मानवाधिकार दिवस का गूंजता मौन

हर साल 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस धूमधाम से मनाया जाता है। यह वह दिन है जब दुनिया भर के नेता, संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता एक मंच पर आकर समानता, स्वतंत्रता, सुरक्षा और न्याय के गीत गाते हैं। गाजा से लेकर सीरिया, कोरिया से लेकर सोमालिया तक, हर जगह दबे-कुचले लोगों की आवाज उठाई जाती […]

Dec 15, 2024 - 12:13
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मानवाधिकार दिवस का गूंजता मौन

हर साल 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस धूमधाम से मनाया जाता है। यह वह दिन है जब दुनिया भर के नेता, संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता एक मंच पर आकर समानता, स्वतंत्रता, सुरक्षा और न्याय के गीत गाते हैं। गाजा से लेकर सीरिया, कोरिया से लेकर सोमालिया तक, हर जगह दबे-कुचले लोगों की आवाज उठाई जाती है। लेकिन अजीब बात है कि ‘मानवाधिकारों’ की यह मुनादी बांग्लादेश के हिंदुओं के लिए नहीं की जाती, उनके दर्द को अनदेखा कर दिया जाता है… भला क्यों?

हितेश शंकर

बांग्लादेश, जो कभी आजादी के संघर्ष का प्रतीक था, अब हिंदुओं के लिए एक ऐसा पिंजरा बन चुका है जहां सांस लेना भी अपराध हो गया है। यहां ‘मानवाधिकार’ शब्द उतना ही बेमानी है जितना किसी तानाशाही में ‘समानता’। 124 दिन से मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार सत्ता संभाले हुए है, और इतने ही दिनों में बांग्लादेशी हिंदुओं के लिए ‘अधिकार’ शब्द इतिहास बन चुका है।

आखिर, यह भी तो गौर करने वाली बात है कि अंतरिम सरकार ने आते ही कट्टरपंथियों को ‘नया जीवन’ देने का बीड़ा उठा लिया। जमात-ए-इस्लामी और उसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिबिर से प्रतिबंध हटा लिया गया। साथ ही अंसार-अल-इस्लाम जैसे आतंकी संगठनों को पुनर्जीवित कर दिया गया।

पिछले कुछ महीनों की घटनाओं पर नजर डालें तो लगता है, बांग्लादेश ने ‘हिंदू सताओ अभियान’ चलाने का ठेका ले रखा है। 30 नवंबर, 2024 को ब्राह्मणबारिया जिले में कोलकाता जा रही एक बस पर हमला हुआ। 5 दिसंबर को चटगांव में चुमकी रानी दास नामक एक हिंदू महिला को उसके घर में मार दिया गया। 6 दिसंबर को सिलहट में हिंदू डॉक्टर परेश चंद्र दास की फॉर्मेसी तोड़ दी गई। यहां तक कि मंदिरों को भी नहीं छोड़ा गया-चटगांव के पाथोरघाटा में शांतेश्री मातृ मंदिर और जगतबंधु आश्रम मंदिर पर हमले हुए।
इतिहास की ओर लौटें तो…

यह कोई नई बात नहीं है। बांग्लादेश में हिंदुओं का उत्पीड़न तो 1947 से ही शुरू हो गया था। विभाजन के दौरान, पंजाब की हिंसा तो खूब चर्चित रही, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हुए नरसंहारों का जिक्र अक्सर इतिहास के पन्नों में दबी एक आह बनकर रह जाता है। 1948 तक लाखों हिंदू पश्चिम बंगाल की ओर पलायन कर चुके थे, और जो बचे थे, उनके लिए वहां की जमीन कब्रगाह बन चुकी थी।

1964 में कश्मीर की हजरतबल दरगाह में हुए विवाद के बाद पूर्वी पाकिस्तान में हिंसा ने विकराल रूप ले लिया। हजारों हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया, और लाखों को बेघर कर दिया गया। 1971 में जब बांग्लादेश आजाद हुआ, तो हिंदुओं ने इस आजादी की कीमत अपनी जान और इज्जत से चुकाई।

आधुनिक बांग्लादेश: ‘सांस्कृतिक विनाश का प्रतीक’। आज की तारीख में, हिंदू मंदिरों पर हमले करना, सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर प्रतिबंध लगाना और दुर्गा पूजा जैसे आयोजनों को खत्म करना आम बात हो चुकी है। हिंदू महिलाएं कट्टरपंथी हिंसा का सबसे बड़ा शिकार बन रही हैं। वहीं इस्लामी छात्र शिबिर और जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन खुलेआम सांप्रदायिकता फैला रहे हैं।

सरकार का रुख? वह तो इन कट्टरपंथियों को ‘राजनीतिक हथियार’ के रूप में इस्तेमाल करती है। प्रधानमंत्री मोहम्मद यूनुस का कहना है, ‘अल्पसंख्यकों पर हुए हमले राजनीति का हिस्सा हैं।’ ऐसा बयान किसी मानवाधिकार दिवस पर नारी सशक्तिकरण के पोस्टर जैसा लगता है- अच्छा, लेकिन व्यर्थ।

वर्तमान स्थिति: ‘न्याय के नाम पर अपमान’। आज, बांग्लादेश के हिंदुओं का धर्म, जान और इज्जत, तीनों खतरे में हैं। रिर्पोटों के मुताबिक, अगस्त 2024 से अब तक हिंदुओं पर हमले के हजारों मामले दर्ज हो चुके हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बांग्लादेश की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि अंतरिम सरकार अपराध रोकने में पूरी तरह असफल रही है।

लेकिन चिंता मत कीजिए। आखिरकार, दुनिया में मानवाधिकार दिवस मनाने का सिलसिला जारी रहेगा। संयुक्त राष्ट्र भाषण देगा। देश-विदेश के नेता ट्वीट करेंगे। मोमबत्तियां जलेंगी। और बांग्लादेश के हिंदुओं की पुकार उस अंधेरे में खो जाएगी जहां मानवाधिकार केवल कागजी दस्तावेज बनकर रह जाते हैं।
@hiteshshankar

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