लाइलाज होता राजनीतिक भ्रष्टाचार
च्चतम न्यायालय ने चुनावी बांड वाले कानून को असंवैधानिक करार दिया और साथ ही स्टेट बैंक
लाइलाज होता राजनीतिक भ्रष्टाचार
कि के बिना नहीं चल सकती। यह अलग बात है कि कुछ देशों में यह धन सरकारी खजाने से राजनीतिक दलों को दिया जाता है और कुछ में राजनीतिक दल लोगों से चंदे के रूप में एकत्र करते हैं। लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दलों को अपनी गतिविधियां संचालित करने के लिए धन चाहिए ही होता है और यहीं से सिलसिला शुरू होता है पक्षपात एवं भ्रष्टाचार के आरोपों का। इस तरह के आरोपों का सामना छोटे-बड़े सभी दलों को करना पड़ता है।
सत्ताधारी दलों को कुछ ज्यादा ही करना पड़ता है। इसे देखते हुए ही मोदी सरकार चुनावी बांड की योजना लाई थी ताकि राजनीति में कालेधन का प्रवेश रुके। इस योजना में यह प्रविधान था कि दानदाताओं का नाम तो सार्वजनिक नहीं होगा, लेकिन उनके द्वारा दिया गया घन कालाधन नहीं होगा, क्योंकि वह स्टेट बैंक से जारी होने वाले चुनावी बांडों के जरिये राजनीतिक दलों को मिलेगा। पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने चुनावी बांड वाले कानून को असंवैधानिक करार दिया और साथ ही स्टेट बैंक को सारा विवरण चुनाव आयोग को सौंपने को कहा। चुनाव आयोग ने जैसे ही यह विवरण सार्वजनिक किया, राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोप कासी भी
देश की राजनीति धन
दौर शुरू हो गया। चूंकि भाजपा केंद्र के साथ कई राज्यों में सत्ता में है, इसलिए उसे चुनावी बांडों के जरिये अधिक चंदा मिला। तृणमूल कांग्रेस और डीएमके को भी अच्छा-खासा धन मिला, खासकर लोकसभा में उनके सांसदों की संख्या को देखते हुए। इसके बाद भी भाजपा विपक्षी दलों के निशाने पर है। विपक्षी दलों का आरोप है कि भाजपा ने कंपनियों को ठेके दिए और उसके बदले उनसे चंदा लिया। चूंकि कई कंपनियों ने जब भाजपा को चंदा दिया, तभी या उसके आगे-पीछे उन्हें ठेके मिले, इसलिए विपक्षी दलों के आरोप सही होने का संदेह गहराया।
संदेह गहराने का एक कारण यह भी है कि जिन कंपनियों के खिलाफ सीबीआइ, ईडी या आयकर विभाग की जांच जारी थी, उन्होंने भी भाजपा को चंदा दिया। वैसे तो ऐसी कुछ कंपनियों ने अन्य दलों को भी चंदा दिया, लेकिन इन दलों के निशाने पर भाजपा ही है। जैसे आरोप भाजपा पर लग रहे हैं, उससे गंभीर आम आदमी पार्टी पर लग रहे हैं। उस पर चुनावी बांड के जरिये नहीं, बल्कि रिश्वत के रूप में शराब बनाने वाली कंपनियों से करोड़ों रुपये लेने का आरोप है। ईडी की मानें तो नई शराब नीति बनाकर शराब कंपनियों से सैकड़ों करोड़ रुपये लिए गए और उसी से गोवा, पंजाब आदि राज्यों में यह एक विडंबना अरविंद केजरीवाल का भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हुआ था, वह आज भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं।
वह आए थे, लेकिन लगता है कि राजनीति ने उन्हें ही बदल दिया। की गिरफ्तारी पर संयुक्त राष्ट्र ने भी जर्मनी, अमेरिका और अपनी प्रतिक्रिया दी। यह इसलिए हैरान करती है, क्योंकि देश में इसके पहले भी कई हैं। हाल में झारखंड सोरेन गिरफ्तार हुए हैं, के प्रतिनिधि ने कोई आखिर केवल केजरीवाल अमेरिका, जर्मनी आदि हैं? यह ठीक है कि के प्रतिनिधियों ने अमेरिका और जर्मनी केजरीवाल की गिरफ्तारी पर तब प्रतिक्रिया दी, उनसे सवाल पूछे गए, इन सवालों का जवाब
