श्री वराहगिरि वेंकटगिरि

श्री वराहगिरि वेकटगिरि का नाम भारत के प्रमुख मजदूर नेताओं

Mar 19, 2024 - 21:54
Mar 19, 2024 - 22:02
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श्री वराहगिरि वेंकटगिरि

श्री वराहगिरि वेंकटगिरि


श्री वराहगिरि वेकटगिरि का नाम भारत के प्रमुख मजदूर नेताओं में बड़े आदर से लिया जाता है। पढ़ाई-लिखाई समाप्त करने के तुरन्त बाद ही ये देश के मजदूर आन्दोलनों में भाग लेने लगे। धीरे-धीरे इनका कार्य-क्षेत्र बढ़ता गया और सारे देश को मजदूर इन्हें अपना शुभ चिन्तक और नेता मानने लगे।

वराहगिरी वेंकट गिरि की जीवनी | Biography of Varahagiri Venkata Giri -  YouTube

मजदूरों की भलाई के लिए जो कुछ गिरि साहब ने किया वह हमेशा- हमेशा याद किया जायेगा। गिरि महोदय हमारे देश के बौधे राष्ट्रपति थे। डॉ० जाकिर हुसेन के असमय दिवंगत हो जाने पर ये इस पद पर आसीन हुए थे। श्री वराहगिरि वेकटगिरि का जन्म १० अगस्त सन् १८९४ को उड़ीसा के बरहानपुर नामक स्थान में हुआ। इनके पिता श्री जोगेया पन्तुल अपने जमाने के अच्छे वकीलों में गिने जाते थे। श्री गिरि ने मद्रास में रहकर सीनियर केम्बिज परीक्षा पास की और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आयरलैण्ड बले गये।


वैसे इनके पिताजी इन्हें इंगलैंड भेजना चाहते थे परन्तु गिरि साहब ने आयरलैण्ड जाना पसन्द किया क्योंकि आयरलैण्ड की हालत और समस्या भारतवर्ष जैसी ही थी। आयरिश लोग भी भारतीयों की तरह गुलामी की जंजीरे तोड़ने की जी-तोड़ कोशिशे कर रहे थे। इस तरह उन्होने एक पंथ दो काज वाली कहावत पर अमल कर दिखाया।


आयरलैण्ड पहुँचकर गिरि जी ने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए भी काम करना शुरू कर किया। सन् १९१४ में अफ्रीका में मजदूरी करने के लिए ले जाये गये भारतीयों ने सम्मानजनक जीवन जीने के लिए 'समान अधिकार'-आन्दोलन शुरू किया तो मजदूर नेता श्री गिरि ने उन लोगों की सहानूभूति में कुछ करने-धरने का निश्चय किया । डबलिन की 'इंडिया सोसायटी' की ओर से इन्होंने भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों का विरोध किया। श्री गिरि ने दक्षिण अफ्रीका का आतंक' शीर्षक एक पुस्तक लिखी।

My humble tributes to India's 4th president, Shri Varahagiri Venkata Giri  on his birth anniversary today.

इस पुस्तक की डेढ़ दो लाख प्रतियाँ छपाई गयी और दुनिया भर के तमाम देशों में पहुँचाई गयी। भारत में भी उसकी कुछ प्रतियां आयी और अंग्रेज शासकों के हाथ लगी तो ब्रिटिश सरकार के अंग्रेज अधिकारी आग-बबूला हो गये। अंग्रेजों ने जासूस लगाकर पता करने की कितनी ही कोशिशें की, फिर भी जान न सके कि इस पुस्तक को किसने लिखा और कहाँ छपाया। कुछ दिनों बाद अंग्रेजों को किसी तरह यह मालूम हो गया कि पुस्तक आयरलैण्ड में छपी थी पर इसके लेखक के बारे में उन्हे कुछ न मालूम हो सका। अतः श्री गिरि जेल जाने से बच गये। इससे गिरिजी का साहस दूना हो गया। ये और ज्यादा जोर-शोर के साथ काम करने लगे। सन् १९१४ में महात्मा गाँधी जब इंग्लैण्ड गये तो श्री गिरि ने लन्दन जाकर उनसे मुलाकात की।


वैसे गिरि साहब गरम विवारों के व्यक्ति रहे हैं जब कि गांधी जी नरम विचारों के आदमी थे और दोनों में अनेक मतभेद थे परन्तु भारत की स्वतंत्रता के लिए गिरि साहब ने गाँधी जी के निर्देशानुसार ही काम करने का फैसला लिया। श्री गिरि ने गांधी जी द्वारा संबालित 'सत्याग्रह आन्दोलन' को बहुत पसन्द किया और वे अहिंसा के समर्थक बन गये। वैसे श्री गिरि खुद मजदूर कभी नहीं रहे, फिर भी वे मजदूरों की वकालत करने में कुशल थे। शुरू से ही उनका सिद्धांत रहा कि काम की पूरी मजूदरी मिलना परमावश्यक है। उबित मजदूरी दिलाने के लिये उन्होंने कल-कारखानों में काम करने वाले कामगारों की मजदूर यूनियने बनायी और श्रमिकों के न्यायोचित अधिकारों के लिये संघर्ष किया।

