भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में काकोरी कांड की भूमिका 

काकोरी कांड को अंजाम देने का मुख्य उद्देश्य यह था कि ब्रिटिश सरकार के खजाने से धन प्राप्त कर उसे स्वतंत्रता संग्राम में उपयोग किया जाए। इसके अलावा, इसका एक और उद्देश्य था कि इस घटना के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भारतीय जनता में क्रांतिकारी भावना जागृत की जा सके।

Aug 9, 2024 - 05:27
Aug 9, 2024 - 05:46
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में काकोरी कांड की भूमिका 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में काकोरी कांड की भूमिका 

काकोरी कांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई को एक नई दिशा दी। 9 अगस्त 1925 को, भारतीय क्रांतिकारियों के एक समूह ने उत्तर प्रदेश के काकोरी नामक स्थान पर एक ट्रेन को लूटकर ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी थी। इस घटना का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटना और उस धन का उपयोग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में करना था।

काकोरी कांड में शामिल प्रमुख क्रांतिकारियों के नाम और शहीदों के नाम इस प्रकार हैं:

काकोरी कांड के प्रमुख क्रांतिकारी:

  1. राम प्रसाद बिस्मिल काकोरी कांड के मुख्य नेता और योजना के प्रमुख संयोजक थे।

  2. चंद्रशेखर आज़ाद इस कांड में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और क्रांतिकारियों के दल का नेतृत्व किया था।

  3. अशफाक़ उल्ला खाँ बिस्मिल के करीबी सहयोगी और काकोरी कांड में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले थे।

  4. राजेन्द्र लाहिड़ी इस घटना में शामिल थे और एक प्रमुख क्रांतिकारी थे।

  5. शचींद्रनाथ बख्शी वे भी काकोरी कांड के संचालन में शामिल थे।

  6. मुकुन्दीलाल इस कांड में शामिल और क्रांतिकारी संगठन के सदस्य थे।

  7. गोविंद चरण कर काकोरी कांड के महत्वपूर्ण सदस्य थे।

  8. बनवारीलाल क्रांतिकारी दल के सदस्य और इस घटना में शामिल थे।

काकोरी कांड में शहीद हुए क्रांतिकारी उनके नाम 

राम प्रसाद बिस्मिल उन्हें 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई।

  1. अशफाक़ उल्ला खाँ   उन्हें 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी दी गई।

  2. राजेन्द्र लाहिड़ी  उन्हें 17 दिसंबर 1927 को गोंडा जेल में फांसी दी गई।

  3. ठाकुर रोशन सिंह उन्हें 19 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद जेल में फांसी दी गई।

इन चारों शहीदों को भारत की स्वतंत्रता संग्राम में उनके साहस और बलिदान के लिए याद किया जाता है। काकोरी कांड भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष को और प्रबल किया।

काकोरी कांड का उद्देश्य और योजना बनाई गई थी 

क्रांतिकारियों के इस समूह में प्रमुख सदस्य राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, सचिंद्रनाथ सान्याल, और अन्य साथी थे। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के बैनर तले ये सभी क्रांतिकारी एकत्र हुए थे। HRA का मुख्य उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराना था, जिसके लिए वे सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाने में विश्वास करते थे।

काकोरी कांड को अंजाम देने का मुख्य उद्देश्य यह था कि ब्रिटिश सरकार के खजाने से धन प्राप्त कर उसे स्वतंत्रता संग्राम में उपयोग किया जाए। इसके अलावा, इसका एक और उद्देश्य था कि इस घटना के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भारतीय जनता में क्रांतिकारी भावना जागृत की जा सके।

काकोरी कांड की घटना

9 अगस्त 1925 को, जब ट्रेन काकोरी के पास पहुंची, तो क्रांतिकारियों ने ट्रेन को रोककर उसमें मौजूद सरकारी खजाने को लूट लिया। यह लूटपाट ब्रिटिश सरकार के खजाने के खिलाफ सीधी चुनौती थी। हालांकि, इस घटना में कोई भी निर्दोष नागरिक हताहत नहीं हुआ, लेकिन ब्रिटिश सरकार इसे अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ मानकर इस पर गंभीरता से प्रतिक्रिया व्यक्त की।

