गोली का निशान

जीवनयापन गरीबी का। वह हमेशा ही पैदल आता था। बराबर काले रंग का पा सा ओवरकोट पहने रहता, किंतु खान पान में हमारे दस्ते के अफसरों का सदैव स्वागत करता।

Mar 10, 2024 - 10:44
Mar 10, 2024 - 11:50
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गोली का निशान

अतिशय शक्तिशाली होने पर भी दयालुता का प्रर्शन सम्मान दिलाता है अथवा तिरस्कार का भाव, पढ़िए आधुनिक रूसी साहित्य के पितामह अलेग्जेंडर पुश्किन की विश्वप्रशिद्ध कहानी का अंश

 

हम लोगों को एम नामक एक कस्बेठहराया गया था। फौजी लोगों का जीवन तो सर्वचिदित है ही, सबेरे परेड और घुड़सवारी, कर्नल के साथ या फिर रेस्त्रां में भोजन, शाम को ताश। इस करने में कोई ऐसा घर न था, जहां हर कोई जा सके। यहां सिर्फ वरदियां पहने आदमी ही आदमी दिखाई देते थे। केवल एक ही नागरिक को हमारे सैनिक समाज में स्थान मिल सका था। उसकी उम्र 35 के आस-पास थी, इसलिए हम लोग उसे बुजुर्ग मानते थे। अनुभवी होने के कारण वह हम लोगों से विशेष लाभान्वित हो सकता था। उसकी रूठने-बिगड़ने की आदत, कठोर स्वभाव और वाणी की कटुता ने हमारे अविकसित मस्तिष्कों पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला था। उसकी उपस्थिति भी कुछ रहस्यमय थी। देखने में वह रूसी मालूम होता था, गोंकि उसका नाम था विदेशी। इससे पहले वह जर्मन सेना के घुड़सवार दस्ते में भी काम कर चुका था और बड़ी खूबी से।

यह कोई नहीं जानता था कि आखिर किस कारण उसे  सेना से अवकाश प्राप्त करने की लालसा हुई और क्यों वह इस नाचीन से कस्बे में आ बसा, जहां उसका खर्च ज्यादा होता और जीवनयापन गरीबी का। वह हमेशा ही पैदल आता था। बराबर काले रंग का पा सा ओवरकोट पहने रहता, किंतु खान पान में हमारे दस्ते के अफसरों का सदैव स्वागत करता। यह सही है कि उसके भोजन में कभी दो या तीन से ज्यादा प्लेटें न होती थीं, कह भी एक अवकाश प्राप्त सैनिक द्वारा तैयार की हुई। किंतु मदिरा उसके यहां पानी की तरह बहती थो।

यह किसी को मालूम न था कि उसकी अपनी परिस्थितियां क्या हैं या उसकी आमदनी क्या है? इस विषय में पूछने का किसी को साहरा भी न होता। उसका विशेष मनोरंजन था पिस्तौल की निशानेबाजी। अपने कमरे की दीवारों को उसने छलनी कर रखा था। उनमें ऐसे छेद हो गए थे, जैसे शहद के छत्ते में होते हैं। उसकी छोटी सी कुटिया में पिस्तौल का एक बड़ा संग्रह ही केवलमात्र विलास-सामग्री थी। अपने प्रिय शस्त्र में जितनी सिद्धता उसने प्राप्त कर ली थी, उस पर आसानी से विश्वास नहीं किया जा सकता। अगर कहीं उसने किसी की घुड़सवारी की टोपी में लगी कलगी पर निशाना लगाने की बात कही होती तो हमारे दस्ते में एक भी आदमी ऐसा न निकलता, जो अपने मस्तक को गोली के सामने करने में हिचकिचाया हो।

हमारी बातचीत का रुख प्रायः द्वंद्वयुद्ध की ओर घूम जाता। सिल्वियो (आगे मैं उसे इसी नाम से संबोधित करूंगा) इसमें कभी न पड़ता। यह पूछने पर कि क्या उसने भी कभी द्वंद्व लड़ा है, उसने बड़ी रुखाई से स्वीकारात्मक उत्तर दिया, किंतु सविस्तार उसने कुछ भी न बताया और यह स्पष्ट हो गया कि इस प्रकार के प्रश्न उसके लिए अरुचिकर हैं। हमने सोचा कि उसके मस्तिष्क में अपने प्रलयंकर कुशलता के किसी शिकार को दुखद स्मृति छाई हुई है। उस पर किसी तरह की बुर्जादली का संदेह भी हमारे मस्तिष्क में न आया। कुछ लोग होते हैं, जिनकी मुद्रा मात्र ऐसे संदेहों को • दूर रखने के लिए पर्याप्त होती है, लेकिन एक आकस्मिक घटना ने हम सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।

