भारतीय समाज की सोच में नौकरी की सुरक्षा को महत्व देने की परंपरा रही है
कांग्रेस की 30 लाख सरकारी नौकरियां देने की घोषणा
विकसित देशों से सीख ले भारत
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सामर्थ्य विकास: उद्योगों के विकास के लिए सामर्थ्य विकास करना महत्वपूर्ण है। यह शिक्षा, प्रशिक्षण, तकनीकी ज्ञान और नौकरी के क्षेत्र में कौशल का विकास शामिल करता है।
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उद्योग के प्रोत्साहन: सरकार को नई उद्यमिता को प्रोत्साहित करने और उद्योगों को संचालन में सुविधा प्रदान करने के लिए नीतियों को बदलने की आवश्यकता है।
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अनुसंधान और नवाचार: नए और उन्नत तकनीकी समाधानों के लिए अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहित करना चाहिए। यह नए उद्योगों की उत्पत्ति में मदद करेगा।
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स्टार्टअप कल्चर को स्थापित करना: स्टार्टअप कल्चर को प्रोत्साहन देने से नए उद्यमों की सृजनात्मकता को बढ़ावा मिलेगा। सरकार को नए विचारों को स्थापित करने के लिए संबंधित संस्थाओं के साथ काम करना चाहिए।
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उद्योगों में निवेश: निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देना चाहिए ताकि नए रोजगार सृजन किया जा सके।
इन कदमों के साथ, सरकार, समाज और व्यवसायी समुदायों को मिलकर काम करना होगा ताकि उद्योगों के विकास से साथ ही रोजगार की संभावनाएं भी बढ़ें। भारत को नौकरियों के साधन को बढ़ाने के लिए नए और स्थायी समाधानों की तलाश करनी चाहिए, जो उद्योगों के विकास को भी संभव बनाए रखें।
विकसित देशों में राजनीतिक दल सरकारी नौकरियां बढ़ाने की जगह उद्योग-धंधों को बढ़ावा देकर रोजगार पैदा करने की बात करते हैं, लेकिन भारत में उलटी कहानी है
अपने उत्कर्ष के दिनों में भारत एक उद्यम प्रधान और कारोबारी देश रहा है। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की राजसभा में आए यूनानी सम्राट सेल्यूकस के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक 'इंडिका' में भारतीय समाज के सात वर्गों का उल्लेख किया है। इनमें अधिकांश लोग बुद्धिजीवी, किसान, कारोबारी, शिल्पकार और सैनिक वर्गों के थे। बहुत कम लोग सेवक थे और नौकरी करते थे। नौकरी को निर्भरता और पराधीनता वाला काम होने की वजह से हेय समझा जाता था।
आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन ने भी विश्व अर्थव्यवस्था के इतिहास में इसकी पुष्टि की है, परंतु सदियों की गुलामी के बाद आजाद हुए भारत में परिस्थितियां पूरी तरह बदल गई हैं। आज लोगों को वेतन की सुरक्षा वाली नौकरी की पराधीनता आर्थिक असुरक्षा वाले कारोबारी उद्यम से बेहतर लगने लगी है। विशेष रूप से सरकारी नौकरी जिसे काम की सुरक्षा और पेंशन की वजह से सर्वोपरि माना जाता है।
कारोबारी उद्यम को आर्थिक असुरक्षा के साथ-साथ मुनाफाखोरी के काम के रूप में देखा जाता है। इसकी बड़ी वजह हमारी उपनिवेशकालीन शिक्षा प्रणाली है जो उद्यम, सृजनशीलता और गवेषणा का कौशल एवं अनुभव देने की जगह रटने वाली पढ़ाई पर केंद्रित है। इससे शिक्षित स्नातक उद्यम, श्रम और गवेषणा से विमुख होकर दफ्तरी या मशीनी काम करने योग्य बनते हैं। उनकी उपादेयता खत्म होती जा रही है, क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआइ) के विकास के कारण मशीनें कई कामों को अधिक कुशलता और गति से कर सकती हैं। इसीलिए गांधी जी ने अपनी 'नई तालीम' में शिक्षा को श्रम से जोड़ने की बात की थी।