क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी और मुकदमा

काकोरी कांड के बाद, ब्रिटिश सरकार ने एक बड़े पैमाने पर खोजबीन शुरू की और इसके परिणामस्वरूप कई प्रमुख क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अन्य साथी गिरफ्तार कर लिए गए। ब्रिटिश सरकार ने इस घटना को अत्यंत गंभीर अपराध मानकर क्रांतिकारियों पर मुकदमा चलाया।

मुकदमा और सजा भी करी गई थी 

काकोरी कांड का मुकदमा 1925 में शुरू हुआ और 1927 में समाप्त हुआ। इस मुकदमे में 40 से अधिक क्रांतिकारियों पर आरोप लगाए गए थे। मुकदमे के दौरान, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। इन चारों क्रांतिकारियों को 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई। इसके अलावा, कई अन्य क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास की सजा भी सुनाई गई।

क्रांतिकारियों की शहादत को प्राप्त किया 

राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, और रोशन सिंह की शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया जोश भर दिया। इनकी शहादत ने भारतीय जनता में स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना को और प्रबल कर दिया। इन क्रांतिकारियों ने अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया।

काकोरी कांड का महत्व क्यों जरुरी हो जाता है 

काकोरी कांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रतीक बन गया। इस घटना ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अब केवल अहिंसक आंदोलन तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसमें सशस्त्र संघर्ष का भी महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। काकोरी कांड ने भारतीय युवाओं में क्रांतिकारी भावना को जागृत किया और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।

काकोरी कांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसने भारतीय जनता में स्वतंत्रता के प्रति समर्पण और क्रांतिकारी भावना को जागृत किया। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, और रोशन सिंह की शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और इस संघर्ष को और भी प्रबल बना दिया। काकोरी कांड की क्रांतिकारी गाथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सदैव अमर रहेगी।

बात है 1 अगस्त, 1924 को शाहजहाँपुर से रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में सात क्रांतिकारियों का एक दल सहारनपुर से लखनऊ जानेवाली ट्रेन में सवार हुआ। उन लोगों के पास लोहे के संदूक को तोड्ने का सब सामान था। तीन क्रांतिकारियों को काकोरी स्टेशन से दूसरे दर्जे के डिब्बे में सवार होने का निर्देश दिया गया। ये तीन क्रांतिकारी थे-शचींद्रनाथ बख्शी, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और अशफाक उल्ला खाँ। इन लोगों को यह भी निर्देश था कि जब ट्रेन काकोरी स्टेशन से कुछ दूर आगे बढ़ जाए तो वे जंजीर खींचकर ट्रेन रोक दें। बख्शी, लाहिडी और अशफाक ने अपना पार्ट बखूबी अदा किया। वे काकोरी स्टेशन से ट्रेन के दूसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हुए तथा जब गाड़ी काकोरी स्टेशन और आलमपुर स्टेशन के बीच पहुँची तो उन्होंने जंजीर खींच दी।

