वेदांत दर्शन के प्रवक्ता स्वामी चिन्मयानंद
भारत में संन्यासियों की एक विराट परम्परा रही है, जो आज भी अनवरत जारी है। आठ मई, 1916 को केरल के एर्नाकुलम में जन्मे स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इसी परम्परा के एक तेजस्वी नक्षत्र थे। उन्होंने वेदांत के द्वारा धर्म की युगानुकल व्याख्या कर अनेक भ्रांतियों को दूर किया। उनका बचपन का नाम बालकृष्ण मेनन था। उनके पिताजी एक न्यायाधीश थे, अतः घर में पढ़ने लिखने का पर्याप्त वातावरण मौजूद था।
बालकृष्ण ने कक्षा 12 तक विज्ञान पढ़ा। इसके बाद उनके पिताजी का स्थानांतरण त्रिचूर हो गया। वहां उन्होंने कला विषयों का अध्ययन किया। यहां से बी.ए. करने के बाद वे लखनऊ आ गये और एम.ए. तथा कानून की पढ़ाई की। इस दौरान उनका रुझान अंग्रेजी साहित्य की ओर भी हुआ। पढ़ाई पूरी कर कुछ समय मि. टैªम्प के छद्म नाम से उन्होंने पत्रकारिता की। उनके लेखों में समाज के निर्धन और निर्बल लोगों की व्यथा का चित्रण होता था, जो सत्ताधीशों और सम्पन्न लोगों को पंसद नहीं आता था। अतः उन्होंने अध्यात्म की राह ली और ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद के पास आ गये।
शिवानंद जी भी दक्षिण भारत के ही थे। इस कारण दोनों में अत्यधिक घनिष्टता हो गयी। यद्यपि बालकृष्ण तर्कवादी थे। हिन्दू धर्म की रूढि़यों और कुरीतियों से खिन्नता के बावजूद वे श्रद्धापूर्वक आश्रम के सभी नियम मानते थे। कुछ समय बाद उन्होंने शिवानंद जी से संन्यास की दीक्षा ली। इससे उनका नाम चिन्मयानंद सरस्वती हो गया। अब उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकांनद, ऋषि अरविंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि रमण आदि के साहित्य को पढ़ा। इससे उनके जीवन को नवीन दिशा मिल गयी।
स्वामी शिवानंद के आदेश पर उत्तरकाशी में स्वामी तपोवन के पास रहकर उन्होंने उपनिषद का अध्ययन तथा शांति, विरक्ति और संयम का अभ्यास किया। फिर उनकी आज्ञा से वे जीवन की अगली यात्रा पर चल दिये। उन्होंने एक मास का पहला ज्ञान यज्ञ पुणे तथा दूसरा चेन्नई में किया। फिर इसका समय घटाकर उन्होंने सात दिन कर दिया। उनकी व्याख्या इतनी तर्कपूर्ण, सरल और सहज होती थी कि देश और विदेश से उनके प्रवचनों की मांग होेने लगी। अतः उन्होंने मुंबई में सांदीपनि आश्रम की स्थापना की और वहां युवा ब्रह्मचारियों को प्रशिक्षित करने लगे। आठ अगस्त, 1953 को उनके कुछ शिष्यों ने मिलकर उनकी अनुपस्थिति में ही ‘चिन्मय मिशन’ की स्थापना की।
![स्वामी चिन्मयानंद: आध्यात्मिक चिंतक, वेदान्त दर्शन के विद्वान, विश्व धर्म संसद में किया था हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व](https://panchjanya.com/wp-content/uploads/2023/08/swamiji.png)
मिशन का उद्देश्य सनातन धर्म, गीता और उपनिषद के आधार पर दुनिया के किसी भी व्यक्ति को वेदांत का ज्ञान प्रदान करना है। क्रमशः इसकी शाखाएं बढ़ती गयीं। वर्तमान में इसके 200 केन्द्र भारत में और 100 से अधिक केन्द्र विदेश में हैं। मिशन से संबंधित सैकड़ों संस्था, समिति, न्यास आदि का संचालन ‘केन्द्रीय चिन्मय मिशन न्यास’ करता है। विद्यालय, स्वाध्याय मंडल, बाल विहार, युवा केन्द्र, अस्पताल आदि भी चलाये जाते हैं। स्वामी जी के प्रवचन तथा उनकी पुस्तकों का प्रकाशन भी होता है। संस्था के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सभी आधुनिक माध्यमों का प्रयोग किया जाता है।
स्वामी जी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर से बहुत प्रेम था। 1964 में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना सांदीपनी आश्रम में ही हुई थी। वे देश और विदेश में लगातार भ्रमण करते रहते थे। 1893 में शिकागो में धर्म संसद हुई थी, जिसमें स्वामी विवेकानंद गये थे। उसके शताब्दी समारोह में उन्हें जाना था; पर उससे पूर्व तीन अगस्त, 1993 को अमरीका के सेन डियागो में उनका निधन हो गया। उनके जाने के बाद भी चिन्मय मिशन के माध्यम से उनके शिष्य उनके काम को आगे बढ़ा रहे हैं।