कारगिल विजय दिवस

भारत पाकिस्तान के मध्य वर्ष 1999 के कारगिल युद्ध में जीत के उपलक्ष्य में हर वर्ष 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है।

Jul 26, 2024 - 07:02
Jul 26, 2024 - 07:56
 0  64
कारगिल विजय दिवस

आपरेशन विजय....... नियत्रंण रेखा के पास स्थित जम्मू-कश्मीर के कारगिल जिले में मई-जुलाई 1999 में कारगिल की लड़ाई भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ी गई थी। यह भारत द्वारा लड़ी गई ऐसी पहली लड़ाई थी, जिसे संचार माध्यमों ने निरंतर प्रसारित किया। मोर्चे पर लड़े जाने वाले युद्ध को घरों तक पहुँचाया गया, जिसके फलस्वरूप सेना को आम लोगों का भारी समर्थन प्राप्त हुआ। इस समर्थन से हमारे युवा सिपाहियों का मनोबल बढ़ा तथा वे और अधिक साहसिक कार्यों को करने के लिए प्रेरित हुए। 'आपरेशन विजय' का प्रारंभ कारगिल से पाकिस्तानी घुसपैठियों को निकाल भगाने के लिए किया गया था। अंत में भारत ने इस युद्ध में जीत प्राप्त की और पूरे देश में इस जीत की खुशियाँ मनाई गईं। परंतु उन अत्यंत जोखिम भरी परिस्थितियों में युद्ध करने वाले सैनिकों में से बहुत से सिपाही विजय के इस उत्सव में भाग लेने के लिए जीवित नहीं रह पाए।

यह सब कैसे प्रारंभ हुआ?

भारत के सामरिक महत्त्व के क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर उन पर नियंत्रण का प्रयास पाकिस्तान की एक बड़ी रणनीति का महत्त्वपूर्ण अंग था। 1998-99 की सर्दियों में भारतीय नियंत्रण रेखा के समीप स्थित क्षेत्रों में सैन्य और अर्ध-सैन्य बलों को भेजकर श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय राजमार्ग को काटकर लद्दाख को कश्मीर से अलग करना, कारगिल को पृथक करना एवं सियाचिन से भारतीय जीवन रेखा को बंद करना, पाकिस्तान की कुटिल योजना थी। प्रारंभ में तो पाकिस्तान ने इन सब कार्यों में अपनी भूमिका से इंकार किया और घुसपैठियों को कश्मीरी स्वतंत्रता सेनानी बताया, परंतु शीघ्र ही पकड़े गए सैनिकों और अफ़सरों, सैनिकों के शवों एवं ढेर सारे दस्तावेज़ों ने यह साबित कर दिया कि यह कार्य निःसंदेह पाकिस्तानी सेना के अलावा और किसी का नहीं था।

मई 1999 के प्रारंभिक दिनों में पाकिस्तानी सेना नियंत्रण रेखा के पास स्थित मुश्कोह, द्रास, काकसर और बटालिक क्षेत्रों में काफ़ी आगे तक घुस गई थी (मानचित्र देखें)। प्रत्येक क्षेत्र में वे नियंत्रण रेखा से लगभग 4 से 8 किमी. तक घुसने में कामयाब रहे थे। पाकिस्तानी सेना की उत्तरी पैदल सेना दल एवं विशिष्ट सेवा दल के कमांडो ने वहाँ अपनी दृढ़ रक्षात्मक चौकियाँ स्थापित कर ली थीं। उनके द्वारा सैन्य भंडारों को सुदृढ़ कर लिया गया था तथा आयुधों जैसे तोप, गोलों एवं विमानभेदी मिसाइलों से लैस सैन्यरोधी विस्तृत बारूदी सुरंगें बिछाई गई थीं। लगभग 2000 घुसपैठियों का दल भारतीय क्षेत्र में घुस चुका था और अब उनकी नज़र सीधे श्रीनगर-लेह राजमार्ग पर थी।

यदि 6 मई 1999 के दिन एक सजग स्थानीय चरवाहे ने इन घुसपैठियों की रिपोर्ट नहीं दी होती तो शायद भारत को इस गुप्त घुसपैठ के संबंध में जानकारी ही नहीं मिल पाती। भारतीय सेना को घुसपैठ के आकार एवं फैलाव के आकलन में कुछ समय लगा। इस काम के लिए एक विशेष गश्ती दल को भेजा गया जो वापस ही नहीं आया। पर कुछ दिनों बाद, 10 जून 1999 को पाकिस्तानी सेना ने भारत के वीर सपूतों- मेजर सौरभ कालिया, जो दल के मुखिया थे, एवं उनके साथी पाँच सिपाहियों के बुरी तरह से क्षत-विक्षत शव वापस भेजे।