धीरे-धीरे करके ट्रेन रुक गई। वह शाम का समय था। सूरज डूब चुका था और कुछ-कुछ अँधेरा हो गया था। गाड़ी रुकने के साथ ही गार्ड नीचे उतरा और उस डिब्बे की ओर जाने लगा, जहाँ जंजीर खींची गई थी। सभी क्रांतिकारी ट्रेन से नीचे कूद पडे और वे गोलियाँ चलाने लगे। उन्होंने मुसाफिरों को खिड़कियाँ बंद कर लेने और नीचे न उतरने की चेतावनी दे दी गार्ड को जमीन पर पेट के बल लेट जाने का आदेश दिया गया। ड्राइवर को भी इसी प्रकार लिंटा दिया गया। संदूक को नीचे गिराकर उसे तोड़ने के लिए उसपर हथौड़े के प्रहार किए जाने लगे | उसमें एक सूराख तो हो गया, पर वह बड़ा नहीं हो रहा था। सब लोग परेशान थे कि अब क्या किया जाए। अशफाक उल्ला खाँ गाड़ी को घेरे हुए फायर कर रहे थे। संदूक टूटते न देख उन्होंने अपना माउजर पिस्तौल मन्मथनाथ गुप्त को दिया और वे स्वयं कुल्हाड़ा लेकर लोहे के संदूक पर पिल पड़े वे काफी लंबे-चौड़े और बलिष्ठ पठान थे। अपनी पूरी ताकत के साथ उन्होंने संदूक पर वार किए और उसमें इतनी बड़ी दरार पैदा कर ` दी कि उसमें हाथ डालकर, नोटों की गड़ियोंवाले सभी थैले निकालकर एक चादर में बाँध लिये गए। जब संदूक तोड़ने का काम चल रहा था तो एक गुरखा सिपाही ने बंदूक लेकर नीचे उतरने का प्रयास किया।

एक क्रांतिकारी ने उसपर गोली चला दी और वह गिरकर समाप्त हो गया। एक अन्य व्यक्ति ने खिड़की के बाहर हाथ निकालकर अपनी पिस्तौल से एक क्रांतिकारी को निशाना बनाना चाहा; पर वह ऐसा करे, इसके पहले एक गोली उसके हाथ में जाकर लगी और पिस्तौल उसके हाथ से नीचे गिर पड़ी । जिस ट्रेन को क्रांतिकारियो ने लूटा, उसमें चौदह व्यक्तियों के पास बंदूकें थीं। इनमें से दो फौजी अंग्रेज अफसर भी थे। उनमें से एक तो बेंच के नीचे घुस गया और दूसरा चला तो संडास के अंदर छिप गया। ट्रेन लूट लेने के पश्चात्‌ क्रांतिकारी लोग जंगल के रास्ते से लखनऊ जा पहुँचे। अशफाक उल्ला खाँ का कथन बिलकुल सही निकला। ट्रेन डकैती ने सरकार को सीधी चुनौती दी और उसके जासूस अपराधियों का पता लगाने में जुट गए। एक क्रांतिकारी भूल से अपनी खादी की चादर घटनास्थल पर भूल गया, जिसके कारण पुलिस इस नतीजे पर पहुँची कि ट्रेन डकैती सामान्य न होकर राजनीतिक है। जासूसी विभाग के अफसर मि. हर्टन ने बहुत तत्परता दिखाई। उन्होंने शासन के सामने प्रस्ताव रखा कि प्रमाण मिलने की प्रतीक्षा न करके एक साथ सभी संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया जाए। उनका विश्वास था कि प्रमाण तो बाद में मिल ही जाएँगे। उनकी बात मान ली गई और देश-भर में २६ सितंबर, १९२५ को सुबह चार बजे विभिन्न स्थानों पर छापे मारकर कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। रामप्रसाद बिस्मिल भी शाहजहाँपुर में अपने घर से गिरफ्तार हो गए। अशफाक उल्ला खाँ के घर को भी पुलिस ने घेर लिया; पर पुलिस की हलचल देख वे पिछले दरवाजे से खिसक गए और अपने घर से लगभग एक मील की दूरी पर गन्ने के खेत में जा छिपे।

