शत्रुबोध घृणा नहीं है, यह विवेक है

शत्रुबोध – सभ्यतागत सजगता का भूला हुआ सिद्धांत भारत ने सदैव तब उत्कर्ष पाया है, जब वह अपने सनातन धर्म में जड़ित रहा, और जब-जब उसने शत्रुबोध से मुँह मोड़ा, तब-तब वह संकट में पड़ा। आज के समय में हमने सभ्यतागत राज्य-शिल्प का एक मूल स्तंभ त्याग दिया है – शत्रु की पहचान की क्षमता। […] The post शत्रुबोध घृणा नहीं है, यह विवेक है appeared first on VSK Bharat.

May 2, 2025 - 05:27
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शत्रुबोध घृणा नहीं है, यह विवेक है

शत्रुबोध – सभ्यतागत सजगता का भूला हुआ सिद्धांत

भारत ने सदैव तब उत्कर्ष पाया है, जब वह अपने सनातन धर्म में जड़ित रहा, और जब-जब उसने शत्रुबोध से मुँह मोड़ा, तब-तब वह संकट में पड़ा।

आज के समय में हमने सभ्यतागत राज्य-शिल्प का एक मूल स्तंभ त्याग दिया है – शत्रु की पहचान की क्षमता। वह शत्रु जो न वर्दी में है, न हथियार से लैस, बल्कि उसकी विचारधारा, मंशा और कर्म ही उसकी पहचान हैं।

शत्रुबोध – अस्तित्वगत खतरों की पहचान की बौद्धिक और रणनीतिक क्षमता – केवल युद्धकाल की आवश्यकता नहीं थी। यह शासन का एक परिष्कृत सिद्धांत था। इसे ऋषियों ने कल्पित किया, चाणक्य ने इसे व्यवस्थित किया, और यह प्राचीन भारत की सभ्यतागत चेतना में गहराई से निहित था। यह स्मरण कराता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा केवल सीमाओं की रक्षा तक सीमित नहीं है।

आज वही प्राचीन ज्ञान सुस्ती और उस आत्मघाती उदारवाद के नीचे दफन हो गया है, जिसे वामपंथी तंत्र ने हर राष्ट्रीय संस्था में गहरे पैठाकर पोषित किया है। पहलगाम में हिन्दुओं पर हुए जघन्य हमले और उसके बाद हुए वीज़ा निरस्तीकरण ने राष्ट्र को एक कटु सत्य से रूबरू कराया – कि एक शत्रु राष्ट्र का नागरिक हमारे ही संसाधनों पर पल सकता है और साथ ही हमारे विनाश की योजना में निष्ठा दिखा सकता है। यह केवल लापरवाही नहीं, बल्कि सभ्यतागत भोलेपन का चरम है – दिखावटी सहिष्णुता के नाम पर सजगता का त्याग और राष्ट्रीय हितों से समझौता है।

हम आज एक भयानक सच्चाई से जूझ रहे हैं – एक विदेशी शत्रु भारत की पहचान ले सकता है, हमारे चुनावों में वोट डाल सकता है, हमारी सेना में विवाह कर सकता है, सरकारी लाभ ले सकता है और यहाँ तक कि हमारी रणनीतिक संस्थाओं में भी नैरेटिव गढ़ सकता है। यह सामान्य घुसपैठ नहीं, बल्कि सभ्यतागत विघटन है – सुनियोजित और गहरा।

कौटिल्य ने चेताया था – “मित्र-रूपी शत्रु” से सावधान रहो। उन्होंने अर्थशास्त्र में विशेष रूप से यह कहा कि किसी को भी सत्ता, शस्त्र या प्रशासन तक पहुँच से पहले गहराई से परखा जाना चाहिए। उनके लिए एक मजबूत राज्य का अर्थ केवल भूभाग की रक्षा नहीं था, बल्कि पहचान, संप्रभुता और सभ्यतागत अखंडता की रक्षा भी था।

किन्तु आज हम ऐसी स्थिति में हैं, जहाँ प्रवेश के दस्तावेज़ गायब हो जाते हैं, निकास के रेकॉर्ड मिलते नहीं, और जवाबदेही माँगना “पैरानॉयया” कहकर मज़ाक बना दिया जाता है। एक ऐसा गणराज्य जहाँ अवैध घुसपैठिये संसद द्वारा पारित कानूनों को भी रोकने का प्रयास करते हैं, जबकि देशभक्त नागरिक अपनी गरिमा के लिए संघर्ष करते हैं; और हमारे सैनिक उन सीमाओं पर खून बहाते हैं, जिन्हें ये घुसपैठिये सम्मान नहीं देते।

यह करुणा नहीं है – यह गहरी संस्थागत निद्रा है।

हमें समझना होगा – सभी युद्ध हथियारों से नहीं लड़े जाते। कुछ युद्ध विचारधारा के ज़हर, प्रशासनिक निष्क्रियता और राष्ट्रीय चेतना के धीमे क्षरण से लड़े और हार दिए जाते हैं।

जो राष्ट्र अपने शत्रुओं को पहचानना भूल जाता है, वह स्वयं की रक्षा करना भी भूल जाता है।

शत्रुबोध घृणा नहीं है, यह विवेक है।

अब भारत को जागना होगा।

 

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