अवधेश राजपूत
ही है कि जिन राजनीतिक सफर आंदोलन से शुरू राजनीति बदलने अरविंद केजरीवाल नेता गिरफ्तार हुए के मुख्यमंत्री हेमंत लेकिन किसी देश सवाल नहीं किया। के मामले में ही क्यों चिंता जता रहे जब इसे लेकर लेकिन उनके लिए देना जरूरी नहीं
था। वह इन सवालों को आसानी से टाल सकते थे, क्योंकि परंपरा यही है कि अन्य देश किसी दूसरे देश के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देते। इस पर हैरानी नहीं कि अमेरिका, जर्मनी और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों से सवाल पूछने वालों ने इसी नीयत से सवाल किया हो, ताकि वे भारत के आंतरिक मामलों में कुछ कहें। ये ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो भारत या फिर मोदी सरकार के प्रति दुर्भावना से ग्रस्त हैं। अरविंद केजरीवाल पहले ऐसे नेता हैं, जो मुख्यमंत्री रहते गिरफ्तार किए गए।
लोकसभा चुनाव के मौके पर उनकी गिरफ्तारी ने एक राजनीतिक बवंडर खड़ा कर दिया है। भाजपा पर तो ईडी का राजनीतिक इस्तेमाल करने के आरोप लग ही रहे हैं, न्यायपालिका पर भी तंज कसे जा रहे हैं। इसी सिलसिले में हरीश साल्वे समेत करीब छह सौ वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा है कि वकीलों का एक समूह न्यायपालिका पर अनुचित दबाव डालने और उसकी छवि खराब करने की कोशिश कर रहा है। हरीश साल्वे और अन्य वकीलों की ओर से लिखी गई चिट्ठी में जिन बातों का उल्लेख किया गया है, उनसे प्रधानमंत्री ने भी सहमति जताई है। हालांकि न्यायपलिका ने समय-समय
पर कई भ्रष्ट नेताओं को सजा सुनाई है, लेकिन समाज या राजनीति पर उसका कोई सकारात्मक असर पड़ता नहीं दिख रहा है।
जैसे लालू यादव को चारा घोटाले में सजा सुनाई जा चुकी है, लेकिन अभी तक उच्चतर अदालतों ने उनके खिलाफ निचली अदालतों की ओर से दिए गए फैसलों का निपटारा नहीं किया है। इसके चलते लालू यादव के समर्थक उन्हें निर्दोष बताने में लगे हुए हैं। वे ऐसा करने में इसलिए समर्थ हैं, क्योंकि अपने देश में मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग है, जो अपनी जाति-मजहब के नेता के गलत कार्यों की अनदेखी करने के लिए तैयार रहता है। एक उदाहरण राजीव गांधी का भी है। बोफोर्स घोटाले में लिप्तता के आरोपों के चलते राजीव गांधी सत्ता से बाहर हो गए, लेकिन गांधी परिवार के राजनीतिक रसूख पर कोई असर नहीं पड़ा। यह किसी से छिपा नहीं कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे नेता चुनाव जीतते रहे हैं। क्या कारण है कि देश का औसत मतदाता भ्रष्टाचार में लिप्त नेता या उनके दल से किनारा नहीं करता? इसका कारण यही दिखता है कि राजनीति में भ्रष्टाचार आम है और आमतौर पर लोग यह मान बैठे हैं कि नेता तो भ्रष्टाचार करते ही हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ जो चेतना विकसित होनी चाहिए, वह औसत भारतीयों में कम ही दिखती है। वास्तव में जब तक लोग जाति, मजहब, क्षेत्र आदि के नाम पर वोट देते रहेंगे, तब तक राजनीतिक भ्रष्टाचार दूर होने वाला नहीं है। response@jagran.com
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