधर अब ज्वाला लाती है।

कर्म तुझे जुए में हार नहीं देंगे, देखो किसकी मातृभूमि आती है,
रग-रग में विजय की रचना है, शौर्य की अजदी पताका वहीं आती है।

क्योंकि…
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

  1. कलम, आज उनकी जय बोल

    कलम, आज उनकी जय बोल,
    जला अस्थियाँ बारी-बारी,
    चिटकाई जिनमें चिंगारी,
    जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
    लिये बिना गर्दन का मोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।

    जो अगणित लघु दीप हमारे,
    तूफानों में एक किनारे,
    जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
    माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।

    पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,
    उगल रही सौ लपट दिशाएँ,
    जिनके सिंहनाद से सहमी धरती,
    रही अभी तक डोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।

    अंधा चकाचौंध का मारा,
    क्या जाने इतिहास बेचारा,
    साखी हैं उनकी महिमा के,
    सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।

कविता के मुख्य अंश:

हमारे कृषक जेठ हो कि हो पूस,
हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है।

कृषक के जीवन की कठिनाईयों का यहाँ गहन चित्रण है। चाहे मौसम कोई भी हो, उनके लिए आराम की कोई संभावना नहीं है। वे अपने बैलों के साथ दिन-रात मेहनत करते रहते हैं, और आराम की कोई संभावना नहीं होती।

मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है।
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।

कृषक का जीवन निर्विकल्प कठिनाई से भरा हुआ है। उनके पास खाने-पीने के लिए भी कुछ नहीं है, और उनके पास पहनने के लिए कपड़े भी नहीं हैं।

बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं बंधी जीभ,
आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं।

यहां बैलों की व्यथा भी व्यक्त की गई है। यह भावनात्मक चित्रण है कि कैसे बैल अपने मालिक के साथ सख्त परिश्रम में लगे रहते हैं, और उनके लिए कोई खुशी नहीं होती।

पर शिशु का क्या,
सीख न पाया अभी जो आँसू पीना चूस-चूस सूखा स्तन माँ का,
सो जाता रो-विलप नगीना विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती।

इस भाग में, शिशु की अवस्था और माँ की विवशता का चित्रण किया गया है। बच्चे भूख से तड़पते हैं, और माँ को उस दर्द को देखना पड़ता है, लेकिन वह भी निस्सहाय है।

अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।

यहाँ पर माँ की असहाय स्थिति और अपने बच्चों की भूख को देखते हुए वह किसी भी हद तक जाने की बात करती है।

कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है।

यहां पर उस दुख का चित्रण किया गया है जहाँ छोटे बच्चे भूख से मर रहे हैं, और उनकी भूख को दूर करने की कोई साधन नहीं है। यह उनकी चीखें और रोने की स्थिति को व्यक्त करता है।

दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है,
दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं।

कविता में समाज के अंधेपन और बेवसी का भी चित्रण है। जो लोग धर्म और पूजा में डूबे हैं, वे इन बच्चों की पीड़ा को नहीं देख पाते।

दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे,
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे।

यहां पर गंगा को दूध में बदलने की प्रार्थना की गई है, जो एक भावनात्मक और आलोचनात्मक बयान है। यह गरीबी और भूख से तड़पते बच्चों के लिए मदद की आशा है।

हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।

3.भारत का यह रेशमी नगर

भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला,
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल,
पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में।

रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों,
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में,
तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?

असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में,
क्या जल मे बह जाते देखा है?
क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल,
बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?

देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को,
जिनकी आभा पर धूल अभी तक छायी है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या?
साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है।

पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले,
क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर
तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?

चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से,
दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं,
धुलता न अश्रु-बुंदों से आंखों से काजल,
गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं।

जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें,
आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल,
या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।

4.परशुराम की प्रतीक्षा

हे वीर बन्धु! दायी है कौन विपद का?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।

पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।

है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।

नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।

ओ बदनसीब अन्धो! कमजोर अभागो?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।

जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।

तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असी छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।

तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।

पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।

जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।

कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।

हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में?

हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे!
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे!
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

5. समर शेष है

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।
फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार।
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है,
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख,
अकाज सात वर्ष हो गये, राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी, वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा।
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा,
जिसका है ये न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं।

कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएंगे,
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाएंगे।
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे,
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है,
वह काल विचरे अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल।
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना,
सावधान हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना।
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे,
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे।

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।

What's Your Reaction?

like

dislike

wow

sad

Amit Chauhan Ex-VICE PRISEDENT JAMIA UNIVERSITY, NEW DELHI (ABVP) Ex- Executive member Delhi PRANT (ABVP)