इजराइल-ईरान युद्ध के निहितार्थ…?

बलबीर पुंज इजराइल-ईरान के बीच आखिरकार युद्ध विराम हो गया। पर यह कितने दिन टिकेगा, इस पर संदेह है। भले ही यह लड़ाई 13 जून से शुरू होकर 24 जून को थम गई हो, लेकिन सच ये है कि इन दोनों के बीच टकराव उसी दिन से शुरू हो गया था, जब लगभग 80 साल […] The post इजराइल-ईरान युद्ध के निहितार्थ…? appeared first on VSK Bharat.

Jun 26, 2025 - 20:38
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इजराइल-ईरान युद्ध के निहितार्थ…?

बलबीर पुंज

इजराइल-ईरान के बीच आखिरकार युद्ध विराम हो गया। पर यह कितने दिन टिकेगा, इस पर संदेह है। भले ही यह लड़ाई 13 जून से शुरू होकर 24 जून को थम गई हो, लेकिन सच ये है कि इन दोनों के बीच टकराव उसी दिन से शुरू हो गया था, जब लगभग 80 साल पहले इजराइल ने खुद को एक स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र घोषित किया था। यह संघर्ष सिर्फ दो देशों का नहीं, बल्कि तीन अब्राह्मिक मजहबों – यहूदी, ईसाई और इस्लाम – के बीच का टकराव है। इजराइल यहूदी मजहब का प्रतिनिधि है, जो इन तीनों में सबसे पुराना है। ईसाइयत बाद में आया, और उसमें चौथी सदी से यहूदियों के खिलाफ मजहबी उत्पीड़न शुरू हुआ। इसके बाद सातवीं सदी में इस्लाम का जन्म हुआ, जिसने अपने शुरुआती दौर से ही यहूदियों और अन्य गैर-मुस्लिमों के खिलाफ ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा लेकर जिहाद को अपनाया।

यह मजहबी संघर्ष, जिसने बीते सैंकड़ों वर्षों में लाखों निरपराधों की जान ली, उस चिंतन का नतीजा है जो मानता है – ‘सिर्फ उनका ईश्वर ही सच्चा है, बाकी सब झूठे।’ और यह भी कि जो कोई भी उनके मजहब को नहीं मानता, उसके पास सिर्फ दो रास्ते हैं – या तो वह उनके मजहब में शामिल हो जाए या फिर मौत को स्वीकार करे। यरुशलम का इतिहास इसी टकराव से भरा पड़ा है। यहूदी-रोमन युद्ध (66–73 ई.), बर्खोबा विद्रोह (132–135 ई.), यरुशलम की इस्लामी घेराबंदी (636-637), क्रूसेड (1095-1291 ई.), यरुशलम पर इस्लामी कब्जा (1187 ई.), ओटोमन साम्राज्य का अधिग्रहण (1517 ई.), अरब-इजराइल युद्ध (1948), छह-दिवसीय युद्ध (1967) और फिलिस्तीनी संघर्ष (अबतक) – ये सब अब्राहमिक मजहबों के बीच चली आ रही लड़ाई के अध्याय हैं। जब तक यह कट्टर और दूषित सोच जिंदा है, क्या तब तक दुनिया में अमन और स्थायी शांति मुमकिन है?

यदि हालिया इजराइल-ईरान युद्ध में पाकिस्तानी भूमिका को हरियाणवी शैली में सहेजने का प्रयास करें, तो कहा जा सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर का मोर बना दिया है। जिस समय इजराइल का साथ देते हुए अमेरिका ने ईरान में बमबारी की, तब पाकिस्तान के वास्तविक कर्ताधर्ता और शासक मुनीर राष्ट्रपति ट्रंप को “रणनीतिक दूरदर्शी और शानदार राजनीतिज्ञ” बताते हुए नोबल शांति पुरस्कार के लिए अनुशंसा कर रहे थे। संक्षेप में कहें, तो जब विश्व के अधिकांश मुसलमानों के साथ पाकिस्तान के लगभग सभी मुस्लिम मजहबी कारणों से ईरान का पक्ष ले रहे थे, तब पाकिस्तान न केवल इजराइल-अमेरिका की कार्रवाई का परोक्ष समर्थन कर रहा था, साथ ही अमेरिका द्वारा ईरान पर हमले में रणनीतिक भूमिका भी निभा रहा था। यह स्थापित करता है कि पाकिस्तानी सत्ता अधिष्ठान का तथाकथित इस्लाम के प्रति समर्पण, सम्मान और प्रेम – केवल एक जुमला है, जिसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं।