जब पुलिस को अशफाक हाथ नहीं लगे तो वह उनके भाई की बंदूक उठा ले गई। दो-एक दिन अशफाक गन्ने के खेत में ही छिपे रहे। वहीं उनका खाना पहुँचा दिया जाता था। आखिर उन्होंने शाहजहाँपुर छोड़ना तय कर लिया। होते-करते अशफाक उल्ला खाँ बनारस जा पहुँचे । बनारस के उनके साथी गिरफ्तार हो चुके थे। कुछ क्रांतिकारी विचारों के युवक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रावासों में रहते थे।इन युवकों से अशफाक की अच्छी मित्रता हो गई और वे कभी इस छात्रावास में तो कभी उस छात्रावास में रहने लगे। अशफाक हिंदू नाम धारण करके हिंदू लिबास में रहते थे। हिंदू शिष्टाचार और रहन-सहन की बारीकियों तक से वे परिचित थे और किसीको तनिक भी संदेह नहीं हुआ कि वे मुसलमान हैं। कुछ दिन बनारस रहने के पश्चात्‌ अशफाक उल्ला खाँ राजस्थान निकल गए और वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी अर्जुनलाल सेठी के परिवार में रहने लगे। इस परिवार में उन्हें काफी स्नेह मिला । सेठीजी की पुत्री उनका बहुत ध्यान रखती थी । अशफाक 

ने जब देखा कि सेठीजी के परिवार का स्नेह उनके लिए बंधन न बन जाए तो वे सेठीजी से अनुमति लेकर वहाँ से चल दिए। बाद में, जब वे गिरफ्तार हुए और उनको फॉँसी हुई तो अर्जुनलाल सेठी की पुत्री को इतना धक्का लगा कि वह बीमार पड़ गई और बच न सकी।

राजस्थान छोड़कर अशफाक बिहार जा पहुँचे। वे पलामू के डाल्टनगंज में रहने लगे। प्रजा कार्य विभाग के दफ्तर में उन्हें एक नौकरी भी मिल गई और वे दफ्तर के बाबू की तरह काम करने लगे। लगभग आठ महीने तक उन्होंने यह नौकरी की। उन्होंने स्वयं को मधुरा जिले के एक कायस्थ परिवार का व्यक्ति घोषित किया था। अपनी उर्दू जुबान के कारण उन्हें कायस्थ बनने में कोई कठिनाई नहीं हुई। डाल्टनगंज में रहकर अशफाके ने बँगला भाषा सीख ली और वे बँगला भाषा में बखूबी बातचीत करने लगे तथा बँगला गीत गाने लगे।

जिस दफ्तर में अशफाक काम कर रहे थे, उसका इंजीनियर शायरमिजाज था। जब उसे मालूम पड़ा कि उसके दफ्तर का एक बाबू भी शायरी करता है तो वह अशफाक को अपने साथ मुशायरों में भी ले जाने लगा। अशफाक के कारण इंजीनियर साहब का रुतबा बढ़ता था। इंजीनियर साहब ने खुश होकर अशफाक का वेतन बढ़ा दिया। शायर के रूप में भी अशफाक को अच्छी ख्याति मिली। वह इंजीनियरिंग के काम को भी समझने लगा और उसके मन में खुद इंजीनियर बनने का विचार पैदा हुआ। इसके लिए उसे प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक था। उसने तय किया कि वह अफगानिस्तान होते हुए रूस पहुँचकर वहाँ इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करेगा । अफगानिस्तान पहुँचने के लिए पासपोर्ट आदि बनवाने की गरज से अशफाक उल्ला खाँ दिल्ली जा पहुँचा।