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उनकी इन गतिविधियों से गोरे शासकों के कान खड़े हो गये। उन्हीं दिनों जासूसों ने खबर दी कि श्री गिरि की आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों से गहरी दोस्ती है और 'अफ्रीका का आतंक' नामक पुस्तक भी इन्होंने ही लिखी थी। फिर क्या इनके खिलाफ फौजी वारंट जारी कर दिया गया।


श्री गिरि भी सतर्क रहते थे। अतः जैसे ही इन्हें मालूम हुआ कि इन पर वारंट जारी हो गया है, इन्होने आयरलैण्ड छोड़कर अमरीका जाने की कोशिशें की। परन्तु पासपोर्ट न बन पाने के कारेण वे आयरलैण्ड से न निकल सके। फिर भी सावधान हो गये। इन्होंने अपने आवास से हर वह कागज-पत्र हटा दिया, जिससे किसी को इनके संगी-साथियों का पता बल सकता था। कुछ दिनों बाद ही ब्रिटिश अधिकारियों ने इनके कमरे की तलाशी ली पर वहाँ कुछ होता तब तो मिलता अत्तः निराश होकर लौट गये। फिर भी इन पर छिपे तौर पर निगाह रखी जाने लगी क्योंकि गोरों को इन पर शक बना ही रहा कि ये कुछ-न-कुछ खुराफात कर रहे हैं। आखिर में श्री गिरि को आदेश दिया गया कि 'तुरन्त आयरलैण्ड छोड़ दो।'

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श्री गिरि भारत लौट आये। सरकार ने इन्हें किसी उच्ब पद पर नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा-ऊँचे वेतन का प्रलोभन दिया। परन्तु श्री गिरि ने इन सुख-सुविधाओं को ठुकरा कर केवल देश- सेवा करने का निर्णय लिया। इन्होंने प्रतिज्ञा कर ली कि भारत के स्वतंत्र होने तक सरकारी नौकरी नहीं करेंगे।पर जीविका कमाने के लिये कुछ-न-कुछ करना जरूरी था। अतः श्री गिरि ने वकालत शुरू कर दिया। पर थोड़े दिन बाद ही जब सन् १९४२ में गांधी जी ने 'असहयोग आन्दोलन' शुरू किया तब श्री गिरि भी उसमें शामिल हुए और गिरफ्तार होकर जेल चले गये। इन्हें अमरावती जेल में रखा गया।

जेल से छूटने पर श्री गिरि ने रेल-कर्मबारियों की यूनियन बनाने पर अधिक जोर दिया और 'बंगाल-नागपुर-मजदूर संघ' की स्थापना की। सन् १९२७ में रेल-मजदूरों की छटनी किये जाने पर श्री गिरि ने समझौते के प्रयास में असफल होने पर 'पूर्ण हड्ताल' का नारा दिया। गाड़ियों का चलना रुक गया और सरकार को झुकना पड़ा। निकाले गये कर्मचारी बिना शर्त वापस लिये गये। इस सफल हड़ताल के बाद श्री गिरि एक अखिल भारतीय मजदूर नेता के रूप में माने जाने लगे।


देश के स्वतंत्र होने पर श्री गिरि को भारतीय उच्चायुक्त बनाकर श्रीलंका भेजा गया। इसके बाद श्री गिरि सन् १९५७ में उत्तर प्रदेश और सन् १९६५ में मैसूर के राज्यपाल बनाये गये। श्री गिरि ने मद्रास-मंत्रिमंडल में दो बार मंत्रि-पद पर भी काम किया और आगे बल कर ये केन्द्रीय मंत्रि-मंडल में श्रम-मंत्री बने। परन्तु किसी बात पर मतभेद होने पर इन्होंने इस्तीफा दे दिया।इनकी त्याग-भावना और योग्यता से प्रभावित देशवासियों ने सन् १९६७ मे इन्हें भारत का उपराष्ट्रपति बना दिया। कुछ दिनो बाद ही तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसेन का स्वर्गवास होने पर राष्ट्रपति-पद खाली हो गया। उस समय तक की परम्परानुसार उपराष्ट्रपति ही राष्ट्रपति बनाया जाता था परन्तु गिरि की स्पष्टवादिता और निर्भयता से बिड़े कुछ लोगों ने उस बार किसी नये आदमी को राष्ट्रपति बनाने का निर्णय लिया। अतः श्री गिरि ने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने का निर्णय कर उपराष्ट्रपति पद से त्याग-पत्र दे दिया।


चुनाव में श्री वराहगिरि वेकटगिरि को सफलता मिली और ये विधिवत् देश के चौथे राष्ट्रपति बने। उस समय श्री गिरि ने कहा था कि "मेरा चुनाव जन-साधारण की विजय है। मैं सदैव जन- सेवक रहा हूँ और रहूँगा।" २४ अगस्त सन् १९७४ को कार्य- काल पूरा होने पर श्री गिरि राष्ट्रपति पद और दिल्ली छोड़ कर बंगलौर चले गये।पद से मुक्त होने के बाद श्री गिरि भारतीय समाज की उन्नति पर बिन्तन-मनन करते रहे। २४ जून १९८० को प्रातः ५.३० बजे गिरि जी ने सदा के लिये आँखे मूंद ली परन्तु उनके जीवन के स्मरणीय प्रसंग आज भी मार्ग-दर्शन करने के लिये सतत् जागरुक हैं।

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