भारत के लिए ईरान और इजराइल – दोनों ही कूटनीतिक-सामरिक वजहों से मित्र राष्ट्र हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय नेतृत्व राष्ट्रहित में निष्पक्ष रहा। जिस समय पाकिस्तानी सेना प्रमुख अमेरिकी राष्ट्रपति के एक बुलावे पर वॉशिंगटन पहुंच गए और उसे ‘सम्मान’ समझा, वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप के अमेरिका आने के निमंत्रण को देशहित में नकार दिया। संक्षेप में कहें, तो दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के सामने भारतीय नेतृत्व ने झुकने से इनकार कर दिया। यह वैश्विक मुस्लिम समाज – विशेषकर दुनिया के इस क्षेत्र में बसने वाले मुसलमानों के लिए बड़ा संदेश है कि जिस पाकिस्तान को मुस्लिमों की मजहबी संवेदनाओं और अपेक्षाओं का प्रतीक माना जाता है, उसका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है और वह असल में अपने जन्म से औपनिवेशिक शक्तियों की कठपुतली बना हुआ है।

यह कई बार स्थापित हो चुका है कि इस्लामी ‘उम्माह’ (वैश्विक मुस्लिम एकता) केवल एक कल्पना मात्र है। कई मुस्लिम देश फिलिस्तीनियों से सहानुभूति तो प्रकट करते हैं, परंतु अपने हितों की खातिर उनको धोखा देने में संकोच भी नहीं करते। यदि हालिया संघर्ष में पाकिस्तान ने ईरान की पीठ में छुरा भोंका है, तो 1970 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। इजराइल, मिस्र और जॉर्डन के बीच 1970 में युद्धविराम हुआ था। इससे जॉर्डन में कई फिलिस्तीन समर्थक (शत-प्रतिशत मुस्लिम) नाराज हो गए और उन्होंने जॉर्डन में ही ‘फिलिस्तीन’ बनाने की कोशिशें शुरू कर दीं। तब उसी वर्ष सितंबर माह में जॉर्डन के राजा हुसैन ने विद्रोहियों को कुचलने का आदेश दिया। कई रिपोर्ट्य के अनुसार, इसमें लगभग 25,000 फिलिस्तीनी लड़ाके मारे गए थे। पाकिस्तानी सेना अधिकारी मुहम्मद जिया-उल-हक, जो बाद में पाकिस्तान के तानाशाह भी बने – उन्होंने जॉर्डन में हजारों फिलिस्तीनियों के इस कत्लेआम में रणनीतिक भूमिका निभाई थी।

बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है। अहमदिया मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई थी। सन् 1940 में ‘पाकिस्तान’ के मजहबी विचार को अहमदिया मुस्लिम नेता मोहम्मद जफरुल्लाह ने कलमबद्ध किया था, जो बाद में पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री बने और संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ पैरवी भी करते रहे। जब अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया, तब अहमदिया समुदाय के खलीफा मिर्ज़ा बशीर-उद-दीन महमूद अहमद ने भारत के खिलाफ ‘फुरकान फोर्स’ नामक सैन्यबल का गठन कर दिया। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस पाकिस्तान के लिए अहमदिया मुसलमानों ने लड़ाई लड़ी, उसी पाकिस्तान ने 1974 में उन्हें गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया। तब से उन्हें भी पाकिस्तान में अन्य ‘काफिरों’ की तरह मजहबी जुल्म और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।

यह अकाट्य सत्य है कि जिस प्रकार पाकिस्तान ‘काफिर’ भारत के अस्तित्व को मिटाने के लिए आतंकवादियों का इस्तेमाल करता है। वैसे ही इजराइल विरोधी हमास, हिजबुल्लाह और हूती जैसे आतंकवादी संगठनों का ईरान संरक्षक बना हुआ है। पाकिस्तान और ईरान की वैचारिक प्रतिबद्धता – एक ही मानसिकता से जुड़ी है। इसलिए जहां इजराइल-यहूदी अपने वजूद को बचाने के लिए सभ्यता युद्ध लड़ रहे हैं, वहीं भारत (हिन्दू) भी अपनी सनातन पहचान अक्षुण्ण रखने के लिए पाकिस्तान को जन्म देने वाली जहरीली मानसिकता और उसे खुराक देने वालों से संघर्षरत है।

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