एक दिन करीब 10 अफसरों ने सिल्वियो के साथ भोजन किया। उन्होंने खूब मदिरापान किया। भोजन के उपरांत हमने अपने मेजबान से ताश खेलने की मांग की। वह खुद मुश्किल से खेलता था, किंतु अंत में उसने सोने के करीब 50 सिक्के निकालकर मेज पर रख दिए और ताश बांटने लगा। खेलते समय एकदम खामोशी बनाए रखना उसका नियम था। न वह बहस करता और न सफाई देने के पचड़े में पड़ता। हम उसकी इस आदत से परिचित थे और सदैव ही उसे अपने ढंग से काम करने देते, लेकिन मौके पर हगगें से एक अफसर ऐसा था जो हाल ही में तबादला होकर दस्ते में आया था।

गलती से खेल के दौरान उस अफसर ने एक पाइंट ज्यादा बना दिया। सिल्वियो ने खड़िया निकालकर अपने रिवाज के मुताबिक हिसाब सही कर दिया। अफसर ने यह सोचा कि सिल्वियों ने ऐसा गलती से किया है, उसने बेसब्र होकर ब्रश उठाया और जिसे वह भूल समझा था, पौळ डाला। सिल्वियों ने पुनः अंकों को सही कर दिया। अफसर ने वह समझा कि उसे अत्यधिक बेइज्जत किया जा रहा है, क्रोधावेश में उसने गेज पर रखा पीतल का शमादान उठाकर सिल्वियो की ओर फेंका। सिल्वियो मुश्किल से चाल बाल बच सका। हम लोग भी बड़े दुखी हुए। गुस्से में तमतमाया सिल्वियो उठा और आंखें तरेरते हुए बोला, 'प्रिय महानुभावों लौट जाने की कृपा करें और ईश्वर को धन्यवाद दें कि यह सब मेरे घर पर हुआ।'

हममें से किसी को भी यह संदेह न रह गया कि इसका परिणाम क्या होगा और हमने अपने इस नए साथी को पहले से ही मृत गान लिया। अफसर ने यह कहते हुए कि वह अपने असम्मान का उत्तर वैसे ही देने को प्रस्तुत है, जैसा सिल्वियो चाहे-अपना दांव वापस ले लिया। कई मिनट खेल चलता रहा, किंतु यह सोचकर कि हमारा मेजबान सिल्वियो अत्यधिक थकान के कारण खेल को जबरदस्ती नहीं चला सकता, हम लोगों ने एक-एक करके अपने दांव वापस ले लिए। थोड़ी देर बाद हम लोग अपने-अपने क्वार्टर में चले गए। अगले दिन घुड़सवारी के स्कूल में नए लेफ्टिनेंट के आने के पहले हम लोग आपस में एक-दूसरे से यह पूछताछ कर ही रहे थे कि बेचारा नया लेफ्टिनेंट अभी जिंदा भी है? यही प्रश्न हमने उससे भी किया और उसने बताया कि अभी तक सिल्वियों की ओर से उसे कोई संदेश नहीं मिला है। इस पर हमें आश्चर्य हुआ। हम लोग सिल्वियो के घर गए और उसे दरवाजे से चिपके हुए ताश के 'इक्के' पर गोली दागते पाया। उसने पूर्ववत हो हमारा स्वागत किया, किंतु बीती शाम को हुई घटना के संबंध में उसने एक शब्द भी नहीं कहा। तीन दिन बीत गए और लेफ्टिनेंट अब तक जीवित था। हमने साश्चर्य एक-दूसरे से पूछा 'क्या ऐसा संभव है कि सिल्वियों न लढ़े?'

सिल्वियों नहीं लड़ा। वह एक झूठे बढ़ाने से ही संतुष्ट हो गया और उसने लेफ्टिनेंट से सौंध कर ली। इसने उसे हमारे युवा साथियों की दृष्टि में बहुत गिरा दिया। साहस का अभाव ही ऐसी बात है, जिसे नवयुवक क्षमा नहीं कर पाते, क्योंकि वे वीरता को ही मानवीय गुणों में सर्वोपरि समझते हैं। किंतु धीरे-धीरे लोग सब भूल गए और सिल्वियों का प्रभाव पुनः पहले जैसा बन गया। केवल मैं ही एक ऐसा बचा, जिसका व्यवहार पहले जैसा न हो पाया। भावुक होने के नाते उसके प्रति गुझे अधिक स्नेह था। उसका जीवन एक पहेली था, जो मुझे किसी रहस्यमयी कहानी का नायक मालूम पड़ता था, वह भी मुझे चाहता था, कम से कम मुझसे बात करते समय कह अपनी व्यंग्यात्मक शैली को छोड़ बड़ी सीधी-सीधी जुबान में और अच्छे ढंग से विविध विषयों पर बातचीत करता था। किंतु उस दुर्भाग्यपूर्ण सांझ के बाद यह विचार कि उसके सम्मान को बट्टा लग गया है और यह कि उसने गलती से उस दाग को बने रहने दिया है- मेरे मस्तिष्क में सदैव बना रहता था। इसी बाधा के कारण गेरा व्यवहार पहले जैसा न हो पाया।

(अनुवादः श्री तिलक) ( विश्वप्रसिद्ध लोकप्रिय कहानियां, ज्ञान गंगा से सामार।

 

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