दिल्ली में अशफाक उल्ला खाँ अपने एक मुसलमान मित्र के साथ ठहरा, जो शाहजहाँपुर का ही रहनेवाला था और उसका सहपाठी भी था। पास में ही एक मुसलमान इंजीनियर महोदय भी रहते थे, जिनसे अशफाक को जान-पहचान हो गई और वह उनके यहाँ आने-जाने लगा। इंजीनियर साहब को युवा पुत्री को अशफाक बहुत पसंद आ गया। एक दिन उस लड़की ने अपनी नौकरानी के हाथ एक पत्र भी अशफाक के पास भेजा। अशफाक ने शिष्टाचारवश उस पत्र का संक्षिप्त उत्तर दे दिया और उस लड़की को समझाया कि वह संबंध बढ़ाने की कोशिश न करे। अशफाक ने उसके घर जाना-आना भी बंद कर दिया। एक दिन अशफाक को एकांत में देख वह लड़की उसके पास पहुँच गई और प्रणय-निवेदन कर बैठी। अशफाक यह तो नहीं बता सकता था कि वह एक फरार क्रांतिकारी है और फाँसी का फ़ंदा उसके सिर पर लटक रहा है। उसने कई अन्य तरीकों से उस लड़की से यह कह दिया कि उन दोनों की शादी संभव नहीं है। यह अशफाक के आकर्षक व्यक्तित्व, मीठी जुबान और पूर्ण शिष्टाचार का ही परिणाम था कि लड़कियाँ उसे चाहने लगती थीं; पर वह अशफाक ही था, जिसने अपने चरित्र को सदैव ही ऊँचा रखा और उसने किसीका जीवन बरबाद नहीं किया। अशफाक अपने जिस मित्र के साथ ठहरा हुआ था, उसके दिल में दगा पैदा हो गई | अशफाक की गिरफ्तारी के लिए सरकार ने भारी इनाम घोषित कर रखा था।

पुरस्कार के लालच में उसके मुसलमान मित्र ने उसे गिरफ्तार करा दिया। न मजहब काम आया, न एक गाँव का होना काम आया और न सहपाठी होना भी। एक दगाबाज ने अपने मित्र को ही पुलिस के हाथों सौंप दिया। गिरफ्तार करके अशफाक उल्ला खाँ को लखनऊ जेल में रखा गया। उस समय तक काकोरी कांड के उसके अन्य साथियों के भाग्य का फैसला हो चुका था और अपील आदि की प्रक्रिया चल रही थी। इसी समय भागलपुर से काकोरी कांड के एक अन्य अभियुक्त शचांद्रनाथ बख्शी को भी गिरफ्तार करके लखनऊ लाया गया। अशफाक जब डाल्टनगंज में रह रहा था तो शचीद्रनाथ बख्शी भी कभी हजारीबाग और कभी भागलपुर में रहकर अपना फरारी का जीवन व्यतीत कर रहे थे। दोनों को एक-दूसरे के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था। काकोरी कांड के पूरक के रूप में इन दोनों का मुकदमा चला। जब पहले दिन ये लोग अदालत में मिले, तो ऐसा व्यबहार किया जैसे एक-दूसरे को जानते ही नहीं | यद्यपि एक-दूसरे से लिपट जाने के लिए वे बेताब हो रहे थे, पर फिर भी अजनबियों जैसा व्यवहार कर रहे थे। पुलिस और जेल के अधिकारी भी उनके नकली व्यवहार को समझ रहे थे। दोनों एक-दूसरे के पास अदालत के बाहर खड़े हुए थे। जेल के अधिकारी ने चालाकी के साथ काम लिया। उसने शचींद्रनाथ बख्शी को नाम लेकर पुकारा। नाम सुनकर अशफाक बख्शीजी की तरफ मुखातिब हुए और बोलेअच्छा आप ही शचींद्रनाथ बख्शी हैं ! मैंने आपकी बड़ी तारीफ सुन रखी है।'' शचींद्रनाथ बख्शी ने अशफाक के साथ सीधे बात न करके जेल के अधिकारी से उसका परिचय जानने के लिए पूछाकया आप मुझे इनका परिचय देंगे, जो मुझसे सवाल कर रहे हैं ?'” जेल के अधिकारी ने कहा-“ये प्रसिद्ध क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खाँ हैं।'' इसपर बख्शी अशफाक से मुखातिब होकर बोल उठे अच्छा, आप ही अशफाक उल्ला खाँ हैं! मैने भी आपकी बहुत तारीफ सुन रखी है ।''