शिक्षाशास्त्री अनिल सद्गोपाल की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि शिक्षा को काम के साथ जोड़ना बच्चों को समाज से जोड़ने जैसा है। इससे उनमें श्रम के प्रति श्रद्धा पैदा होती है और अनुभूतिजन्य ज्ञान भी मिलता है। श्रम और बौद्धिकता के इस संतुलन को प्रयोगिक रूप देने के लिए रांची के पास नेतरहाट में एक प्रायोगिक विद्यालय खोला भी गया, लेकिन उसकी सफलता के बावजूद उसे देश भर में नहीं फैलाया गया। नतीजा सबके सामने है। इस पर बहस हो सकती है कि देश में 21-30 के बीच किस आयु वर्ग के शिक्षितों में बेरोजगारी की दर सबसे ऊंची रहती है, किंतु वास्तविकता यह है कि उत्तर प्रदेश में सिपाहियों की लगभग 60 हजार नौकरियों के लिए 50 लाख से भी अधिक स्नातकों ने आवेदन किए और परीक्षा में जाने के लिए रेलगाड़ियों में जगह तक नहीं मिली यह भी किसी से छिपा नहीं कि मुट्ठी भर नागरिक सेवाओं के लिए कैसे लाखों स्नातक कोटा और पुणे जैसे शहरों के कोचिंग संस्थानों में जाकर कई साल तक तैयारी करते हैं। यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि भारत में हर साल औसतन 15 लाख इंजीनियरों समेत करीब एक करोड़ छात्र स्नातक बनते हैं। योग्यता सर्वेक्षणों के अनुसार इनमें से केवल 25 प्रतिशत एमबीए स्नातक, 20 प्रतिशत इंजीनियर और मात्र 10 प्रतिशत सामान्य स्नातक ही काम के योग्य होते हैं। बाकी को या तो नए सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ता है या ऐसा काम देना पड़ता है, जिसके लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं होते।
काम-धंधों को लेकर सामाजिक सोच इतना नकारात्मक है कि यदि कोई नेता रोजगार के लिए उनकी मिसाल भी दे तो हंसी का पात्र बना दिया जाता है। कारोबारी उद्यम और काम-धंधों के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा भी कड़ी होती जा रही है। 10 करोड़ से अधिक किसान दूसरे काम-धंधों की तलाश में हैं। दस्तकारी और कारीगरी जैसे काम-धंधों की पुश्तैनी परंपरा या तो टूट चुकी है या मशीनों के माल के सामने टिक नहीं पाती है। इन सभी को रोजगार के लिए प्रशिक्षण, पूंजी और बाजार की जरूरत है। बेरोजगारी का मुद्दा हर चुनाव में चर्चा पाता है। इस बार कांग्रेस ने 30 लाख सरकारी नौकरियां, हर स्नातक और डिप्लोमा धारक को एक लाख रुपये प्रति वर्ष का भत्ता एवं प्रशिक्षण और युवाओं को जिला स्तर पर स्टार्टअप फंड देने की घोषणा को युवा न्याय गारंटी का नाम दिया है। भाजपा समेत अन्य दल भी आने वाले दिनों में ऐसी ही घोषणाएं करेंगे, लेकिन शिक्षा प्रणाली को कारोबारी उद्यम और अनुसंधानमुखी बना समस्या के समाधान की बात शायद ही कोई करे।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि भारत में रोजगार का मतलब नौकरी ही माना जाता है। जब भी कोई दल रोजगार की बात करता है तो सरकारी नौकरियां बढ़ाने या भरने की बात ही करता है। उद्योग धंधे, कारोबार और काम-धंधे बढ़ाकर रोजगार सृजन की बात कम होती है। यूरोप, अमेरिका और जापान में ऐसा नहीं होता। वहां पार्टियां सरकारी नौकरियां बढ़ाने की जगह उन्हें घटाकर खर्च बचाने और बचे पैसों से उद्योग और कारोबार को बढ़ावा देकर रोजगार पैदा करने की बात करती हैं। सरकारी नौकरियों को रोजगार नहीं, बल्कि रोजगार टैक्स के रूप में देखा जाता है, क्योंकि उनका वेतन टैक्स के पैसे से दिया जाता है। नौकरियों से आज तक कोई देश उन्नत नहीं हुआ। उन्नति उद्योग- धंधों से ही होती है। इसलिए विकसित देशों में पार्टियां सरकारी खर्च घटाने और उद्योगों-कारोबारों को फैलाकर आमदनी बढ़ाने की बात करती हैं। असली रोजगार सृजन उद्योग और कारोबार ही कर सकते हैं।
वे रोजगार भी देते हैं और टैक्स भी। कांग्रेस की 30 लाख सरकारी नौकरियां देने की घोषणा को ही लें। इस समय केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संख्या लगभग 33 लाख है, जिनके वेतन पर 3.25 लाख करोड़ खर्च होता है। यदि इनमें 30 लाख और जोड़ दिए गए तो वेतन पर होने वाला खर्च तीन लाख करोड़ और बढ़ जाएगा। इसी पैसे को यदि उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने पर खर्च किया जाए तो रोजगार भी बढ़ सकते हैं और टैक्स की आमद भी। लोगों को बिना काम किए भत्ते और मुफ्त की बिजली देना और सरकारी नौकरियां भरते जाना सामाजिक न्याय नहीं, बल्कि उसके नाम पर किया जाने वाला अनुत्पादक खर्च है। सरकार का दायित्व करदाता की पाई-पाई को उत्पादक कामों में लगाना है, जिससे अर्थव्यवस्था का विकास हो। वोटों के लिए अनुत्पादक फिजूलखचीं करना नहीं। मतदाताओं को यह बात समझकर और स्वावलंबी बनकर आर्थिक रूप से जिम्मेदार प्रतिनिधियों के चुनाव को प्राथमिकता देनी होगी।
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