साहस और सटीक रणनीति 

घुसपैठ की सीमा का आकलन करते ही यह स्पष्ट हो गया कि उन चौकियों पर पुनः अधिकार पाना दुःसाध्य कार्य होगा। यह तो मानी हुई बात थी कि भारतीय सीमा में पहाड़ों की चोटियों पर स्थित भारतीय चौकियों में घुसे हुए पाकिस्तानी सैनिक पूर्णतः सुरक्षित, सुरक्षा साधनों से लैस थे। इन बीहड़ घाटियों में युद्ध करना उनके लिए लाभदायक था, जब कि भारतीय सेना बाहर खुले में पूर्णतः असुरक्षित थी, क्योंकि उन्हें ऊँची-खड़ी चढ़ाइयों पर चढ़ना होता था जिसके लिए कभी-कभी रस्सों का सहारा भी लेना पड़ता था। इस सुरक्षित स्थिति ने पाकिस्तानी सेना को हमारे सिपाहियों के आक्रमण के जवाब के लिए अधिक आत्मविश्वासी बना दिया। परंतु वे भारतीय सैन्य दल की एक मुख्य विशेषता को परखने में अक्षम रहे और वह था हमारे सिपाहियों का असीम साहस।

पर्याप्त हथियार नहीं होने के बावजूद 

प्रारंभ में तो हमारे पैदल सैन्य दल के पास न तो पर्याप्त हथियार थे, न ही उनके पास भीषण शीत से बचने के लिए उचित वस्त्रादि; पर इन बाधाओं के होते हुए भी बहादुरी से डटकर लड़ने की भावना से इन्हें कोई हिला न सका। इन्हें तोपबाज़ों की निरंतर सहायता मिलती रही जो भारतीय सैनिकों की बाधाओं को कम करने के लिए शत्रु छावनियों पर निरंतर बमबारी कर रहे थे। साथ ही विपक्षी सैनिकों पर गोलाबारी करने के लिए वायुसेना के जहाज ऊपर चक्कर काटते रहे। कुछ क्षेत्रों में शत्रु दृष्टि क्षेत्र से बाहर थे। अतः यहाँ पर भारतीय सैनिकों को सीधे ज़मीनी हमलों के लिए भेजना पड़ा। इसके अपने जोखिम और चुनौतियाँ थीं। कठिनतम कार्य तो समुद्र स्तर से 18000 फीट की खड़ी चढ़ाई को चढ़ना था। दिन में किए गए हमले अधिक खतरनाक हो सकते थे इसलिए हमले रात को शून्य से कम के तापमान में किए गए। नियंत्रण रेखा को पार न करने के भारत सरकार के निर्णय ने उपलब्ध रणनीति विकल्पों पर भी अंकुश लगा दिया।

कर्तव्य पर जुटे बहादुर सिपाही

बटालियनों के कमांडर इन विषम परिस्थितियों में ऊपर के अफ़सरों के निरंतर दबाव में भी थे, क्योंकि वे रातों-रात सकारात्मक परिणाम की माँग कर रहे थे। वे उसमें किसी प्रकार का समझौता नहीं चाहते थे। हमारे बहादुर सिपाही अपने कर्तव्य पर जुट गए और इस असंभव विजय की प्राप्ति के लिए उन्होंने महत्त्वपूर्ण बलिदान दिया। 25 अफ़सर एवं 436 जवान इस कारगिल युद्ध में शहीद हुए। इसके अतिरिक्त 54 अफ़सर एवं 629 जवान घायल हो गए, उनमें से कुछ तो जीवन भर के लिए दिव्यांग हो गए।

अमानवीय प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी भारतीय सेना के मनोबल को डिगाने में असमर्थ रहीं। पाकिस्तानी घुसपैठियों द्वारा अतिक्रमण किए गए पर्वतीय श्रेणियों पर पुनः अधिकार करते हुए भारतीय सैनिक धीरे-धीरे, किंतु सुदृढ़ कदमों से उनपर विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ते रहे। अंत में 26 जुलाई को युद्ध विराम हो गया। तभी से यह दिन कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।

कारगिल संघर्ष के चार वीर जवानों को परम वीर चक्र से अलंकृत किया गया। उनमें दो अफ़सर और दो जवान थे पर इनमें से केवल दो ही इन कठिन उत्पीड़नाओं का बखान करने के लिए जीवित रह पाए। 

What's Your Reaction?

like

dislike

wow

sad

Abhishek Chauhan भारतीय न्यूज़ का सदस्य हूँ। एक युवा होने के नाते देश व समाज के लिए कुछ कर गुजरने का लक्ष्य लिए पत्रकारिता में उतरा हूं। आशा है की आप सभी मुझे आशीर्वाद प्रदान करेंगे। जिससे मैं देश में समाज के लिए कुछ कर सकूं। सादर प्रणाम।