यहाँ तक तो नाटक सफलतापूर्वक निभ गया; पर भावनाओं का इतना जोरदार विस्फोट हुआ कि वह अभिनय न जाने कहाँ उड़ गया और अगले ही क्षण दोनों एक-दूसरे के प्रगाढ आलिंगन में बँध गए। पुलिस और जेलवालों ने जब उन दोनों को इस प्रकार गले मिलते देखा तो उन सभी ने तालियाँ बजा दीं। जेल अधिकारी कह उठा '' राम और भरत का यह मिलन देखने के लिए ही तो हम लोग तरस रहे थे। जब तक उनका पूरक मुकदमा चला, दोनों को एक साथ ही रखा गया। जी भरकर वे दोनों एक-दूसरे के साथ रहे।

आखिर उनके पूरक मुकदमे का फैसला भी सुना दिया गया। अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी का दंड घोषित किया गया था और शचींद्रनाथ बख्शी को आजीवन कालापानी का। यह दंड सुनकर अशफाक उल्ला खाँ तो प्रसन्नता के मारे खिल उठे, पर शचींद्रनाथ बख्शी शोक समुद्र में डूब गए। निराश होकर उन्होंने जज की ओर मुखातिब होकर कहा-- “एक ही जुर्म के लिए आपने दो प्रकार की सजाएँ देकर हम लोगों को अलग-अलग क्यों कर दिया ?''

फैसला सुनाने के पश्चात्‌ उन दोनों को पृथक्‌-पृथक्‌ जेलों में रखा गया। फाँसी की सजा पाकर अशफाक उल्ला खाँ अपने अन्य साथियों की पंक्ति में पहुँच गए, जिन्हें फाँसी के दंड घोषित किए गए थे। वे थे-रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशनसिंह और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी।

फाँसी की सजा पाए हुए क्रांतिवीरों के पक्ष में जनता ने आंदोलन खड़ा किया | क्रांतिकारियों ने भी फैसले के विरुद्ध अपील की। अशफाक उल्ला खाँ से भी अपील पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया। अशफाक का उत्तर था-- “मैं परवरदिगार खुदाबंद के अलावा और किसौसे माफी नहीँ माँग सकता।''

आखिर रामप्रसाद बिस्मिल के बहुत आग्रह पर अशफाक ने अपील पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। अपील का कोई सुपरिणाम नहीं निकला। अपील खारिज को जाकर अशफाक उल्ला खाँ को फैजाबाद जेल भेज दिया गया। अशफाक को तोड़ने की पुलिस के अफसरों ने भी जी-तोड़ कोशिश की थी, पर अशफाक ने किसी एक की न सुनी। अशफाक से पुलिस सुपरिंटेंडेंट ऐनुद्दीन बार-बार कहता--'तुम इन हिंदुओं के बहकावे में क्यों आ गए? ये लोग 

तो अंग्रेजों को हटाकर अपना हिंदू राज कायम करना चाहते हैं।'' एक दिन तंग आकर अशफाक ने कह ही दिया-- '“ जनाब! अंग्रेजी राज से हिंदू राज कहीं बेहतर होगा ।'' पुलिस अधीक्षक महोदय अपना-सा मुँह लेकर लौट गए। उन्होंने फिर कभी अशफाक को फुसलाने की कोशिश नहीं की। फैजाबाद जेल के अंदर अशफाक फाँसी के दिन का इंतजार कर रहे थे। एक दिन १७ दिसंबर, १९२७ को जेल के अधिकारी कृपाशंकर हजेला के साथ उनके दोनों बड़े भाई रियासत उल्ला खाँ और शहंशाह खाँ मुलाकात के लिए

पहुँचे। वे अपने साथ अपने बच्चों अर्थात्‌ अशफाक के भतीजों को भी साथ ले गए थे। अशफाक को देखकर दोनों भाइयों की आँखों में आँसू आ गए। उनके भतीजे तो जोर-जोर से रोने लगे। उन्हें इस प्रकार रोते देखकर शिकायत-भरे लहजे में अशफाक ने हजेला साहब से कहा--

