भारत सरकार द्वारा कुछ स्मारकों को राष्ट्रीय महत्व के स्मारक

भारत सरकार द्वारा कुछ स्मारकों को “राष्ट्रीय महत्व के स्मारक” के रूप में निर्धारित किया गया है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ये स्मारक कौन से होते हैं और क्या विशेषता होती है जो उन्हें राष्ट्रीय महत्व का स्मारक बताते हैं? ये वे स्मारक होते हैं, जो कम से कम 100 वर्ष पुराने होते

Dec 5, 2024 - 21:03
Dec 6, 2024 - 05:18
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भारत सरकार द्वारा कुछ स्मारकों को राष्ट्रीय महत्व के स्मारक

भारत सरकार द्वारा कुछ स्मारकों को “राष्ट्रीय महत्व के स्मारक” के रूप में निर्धारित किया गया है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ये स्मारक कौन से होते हैं और क्या विशेषता होती है जो उन्हें राष्ट्रीय महत्व का स्मारक बताते हैं? ये वे स्मारक होते हैं, जो कम से कम 100 वर्ष पुराने होते हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक, पुरातात्विक या कलात्मक महत्ता होनी चाहिए और वे ऐसी इमारत हों जिनसे जनता को किसी भी प्रकार की आपत्ति न हो।

ऐसा ही एक स्मारक था जॉन निकॉल्सन की एक प्रतिमा, जो दिल्ली मे कश्मीरी गेट के पास लगी है, जहां पर निकॉल्सन 1857 की क्रांति के दौरान मारा गया था। जॉन निकॉल्सन की प्रतिमा को हालांकि वर्ष 1947 के बाद हटाया जा चुका था, मगर फिर भी उस स्थान को अभी तक राष्ट्रीय महत्व के स्मारक के रूप में चिन्हित किया गया था। इसे वर्ष 1913 में राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया गया था। मगर अब पूरे 111 वर्षों के बाद इस स्थल से यह पहचान ले ली गई है।

कौन था जॉन निकॉल्सन

यह प्रश्न उठता है कि आखिर जॉन निकॉल्सन था कौन? जॉन निकॉल्सन आयरलैंड से आया एक ब्रिटिश अधिकारी था, जो ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करता था। उसने पहला अफ़गान युद्ध लड़ा था और उसके पास कश्मीर और पंजाब में प्रशासनिक भूमिकाएं थीं। निकॉल्सन ने वर्ष 1848-49 के दौरान दूसरे सिख युद्ध में भी हिस्सा लिया था।

उसका व्यवहार भारत के लोगों के प्रति बहुत ही बुरा था। वह भारतीयों को सार्वजनिक रूप से अपमानित करता था और उन्हें बहुत कड़ी सजा देता था और यही कारण है कि उसे कई इतिहासकार मनोरोगी भी कहते हैं।

मगर भारत में एक समय ऐसा भी था, जब लोग ऐसे इंसान को जो भारत में रहने वाले लोगों का ही अपमान करता था, उसे जीवित देवता मानते थे। कुछ ही समय पहले जॉन निकॉल्सन के जीवन पर एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। उस पुस्तक में लिखा है कि जॉन निकॉल्सन ने अपने करियर के अधिकांश समय भारत के विवादित और खतरनाक उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र में काम किया और यहीं पर उसकी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गई कि महान देवता “निकल सेन” की पूजा के लिए समर्पित एक नया पंथ ही आरंभ हो गया।

independent.co.uk में प्रकाशित इस किताब की समीक्षा में लिखा है कि हालांकि जॉन निकॉल्सन के सहकर्मी इस घटना से बहुत खुश हो गए थे मगर निकॉल्सन, जो एक कट्टर ईसाई था, और बाइबिल का एक अध्याय रोज पढ़ता था, उसने इस मूर्तिपूजा को अच्छी दृष्टि से नहीं लिया और उसने अपने अनुयाइयों को कोड़ों से मारा। मगर इसके बाद उनका विश्वास और भी गहरा हो गया कि वह एक देवता है और यह संप्रदाय अभी हाल तक भारत में रहा था।

जॉन निकॉल्सन की ज़िंदगी को कई लेखकों ने बहुत ही लोकप्रिय देशभक्ति वाली कविताओं में ढाला है और रुडयार्ड किपलिंग ने भी KIPLING’S INDIA में 1857 की क्रांति को सिपाही विद्रोह बताते हुए जॉन निकॉल्सन की वीरता की बात की है। उसने कश्मीरी गेट का भी उल्लेख किया है।

मगर यह एकतरफा कहानियाँ हैं। भारतीयों को माफ न करने का उसका व्यवहार कुख्यात था। दो घटनाएं इस पोर्टल पर दी गई हैं। एक घटना में एक भारतीय ने उसके सामने सड़क पर थूक दिया था। वह उसे अपना अपमान लगा था और उसने उस व्यक्ति से जबरन उसका अपना थूक चटवाया था।

दूसरी घटना में एक मस्जिद का इमाम उसे सलाम करना भूल गया तो उसने उस इमाम की दाढ़ी अपने हाथों से काट दी थी।

1857 की क्रांति के दौरान निकोलसन ने व्यक्तिगत रूप से आदेश दिया और रेजिमेंट के रसोइयों के एक पूरे समूह को बिना किसी जांच और सवालों के फांसी पर लटका दिया था क्योंकि उस सूप में जहर पाया गया था जिसे वे उसके अधिकारियों के लिए तैयार कर रहे थे।

जहर किसने मिलाया, इसकी जांच नहीं की गई, पड़ताल नहीं की गई और पूरी रेजीमेंट के रसोइयों को फांसी पर लटका दिया गया था। उसे इतिहासकार ऐसे गुंडे के रूप में बताते हैं जिसे दूसरों को कष्ट में देखकर खुशी मिलती थी।

ऐसे जॉन निकॉल्सन की मूर्ति जरूर आयरलैंड में पहुँच गई है, मगर उसकी मौत की जगह को अभी तक राष्ट्रीय महत्व का स्थान बनाए रखना भारतीयों के साथ बहुत बड़ा अन्याय था। लोगों को तो पता भी नहीं होगा कि ऐसे स्थलों को राष्ट्रीय महत्व के स्मारक के रूप में अभी तक मान्यता दे रखी थी।

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