शांति और प्रेम का संदेश देती है बुद्ध पूर्णिमा: मृत्युंजय दीक्षित  

सिद्धार्थ ने वेद, उपनिषद व अन्य ग्रंथों  का अध्ययन गरू विश्वामित्र के यहां किया।  कुश्ती, घुड़दौड, तीर- कमान चलाने रथ हांकने में  उनकी कोई  बराबरी नहीं कर सकता था। 16  वर्ष की अवस्था में  उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा  के साथ  हुआ।

May 22, 2024 - 09:33
May 22, 2024 - 09:37
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शांति और प्रेम का संदेश देती है बुद्ध पूर्णिमा: मृत्युंजय दीक्षित  

शांति और प्रेम का संदेश देती है बुद्ध पूर्णिमा: मृत्युंजय दीक्षित  


वैशाख  मास की पूर्णिमा का भारतीय संस्कृति  व बौद्ध समाज में  अद्वितीय स्थान है। न केवल बौद्ध धर्म में  आस्था रखने वाले अपितु  प्रत्येक भारतीय के लिए  यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण त्यौहार है। इस दिन भगवन बुद्ध का जन्म और  बुद्धत्व या ज्ञान की प्राप्ति दोनों ही हुए थे ।


भगवान बुद्ध का जन्म शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी, नेपाल में हुआ था। बुद्ध की माता महामाया देवी का उनके जन्म के सातवें दिन ही निधन हो गया था। उनका पालन पोषण दूसरी महारानी महाप्रज्ञावती ने किया था। महाराजा शुद्दोधन  ने अपने बालक का नामकरण करने व उसका भविष्य पढ़ने के लिये 8 ब्राहमणों को आमंत्रित किया। सभी ब्राहमणो ने  एकमत से विचार व्यक्त किया कि यह बालक या तो एक महान राजा बनेगा या फिर महान संत  । बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। महाराज ब्राह्मणों  की बात सुनकर चिंता में  पड़ गये। अब वे अपने पुत्र का विशेष ध्यान  रखने  लगे । सिद्धार्थ ने वेद, उपनिषद व अन्य ग्रंथों  का अध्ययन गरू विश्वामित्र के यहां किया।  कुश्ती, घुड़दौड, तीर- कमान चलाने रथ हांकने में  उनकी कोई  बराबरी नहीं कर सकता था। 16  वर्ष की अवस्था में  उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा  के साथ  हुआ। महाराज शुद्दोधन को   यह चिंता सता रही थी कि  कहीं उनका पुत्र संत न बन जाये इसलिए उसके भोग  विलास के सभी संसाधन उपलब्ध कराते थे।  उन्हाने  इसलिए तीन और महल भी बनवा दिये थे।  लेकिन ब्राह्मणों   की भी बात धीरे- धीरे  सही सिद्ध  हो रही थी। सिद्धार्थ के जीवन मे कई ऐसी घटनाएं घटी कि जिसके कारण उनके मन में  विरक्ति का भाव पैदा होने  लगा । अन्ततः  एक दिन वे अपनी सुंदर पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल तथा समस्त सुखों को  त्यागकर महल से निकल गये। 


वे राजगृह होते  हुये उरूवेला  पहुंचे  तथा वहीं पर तपस्या प्रारम्भ कर दी। उन्होंने  वहां  पर घोर  तप किया। वैशाख पूर्णिमा के दिन वे वृक्ष के नीचे  ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गांव की स्त्री सुशाता को  पुत्र की प्राप्ति हुई। उसने अपने बेटे के लिए वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी होने के बाद सोने  के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुंची । सिद्धार्थ ध्यानस्थ थे। उसे लगा कि मानों वे  वृक्ष देवता ही पूजा करने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुशाता ने बड़े  आदर के साथ सिद्धार्थ को  खीर खिलायी और कहाकि जैसे  मेरी मनोकामना पूरी हुयी है उसी प्रकार आपकी भी मनोकामनापूरी हो।उसी रात सिद्धार्थ को सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। तभी से  वे बुद्ध कहलाये। जिस पीपल के वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को  बोध मिला वह बोधिवृक्ष  कहलाया जबकि समीपवर्ती स्थान बोधगया।  ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद वे बेहद सरल पाली भाषा में धर्म का प्रचार- प्रसार  करते रहे। उनके धर्म की लोकप्रियता तेजी से  बढ़ने लगी। काशी के पास मृंगदाव वर्तमान के सारनाथ पहुंचे। वही  पर उन्होंने  अपना पहला धर्मोपदेश दिया।


भगवान बुद्ध ने लोगों  को मध्यम मार्ग का उपदेश दिया। उन्होने दुःख के कारण और निवारण के लिये अष्टांगक मार्ग सुझाया । अहिंसा  पर जोर  दिया। यज्ञ व पशुबलि की निंदा की। बुद्ध के अनुसार जीवन की पवित्रता, जीवन मे पूर्णता, निर्वाण, तृष्णा और सभी संस्कार अनित्य है । बौद्ध धर्म सभी जातियों  एवं पंथों के लिए खुला है। भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम  भोजन एक लोहार कुंडा से  भेंटकर प्राप्त किया था। जिसके बाद  वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये थे। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को  निर्देश दिया कि वह कुंडा को  समझाये कि उसने  कोई  गलती नही की  है। 


आज पूरे विश्व में लगभग 80 करोड़ से भी अधिक लोग बौद्ध धर्म को  मानने वाले  हैं। हिंदू ग्रथों  का कहना है कि बुद्ध भगवान विष्णु के नवें अवतार हैं।अतः हिन्दुओं  के लिए भी बुद्ध पूर्णिमा  पवित्र दिन है। यह पर्व भारत, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम,थाईलैड, कम्बोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार,  इंडानेशिया, सहित उन सभी स्थानों पर मनाया जाता है जहां बौद्ध मतावलम्बी रहते  हैं। भारत के बिहार स्थित बोधगया तीर्थस्थल बेहद पवित्र स्थान है। वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया तथा  कुशी नगर एक माह का  मेला  लगता है।

कुशीनगर स्थित महापरिनिर्वाण मंदिर का स्थापत्य अजंता की गुफा से  प्रेरित है। इस मंदिर में  भगवान बुद्ध की लेटी हुयी 61 मीटर लम्बी मूर्ति है। यह लाल बलुई मिटटी की बनी है।
बुद्ध पूर्णिमा के दिन बौद्ध अनुयायी अपने घरों में दीपक जलाते है। फूलों से घरों को  सजाते है। सभी बौद्ध बौद्ध ग्रंथ का पाठ करते हैं । बोधगया सहित  भगवान बुद्ध से सम्बंधित सभी तीर्थस्थलों  व स्तूपों  व महत्व के स्थानों को  सजाया जाता है। मंदिरों  व घरों में  बुद्ध की मूर्ति की  दीपक जलाकर विधिवत पूजा करते है साथ ही  पवित्र बोधिवृक्ष की भी पूजा करते है। बौद्ध धर्म में मान्यता है कि इस दिन किये गये कामों  के शुभ परिणाम निकलते है     
लेखक -    मृत्युंजय दीक्षित  
        

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