'' हजेला साहब! आप इन लोगों को साथ क्यों लाए? ये रोने का मौका है कि खुश होने का! आप इन्हें बताइए कि हिंदुओं में खुदीराम बोस व कन्हाईलाल दत्त और दीगर सैकड़ों फाँसी के तख्तों पर चढ़कर यह सबूत दे चुके हैं कि वे भारत माता के बेटे थे। भाई, एक मुसलमान को भी तो फाँसी पर चढ़कर एक सबूत देने दो कि मुसलमान भी भारत माता के बेरे हैं । मैं मुसलमानों में पहला खुशनसीन हूँ, . जिसे सबूत देने का मौका मिल रहा है।'' अपनी कोठरी के सामने कुछ अन्य कोठरियों की ओर उँगली का संकेत करते हुए अशफाक ने फिर कहना प्रारंभ किया--

' उन कोठरियों की तरफ देखिए! उन तीन कोठरियों में तीन सगे भाई यानी एक माँ की कोख से पैदा हुए, एक बाप के तीन बेटे बंद होकर फाँसी का इंतजार” कर रहे हैं। सिर्फ डेढ़ सेर राब के ऊपर झगड़ा कर बैठने और दो आदमियों के कत्ल के अपराध में उन तीनों भाइयों को मौत की सजा मिलेगी। जब फकत डेढ़ सेर राब को खातिर वे फाँसी पर चढ़ सकते हैं, तो मेरे ऊपर तो बरतानिया हुकूमत के खिलाफ जंग छेड्ने और उनसे हिंदुस्तान का साम्राज्य छीन लेने का मुकदमा चला - है। क्या यह सुकदमा जान को बाजी लगाने लायक नहीं था? फिर रोने-धोने की

क्या बात है ? इन्हें तो खुश होना चाहिए कि इनका भाई या इनका चाचा अपने मुल्क के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर फाँसी पर चढ़ रहा है। इसके बाद कागज के दो मुडे हुए परचे अपने भाई रियासत उल्ला खाँ की ओर बढ़ाते हुए अशफाक ने कहा “इनमें से एक तार है, जो मैने गणेशशंकर विद्यार्थीजी के नाम लिखा है। 

जेल से बाहर जाते ही यह तार आप उन्हें करना न भूलें। यह दूसरा परचा उन्हींके नाम लिखा गया खत है।यह भी आप जल्दी-से-जल्दी उनके पास पहुँचा दीजिए।'' तार के अंदर अशफाक ने गणेशशंकर विद्यार्थी को लिखा था ' १९ दिसंबर को दिन के दो बजे लखनऊ स्टेशन पर मुझसे मुलाकात करें । उम्मीद है, आप मेरी इल्तिजा कुबूल फरमाएँगे।'

१९ दिसंबर, १९२७ की सुबह आ पहुँची । अशफाक ने अपने लिए खासतौर से मँगवाए गए नए कपड़े पहने | उन कपड़ों पर उसने इत्र छिड़का और ' कुरानशरीफ' का बस्ता कंधे पर टाँगकर कलमा पढ़ते हुए खुशी-खुशी फाँसी के तख्ते की तरफ चल दिया। तख्ते पर चढ़ने के पहले अशफाक ने उसका चुंबन किया और फिर लटकती हुई रस्सी की ओर देखकर बोला--'' मेरी महबूबा, मुझे मालूम था कि निकाह के लिए तू मेरा इंतजार कर रही थी। ले, मैं आ गया और हम दोनों अब इस तरह मिलेंगे कि कोई हमें जुदा नहीं कर सकेगा।''

अशफाक के गले में फाँसी का फंदा डाला गया | खुदा का नाम लेते हुए वह क्रांतिवीर खुशी-खुशी फंदे पर झूल गया और सिद्ध कर गया--मुसलमान भी तो भारत माता की संतान हैं। फैजाबाद की जेल में अशफाक उल्ला खाँ का वह शेर गूँजता रहा, जो मरने के कुछ समय पहले उसने पढ़ा था “तंग आकर हम भी उनके जुलम के बेदाद से, चल दिए सूए अदम जिंदाने फैजाबाद से।

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