परिसीमन पर दक्षिण के राज्यों की चिंता सही... क्षेत्रीयता की राजनीति को मिलेगा बढ़ावा

Delimitation Controversy: परिसीमन को लेकर उत्तर और दक्षिण भारत के बीच विवाद गहरा रहा है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया है। दक्षिण के राज्य 2050 तक परिसीमन रोकने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि सीटें बढ़ाने का आधार जनसंख्या नहीं होना चाहिए अन्यथा उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी कम हो जाएगी।

Mar 25, 2025 - 05:25
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परिसीमन पर दक्षिण के राज्यों की चिंता सही... क्षेत्रीयता की राजनीति को मिलेगा बढ़ावा
अनिल सिन्हा, नई दिल्ली: बहुत कम लोगों को अंदाजा है कि परिसीमन विवाद भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। ज्यादातर लोग इसे सिर्फ राजनीति से जोड़कर देख रहे हैं। उनका मानना है कि BJP उत्तर भारत में मजबूत है और इसलिए परिसीमन जल्दी पूरा करना चाहती है ताकि केंद्र पर अपनी पकड़ को और मजबूत कर सके। लोगों की दिलचस्पी इस बात में ज्यादा है कि दक्षिणी राज्यों, खासकर तमिलनाडु में राजनीतिक दलों को एक बड़ा मुद्दा मिल गया है, जो सीधे जनता की भावनाओं से जुड़ा है। इससे उत्तर बनाम दक्षिण की लगभग समाप्त हो चुकी राजनीति को फिर से हवा मिल सकती है।चुनावी मुद्दा: तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में परिसीमन को बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाने वाले हैं। पिछले हफ्ते चेन्नै में हुई जॉइंट एक्शन कमिटी की बैठक से यह भी साफ हो गया कि उन्हें काफी समर्थन मिल रहा है। इस बैठक में तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, कर्नाटक, ओडिशा और पंजाब के नेताओं ने हिस्सा लिया। ओडिशा और पंजाब जैसे दक्षिण के बाहर के राज्यों का इस मुद्दे पर साथ आना सकारात्मक है। वैसे भी I.N.D.I.A. के सभी घटक दलों ने इस मुहिम का समर्थन किया है। कांग्रेस का पूरा साथ मिल रहा है। इसे ऐसे भी देखा जा रहा कि चूंकि कांग्रेस दक्षिण में उत्तर की तुलना में मजबूत है, इसलिए इस मुद्दे से जुड़ी हुई है।दक्षिण की चिंता: यह मुद्दा धीरे-धीरे उत्तर बनाम दक्षिण का रूप ले रहा है। जॉइंट एक्शन कमिटी ने प्रस्ताव पारित किया कि परिसीमन पर लगी रोक को 25 साल और बढ़ाकर 2050 तक कर दिया जाए। बैठक में यह चिंता खुलकर सामने आई कि अगर जनसंख्या के आधार पर संसदीय सीटों का निर्धारण हुआ, तो दक्षिण भारत की सीटें उत्तर भारत की तुलना में काफी कम हो जाएंगी। इससे केंद्र स्तर पर फैसले लेने में दक्षिणी राज्यों की भूमिका कमजोर हो जाएगी।डर बेवजह नहीं: उत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों के बीच जनसंख्या का अंतर तेजी से बढ़ रहा है। 1976 में इंदिरा गांधी और 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों ने परिसीमन कराया था, लेकिन सीटों की संख्या नहीं बढ़ाई। इंदिरा गांधी ने 25 साल के लिए सीटें बढ़ाने पर रोक लगा दी थी। वाजपेयी सरकार ने भी इसे बरकरार रखा। 2026 में यह मियाद खत्म हो रही है।हिस्सा बढ़ाने की मांग: तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी पहले की नीति को बनाए रखने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि राज्यों के भीतर जनसंख्या के आधार पर परिसीमन हो सकता है, लेकिन लोकसभा सीटों की कुल संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं होनी चाहिए। वह यह भी चाहते हैं कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित सीटें बढ़ाई जाएं और महिलाओं को 33% आरक्षण दिया जाए। दक्षिण भारत में लोकसभा में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की मांग भी जोर पकड़ रही है। अभी 543 लोकसभा सीटों में से 130 सीटें यानी लगभग 24% दक्षिण के खाते में हैं। इसे 33% तक बढ़ाने की मांग है।भरोसे की कमी: केंद्र सरकार कह रही है कि दक्षिण की सीटें कम नहीं होंगी, लेकिन स्टालिन और केरल के सीएम पिनराई विजयन को इस पर भरोसा नहीं। उनका सवाल है कि सीटें बढ़ाने का आधार जनसंख्या होगी या मौजूदा सीटों का अनुपात? वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि परिसीमन सिर्फ जनसंख्या के आधार पर नहीं होता। लेकिन, यह साफ नहीं है कि अगर जनसंख्या आधार नहीं है, तो फिर फैसला किस तरह होगा।चिंता वाली चर्चा: इस मामले में सबसे बड़ी चिंता वह चर्चा है, जो साथ में चल पड़ी है। दक्षिणी राज्यों का कहना है कि उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण की राष्ट्रीय नीति का पालन किया, विकास के रास्ते पर चले और अपने लोगों का जीवन स्तर सुधारा। इसके बदले में सीटें कम करके उन्हें दंड दिया जा रहा है। विकास में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान बहुत पीछे छूट गए हैं। बिहार की तुलना तो सोमालिया से की जाने लगी है।नीतियों से मदद: दक्षिण के दावे में आंशिक सच्चाई है। सामाजिक सुधारों और प्रगतिशील राजनीति से उन्हें आर्थिक विकास में मदद मिली। लेकिन, औपनिवेशिक नीतियों, जैसे समुद्र तटीय इलाकों का विकास और बाद में केंद्रीय अनुदानों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सवाल उठता है कि औपनिवेशिक नीतियों को जारी रखने के कारण पीछे छूट गए लोगों को क्यों दंडित किया जाए? बड़ी आबादी के बावजूद संसद में उनकी आवाज क्यों दबाई जाए?सरकार की नाकामी: क्या यह विवाद क्षेत्रीयता की राजनीति के नए उभार का कारण बनेगा? अगर ऐसा हुआ तो दुर्भाग्यपूर्ण होगा। भाषा को लेकर हाल के विवाद से यही लगा कि देश का नेतृत्व दक्षिण के लोगों में भरोसा पैदा नहीं कर पा रहा है। क्या हम पीछे छूटे राज्यों की राजनीतिक शक्ति बचाने में सफल होंगे? संकट इतना बड़ा है कि परिसीमन कराने वाली एजेंसी के निष्पक्ष होने पर भी संदेह है।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,